साम्प्रदायिक
हिंसा बिल पर नरेन्द्र मोदी जी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी ।क्यों की
इस शीत कालीन सत्रं में कोंग्रेस इसे संसद में पास करना चाहती हे । क्या हे
ये विधेयक आप भी जानिए ।
[1] यह विधेयक साम्प्रदायिक हिंसा के
अपराधियों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर बांटने का अपराध करता है।
किसी भी सभ्य समाज या सभी राष्ट्र में यह वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं होता।
अभी तक यही लोग कहते थे कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। अब इस विधेयक
में क्यों साम्प्रदायिक हिंसा के अल्पसंख्यक अपराधियों को दंड से मुक्त रखा
गया है?
प्रस्तावित विधेयक का अनुच्छेद 8 अल्प्संख्यकों के
विरुद्ध घृणा का प्रचार अपराध मानता है। परन्तु हिन्दुओं के विरुद्ध इनके
नेता और संगठन खुले आम दुष्प्रचार करते हैं।
इस विधेयक में उनको
अपराधी नहीं माना गया है। इनका मानना है कि अल्पसंख्यक समाज का कोई भी
व्यक्ति साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा के लिये दोषी नहीं है।
वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में इनके
धार्मिक नेताओं के भाषण व लेखन अन्य धर्मावलम्बियों के विरुद्ध विषवमन करते
हैं।
भारत में भी कई न्यायिक निर्णयों और आयोगों की रिपोर्टों में
इनके भाषणों और कृत्यों को ही साम्प्रदायिक तनाव के मूल में बताया गया है।
ओडीसा और गुजरात की जिन घटनाओं का ये बार-बार प्रलाप करते हैं, उनके मूल
में भी आयोगों और न्यायालयों नें अल्पसंख्यकों की हिंसा को पाया है।
मूल अपराध को छोडकर प्रतिक्रिया वाले को ही दंडित करना न केवल देश के कानून
के विपरीत है अपितु किसी भी सभ्य समाज की मान्यताओं के खिलाफ है।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में कथित अल्पसंख्यक समाज द्वारा हिंदू समाज पर
1,50,000 से अधिक हमले हुए हैं तथा हिन्दुओं के मंदिरों पर लगभग 500 बार
हमले हुए हैं।
2010 में बंगाल के देगंगा में हिंदुओं पर किये गये
अत्याचारों को देखकर यह नहीं लगता कि यह भारत का कोई भाग है। बरेली और
अलीगढ में हिन्दू समाज पर हुए हमले ज्यादा पुराने नहीं हुए हैं।
एक
विदेशी पत्रकार द्वारा विदेश में ही पैगम्बर साहब के कार्टून बनाने पर
भारत में कई स्थानों पर हिन्दुओं पर हमले किसी से छिपे नहीं हैं।
अपराधी को छोडना और पीडित को ही जिम्मेदार मानना क्या किसी भी प्रकार से
उचित माना जा सकता है? एक अन्य सैक्युलर नेता,सैम राजप्पा ने लिखा है,” आज
जबकि देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति चाहता है,
यह अधिनियम मानकर
चलता है कि साम्प्रदायिक दंगे बहुसंख्यक के द्वारा होते हैं और उनको ही
सजा मिलनी चाहिये। यह बहुत भेदभावपूर्ण है।”(दी स्टेट्समैन, 6 जून, 2011)
[2] अनुच्छेद 7 के अनुसार यदि एक मुस्लिम महिला के साथ दुर्व्यवहार होता
है तो वह अपराध है, परन्तु हिन्दू महिला के साथ किया गया बलात्कार अपराध
नहीं है जबकि अधिकांश दंगों में हिन्दू महिला की इज्जत ही निशाने पर रहती
है।
[3] जिस समुदाय की रक्षा के बहाने से इस शैतानी विधेयक को लाया गया है, उसको इस विधेयक में” समूह” का नाम दिया है।
इस समूह में कथित अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त अनुसूचित जातियों और जनजातियों
को भी शामिल किया गया है। क्या इन वर्गों में परस्पर संघर्ष नहीं होता?
शिया-सुन्नी के परस्पर खूनी संघर्ष जगजाहिर हैं।
इसमें किसकी
जिम्मेदारी तय करेंगे? अनुसूचित जातियों के कई उपवर्गों में कई बार संघर्ष
होते हैं,हालांकि इन संघर्षों के लिये अधिकांशतः ये सैक्युलर बिरादरी के
लोग ही जिम्मेदार होते हैं।
इन सबका यह मानना है कि उनकी समस्याओं
का समाधान हिंदू समाज का अविभाज्य अंग बने रहने में ही हो सकता है। यह देश
की अखण्डता औरहिन्दू समाज को भी विभक्त करने का षडयंत्र है।
इन
दंगों की रोकथाम क्या इस अधिनियम से हो पायेगी? इन संघर्षों को रोकने के
लिये जिस सदभाव की आवश्यकता होती है, इस कानून के बाद तो उसकी धज्जियां ही
उधडने वाली हैं।
[4] इस विधेयक में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को
कट्घरे में खडा किया गया है। सोनिया को ध्यान रखना चाहिये कि हिन्दू समाज
की सहिष्णुता की इन्होनें कई बार तारीफ की है।
कांग्रेस के एक
अधिवेशन में इन्होनें कहा था कि भारत में हिन्दू समाज के कारण ही
सैक्युलरिज्म जिंदा है और जब तक हिन्दू रहेगा भारत सैक्युलर रहेगा।
विश्व में जिसको भी प्रताडित किया गया, उसको हिंदू नें शरण दी है। जब
यहूदियों, पारसियों और सीरियन ईसाइयों को अपनी ही जन्मभूमि में प्रताडित
किया गया था तब हिन्दू ने ही इनको शरण दी थी। अब उसी हिन्दू को निशाना
बनाने की जगह साम्प्रदायिक तनावों के मूल को समझना चाहिये।
सोनिया
को वोट बैंक की चिंता छोडकर देशहित का विचार करना चाहिये। यदि ये सहिष्णु
हिन्दू समाज को एक नरभक्षी दानव के रूप में दिखायेंगे तो साम्प्रदायिक
वैमनस्य की खाई और चैडी हो जायेगी जिसे कोई नहीं पाट सकेगा। सलाहकार परिषद
के ही एक सदस्य, एन.सी. सक्सेना ने कहा था ,
” यदि अल्पसंख्यक
समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति पर अत्याचार
होता है तो यह विषय भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आयेगा, प्रस्तावित
अधिनियम में नहीं।”
(दी पायनीयर, 23 जून, 2011) इस कानून का
संरक्षण केवल बहुसंख्यक समाज के लिये नहीं , अल्पसंख्यक समाज के लिये भी
है। फिर इस अधिनियम की आवश्यक्ता ही क्या है? क्या इससे उनके इरादों का
पर्दाफाश नहीं हो जाता ?
[5] इस विधेयक में साम्प्रदायिक हिंसा की
परिभाषा दी है,” वह कृत्य जो भारत के सैक्युलर ताने बाने को तोडेगा।” भारत
में सैक्युलरिज्म की परिभाषा अलग-अलग है।
भारतीय संविधान में या इस
विधेयक में कहीं भी इसे परिभाषित नहीं किया गया। क्या अफजल गुरू को फांसी
की सजा से बचाना,आजमगढ जाकर आतंकियों के हौंसले बढाना, बटला हाउस में पुलिस
वालों के बलिदान को अपमानित कर आतंकियों की हिम्मत बढाना,मुम्बई हमले में
बलिदान हुए लोगों के बलिदान पर प्रश्नचिंह लगाना,
मदरसों में
आतंकवादके प्रशिक्षण को बढावा देना, बंग्लादेशी घुसपैठियों को बढावा देना
सोनिया की निगाहों में सैक्युलरिज्म है और इनके विरुद्ध आवाज उठाना
सैक्युलर ताने-बाने को तोडना ? ये लोग सैक्युलरिज्म की मनमानी परिभाषा देकर
क्या देशभक्तों को प्रताडित करना चाहते हैं ?
[6] विधेयक के उपबंध
74 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा सम्बन्धी प्रचार या
साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप है तो उसे तब तक दोषी माना जायेगा जब तक कि वह
निर्दोष सिद्ध न हो जाये। यह उपबंध संविधान की मूल भावना के विपरीत है।
भारत का संविधान कहता है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी निर्दोष माना जाये।
यदि यह विधेयक पास हो जाता है तो किसी को भी जेल में भेजने के लिये उस पर
केवल आरोप लगाना पर्याप्त रहेगा। उसके लिये अपने आप को निर्दोष सिद्ध करना
कठिन ही नहीं असम्भव हो जायेगा।
इस विधेयक में यह भी प्रावधान है
कि अगर किसी हिन्दू के किसी व्यवहार से उसे मानसिक कष्ट हुआ है तो वह भी
प्रताडना की श्रेणी में आयेगा। इसका अर्थ है कि अब किसी अल्पसंख्यक नेता के
कुकृत्य या देश विरोधी काम के बारे में नहीं कहा जा सकता।
[7] यदि
किसी राज्य के कर्मचारी के विरुद्ध इस प्रकार का आरोप है तो उसके लिये उस
राज्य का मुख्यमंत्री भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि वह उसे नहीं
रोक सका है।
इसका अर्थ है कि अब झूठी गवाही के आधार पर किसी भी
विरोधी पक्ष के मुख्यमंत्री को फंसाना अब ज्यादा आसान हो जायेगा। जो
मुख्यमंत्री अब तक इनके जाल में नहीं फंस पा रहे थे, अब उनके लिये जाल
बिछाना ज्यादा आसान हो जायेगा।
[8] यदि किसी संगठन का कोई
कार्यकर्ता आरोपित है तो उस संगठन का मुखिया भी जिम्मेदार होगा क्योंकि वह
भी इस अपराध में शामिल माना जायेगा। अब ये लोग किसी भी हिंदू संगठन व उनके
नेताओं को आसानी से जकड सकेंगे।
कसर अब भी नहीं छोड रहे परन्तु अब वे अधिक मजबूती से इन पर रोक लगा कर मनमानी कर सकेंगे।
[9] यदि दुर्भाग्य से यह विधेयक पास हो जाता है तो राज्य सरकार के अधिकारों को केन्द्र सरकार आसानी के साथ हडप सकती है।
कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय होती है। केन्द्र सरकार ऐसे विषयों पर
सलाह दे सकती है या “एड्वाइजरी” जारी कर सकती है। इससे भारत का संघीय
ढांचा सुरक्षित रहता है।
परन्तु अब संगठित साम्प्रदायिक और किसी
सम्प्रदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव
के रूप में देखी जायेगी। पहले केन्द्र सरकार की मंशा अनुच्छेद 355 का
उपयोग कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की थी।
परन्तु अब इस कदम
को वापस लेकर वे राजनीतिक दलों के विरोध की धार को कुंद करना चाहते हैं।
परन्तु इनके राज्य सरकारों को कुचलने के इरादों में कोई कमी नहीं आयी है।
[10] प्रस्तावित अधिनियम में निगरानी व निर्णय लेने के लिये जिस प्राधिकरण
का प्रावधान है उसमें 7 सदस्य होंगे। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत इन 7 में से
4 सदस्य अल्पसंख्यक वर्ग के होंगे।
क्या इससे परस्पर अविश्वास
नहीं बढेगा? इसका मतलब यह स्पष्ट है कि हर व्यक्ति ,चाहे किसी भी पद पर हो,
केवल अपने समुदाय की चिंता करता है।
इस चिंतन का परिणाम क्या होगा
इस पर देश को अवश्य विचार करना होगा। किसी न्यायिक प्राधिकरण का
साम्प्तदायिक आधार पर विभाजन देश को किस ओर ले जायेगा ?
[11] इस
प्राधिकरण को असीमित अधिकार दिये गये हैं। ये न केवल पुलिस व सशस्त्र बलों
को सीधे निर्देश दे सकते हैं अपितु इनके सामने दी गई गवाही न्यायालय के
सामने दी गई गवाही मानी जायेगी।
इसका अर्थ है कि तीस्ता जैसी झूठे गवाह तैय्यार करने वाली अब अधिक खुल कर अपने षडयंत्रों को अन्जाम दे सकेंगी।
[12] अनुच्छेद 13 सरकारी कर्मचारियों पर इस प्रकार शिकन्जा कसता है कि वे
मजबूरन अल्पसंख्यकों का साथ देने के लिये मजबूर होंगे चाहे वे ही अपराधी
क्यों न हों।
[13] यदि यह विधेयक लागू हो जाता है तो किसी भी अल्पसंख्यक व्यक्ति के लिये किसी भी बहुसंख्यक को फंसाना बहुत आसान हो जायेगा।
वह केवल पुलिस में शिकायत दर्ज करायेगा और पुलिस अधिकारी को उस हिन्दु को बिना किसी आधार के भी गिरफ्तार करना पडेगा।
वह हिन्दू किसी सबूत की मांग नहीं कर सकता क्योंकि अब उसे ही अपने को
निरपराध सिद्ध करना है। वह शिकायतकर्ता का नाम भी नहीं पूछ सकता।
अब पुलिस अधिकारी को ही इस मामले की प्रगति की जानकारी शिकायतकर्ता को देनी है जैसे कि वह उसका अधिकारी हो।
शिकायतकर्ता अगर यह कहता है कि आरोपी के किसी व्यवहार, कार्य या इशारे से
वह मानसिक रूप से पीडित हुआ है तो भी आरोपी दोषी माना जायेगा।
इसका
अर्थ है कि अब कोई भी किसी मौलवी या किसी पादरी के द्वारा किये गये किसी
दुष्प्रचार की शिकायत भी नहिं कर सकेगा न ही वह उनके किसी घृणास्पद साहित्य
का विरोध कर सकेगा।
[14] इस विधेयक के अनुसार अब पुलिस अधिकारी के
पास असीमित अधिकार होंगे। वह जब चाहे आरोपी हिन्दू के घर की तलाशी ले सकता
है। यह अंग्रेजों के द्वारा लाये गये कुख्यात रोलेट एक्ट से भी खतरनाक
सिद्ध हो सकता है।
[15] इस विधेयक की धारा 81 में कहा गया है कि
ऐसे मामलों नियुक्त विशेष न्यायाधीश किसी अभियुक्त के ट्रायल के लिये उसके
समक्ष प्रस्तुत किये बिना भी उसका संज्ञान ले सकेगा और उसकी संपत्ति को भी
जब्त कर सकेगा।
[16] किसी अल्पसंख्यक के व्यापार में बाधा डालना भी इसमें अपराध है।
यदि कोई मुसलमान किसी हिंदू की सम्पत्ति को खरीदना चाहता है और वह हिंदू मना करता है तो इसमें वह अपराध बन जायेगा।
[17] अब हिन्दू को इस अधिनियम में इस कदर कस दिया जायेगा कि उसको अपने
बचाव का एक ही रास्ता दिखाई देगा कि वह धर्मांतरण को मजबूर हो जायेगा।
इसके कारण धर्मांतरण की गतिविधियों में जबर्दस्त तेजी आयेगी। इस विधेयक के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ही विश्लेषण किया जा सका है।
जैसा चित्र अभी तक सामने आया है यदि यह पास हो जाता है तो परिस्थिती और भी
भयावह होगी। आपात काल में किये गये मनमानीपूर्ण निर्णय भी फीके पड
जायेंगे।
हिन्दू का हिन्दू के रूप में रहना और भी मुश्किल हो
जायेगा। मनमोहन सिंह ने पहले ही कहा था कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का
पहला अधिकार है। यह विधेयक इस कथन का नया संस्करण है।
इस विधेयक के विरोध में एक सशक्त आंदोलन खडा करना पडेगा तभी इस तानाशाहीपूर्ण कदम पर रोक लगाई जा सकती है।