गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

!! फतवा सब के लिए नहीं होता : इस्लामी विद्वान !!

 बांह पर टैटू है तो नमाज जायज नहीं, मुस्लिम महिला रिसेप्शनिस्ट नहीं हो सकती अथवा मोबाइल फोन में पवित्र कुरान की आयतें अपलोड नहीं की जा सकतीं ये कुछ ऐसे फतवे हैं जिनको लेकर हाल के दिनों में कई सवाल खडे हुए हैं. ! इनमें सबसे बडा सवाल यह कि किसी संस्था या मुफ्ती की ओर से जारी किया गया फतवा क्या सभी मुसलमानों पर लागू होगा ? प्रमुख मुस्लिम विद्वानों की माने तो हर फतवा सभी पर लागू नहीं हो सकता क्योंकि यह संदर्भ और परिस्थिति विशेष पर निर्भर करता है, हालांकि मूल आस्था से जुडे फतवों पर किसी मुसलमान के लिए अमल करना अनिवार्य है.!
      जामिया मिलिया इस्लामिया के इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रमुख   प्रोफेसर अख्तरुल वासे का कहना है कि ज्यादातर फतवों के साथ परिस्थिति और संदर्भ जुडा होता है और ऐसे में वह सब पर लागू नहीं हो सकते. वासे ने कहा, ‘‘सभी फतवे सब पर लागू नहीं हो सकते. फतवा किसी सवाल का जवाब होता है. ऐसे में महत्वपूर्ण बात यह है कि सवाल किस परिस्थिति और संदर्भ में पूछा गया है. उदाहरण के तौर पर मुस्लिम महिला के रिसेप्शनिस्ट होने से जुडा फतवा सब पर लागू नहीं हो सकता.’’ देश की प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्था ‘दारुल उलूम देवबंद’ के फतवा विभाग ‘दारुल इफ्ता’ की ओर से हाल ही में दिये गये कई फतवों की खासी चर्चा रही. मसलन, उसने कहा कि बांह पर टैटू होने और अल्कोहल युक्त परफ्यूम का इस्तेमाल करके नमाज अदा नहीं की जा सकती. इसके साथ ही उसने महिलाओं के रिसेप्शनिस्ट होने अथवा मोबाइल फोन में कुरान की आयतें डाउनलोड करने के खिलाफ भी फतवा दिया. दारुल उलूम की तरह सुन्नी मुसलमानों की एक अन्य संस्था बरेली मरकज भी कई बार ऐसे फतवे देता रहा है. कुछ महीने पहले उसने फतवा दिया था कि इस्लाम में कृत्रिम गर्भाधान (आर्टिफीशियल इंसेमीनिशन) नाजायज है.
इस्लामी मसलों पर कई अंतरराष्ट्रीय शोधों से जुडे रहे प्रोफेसर जुनैद हारिस का कहना है, ‘‘यह स्पष्ट रुप से जान लेने की जरुरत है कि फतवा खुदा का हुक्म नहीं है. यह कुरान और हदीस नहीं है जो पूरी तरह सही हो. अगर कोई फतवा अटपटा लगता है तो उसके के बारे में किसी और विद्वान से पता किया जा सकता है. एक फतवा सभी पर लागू नहीं हो सकता.’’
उन्होंने कहा, ‘‘वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदली हैं. जरुरी नहीं है कि आज के दौर की हर चीज के बारे में कुरान या हदीस में जिक्र किया गया हो. ऐसे में कोई भी विद्वान कुरान और हदीस की रोशनी में किसी मामले पर अपनी राय देता है तो यह जरुरी नहीं है कि उसकी राय हमेशा सही हो.’’
दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद का कहना है, ‘‘फतवे को कोई आदेश या फरमान नहीं मानिए. यह इस्लामी नजरिए की बात है जिस पर लोग अमल करते हैं. वैसे हर मुसलमान का फर्ज है कि वह शरिया के मुताबिक कही गई बातों पर अमल करे.’’ मुस्लिम महिलाओं के रिसेप्शनिस्ट नहीं होने से जुडे फतवे के बारे में प्रोफेसर वासे कहते हैं, ‘‘इस्लाम सभी पुरुषों और महिलाओं को मान-मर्यादा में रहकर कोई काम करने की इजाजत देता है. ऐसे में इस तरह के फतवे का कोई मतलब नहीं है.’’
        फतवे के संदर्भ में शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद का कहना है, ‘‘अगर किसी इंसान को किसी मामले पर धार्मिक सलाह लेनी होती है तो वह मुफ्ती के पास जाता है. मुफ्ती उसे जो सलाह देता है, वही फतवा है. ज्यादातर लोग फतवों पर पूरी तरह अमल करते हैं.’’एक सवाल यह भी कि क्या किसी फतवे को अमल करना धार्मिक रुप से अनिवार्य है तो वासे ने कहा, ‘‘जब फतवा मूल आस्था से जुडा हो तो उसे मानना अनिवार्य है, लेकिन अगर फतवा कोई जानकारी विशेष हासिल करने के लिए मांगा गया है तो इसमें अनिवार्यता का महत्व नहीं रह जाता है.’’
अगर कोई मूल आस्था से जुडे फतवों पर अमल नहीं करता है तो जानकारों का कहना है कि इस्लाम के अनुसार वह गुनाह करता है.
दारुल उलूम की ओर से रोजाना 30-40 फतवे दिए जाते हैं. ये फतवे ऑनलाइन भी दिए जाते हैं. इसी तरह बरेली मरकज भी ऑनलाइन फतवा देता है. अन्य स्थानों पर मुफ्ती अपने स्तर से लोगों को फतवा देते हैं.

इन इस्लामी संस्थानों का कहना है कि फतवों को गलत संदर्भ में पेश किया जाता है. बरेली मरकज के मुख्य मुफ्ती कफील अहमद ने कहा, ‘‘हम लोग फतवा इस्लाम और हदीस की रोशनी में देते हैं. हमें कोई फर्क नहीं पडता कि मीडिया क्या कह रहा है. चटपटी खबरों के तौर पर इसे पेश किया जाता है. लोगों को सही रास्ता बताना हमारी जिम्मेदारी है और हम वही कर रहे हैं.’’