गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

आरक्षण आखिर कब तक ??

भारतीय संसद के निर्माता आदरणीय भीमराम अम्बेडकर जी ने हिन्दू धर्म की अस्पृश्यता की नीति के कारण बहुत कुछ सहा था, उन्होंने आरक्षण नीति की परिकल्पना की और लागू किया जिसका मूल उद्देश्य अछूत समझी जानेवाली अनुसूचित जाति और आदिम अधिवासी, वनवासी अर्थात् अनुसूचित जनजाति के लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ तथा रियायत देकर सामान्य लोगों के बराबर लाना था। लेकिन इस नीति का मूल उद्देश्य भटक गया है।
इस सम्बन्ध में कुछ ज्वलन्त प्रश्न हैं?
अ.जा./अ.ज.जा. के कुछ व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं, कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं, फिर भी वे और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं, ऐसे सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित है? कब तक चलेगा ऐसा?
जाति प्रथा केवल हिन्दू धर्म में ही हैं। फिर भी कुछ हिन्दू जो मुश्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं, अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। उन्हें रोकने के लिए क्या कानूनी कार्यवाही हो रही है?
भारत के आदिम अधिवासी अर्थात् अ.ज.जा. वे ही हैं जो सैंकड़ों हजारों वर्षों से इस भूमि की सन्तान हैं? इतिहास बताता है कि मुगल और अंग्रेज यहाँ लुटेरों व शोषकों व आक्रामकों के रूप में आए। अतः जो अ.ज.जा. के लोग मुश्लिम या ईसाई धर्म परिवर्तन कर चुके हैं, उनके लिए कोई भी आरक्षण व्यवस्था नहीं लागू होनी चाहिए।
कुछ लोग अ.जा./अ.ज.जा. भी हैं, मुश्लिम या ईसाई या अन्य धर्मावलम्बी भी, एक ओर आरक्षण सुविधाओँ का लाभ ले रहे हैं, दूसरी ओर अल्पसंख्यकों के लिए सुविधाओं का भी। क्या यह कानूनी और नैतिकता के अनुरूप है?
जैसे शिक्षा के लिए दाखिले, नौकरी के लिए चयन में रियायत दी जाती है, वैसे ही खेलकूद के क्षेत्र में आरक्षण नीति लागू होनी चाहिए क्या ???? अ.जा./अ.ज.जा. के धावक के लिए सिर्फ 80 मीटर की रेंज होनी चाहिए, जबकि सामान्य वर्ग के धावक के लिए 100 मीटर हो। क्रिकेट में सामान्य बल्लेबाज के लिए जहाँ 4 रन बनें, वहीं अ.जा./अ.ज.जा. के खिलाड़ी के लिए 6 रन माना जाए???? गेंदबाज जहाँ सामान्य बल्लेबाज के लिए 100 यूनिट की गति से गेंद फेंके, वहीं अ.जा./अ.ज.जा. के बल्लेबाज के लिए उसे 80 यूनिट की गति से गेंद फेंकनी होगी ????
यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि भारत के राजनेता मंत्रियों का ईलाज सिर्फ अ.जा./अ.ज.जा. के डॉक्टर ही करें ? मंत्रियों/राजनेताओं के लिए विशेष रूप से चलाए जानेवाले चार्टर्ड हवाई जहाज को केवल अ.जा./अ.ज.जा. के पायलट ही चलाएँ?
आरक्षण नीति का वास्तविक प्रयोजन सामान्य वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए ही है, क्योंकि उन्हें तगड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है तो वे सच्चे सोने जैसे हीरो एवं हीरोईन बनेंगे न! जबकि अ.जा./अ.ज.जा. के लोग सुविधाभोगी होकर ज्यादा कमजोर, आलसी, तथा अप्रतियोगी होंगे और हजारों शताब्दियों तक पिछड़े बने रहेंगे। आरक्षण के सहारे सामान्य के बराबर आने तक सही रीति उत्थान हो पाएगा उनका ? शायद सवर्णों ने ही अपने पापमोचन हेतु शनि-राहु-केतु हेतु दान-देने स्वरूप आरक्षण नीति लागू की है, जिससे उनके पाप व कुदशाओं को अपने सिर भोग वे अनन्त काल तक पिछड़े बने रहें? – अज्ञात
यदि उन्हें सामान्य वर्ग के बराबर आना है तो “एकलव्य” जैसे कठिन स्वाध्यायी और परिश्रमी बनना चाहिए, न कि सुविधाभोगी।
कुछ अ.जा./अ.ज.जा. के महान लोग ऐसे भी हैं, जो अपने नाम के आगे सरनेम ही नहीं लगाते और न ही किसी आरक्षण सुविधा का लाभ उठाते हैं। सामान्य वर्ग के समान ही रहकर अत्यन्त प्रतिभाशाली बने हैं। सचमुच वे पूज्य हैं। रामायण में जैसे भगवान राम ने केवट और शबरी को महत्त्व दिया था, वैसे ही वे हमारे भी सम्मान से पात्र हैं।
संविधान में आरक्षण-व्यवस्था बहुत सोच-समझ कर की गई थी। सदियों की जड़ जाति-व्यवस्था के अन्यायों को दूर करना और घोर विषम समाज को समतामूलक समाज में बदलना इसका लक्ष्य था। भारतीय नवजागरण के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फुले, महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, जानकीनाथ घोषाल आदि से लेकर महात्मा गांधी, डा. भीमराव अंबेडकर और डा. राममनोहर लोहिया तक के नेताओं के विचारों तथा संघर्ष ने इसका स्वरूप निश्चित किया था। लेकिन नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक किसी ने भी इसे समझने और ठीक प्रकार से लागू कने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत इसमें एक के बाद एक गांठे डालकर इसे उलझाया जाता रहा।
आरक्षण संबंधी समस्याएं इसलिए अब तक बनी हुई हैं क्योंकि हमने संविधान की आरक्षण व्यवस्था को लागू करने के लिए शुरू से ही वैज्ञानिक प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया। इस व्यवस्था को सही ढंग से लागू करने के लिए जरूरी था कि जातियों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति के आंकड़ें जमा किए जाएं और उनके आधार पर जातियों का अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदि श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाए। प्रत्येक जनगणना के साथ ये आंकड़ें जमा किए जाएं और हर दस साल बाद आंकड़ों के विश्लेषण से पता लगाया जाए कि किन जातियों को संविधान के अनुच्छेत 16(4) के अनुसार नौकरियों आदि में ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल गया है और जिन्हें मिल गया हो उन्हें आरक्षण की परिधि से बाहर किया जाए। इस प्रकार उत्तरोत्तर निचली जातियों को आरक्षण की सुविधा मिलती जाती। कालांतर में सभी जातियों को ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल जाता तथा आरक्षण व्यवस्था स्वत: समाप्त हो जाती।
लेकिन हमारी सरकारें नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक जातियों के वैज्ञानिक आंकड़े जमा करने से घबराती रहीं, इसलिए कि ये आंकड़े सामने आए तो जातिगत शोषण की नंगी तस्वीर सामने आ जाएगी। इससे पता चलेगा कि जिन जातियों का कुल जनसंख्या में अनुपात 15-16 प्रतिशत हैं, वे 90-95 प्रतिशत पदों पर कब्जा जमाए बैठी हैं। अंतिम बार जातियों के आंकड़े 1931 की जनगणना में इकट्ठे किए गए थे। उसके बाद ये आंकड़े जान-बूझ कर जमा नहीं किए गए और बिना वैज्ञानिक आंकड़ों के जातियों की शिनाख्त करने, उनका श्रेणीकरण करने तथा आरक्षण कोटा निर्धारित करने के सारे काम अनाप-शनाप ढंग से हुए।
हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि भारतीय समाज का गठन वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत हुआ है और इस तथ्य को हम नजरों से आ॓झल नहीं कर सकते कि जो जातियां द्विज वर्णों में यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में नहीं आतीं वे या तो पिछड़े वर्गों में आती हैं या फिर अनुसूचित जातियों और जनजातियों में। जनगणना में इस आधार पर वर्गीकरण हो जाने के बाद ही ‘क्रीमी लेयर’ की कसौटी (संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ की कसौटी) लागू हो तथा आरक्षण की परिधि से निकाले गए नागरिक वर्गों को अगड़ों में शामिल माना जाए। जनगणना के आंकड़ों से पहले क्रीमी लेयर लागू करना अवैज्ञानिक होगा और इसके लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण या किसी और प्रकार के सर्वेक्षण के आंकड़े भी अधूरे ही होंगे। जनगणना कार्यालय के अभिलेखों को छोड़ कर शेष सभी सरकारी और गैर सरकारी दस्तावेजों में जातिबोधक नामों का उल्लेख प्रतिबंधित कर दिया जाए तथा प्रमाणपत्रों आदि में चार या पांच श्रेणियों या उनकी क्रम संख्या का ही उल्लेख किया जाए।
चूंकि जाति सभी राजनीतिक पार्टियों का निहित स्वार्थ बन गई हैं, कोई भी सरकार यह काम करने को तैयार नहीं होगी। अत: उच्चतम न्यायालय को ही इसका स्पष्ट निर्देश देना पड़ेगा। जैसे अमेरिका में रंग-भेद को समाप्त करने का काम वहां के उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश अर्ल वारेन के प्रसिद्ध निर्णय के द्वारा करना पड़ा। वैसे ही हमारे उच्चतम न्यायालय को करना पड़ेगा।

आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है तो उसे फिर से पीछे धकेलने की साजिश है ये।समाज को दो हिस्सों मे बाँटने की साजिश है।मै तो आरक्षण के औचित्य पर ही सवाल उठाता हूँ।आजादी के पचास साल बाद भी यदि हम आरक्षण की राजनीति करते रहे तो लानत है हम पर। मेरे कुछ सवाल है, शायद कोई आरक्षण समर्थक जवाब देना चाहे:----------
  • क्या दलित आज भी पिछड़े हुए है? यदि पिछड़े हुए है तो आजतक के आरक्षण का किया धरा सब पानी मे गया। है ना? और यदि नही पिछड़े है तो काहे का आरक्षण?
  • देश मे एक व्यक्ति एक संविधान क्यों नही लागू होता?
  • आरक्षण से दलित वर्ग को आज तक कितना लाभ हुआ?
  • हम हर जगह खुली प्रतियोगिता की बात करते है, तो फिर सभी नागरिको समान प्रतियोगिता का अवसर क्यों नही देते?
  • कब तक हम वर्ग विशेष को आरक्षण प्लेट मे रखकर देते रहेंगे?
  • सामजिक न्याय के नाम पर हम कब तक योग्य प्रतिभा का गला घोंटते रहेंगे?
  • कब तक ये वोट की गन्दी राजनीति चलती रहेगी?

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