गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

मूर्ति पूजा क्यों की जाती है ??

मूर्ति पूजा मन की एकाग्रता के लिए की जाती है . एकाग्रता ध्यान या योग से होती है .ध्यान में दो प्रकार की बातें आती हैं . १. परमात्मा में मन को लगाना .२.शरीर की प्रक्रिया को नियोजित करना .परमात्मा में ध्यान लगाने की स्थिति समाधि कहलाती है और ऐसे में मनुष्य निद्रा में चला जाता है . शरीर की प्रक्रिया को नियोजित करना दो प्रकार से होता है .१. ज्ञान २. विज्ञान .विज्ञान जड़ या प्राकृतिक पदार्थों का विषय है जिसमे भूमि जल अग्नि व्योम एवं वायु का पारस्परिक सहयोग है इसकी मात्रा नियत है इसलिए इसका ह्रास नहीं होता .नदीनाम समुद्रम एव अभिमुखान्ति [ गीता ], समुद्र की ओर नदियाँ जाकर फिर वर्षा द्वारा अपना स्वरुप लेती हैं . ज्ञान के अंतर्गत आत्मा का विषय आता है जिसके लिए ऋषियों ने ग्रंथों में उल्लेख किया है .ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय [ गीता ], इसमें पतंगों के जलने के बाद जड़ पंचतत्व नष्ट नहीं होता किन्तु आत्मा अलग हो जाती है , यह आत्मा परमात्मा का वह अभिन्न अंग है जिसके लिए लिखा है परबस जीव स्वबस भगवंता [ रामचरितमानस ] . यहाँ यह समझने के लिए आप अपना उदाहरण लीजिये . अपने हाथ की पांचो उँगलियों को क्रमशः बर्फ, कम जमी बर्फ, ठंडा पानी ,सादा पानी एवं उबलते हुए पानी में डालिए . आपको अलग अलग महसूस हो रहा है किन्तु ऊँगली को कुछ नहीं . इसलिए आप चोटिल ऊँगली को ठन्डे से गर्म एवं गर्म से ठन्डे पानी में डालेंगे , तानहं क्षिपामि आसुरिशु योनिषु [ गीता ]. अब इस बात को कैसे समझा जाय की परमात्मा ही कर्ता एवं भोक्ता है . शुभ संकेत अगर आपको हो रहे हैं तो आपको प्रशन्नता दायक कोई कार्य होगा इसका मतलब एक ही शक्ति आपको प्रशन्नता दिलाने के लिए प्रयास कर रही है एवं सूचित भी कर रही है .ठीक यही स्थिति अपशकुन होने पर उल्टा होगा और आप उसको रोक नहीं सकते .द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं [ ऋग्वेद ]यहाँ पर हर शब्द एक वचन का बोध कराता है यानि एक शरीर में दो प्रकार के गुण वाला परमात्मा रहता है जो एक ही है भिन्न भिन्न यानि दो नहीं अथवा यही आत्मा भी है .इससे स्पष्ट हो गया कि हर स्थिति में परमात्मा रूप आत्मा को एकाग्रता के लिए मूर्ति पूजा में लगायें तथा अपना शाश्त्र सम्मत नियत कर्म ही करें

बौध धर्म की बुनियादी बाते



बौध लोगो को देखता हु की दिन बहर फालतू की बकवास करते है पर उन्हें स्वयं ही पता नहीं है की बौध धर्र्म की बुनियादी तत्व क्या है ?
किसी भी धर्म की कुल जनसँख्या का अमूमन 10% बुद्धिजीवी वर्ग धर्म का अध्यन करता है और समझता है पर 90% आम आदमी रोज़ी रोटी कमाने और अपने धर्म के गिने चुने सवालों के जानने और मानने तक ही सीमित रहता है|जैसे- हमारा पूजनीय इश्वर कोन है,हमरी धार्मिक किताब,चिन्ह,पूजास्थल क्या है,हमारे त्यौहार कौन से है और उनको कैसे मानते हैं | आजकल भारत देश के मूलनिवासयों का रुझान बौध धर्म की तरफ बहुत बढ़ रहा है क्योंकि केवल यहीं धर्म से जुडी सभी जरूरतों की पूर्ण संतुस्टी मिल पाती है| कई जगह ऐसी पारिस्थि देखी गई है की जो लोग खुद को बौध कहते हैं उन्हें भी इन गिनेचुने आम सवालों का जवाब भी नहीं मालूम होता | बौध साहित्य बहुत व्यापक है जिसे हर व्यक्ति नहीं पढ़ पता और इस देश के सत्ताधारी लोग सच में बौध धर्म को उभारना नहीं चाहते | जबकि वे लोग ये बात अच्छी तरह जानते हैं की केवल यही विशुद्ध भारतीये धर्म भविष्य में देश को अखंड और उन्नत कर सकता है| ये कितने दुःख की बात है की इन लोगों ने देश की धार्मिक रूप से असंतुस्ट आम जनता को विदेशी धर्म की तरफ मुड़कर अलगाववाद की तरफ धकेल दिया है जो देश की अखंडता के लिए खतरनाक हो सकता है|ऐसे में सर्व जीव हितकारी बौध धर्म को हर खास-ओ-आम तक उन्ही की रूचि और बौध सिद्धांत अनुसार पहुचाने के लिए “समय-बुद्ध मिशन ट्रस्ट” प्रयासरत है:

प्रश्न: बौध धम्म में परम शक्ति इश्वर कौन है? भगवान् बुद्ध ने स्वयं के इश्वर होने,किसी इश्वर का अवतार होने या किसी इश्वर का दूत होने से साफ़ इनकार किया है,उन्होंने स्वयं को मार्गदाता कहा है| किसी और के इश्वर होने के प्रश्न पर वे मौन हो गए,जिसे इंकार समझा गया|बौध धम्म पूर्णतः वैज्ञानिकता पर आधारित धर्म है जहाँ प्रमाणिकता के बिना कुछ भी स्वीकार्य नहीं, जबकि अन्य सभी धर्मों के सिद्धांत केवल आस्था और परंपरा के बल पर चल रहे हैं|
पर ये भी एक सच्चाई है की अब भी दुनियां में ऐसा बहुत कुछ है जो वैज्ञानिकता और इंसान के समझ के परे है जिसे अन्य धर्म अपने धर्म से जोड़कर जनता को अपने सात मिलाये रखते हैं| बुद्ध धम्म में ऐसा नहीं है, भगवान् बुद्ध ने इस विषय में कहा है की "सर्वोच्च सत्य अवर्णननिये है" | पर जब किसी व्यक्ति के जीवन में भीषण दुःख या परालौकिक घटनाएँ होतीं हैं तब केवल इश्वर रुपी काल्पनिक सहारा ही उसे ढाढस बंधता है|10% बुद्धिजीवी वर्ग तो अनीश्वरवाद को समझ सकता है पर मानते वे भी नहीं हैं |इसपर 90% आम आदमी को तो अटूट विशवास है की कोई न कोई सर्वशक्तिमान तो है जो दुनियां चलता है|इसी बात का फायदा उठाकर अन्य धर्म बहुसंख्यक आम जनता को काल्पनिक आस्था,चमत्कार और कर्मकांडों में फसाकर सत्य से दूर कर देते हैं |शायद इसी इश्वरिये कल्पना की जरूरत के चलते सभी धर्म किसी इश्वरिये नाम पर केन्द्रित होते हैं,यहाँ तक की कुछ अभिनज्ञ अनुयाई भगवान् बुद्ध को ही इश्वरिये शक्ति के रूप में पूजते हैं |

असल में व्यापक प्रचार न होने के कारण बौध धम्म को समझने के लिए थोडा अध्यन करना पड़ता है इसलिए ये केवल बुद्धि-जीवी वर्ग तक ही सीमित होकर रह गया है|आम आदमी चमत्कार को नमस्कार करता है,उसे कोई ऐसा चाहिए ही चाहिए जिसके आगे वो अपने सुख दुःख रख सके| वो सच्चाई जानना ही नहीं चाहता ऐसे में उन तक भगवान् बुद्ध का सन्देश कैसे पहुंचेगा? यही कारण रहा की ये महा-कल्याणकारी धर्म हर आदमी तक आज भी नहीं पहुँच पा रहा है |


हम केवल समय को ही परमशक्ति इश्वर क्यों मानते हैं ? एक सवाल हम सभी के मन में होता है की ऐसा कौन है जो भ्रमाण्ड का सर्वशक्तिमान करता धर्ता है,इस जैसे कई अद्यात्मिक सवालों की जवाब खोजते हुए मैं विभिन्न धर्मों के सिधान्तों को परखा पर बौध धम्म के सिवा मुझे कहीं भी संतुष्टि नहीं मिली|भगवान् बुद्ध ने कहा है की "किसी चीज को इस लिए मत मानो की ये सदियों से चली आ रही हैं, या हमारे बुजुर्गो ने कही हैं,या किसी आस्थावादी किताब में लिखी है,किसी चीज को इस लिए मत मानो की ये स्वयं मैंने कही हैं,किसी चीज को मानने से पहले यह सोचो की क्या ये सही हैं,किसी चीज को मानने से पहले ये सोचो की क्या इससे मानव का,सभी जीवों का विकास संभव है, किसी चीज को मानने से पहले उसको बुद्धि की कसोटी पर कसो और आप को अच्छा लगे तो ही मानो नहीं तो मत मानो... "
समय बुद्ध समुदाय मानता है की अगर कोई इश्वर है तो वो "समय" के अलावा और कोई नहीं | इश्वर होने के प्रश्न पर भगवान् बुद्ध ने भी मौन होकर गुज़रते हुए समय की तरफ ही इशारा किया है| केवल और केवल समय ही इश्वर शब्द की हर परभाषा को प्रमाणित ही नहीं करता अपितु हर अद्यात्मिक सवाल का एकमात्र अंतिम जवाब है क्योंकि :
-समय ही सर्वव्याप्त है अर्थात सब जगह है
-समय ही सर्वसमर्थ है अर्थात सब कुछ कर सकने में सक्षम है
-समय ही केवल ऐसा है जो निराकार है,अजन्मा है,अविनाशी है
-समय ही न्यायकर्ता है अर्थात जैसा करोगे वैसा भरने का समय आ जायेगा
-समय के ही वश में सभी नियंत्रित और अनियंत्रित घटनाएँ हैं जैसे जीवन मरण
-समय से ही हर इश्वरिये नाम,देवता,धर्म,आस्था,सिद्धांत,देश,भाषा और हर चाल अचल का अस्तित्व है
-समय का कोई आदि अंत नहीं ये अनंत है जबकि हर धर्म और उसके तथाकथित इश्वर का आदि और अंत है
-समय की सत्ता तब भी थी जब कुछ नहीं था आज भी है और तब भी रहेगी जब कुछ न रहेगा
-"समय" शब्द को आप खुद अपनी प्रार्थना के "इश्वरिये नाम" की जगह रखकर बोलिए,आपका वाक्य न केवल पूरा होगा अपितु ज्यादा सच्चा और विश्वासनिये लगेगा
समय यात्रा एक कल्पना है क्योंकि यदि भविष्य में कभी कोई टाइम मशीन बना पाया होता तो आज के युग में भी वो लौट कर आ जाता और उस मशीन का सिधांत बता देता, इस तरह हर युग में टाइम मशीन के जरिये ज्ञान विज्ञानं पहुचाया जा सकता था,सब एक सा होता कोई भूत वर्तमान और भविष्य नहीं होता|केवल समय को ही इश्वरिये शक्ति के रूप में प्रमाणित किया जा सकता है और केवल प्रमाणित तथ्य ही बौध धम्म में स्वीकार्य हैं| परम शक्ति और कोई नहीं केवल समय है,इस तथ्य को कोई भी झुठला नहीं सकता परिणामस्वरूप न केवल मूलनिवासी इसमें अटूट विश्वास करेंगे बल्कि अन्य धर्मिल सम्प्रदाए के लोग भी संतुस्ट होकर आकर्षित होंगे|केवल समय ही बौध धम्म को आत्मनिर्भर बनाकर सदा को लिए पुनः चरम पर स्थापित कर सकता है| इसी लिए हम लोग समय की वंदना करते हैं और बुद्ध धर्म के मार्ग पर चलते हैं|
हम अपने धर्म का पालन कैसे करें?

समय की वंदना कीजिये जिसे करने के लिए हर रोज सुबह उठते ही बिस्तर छोड़ने से पहले दोनों हाथों को गोलाई में समय चक्र बनाते हुए निम्नलिखित प्रार्थना करते हैं :


“हे सर्वसमर्थ समय हम जानते और मानते हैं की भ्रमंड में सभी चल अचल का अस्तित्व केवल आपसे ही है |जब न सूरज था न धरती थी,न कोई धर्म,न ही कोई इश्वरिये नाम ही था तब भी आप ही सर्व व्याप्त थे आज भी हैं, और जब कुछ न रहेगा तब भी आप ही रहोगे और फिर जीवन सर्जन करोगे|आपका कोई आदि अंत नहीं,केवल आप ही अविनाशी हो| हे न्यायदाता समय हमें सदबुद्धि और समर्थ देना ताकि हम इस समय चक्र के मार्गदाता भगवान् बुद्ध के मार्ग पर चल सकें| | हे परम शक्ति इश्वर हमपर अपनी दया दृष्टी बनाये रखना|हे सर्व शक्तिमान समय मैं आपको नमन करते हुए अपने आज का प्रारंभ करता हूँ”...


बुद्ध धर्म के मार्ग का अध्यन करिए उसपर अमल कीजिए और नियमित हर रविवार को किसी भी समय अपने निकटतम बौध विहार पर जाकर वंदना करें ज्ञान बढ़ाएं व धम्म बंधुओं से मार्ग पर विचार विमर्श करिए

बुद्ध धर्म के सिद्धांत क्या हैं ? बुद्ध सिद्धांत बहुत व्यापक है जिसे यहाँ देना संभव नहीं, फिर भी कुछ बातें यहाँ प्रस्तुत हैं:

* त्रिशरण-शील:
बुद्धम शरणम् गच्छामि- मैं बुद्ध व बुद्धि की शरण में जाता हूँ.
धम्मम शरणम् गच्छामि-मैं धम्म(धर्म) की शरण में जाता हूँ
संघम शरणम् गच्छामि-मैं संघ की शरण में जाता हूँ.

*पञ्च शील:
-पाणातिपाता वेरमणी सिक्खापदम् समदियामी - मैं जीव हत्या से विरत (दूर) रहूँगा, ऐसा व्रत लेता हूँ.
-अदिन्नादाना वेरमणी सिक्खापदम् समदियामी - जो वस्तुएं मुझे दी नहीं गयी हैं उन्हें लेने (या चोरी करने) से मैं विरत रहूँगा, ऐसा व्रत लेता हूँ.
-कामेसु मिच्छाचारा वेरमणी सिक्खापदम् समदियामी - काम (रति क्रिया) में मिथ्याचार करने से मैं विरत रहूँगा ऐसा व्रत लेता हूँ.
-मुसावादा वेरमणी सिक्खापदम् समदियामी - झूठ बोलने से मैं विरत रहूँगा, ऐसा व्रत लेता हूँ.
-सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना वेरमणी सिक्खापदम् समदियामी - मादक द्रव्यों के सेवन से मैं विरत रहूँगा, ऐसा वचन लेता हूँ

ये पांच वचन बौद्ध धर्म के अतिविशिष्ट वचन हैं और इन्हें हर गृहस्थ इन्सान के लिए बनाया गया था

*चार आर्य सत्य बुद्ध का पहले धर्मोपदेश, जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था ।
१. दुःख : इस दुनिया में दुःख व्याप्त है – जैसे जन्म, बीमारी, बूढे होने, मौत, बिछड़ने , नापसंद,चाहत सब में दुःख है ।
२. दुःख प्रारंभ : तृष्णा या अत्यधिक चाहत दुःख का मुख्य कारण है
३. दुःख निरोध : तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है ।
४. दुःख निरोध का मार्ग : तृष्णा से मुक्ति अष्टांग मार्ग के अनुसार जिन्दगी जीने से पाई जा सकती है ।

*अष्टांग मार्ग बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथे आर्य सत्य- दुःख निरोध पाने का रास्ता - अष्टांग मार्ग है। जन्म से मरण तक हम जो भी करते है उसका अंतिम मकसद केवल ख़ुशी होता है,तो निर्वाण(स्थायी ख़ुशी) सुनिश्चित करने के लिए हमें जीवन में इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए:
१. सम्यक दृष्टि : चार आर्य सत्य में विश्वास करना
२. सम्यक संकल्प : मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना
३. सम्यक वाक : हानिकारक बातें और झूठ न बोलना
४. सम्यक कर्म : हानिकारक कर्में न करना
५. सम्यक जीविका : कोई भी स्पष्टतः या अस्पष्टतः हानिकारक व्यापार न करना
६. सम्यक प्रयास : अपने आप सुधारने की कोशिश करना
७. सम्यक स्मृति : स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना
८. सम्यक समाधि : निर्वाण पाना और अहंकार का गायब होना

*प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है।प्राणियों के लिये, इसका अर्थ है कर्म और विपाक(कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र होता है| कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है,हर घटना मूलतः शुन्य होती है।

*अहिंसा हमें पहल करके हिंसा नहीं करनी चाहिए |पर आत्मरक्षा के लिए भी हर तरह से तयार रहना चाहिए, क्योंकि अगर आप शांति चाहते हो युद्ध के लिए तयार रहना जरूरी है |
*सामाजिक समानता बुद्ध धम्म में सभी मानव सामान हैं कोई छोटा-बड़ा/ऊँचा-नीचा नहीं माना जायेगा, सबको एक सामान खुशहाली के अवसर मिलने चाहिए |
*हमारा धार्मिक चिन्ह
"धम्मचक्र या समयचक्र" है जिसके सभी अंगों का कुछ अर्थ है जो इस प्रकार है
१. गोल घेरा दर्शाता है बौध धर्म की शिक्षा ही सम्पूर्ण है और समय ही ऐसा है जिसका कोई आदि अंत नहीं है
२. आठ तीले () अष्टांगिक मार्ग दर्शातें हैं जो समस्त विश्व ने बुद्धिस्म के चिन्ह के रूम में स्वीकृत है
३. बारह तीले प्रतीत्यसमुत्पाद का आरंभ के १२ सिद्धांतों को दर्शाते हैं
४. चौबीस तीले प्रतीत्यसमुत्पाद का आरंभ के १२ और समाप्ति के १२ सिद्धांतों को दर्शाते हैं
५. चक्र का केंद्र अनुशाशन और ध्यान केन्द्रित करने को दर्शाता है

बौद्ध धर्मग्रंथ (धार्मिक पुस्तकें) कौन सी हैं?

* त्रिपिटक
भगवान बुद्ध ने अपने हाथ से कुछ नहीं लिखा था। उनके उपदेशों को उनके शिष्यों ने पहले कंठस्थ किया, फिर लिख लिया। वे उन्हें पेटियों में रखते थे। इसी से नाम पड़ा, 'पिटक'। पिटक तीन हैं:-

1) विनय पिटक : इसमें विस्तार से वे नियम दिए गए हैं, जो भिक्षु-संघ के लिए बनाए गए थे। इनमें बताया गया है कि भिक्षुओं और भिक्षुणियों को प्रतिदिन के जीवन में किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए।

2) सुत्त पिटक : सबसे महत्वपूर्ण पिटक सुत्त पिटक है। इसमें बौद्ध धर्म के सभी मुख्य सिद्धांत स्पष्ट करके समझाए गए हैं। सुत्त पिटक पाँच निकायों में बँटा है:- (1) दीघ निकाय,(2) मज्झिम निकाय, (3) संयुत्त निकाय, (4) अंगुत्तर निकाय और ( खुद्दक निकाय)
खुद्दक निकाय सबसे छोटा है। इसके 15 अंग हैं। इसी का एक अंग है 'धम्मपद'। एक अंग है 'सुत्त निपात'।

3) अभिधम्म पिटक : अभिधम्म पिटक में धर्म और उसके क्रियाकलापों की व्याख्या पंडिताऊ ढंग से की गई है। वेदों में जिस तरह ब्राह्मण-ग्रंथ हैं, उसी तरह पिटकों में अभिधम्म पिटक हैं।

* धम्मपद : हिन्दू-धर्म में गीता का जो स्थान है, बौद्ध धर्म में वही स्थान धम्मपद का है। गीता धम्मपद सुत्त पिटक के खुद्दक निकाय का एक अंश है।धम्मपद में 26 वग्ग और 423 श्लोक हैं। बौद्ध धर्म को समझने के लिए अकेला धम्मपद ही काफी है। मनुष्य को अंधकार से प्रकाश में ले जाने के लिए यह प्रकाशमान दीपक है। यह सुत्त पिटक के सबसे छोटे निकाय खुद्दक निकाय के 15 अंगों में से एक है।

*हमारा मुख्य त्यौहार क्या है ?
बुद्ध जयन्ती (बुद्ध पूर्णिमा, वेसाक या हनमतसूरी) बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। इस दिन 563 ई.पू. में भगवान बुद्ध संकिसा लुम्बिनी मे जन्म हुआ था , इसी पूर्णिमा के दिन ही 483 ई.पू. में 80 वर्ष की आयु में, देवरिया जिले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। ऐसा पूरी दुनिया में किसी अन्य के साथ आज तक नही हुआ है।

* मुख्य बौद्ध प्राचीन तीर्थ:

(1) लुम्बिनी : जहाँ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ,यह स्थान नेपाल की तराई में पूर्वोत्तर रेलवे की गोरखपुर-नौतनवाँ लाइन के नौतनवाँ स्टेशन से 20 मील और गोरखपुर-गोंडा लाइन के नौगढ़ स्टेशन से 10 मील दूर है।
(2) बोधगया : जहाँ बुद्ध ने 'बोध' प्राप्त किया।भरत के बिहार में स्थित गया स्टेशन से यह स्थान 7 मील दूर है।
(3) सारनाथ : भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश जहाँ से बुद्ध ने दिव्यज्ञान देना प्रारंभ किया।बनारस छावनी स्टेशन से पाँच मील, बनारस-सिटी स्टेशन से तीन मील और सड़क मार्ग से सारनाथ चार मील पड़ता है।
(4) कुशीनगर :जहाँ बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ।पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले से 51 किमी की दूरी पर स्थित है।

बँगला देशं का निर्माण कैसे हुआ ?

नोट --पूरा ब्लॉग BBC से कॉपी पेस्ट है  ...http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/12/111214_1971_jacobiv_rf.shtml

तीस मिनट में हथियार डालिए वर्ना....

 बुधवार, 14 दिसंबर, 2011 को 12:43 IST तक के समाचार

1971 के बांग्लादेश युद्ध में पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर मेजर जनरल जेएफ़आर जैकब ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
वह जैकब ही थे जिन्हें मानिकशॉ ने आत्म समर्पण की व्यवस्था करने ढाका भेजा था. उन्होंने ही जनरल नियाज़ी से बात कर उन्हें हथियार डालने के लिए राज़ी किया था. जैकब 1971 के अभियान पर दो पुस्तकें लिख चुके है.
वे गोवा और पंजाब के राज्यपाल भी रह चुके हैं. इस समय वह दिल्ली में सोम विहार के अपने फ़्लैट में रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं. बीबीसी ने उनसे 40 वर्ष पुराने अभियान पर कई सवाल पूछे.

आम धारणा यह है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व यह चाहता था कि भारतीय सेना अप्रैल 1971 में ही बांग्लादेश के लिए कूच करे लेकिन सेना ने इस फ़ैसले का विरोध किया. इसके पीछे क्या कहानी है?

मानिकशॉ ने अप्रैल के शुरू में मुझे फ़ोन कर कहा कि बांग्लादेश में घुसने की तैयारी करिए क्योंकि सरकार चाहती है कि हम वहाँ तुरंत हस्तक्षेप करें.
मैंने मानिकशॉ के बताने की कोशिश की कि हमारे पास पर्वतीय डिवीजन हैं, हमारे पास कोई पुल नहीं हैं और मानसून भी शुरू होने वाला है. हमारे पास बांग्लादेश में घुसने का सैन्य तंत्र और आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं.
अगर हम वहाँ घुसते हैं तो यह पक्का है कि हम वहाँ फँस जाएंगे. इसलिए मैंने मानिकशॉ से कहा कि इसे 15 नवंबर तक स्थगित करिए तब तक शायद ज़मीन पूरी तरह से सूख जाए.

आपने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मानिकशॉ ने अपनी योजना में राजधानी ढाका पर कब्ज़ा करना शामिल नहीं किया था. उनके इस फ़ैसले के पीछे क्या कारण थे?

"मैंने उनसे कहा कि अगर हमें युद्ध जीतना है तो ढाका पर कब्ज़ा करना ही होगा क्योंकि उसका सामरिक महत्व सबसे ज़्यादा है और वह पूर्वी पाकिस्तान का एक तरह से भूराजनीतिक दिल भी है."
मुझे पता नहीं कि इसके पीछे क्या कारण थे. मुझे सिर्फ़ इतना मालूम है कि हमें सिर्फ़ खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के आदेश मिले थे. मेरी उनसे लंबी बहस भी हुई थी. मैंने उनसे कहा था कि खुलना एक मामूली बंदरगाह है.
मैंने उनसे कहा कि अगर हमें युद्ध जीतना है तो ढाका पर कब्ज़ा करना ही होगा क्योंकि उसका सामरिक महत्व सबसे ज़्यादा है और वह पूर्वी पाकिस्तान का एक तरह से भूराजनीतिक दिल भी है.
उनका कहना था कि अगर हम खुलना और चटगाँव ले लेते हैं तो ढाका अपने आप गिर जाएगा. मैंने पूछा कैसे ? यह तर्क चलते रहे और अंतत: हमें खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के ही लिखित आदेश मिले.
एयरमार्शल पीसी लाल इसकी पुष्टि करते हैं. वह कहते हैं कि ढाका पर कब्ज़ा करना कभी भी लक्ष्य नहीं था. लक्ष्य यह था कि निर्वासित सरकार के लिए जितना संभव हो उतनी ज़मीन जीत ली जाए. वह यह भी कहते हैं कि इस अभियान के दौरान सेना मुख्यालय में आपसी सामंजस्य नहीं था.

क्या यह सही है कि अगर पाकिस्तान ने तीन दिसंबर को भारत पर हमला नहीं किया होता तो आपने उन पर चार दिसंबर को हमला बोल दिया होता?

जी यह सही है. मैंने उपसेनाध्यक्ष से मिलकर हमले की तारीख़ पाँच दिसंबर तय की थी लेकिन मानिकशॉ ने इसे एक दिन पहले कर दिया था क्योंकि चार उनका भाग्यशाली अंक था.

पाँच दिसंबर चुनने के लिए कोई ख़ास वजह?

इसकी सिर्फ़ एक ही वजह थी कि तब तक सब कुछ व्यवस्थित किया जा चुका था और हमें आक्रमण शुरू करने के लिए और समय की ज़रूरत नहीं थी.

क्या यह सही है कि इस पूरे युद्ध के दौरान मानिकशॉ को आशंका थी कि चीन भारत पर आक्रमण कर देगा. आपने उनकी जानकारी के बिना चीन सीमा से तीन ब्रिगेड हटा कर बांग्लादेश की लड़ाई में लगा दी थी. जब उनको इसका पता चला तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?

"हमें पता था कि पाकिस्तान की रणनीति शहरों के रक्षा करने की थी. इसलिए हम उनको बाईपास करते हुए ढाका की तरफ़ आगे बढ़े थे. 13 दिसंबर को अमरीकी विमानवाहक पोत मलक्का की खाड़ी में घुसने वाला था और मुझे मानिकशॉ का आदेश मिला कि हम वापस जाकर उन सभी शहरों पर कब्ज़ा करें जिन्हें हम बीच में बाईपास कर आए थे."
उन्होंने इन ब्रिगेडों को वापस चीन सीमा पर जाने का आदेश दिया. मैंने और इंदर गिल ने मिलकर यह फ़ैसला किया था क्योंकि ढाका के अभियान में और सैनिकों की ज़रूरत थी.
मैं भूटान में तैनात 6 डिवीजन को इस्तेमाल करना चाहता था लेकिन उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी. मैं सैनिकों को नीचे ले आया लेकिन उनको पता चल गया और उन्होंने उनकी वापसी का आदेश दिया. लेकिन हमने उनको वापस नहीं भेजा.

16 दिसंबर से पहले आपको किन-किन मोड़ों से गुज़रना पड़ा?

हमें पता था कि पाकिस्तान की रणनीति शहरों के रक्षा करने की थी. इसलिए हम उनको बाईपास करते हुए ढाका की तरफ़ आगे बढ़े थे. 13 दिसंबर को अमरीकी विमानवाहक पोत मलक्का की खाड़ी में घुसने वाला था और मुझे मानिकशॉ का आदेश मिला कि हम वापस जाकर उन सभी शहरों पर कब्ज़ा करें जिन्हें हम बीच में बाईपास कर आए थे.
हम उस समय ढाका के बाहर खड़े हुए थे और इस आदेश की प्रति उन्होंने हर कोर को भेजी थी. हमने इस आदेश को नज़रअंदाज़ किया और 14 दिसंबर को हमने गवर्नमेंट हाउस पर बमबारी की. गवर्नर ने इस्तीफ़ा दे दिया और नियाज़ी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में युद्ध विराम करने का प्रस्ताव दिया.

16 दिसंबर का दिन याद करिए जब आपके पास मानिकशॉ का फ़ोन आया कि ढाका जाकर आत्मसमर्पण की तैयारी कीजिए.

जनरल जेकब
जनरल जेकब ने पाकिस्तानी सेना के आत्मसमपर्ण पर किताब भी लिखी है
16 दिसंबर को मेरे पास मानिकशॉ का फ़ोन आया कि जेक ढाका जाकर आत्म समर्पण करवाईए. मैं जब ढाका पहुँचा तो पाकिस्तानी सेना ने मुझे लेने के लिए एक ब्रिगेडियर को कार लेकर भेजा हुआ था.
मुक्तिवाहिनी और पाकिस्तानी सेना के बीच लड़ाई जारी थी और गोलियाँ चलने की आवाज़ सुनी जा सकती थी. हम जैसे ही उस कार में आगे बढ़े मुक्ति सैनिकों ने उस पर गोलियाँ चलाई.
मैं उन्हें दोष नहीं दूँगा क्योंकि वह पाकिस्तान सेना की कार थी. मैं हाथ ऊपर उठा कर कार से नीचे कूद पड़ा. वह पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को मारना चाहते थे. हम किसी तरह पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचे.
जब मैंने नियाज़ी को आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पढ़ कर सुनाया तो वह बोले किसने कहा कि हम आत्मसमर्पण करने जा रहे हैं. आप यहां सिर्फ़ युद्धविराम कराने आए हैं. यह बहस चलती रही. मैंने उन्हें एक कोने में बुलाया और कहा हमने आपको बहुत अच्छा प्रस्ताव दिया है.
इस पर हम वायरलेस से पिछले तीन दिनों से बात करते रहे हैं. हम इससे बेहतर पेशकश नहीं कर सकते. हम यह सुनिश्चित करेंगे कि अल्पसंख्यकों और आपके परिवारों के साथ से अच्छा सुलूक किया जाए और आपके साथ भी एक सैनिक जैसा ही बर्ताव किया जाए.
"जब मैंने नियाज़ी को आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पढ़ कर सुनाया तो वह बोले किसने कहा कि हम आत्मसमर्पण करने जा रहे हैं. आप यहां सिर्फ़ युद्धविराम कराने आए हैं. यह बहस चलती रही. मैंने उन्हें एक कोने में बुलाया और कहा हमने आपको बहुत अच्छा प्रस्ताव दिया है. "
इस पर भी नियाज़ी नहीं माने. मैंने उनसे कहा कि अगर आप आत्मसमर्पण करते हैं तो आपकी और आपके परिवारों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमारी होगी लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करते तो ज़ाहिर है हम कोई ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
मैंने उनसे कहा मैं आपको जवाब देने के लिए 30 मिनट देता हूँ. अगर आप इसको नहीं मानते तो मैं लड़ाई फिर से शुरू करने और ढाका पर बमबारी करने का आदेश दे दूँगा. यह कहकर मैं बाहर चला गया. मन ही मन मैंने सोचा कि यह मैंने क्या कर दिया है.
मेरे पास कुछ भी हाथ में नहीं है. उनके पास ढाका में 26400 सैनिक हैं और हमारे पास सिर्फ़ 3000 सैनिक हैं और वह भी ढाका से 30 किलोमीटर बाहर!
अगर वह नहीं कह देते हैं तो मैं क्या करूँगा. मैं 30 मिनट बाद अंदर गया. आत्मसमर्पण दस्तावेज़ मेज़ पर पड़ा हुआ था. मैंने उनसे पूछा क्या आप इसे स्वीकार करते हैं. वह चुप रहे. मैंने उनसे तीन बार यही सवाल पूछा. फिर मैंने वह काग़ज़ मेज़ से उठाया और कहा कि मैं अब यह मान कर चल रहा हूँ कि आप इसे स्वीकार करते हैं.

पाकिस्तानियों के पास ढाका की रक्षा के लिए 30000 सैनिक थे तब भी उन्होंने हथियार क्यों डाले?

"मैं यहाँ पर हमुदुर्रहमान आयोग की एक कार्रवाई के एक अंश को उद्धृत करना चाहूँगा. उन्होंने नियाज़ी से पूछा आपके पास ढाका के अंदर 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक थे और आप कम से कम दो हफ़्तों तक और लड़ सकते थे. "
मैं यहाँ पर हमुदुर्रहमान आयोग की एक कार्रवाई के एक अंश को उद्धृत करना चाहूँगा. उन्होंने नियाज़ी से पूछा आपके पास ढाका के अंदर 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक थे और आप कम से कम दो हफ़्तों तक और लड़ सकते थे.
सुरक्षा परिषद की बैठक चल रही थी. अगर आप एक दिन और लड़ पाते तो भारत को शायद वापस जाना पड़ता. आपने एक शर्मनाक और बिना शर्त सार्वजनिक आत्मसमर्पण क्यों स्वीकार किया और आपके एडीसी के नेतृत्व में भारतीय सैनिक अधिकारियों को गार्ड ऑफ़ ऑनर क्यों दिया गया?
नियाज़ी का जवाब था, मुझे ऐसा करने के लिए जनरल जेकब ने मजबूर किया. उन्होंने मुझे ब्लैकमेल किया और हमारे परिवारों को संगीन से मारने की धमकी दी. यह पूरी बकवास थी. आयोग ने नियाज़ी को हथियार डालने का दोषी पाया. इसकी वजह से भारत एक क्षेत्रीय महाशक्ति बना और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हो सका.

ऑब्ज़र्वर के गैविन यंग ने सरेंडर लंच का ज़िक्र किया है, जिसमें पाकिस्तानी सेना के उच्चाधिकारी शामिल हुए थे.

मैं गैविन को काफ़ी समय से जानता था. वह मुझसे नियाज़ी के दफ़्तर के बाहर मिले और कहा जनरल मैं बहुत भूखा हूँ. क्या आप मुझे खाने के लिए अंदर बुला सकते हैं? मैंने उन्हे बुला लिया. खाने की मेज़ पर खाना लगा हुआ था ..... काँटे छूरी के साथ जैसे कि मानो पीस टाइम पार्टी हो रही हो.
मैं एक कोने में जाकर खड़ा हो गया. उन्होंने मुझसे खाने के लिए कहा लेकिन मुझसे खाया नहीं गया. गैविन ने इस पर एक लेख लिखा जिस पर उन्हें पुरस्कार भी मिला.

जब आप जनरल नियाज़ी के साथ जनरल अरोड़ा को रिसीव करने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे तो वहाँ मुक्तिवाहिनी के कमांडर टाइगर सिद्दीकी भी एक ट्रक में अपने सैनिकों के साथ पहुँचे हुए थे.

"मैंने अपने दोनों सैनिकों को नियाज़ी के सामने खड़ा किया और टाइगर के पास गया. मैंने उनसे हवाई अड्डा छोड़ कर जाने के लिए कहा. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने कहा अगर आप नहीं जाते तो मैं आप पर गोली चलवा दूँगा. मैंने अपने सैनिकों से कहा कि वह टाइगर पर अपनी राइफ़लें तान दें. टाइगर सिद्दीकी इसके बाद वहाँ नहीं रुके."
हमारे पास एक भी सैनिक नहीं था. संयोग से मैंने दो पैराट्रूपर्स को अपने साथ रखा हुआ था. सिद्दीकी एक ट्रक भर अपने समर्थकों के साथ वहाँ पहुँच गए. मुझे नहीं पता कि वह वहाँ क्यों आए थे लेकिन ऐसा लग रहा था कि वे नियाज़ी को मारना चाहते थे.
मैंने अपने दोनों सैनिकों को नियाज़ी के सामने खड़ा किया और टाइगर के पास गया. मैंने उनसे हवाई अड्डा छोड़ कर जाने के लिए कहा. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने कहा अगर आप नहीं जाते तो मैं आप पर गोली चलवा दूँगा. मैंने अपने सैनिकों से कहा कि वह टाइगर पर अपनी राइफ़लें तान दें. टाइगर सिद्दीकी इसके बाद वहाँ नहीं रुके.

इंदिरा गांधी ने संसद में घोषणा की थी कि पाकिस्तानी सेना ने 4 बजकर 31 मिनट पर हथियार डाले थे लेकिन वास्तव में यह आत्मसमर्पण 4 बज कर 55 मिनट पर हुआ था. इसके पीछे क्या वजह थी?

मुझे पता नहीं कि इसके पीछे क्या वजह थी. शायद किसी ज्योतिषी की सलाह पर ऐसा किया गया होगा. मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर 5 बजने में 5 मिनट कम पर हुए थे. दस्तावेज़ में भी कुछ ग़लतियां थीं. इसलिए दो सप्ताह बाद अरोड़ा और नियाज़ी ने कलकत्ता में दोबारा उन दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर किए.

उस क्षण को याद कीजिए जब नियाज़ी ने अपनी पिस्टल निकाल कर जगजीत सिंह अरोड़ा को पेश की.

मैंने नियाज़ी से तलवार समर्पित करने के लिए कहा. उन्होंने कहा मेरे पास तलवार नहीं है. मैंने कहा कि तो फिर आप पिस्टल समर्पित करिए. उन्होंने पिस्टल निकाली और अरोड़ को दे दी. उस समय उनकी आँखों में आँसू थे.

उस समय अरोड़ा और नियाज़ी के बीच कोई बातचीत हुई?

तीनों सेनाध्यक्षों के साथ जगजीवन राम
माना जाता है कि शीर्ष भारतीय जनरलों के बीच आपसी सामंजस्य नहीं था
उन दोनों और किसी के बीच एक भी शब्द का आदान-प्रदान नहीं हुआ. भीड़ नियाज़ी को मार डालना चाहती थी. वह उनकी तरफ़ बढ़े भी. हमारे पास बहुत कम सैनिक थे लेकिन फिर भी हमने उन्हें सेना की जीप पर बैठाया और सुरक्षित जगह पर ले गए.

आपकी किताबों से यह आभास मिलता है कि लड़ाई के दौरान भारतीय जनरलों की आपस में नहीं बन रही थी. मानेकशॉ की अरोड़ा से पटरी नहीं खा रही थी. अरोड़ा सगत सिंह से ख़ुश नहीं थे. रैना के नंबर दो भी उनकी बात नहीं सुन रहे थे.

सबसे बड़ी समस्या यह थी कि दिल्ली में वायु सेनाध्यक्ष पीसी लाल और मानिकशॉ के बीच बातचीत तक नहीं हो रही थी. लड़ाई के दौरान बहुत से व्यक्तित्व आपस में टकरा रहे थे. मेरे और मानिकशॉ के संबंध बहुत अच्छे थे. उनसे मेरे संबंध बिगड़ने तब शुरू हुए जब 1997 में मेरी किताब प्रकाशित हुई.

मानिकशॉ को एक जनरल के रूप में आप कैसा रेट करते हैं ?

मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूँगा.

(वर्ष 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध को 40 साल हो गए हैं. इसी युद्ध के बाद एक राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का जन्म हुआ था. बीबीसी हिंदी इस युद्ध के चालीस साल होने पर विशेष कहानियों की शृंखला शुरू कर रही है. जनरल जैकब का इंटरव्यू इसी कड़ी का पहला हिस्सा है.)

धर्म क्या है?

धर्म के मुख्यतः दो आयाम हैं। एक है संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है। दूसरा है अध्यात्म, जिसका संबंध भीतर से है। धर्म का तत्व भीतर है, मत बाहर है। तत्व और मत दोनों का जोड़ धर्म है। तत्व के आधार पर मत का निर्धारण हो, तो धर्म की सही दिशा होती है। मत के आधार पर तत्व का निर्धारण हो, तो बात कुरूप हो जाती है। एक संत आता है। भीतर की गुफा में जाकर धर्म के तत्व अध्यात्म को जानता है। फिर वह चला जाता है। फिर मत बचा रहता है। उसके आधार पर एक संस्कृति विकसित होती है। संस्कृति के फूल खिलते हैं। काल क्रम में संस्कृति मुख्य हो जाती है। अध्यात्म गौण हो जाता है। और फिर एक संत को, एक जीवित संत को इस धरती पर आना पड़ता है। फिर से अंगारे जलाने होते हैं। फिर से दीप जलाना होता है।  धर्म वास्तव में कुछ लोगों के विश्वासों और ईश्वर की ओर से मानव समाज के लिए संकलित शिक्षाओं को कहा जाता है और इसे एक दृष्टि से कई प्रकारों में बांटा जा सकता है। उदाहरण स्वरूप प्राचीन व विकसित धर्म। यदि इतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो धर्म व मत लाखों करोड़ों प्रकार के हैं किंतु हम धर्म के प्रकारों पर चर्चा नहीं करना चाहते बल्कि हम स्वयं धर्म पर संक्षिप्त सी चर्चा करेंगे।
धर्म या दीन का अर्थ आज्ञापालन, पारितोषिक आदि बताया गया है किंतु दीन अथवा धर्म की परिभाषा हैः संसार के रचयिता और उसके आदेशों पर विश्वास व आस्था रखना। अर्थात धर्म एक प्रक्रिया का नाम है जिसके अंतर्गत धर्म का मानने वाला इस सृष्टि के रचयिता के अस्तित्व को मानते हुए उसके आदेशों का पालन करता है। इस आधार पर जो लोग किसी रचयिता के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते और इस सृष्टि के अस्तित्व को संयोगवश घटने वाली किसी घटना का परिणाम मानते हैं। उनके विचार में कोई प्रलय और परलोक नहीं है बल्कि संसार एक दिन समाप्त हो जाएगा और उसी के साथ सारा अस्तित्व विलुप्त हो जाएगा। इस प्रकार के लोगों को नास्तिक कहा जाता है। जो लोग इस सृष्टि के रचयिता को मानते हैं उन्हें धर्मिक और आस्तिक कहा जाता है अब चाहे उनकी अन्य आस्थाओं में कुछ अनुचित बातें भी क्यों न शामिल हों। इस प्रकार संसार में पाए जाने वाले धर्मों को दो क़िस्मों में बांटा जा सकता है। सत्य व असत्य धर्म। सच्चा धर्म वह है जिसके सिद्धांत तार्किक और वास्तविकताओं से मेल खाते हों और जिन कार्यों का आदेश दिया गया है उसके लिए उचित व तार्किक प्रमाण मौजूद हों। अर्थात धर्म की जो परिभाषा यहां बताई गई उसके आधर पर हर वो प्रक्रिया जिसमें मनुष्य ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कुछ संस्कार करता है उसे धर्म कहा जाता है किंतु यह निश्चित नहीं है कि वो संस्कार सही हो क्योंकि धर्म के पालन का उद्देश्य इस सृष्टि के रचयिता को प्रसन्न करना होता है और यह नहीं हो सकता कि वो ईश्वर परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न हो। उदाहरणस्वरूप यह संभव नहीं है कि ईश्वर दूसरों को लूटने वाले से भी प्रसन्न हो और दूसरों की सहायता करने वाले से भी। झूठ से भी प्रसन्न हो और सत्य से भी। वो यह तो झूठ से प्रसन्न होगा या फिर सत्य से। इस लिए हम यह नहीं कह सकते कि इस संसार में जितने भी धर्म हैं सब ईश्वर तक पहुंचाते हैं और मनुष्य चाहे जिस धर्म का माने अंततः ईश्वर तक पहुंच ही जाएगा क्योंकि किसी भी गंतव्य तक पहुंचने के लिए कुछ निर्धारित मार्ग होते हैं इस लिए यदि कोई मनुष्य ईश्वर तक पहुंचना चाहता है तो उसके लिए आवश्यक है कि वो सही मार्ग की खोज करे। इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि कौन से संस्कार और कौन से कर्म ईश्वर को प्रसन्न करते हैं और कौन से कामों से वो अप्रसन्न होता है।
अब प्रश्न यह है कि हमें इस बात का पता कैसे चले कि ईश्वर कौन से कामों से प्रसन्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न होता है? धर्म हमें यही बताता है।
मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं पायी जाती हैं किंतु भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है। अर्थात कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें इस भौतिक संसार से परे भी किसी लोक व संसार के अस्तित्व को माना गया है जबकि कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें केवल इसी संसार को सब कुछ समझा गया है। इस प्रकार से विश्व की समस्त विचारधाराएं दो प्रकार की होती हैं। ईश्वरीय विचारधारा और सांसारिक या भौतिक विचारधारा। भौतिक विचारधारा रखने वालों को भौतिकतावादी, नास्तिक आदि जैसे नामों से याद किया जाता है जबकि आधुनिक युग में उन्हें मैटीरियालिस्ट भी कहा जाने लगा है।
भौतिकवाद में भी विभिन्न प्रकार के मत पाए जाते हैं किंतु हमारे युग में सबसे अधिक प्रसिद्ध मत है डायलेक्टिक मटीरियलिज़्म जो मार्क्सिस्ट विचारधारा का आधार है।
विभिन्न धर्मों के अस्तित्व में आने के बारे में बुद्धिजीवियों और धर्मों के इतिहास के जानकारों तथा समाज शास्त्रियों के मध्य मतभेद पाए जाते हैं किंतु इस्लामी दृष्टिकोण से जो बातें समझ में आती हैं वह यह हैं कि धर्म के अस्तित्व में आने का इतिहास, मनुष्य के अस्तित्व के साथ ही आरंभ हुआ है। पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मनुष्य हज़रत आदम ईश्वरीय दूत और एकेश्वरवाद के प्रचारक थे तथा अनेकेश्वरवाद सच्चे धर्म का बिगड़ा हुआ रूप है। अर्थात कुछ लोगों ने स्वार्थ और राजा-महाराजाओं को प्रसन्न करने के लिए ईश्वरीय धर्मों में कुछ बातें मिला दीं या कुछ बातों को कम कर दिया।
एकेश्वरवादी धर्म जो वास्तव में सच्चे धर्म हैं तीन आस्थाओं में समान दिखाई देते हैं।
१ एक ईश्वर में विश्वास
२ परलोक में मनुष्य के अनंत जीवन पर विश्वास
३ इस संसार में किए गए कर्मों के प्रतिफल तथा मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए ईश्वरीय दूतों के आगमन पर विश्वास
यह तीन सिद्धांत वास्तव में हर मनुष्य के इस प्रकार के प्रश्नों के आरंभिक उत्तर हैं, सृष्टि का आरंभ कब हुआ? जीवन का अंत क्या होगा? और किस मार्ग पर चलकर सही रूप से जीवन व्यतीत करना सीखा जा सकता है। इस प्रकार ईश्वरीय संदेश द्वारा मनुष्य को जीवनयापन का जो कार्यक्रम प्राप्त होता है। इसी को धर्म कहते हैं जिसका आधार ईश्वरीय विचारधारा होती है।
मुख्य सिद्धांत व आस्था के लिए बहुत सी चीज़ों की आवश्यकता होती है जो एक साथ मिलकर किसी मत अथवा विचारधारा को अस्तित्व प्रदान करती हैं और इन्हीं बातों में मतभेद के कारण ही विभिन्न प्रकार के धर्मों और मतों का जन्म होता है। उदाहरणस्वरूप कुछ ईश्वरीय दूतों के बारे में मतभेद और ईश्वरीय किताब के निर्धारण में अलग-अलग मत ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के मध्य मतभेद का मूल कारण है जिसके आधार पर शिक्षाओं की दृष्टि से इन तीनों धर्मों में बहुत अंतर हो गया है। उदाहरण स्वरूप ईसाई त्रीश्वर को मानते हैं जो उनकी एकेश्वरवादी विचारधारा से मेल नहीं खाता। यद्यपि ईसाई धर्म में विभिन्न प्रकार से इस विश्वास का औचित्य दर्शाने का प्रयास किया गया है। इसी प्रकार इस्लाम में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी के निर्धारण की शैली के बारे में मतभेद। अर्थात यह कि पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी का निर्धारण ईश्वर करता है या जनता। शीया व सुन्नी मुसलमानों के मध्य मतभेद का मुख्य व मूल कारण है। तो फिर निष्कर्ष यह निकलता है कि समस्त ईश्वरीय धर्मों में एकेश्वरवाद, ईश्वरीय दूत और प्रलय मूल सिद्धांत व मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है किंतु इन सिद्धांतों की व्याख्या के परिणाम में जो अन्य विश्वास व आस्थाएं सामने आई हैं उन्हें मुख्य शिक्षा व सिद्धांत का भाग मात्र कहा जा सकता है। ईश्वर को मानने वाले विभिन्न धर्मों में विविधता और मतभेद का कारण यही है।
इस चर्चा के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं,
ईश्वर तक पहुंचने के लिए सही मार्ग का चयन आवश्यक है क्योंकि ईश्वर दो परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न नहीं हो सकता। इस लिए इस बात का पता लगाना आवश्यक है कि ईश्वर कौन से कामों से प्रश्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न और यह बात हमें वही बता सकता है जो उसकी ओर से आया हो। ईश्वर तक पहुंचने का सही मार्ग वही होता है जो तर्क और बुद्धि पर खरा उतरे।
ईश्वर तक ले जाने वाले धर्मों में प्रायः मूल सिद्धांत एक समान होते हैं किंतु कुछ नियमों की व्याख्या के बारे में विभिन्न मत ईश्वरीय धर्मों की विभिन्नता कारण हैं। यह और बात है कि उसे पता है, या नहीं पता है। लेकिन धर्म का तत्व क्या है? धर्म का उद्गम क्या है? कहाँ पहुँचना है हमें? गंतव्य कहाँ है ? उस बात को बताने के लिए ही संत इस धरती पर आता है। स्वामी विवेकानंद जी भी आए। और ये याद दिलाने के लिए आता है संत कि तुम कौन हो? 'अमृतस्य पुत्राः।' तुम राम-कृष्ण की संतान हो। तुम कबीर और गुरुनानक की संतान हो। तुम बुद्ध और महावीर की संतान हो। तुम क्यों दीन-हीन और दरिद्र जैसा जीवन जी रहे हो? क्यों अशांत हो, क्यों दुःखी हो? अपना स्वरूप हम भूल गए हैं। करीब-करीब ऐसे ही हम जीवन जीते हैं अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर।
इस जीवन की कितनी गरिमा है। इस जीवन की कितनी क्षमता है। अनंत आनन्द का खजाना, जो हमारे भीतर है, उसकी ओर हम पीठ करके जीते हैं।