शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

!! उत्तर प्रदेश बिधानसभा चुनाव में 90 फीसदी सीटों पर जातियों से ही जीत !!

 उत्तरप्रदेश की जातियों के राजनीतिक विश्लेषक द्वारा  बिशेष रिपोर्ट  -------
उत्तरप्रदेश चुनाव में जातियों को लेकर सबसे पहले खुलकर सामने आईं मायावती। मंच से ही बताया कि किस जाति को कितने टिकट दिए। क्योंकि देश के इस सबसे बड़े प्रदेश की 90 फीसदी सीटों पर कुछ जातियां ही तय करती हैं जीत-हार।

प्रदेश में मुस्लिम वोटों की बहुलता को देखते हुए पीस पार्टी जैसे कई मुस्लिम दल मैदान में हैं। जिन जातियों का कुल आबादी में एक प्रतिशत हिस्सा भी नहीं है, उनकी भी अपनी पार्टियां उम्मीदवार लेकर उतर आई हैं। 1989 में मुस्लिम-यादव (माय) गठजोड़ से पहली बार सत्ता तक पहुंचे मुलायम सिंह। क्या है यहां का पूरा समीकरण, बता रहे हैं:

बेनीप्रसाद वर्मा (कांग्रेस), जाति: कुर्मी (पिछड़ा)

सपा से कांग्रेस में आए। केंद्र में मंत्री पद दिया गया ताकि वे यूपी में कुर्मी और मुस्लिम वोट खींचेंगे। उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो कुर्मी हैं, की तरह प्रोजेक्ट किया जा रहा है।

चुनौती: वर्मा के कई समर्थकों को टिकट मिले, जो पुराने सपा नेता थे। अब कांग्रेस के पुराने नेता बागी तेवर अपनाए हैं।

मुलायम सिंह (सपा), जाति: यादव (पिछड़ा)

यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और फिलहाल सांसद। चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन यादवों और मुस्लिमों के वोट आकर्षित करने का हर जतन कर रहे हैं। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम से उनकी मुलाकात इसी कड़ी में एक प्रयास था।

चुनौती: पिछला कार्यकाल अपराध को रोकने में असफल रहा।

उमा भारती (भाजपा), जाति: लोधी (पिछड़ा)

यूपी में पहले प्रचार सौंपा। बुंदेलखंड में लोधी वोटों की बहुतायत और भाजपा की कमजोर स्थिति के चलते उन्हें चरखारी से टिकट दिया गया। पार्टी को उम्मीद, वे पिछड़े और सवर्ण वोट फिर भाजपा में ले आएंगी।

चुनौती: पार्टी के भीतर कलह से पार पाना मुश्किल।

मायावती (बसपा), जाति: जाटव (दलित)

राजनीति के शुरुआत में दलित वोटरों को एकजुट किया। पिछला चुनाव दलितों के साथ सवर्णों और मुस्लिमों के वोट साधकर जीता। वे खुद तो चुनाव नहीं लड़ रही हैं, लेकिन हर सीट पर जातियों के समीकरण पर उनकी पैनी नजर है।

चुनौती: सब को साधने में दलित आधार खिसक रहा है।

बसपा ने दलितों के अलावा सवर्णों और अन्य जातियों के लोगों को टिकट दिए। इस रणनीति ने भाजपा के ब्राह्मण और सपा के यादव-मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाई।

सोशल इंजीनियरिंग: 2007 विधानसभा चुनाव में मायावती को मिला हर जाति का साथ

राज्य में कई सीटों पर मुस्लिम वोट ही निर्णायक थे, जिन्होंने कांग्रेस का साथ दिया। ये बाबरी मस्जिद विध्वंस को आरोपी कल्याणसिंह को सपा में लिए जाने से नाराज थे। उत्तरप्रदेश में जातियों के संख्या बल के हिसाब से सभी पार्टियों ने टिकट बांटे।


यहां वोटर किसी नेता को नहीं, अपनी जाति को वोट देता है


अंबेडकरनगर, बहुजन समाज पार्टी का गढ़ है। पिछले पंद्रह सालों से इस जिले की पांचों विधानसभा सीटों पर बसपा के उम्मीदवार ही जीतते रहे हैं। तीन मंत्री बने। वजह साफ है। जिले में एक चौथाई आबादी दलितों की है। उत्तर प्रदेश की राजनीति की यही हकीकत है। राजनीति पर जाति हावी है। यहां दलित अपनी जाति को वोट देता है तो यादव अपनी ही जाति के उम्मीदवार को।

1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर मायावती ने सबसे पहला काम फैजाबाद के इस दलित बहुतायत वाले इलाके को अलग जिला बना कर उसे अपने वैचारिक गुरु का नाम देने का किया। अंबेडकरनगर वह कसौटी है जिसके आधार पर पूरे प्रदेश के चुनावों की हवा का रुख समझा जा सकता है।

इस बार मायावती के इस किले में सेंध लगती नजर आ रही है। पार्टी अगर तीन सीटें भी बचा ले तो बहुत। तीन मंत्रियों में से केवल एक ही यहां से लड़ रहा है। एक दूसरे जिले से और तीसरा बसपा ही छोड़ गया। ऐसा नहीं कि दलित यकायक मायावती से नाराज हो गए हैं। बल्कि इस जिले में अन्य जातियां बसपा के खिलाफ लामबंद हो गई हैं।

बीस साल पहले राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के चलते लोगों ने जाति की पहचान भुला दी थी। तब भी 1991 में भारतीय जनता पार्टी को केवल साधारण बहुमत मिला था। हिंदुओं की आबादी तो 80 फीसदी से भी ज्यादा है। बाबरी मस्जिद गिरने के बाद एक बार फिर जातियां राजनीति पर हावी हो गईं। 1993 में बहुमत पिछड़ों और मुसलमानों की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी और दलितों की बसपा के गठबंधन को मिला।

राजनीति अंकगणित नहीं है। न ही इसकी गुत्थियां सुलझाने के फार्मूले सरल हैं। एक बानगी देखिए। जून 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की 85 सीटों में से केवल छह (यानी 30 विधानसभा क्षेत्र) जीती। उसे 20.6 फीसदी वोट मिले। तीन महीने वाद हुए विधानसभा चुनाव में उसे 19.6 फीसदी वोट मिले। लेकिन वह 67 सीटें (यानी 13 लोकसभा क्षेत्र) पर विजयी हुई।

पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार फर्क इतना आया है कि प्रदेश की आबादी का एक फीसदी या उससे भी कम संख्या वाली जातियों ने अपनी खुद की पार्टी बना ली हैं। अपना दल कुर्मियों की पार्टी है। तो भारतीय समाज पार्टी पिछड़े राजभरों की।

मायावती दलितों की नेता हैं। लेकिन सभी दलितों की नहीं। दलितों में सबसे ज्यादा आबादी चर्मकारों की है। लगभग 60 फीसदी। बाकी में पासी और दूसरी 65 अनुसूचित जातियां हैं। मायावती खुद जाटव जाति की हैं।

इसीलिए उनका जाटव वोट तो पक्का है लेकिन दलितों में 15 फीसदी की आबादी वाले पासी (पासवान) अधिकतर उनके साथ नहीं होते। कभी मायावती का दाहिना हाथ रहे पासी नेता आरके चौधरी कहते हैं, अधिकतर जातियां उनके साथ नहीं हैं क्योंकि सोने के गहनों से लदी मायावती भले ही रंक से राजा बन गई हों, दलितों की हालत आज भी कोई सुधार नहीं हुआ है।

बसपा को चर्मकार वोटों का सहारा है। यानी प्रदेश में बारह फीसदी वोट। दूसरी जातियों के वो जोड़कर भी उन्हें कभी भी 20 फीसदी वोट से ज्यादा नहीं मिला। 2007 में उन्होंने बहुजन की जगह सर्वजन का नारा दिया। ब्राह्मण, मुसलमान साथ आए। वोट प्रतिशत बढ़कर 30.5 हो गया। चूंकि, प्रदेश में सवर्णों की तादाद 21 फीसदी है। नौ प्रतिशत ब्राह्मण, छह राजपूत और तीन-तीन फीसदी वैश्य और कायस्थ हैं। 206 सीटें जीत कर मायावती को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिला।

अब पिछड़ों की बात करें। पिछड़ों में सबसे ज्यादा तादाद यादवों की है। राज्य के 4३ फीसदी पिछड़ों में 20 फीसदी यादव हैं। उनके बाद ८ फीसद कुर्मी, 5 लोध, 4.5 गड़रिया और मल्लाह लगभग 4 फीसदी तेली, जाट, कोरी, कुहार, तीन फीसदी काछी, लगभग 2-2 फीसदी नाई, धोबी, मुराव बढ़ई, लोहार, कोइरी, लोनिया हैं। बाकी अन्य 46 पिछड़ी जातियां हैं।

मुलायम सिंह की सपा का मुख्य आधार यादव हैं। साथ में मुसलमान मिलाकर उन्होंने लालू यादव की तर्ज पर माई (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक पर कब्जा जमाया है। यानी राज्य की आबादी के 10 फीसदी और 17 फीसदी मुसलमान मिलाकर उनके पास एक बड़ा वोट बैंक हो जाता है। 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्हें 25.37 फीसदी वोट और 143 सीटें मिलीं। लेकिन सरकार बसपा-भाजपा ने मिलकर बनाई।

मायावती के इस्तीफे के बाद मुलायम ने कांग्रेस के साथ मिल जोड़तोड़ की सरकार बनाई। 2007 के चुनाव में उन्हें फिर 25.43 प्रतिशत वोट मिला। लेकिन इस बाद सीटें घटकर 97 रह गईं। यानी अंकगणित यहां काम नहीं करता।

सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं - लोग भले ही कहें कि हमें पिछलेचुनाव में लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ा। हकीकत यही है कि हमारा वोट बैंक कतई कम नहीं हुआ। हम इसलिए हारे क्योंकि भाजपा ने अपना वोट बसपा को दिलवा दिया।

लखनऊ स्थित गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के डायरेक्टर डा. एकेसिंह कहते हैं- यादव बाहुल्य इलाके में अगर तीन दलों ने यादव उम्मीदवार उतारे हैं तो चौथा दल ऐसी जाति का उमीदवार उतारता है जिसका वहां यादवों के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव हो।

हालांकि दलित और मुसलमान राज्य के हर हिस्से में फैले हैं लेकिन कई जातियों के अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट। इटावा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, बदायूं जैसे जिलों में यादवों का बर्चस्व है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रामपुर आर मुरादाबाद जिलों में मुसलमानों की आबादी लगभग आधी है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, गोंडा, बस्ती, बलरामपुर, गोंडा और श्रावस्ती जिलों में उनकी आबादी एक तिहाई है।

बुंदेलखंड में सबसे ज्यादा आबादी दलितों की है। लगभग एक चौथाई। वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, अंबेडकरनगर, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, इलाहाबाद, कौशांबी जैसे जिलों में भी वे कुल आबादी का एक चौथाई हैं। यही वजह है वे जिले बसपा का गढ़ हैं।

अंबेडकरनगर, बहुजन समाज पार्टी का गढ़ है। पिछले पंद्रह सालों से इस जिले की पांचों विधानसभा सीटों पर बसपा के उम्मीदवार ही जीतते रहे हैं। तीन मंत्री बने। वजह साफ है। जिले में एक चौथाई आबादी दलितों की है। उत्तर प्रदेश की राजनीति की यही हकीकत है। राजनीति पर जाति हावी है। यहां दलित अपनी जाति को वोट देता है तो यादव अपनी ही जाति के उम्मीदवार को।

1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर मायावती ने सबसे पहला काम फैजाबाद के इस दलित बहुतायत वाले इलाके को अलग जिला बना कर उसे अपने वैचारिक गुरु का नाम देने का किया। अंबेडकरनगर वह कसौटी है जिसके आधार पर पूरे प्रदेश के चुनावों की हवा का रुख समझा जा सकता है।

इस बार मायावती के इस किले में सेंध लगती नजर आ रही है। पार्टी अगर तीन सीटें भी बचा ले तो बहुत। तीन मंत्रियों में से केवल एक ही यहां से लड़ रहा है। एक दूसरे जिले से और तीसरा बसपा ही छोड़ गया। ऐसा नहीं कि दलित यकायक मायावती से नाराज हो गए हैं। बल्कि इस जिले में अन्य जातियां बसपा के खिलाफ लामबंद हो गई हैं।

बीस साल पहले राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के चलते लोगों ने जाति की पहचान भुला दी थी। तब भी 1991 में भारतीय जनता पार्टी को केवल साधारण बहुमत मिला था। हिंदुओं की आबादी तो 80 फीसदी से भी ज्यादा है।

बाबरी मस्जिद गिरने के बाद एक बार फिर जातियां राजनीति पर हावी हो गईं। 1993 में बहुमत पिछड़ों और मुसलमानों की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी और दलितों की बसपा के गठबंधन को मिला।

राजनीति अंकगणित नहीं है। न ही इसकी गुत्थियां सुलझाने के फार्मूले सरल हैं। एक बानगी देखिए। जून 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की 85 सीटों में से केवल छह (यानी 30 विधानसभा क्षेत्र) जीती। उसे 20.6 फीसदी वोट मिले। तीन महीने वाद हुए विधानसभा चुनाव में उसे 19.6 फीसदी वोट मिले। लेकिन वह 67 सीटें (यानी 13 लोकसभा क्षेत्र) पर विजयी हुई।

पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार फर्क इतना आया है कि प्रदेश की आबादी का एक फीसदी या उससे भी कम संख्या वाली जातियों ने अपनी खुद की पार्टी बना ली हैं। अपना दल कुर्मियों की पार्टी है। तो भारतीय समाज पार्टी पिछड़े राजभरों की।

मायावती दलितों की नेता हैं। लेकिन सभी दलितों की नहीं। दलितों में सबसे ज्यादा आबादी चर्मकारों की है। लगभग 60 फीसदी। बाकी में पासी और दूसरी 65 अनुसूचित जातियां हैं। मायावती खुद जाटव जाति की हैं। इसीलिए उनका जाटव वोट तो पक्का है लेकिन दलितों में 15 फीसदी की आबादी वाले पासी (पासवान) अधिकतर उनके साथ नहीं होते।

कभी मायावती का दाहिना हाथ रहे पासी नेता आरके चौधरी कहते हैं, अधिकतर जातियां उनके साथ नहीं हैं क्योंकि सोने के गहनों से लदी मायावती भले ही रंक से राजा बन गई हों, दलितों की हालत आज भी कोई सुधार नहीं हुआ है। बसपा को चर्मकार वोटों का सहारा है। यानी प्रदेश में बारह फीसदी वोट।

दूसरी जातियों के वो जोड़कर भी उन्हें कभी भी 20 फीसदी वोट से ज्यादा नहीं मिला। 2007 में उन्होंने बहुजन की जगह सर्वजन का नारा दिया। ब्राह्मण, मुसलमान साथ आए। वोट प्रतिशत बढ़कर 30.5 हो गया। चूंकि, प्रदेश में सवर्णों की तादाद 21 फीसदी है। नौ प्रतिशत ब्राह्मण, छह राजपूत और तीन-तीन फीसदी वैश्य और कायस्थ हैं। 206 सीटें जीत कर मायावती को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिला।

अब पिछड़ों की बात करें। पिछड़ों में सबसे ज्यादा तादाद यादवों की है। राज्य के 4३ फीसदी पिछड़ों में 20 फीसदी यादव हैं। उनके बाद ८ फीसद कुर्मी, 5 लोध, 4.5 गड़रिया और मल्लाह लगभग 4 फीसदी तेली, जाट, कोरी, कुहार, तीन फीसदी काछी, लगभग 2-2 फीसदी नाई, धोबी, मुराव बढ़ई, लोहार, कोइरी, लोनिया हैं। बाकी अन्य 46 पिछड़ी जातियां हैं।

मुलायम सिंह की सपा का मुख्य आधार यादव हैं। साथ में मुसलमान मिलाकर उन्होंने लालू यादव की तर्ज पर माई (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक पर कब्जा जमाया है। यानी राज्य की आबादी के 10 फीसदी और 17 फीसदी मुसलमान मिलाकर उनके पास एक बड़ा वोट बैंक हो जाता है। 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्हें 25.37 फीसदी वोट और 143 सीटें मिलीं।

लेकिन सरकार बसपा-भाजपा ने मिलकर बनाई। मायावती के इस्तीफे के बाद मुलायम ने कांग्रेस के साथ मिल जोड़तोड़ की सरकार बनाई। 2007 के चुनाव में उन्हें फिर 25.43 प्रतिशत वोट मिला। लेकिन इस बाद सीटें घटकर 97 रह गईं। यानी अंकगणित यहां काम नहीं करता।

सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं - लोग भले ही कहें कि हमें पिछले चुनाव में लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ा। हकीकत यही है कि हमारा वोट बैंक कतई कम नहीं हुआ। हम इसलिए हो क्योंकि भाजपा ने अपना वोट बसपा को दिलवा दिया।

लखनऊ स्थित गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के डायरेक्टर डा. एकेसिंह कहते हैं- यादव बाहुल्य इलाके में अगर तीन दलों ने यादव उम्मीदवार उतारे हैं तो चौथा दल ऐसी जाति का उमीदवार उतारता है जिसका वहां यादवों के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव हो।

हालांकि दलित और मुसलमान राज्य के हर हिस्से में फैले हैं लेकिन कई जातियों के अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट। इटावा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, बदायूं जैसे जिलों में यादवों का बर्चस्व है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रामपुर आर मुरादाबाद जिलों में मुसलमानों की आबादी लगभग आधी है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, गोंडा, बस्ती, बलरामपुर, गोंडा और श्रावस्ती जिलों में उनकी आबादी एक तिहाई है।


बुंदेलखंड में सबसे ज्यादा आबादी दलितों की है। लगभग एक चौथाई। वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, अंबेडकरनगर, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, इलाहाबाद, कौशांबी जैसे जिलों में भी वे कुल आबादी का एक चौथाई हैं। यही वजह है वे जिले बसपा का गढ़ हैं। 
नोट---पूरा ब्लॉग कोपी पेस्ट है भास्कर .कॉम से ....

तस्वीर में देखिए चुनाव की जातीय तस्वीर...

 

!!उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट की लड़ाई और अधिकार ?

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में मतदान आरम्भ हो गया है तीन चरणों की मतदान भी सम्पन्न हो गया है , सभी राजनैतिक दल मुस्लिम बोट के लिए तड़प रहे है  मुस्लिम  समूह के वोट किस पार्टी को मिलेंगे, इस पर बहस चल रही है। इस प्रदेश में चंद्रभानु गुप्ता से लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने तक कांग्रेस को अपनी सरकार बनाने में कभी कठिनाई नहीं आई, क्योंकि मुस्लिमों के एकमुश्त वोट कांग्रेस की झोली में सरलता से गिर जाते थे। उत्तरप्रदेश में यद्यपि जातिवाद का हमेशा बोलबाला रहा है। किसी समय यहां अजगर और मजगर की बात हुआ करती थी। अहीर, जाट, गूजर व राजपूत इस समीकरण के सबसे बड़े आधार होते थे। मुस्लिम वोट लंबे समय तक कांग्रेस के माने जाते थे, पर बाद में जब समाजवादियों के कारण उनका वोट बैंक बना, तो उसमें मुस्लिमों को शामिल कर उसे मजगर कहा जाने लगा।

दलित और पिछड़े वोटों को भुनाने के लिए जब प्रतिस्पर्धा होने लगी, तो यह नारा भी लोगों ने दीवारों पर लिखा देखा-तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। पिछड़े व अशिक्षित उत्तरप्रदेश से जब उत्तराखंड को अलग कर दिया गया, तब से यह बात भी राजनीतिज्ञों के मानस में बैठ गई कि आने वाले समय में उत्तरप्रदेश का और भी विभाजन हो सकता है। इसीलिए मायावती ने प्रदेश को चार भागों में बांट देने की कवायद शुरू कर दी। समय का प्रवाह बदलता भी रहा है, पर मुस्लिम वोट बैंक में बिखराव नहीं के बराबर हुआ। आपातकाल के बाद मुस्लिम वोट भले ही कांग्रेस की झोली से निकल गए हों, पर वे जिसको भी मिले, एकमुश्त मिले, इसलिए इस बार हर पार्टी इनको लुभाने के दांव चल रही है।

यह संभव है कि मुस्लिमों के 16 प्रतिशत वोटों में से चार-पांच प्रतिशत वोट इधर-उधर हो जाएं, लेकिन उनका अधिकतम मतदान तो कांग्रेस के पक्ष में ही होता दिखाई देता है। केंद्र सरकार ने पिछले दिनों इसके लिए अनेक प्रयास किए हैं। उसने उन्हें पिछड़ों के कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण देकर यह सिद्ध कर दिया कि कांग्रेस मुस्लिमों के वोटों के लिए कुछ भी कर सकती है। चुनाव से ठीक कुछ दिन पहले सलमान रुश्दी को भारत नहीं आने देकर उसने एक और बहुत बड़ा कारनामा कर दिया। इस मामले में देवबंद मदरसा, जो उत्तरप्रदेश में ही स्थित है, उसे खुश करके कांग्रेस ने अपना घोड़ा आगे बढ़ा लिया है। पिछले कुछ वर्षो से कानून-कायदे और संसद में पास होने वाले बिलों में भी इस स्वर को अधिक बुलंद किया गया कि कांग्रेस मुस्लिमों के प्रति समर्पित है। आतंकवाद के आरोपियों को विभिन्न जेलों से छोड़े जाने और उन पर लगे आरोपों को निरस्त कराने की कवायद भी कांग्रेस करती रही है। इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा, लेकिन यह बात इतनी सरल भी नहीं है। एक समय था कि मुस्लिम मतदाताओं पर उनके नेताओं की जोर-जबर्दस्ती चलती थी, पर पिछले वर्षो में भारतीय मतदाता परिपक्व हुआ है। नेता तो ठीक, अब तो मौलानाओं के फतवों की भी चिंता वह नहीं करता है।

दरअसल, वर्तमान पीढ़ी की सोच बदली है। वह धमकी और लालच से परे है, इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि कांग्रेस जो सोच रही है, उसी के अनुरूप सब कुछ होगा ही। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने अपनी ईसाई पत्नी लुईस को जिस तरह से मैदान में उतारा है, वह इस बात का सबूत है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में मुस्लिमों को विश्वास में लेने के लिए खुर्शीद को मुख्यमंत्री का पद दिए जाने की रणनीति बना ली गई है। पत्नी की सीट से पति को चुनाव लड़ाकर विधानसभा में प्रवेश कराने में कोई कठिनाई नहीं होने वाली। कांग्रेस को विश्वास है कि इस बार मुस्लिम वोटों का बंटवारा नहीं होगा, इसलिए उसे ही बहुमत मिलेगा। भारत में इस समय केवल और केवल मुस्लिम ही संगठित हैं। मुसलमानों का गढ़ प्रारंभ से उत्तरप्रदेश ही रहा है। उसी की विशाल जनसंख्या के बल पर पाकिस्तान बना है। उत्तरप्रदेश में यह एक परंपरा रही है कि चुनाव निकट आते ही वहां स्थानीय मुस्लिम पार्टियां सक्रिय हो जाती हैं।

मुस्लिम लीग से लेकर इंसाफ पार्टी तक इनकी संख्या आधा दर्जन से कम नहीं है। जन मोर्चा और यूनाइटेड फ्रंट जैसे मोर्चे भी बन जाते हैं, पर उत्तरप्रदेश के पिछले चुनाव का जायजा यदि लिया जाए, तो पीस पार्टी ऑफ इंडिया और 2009 के संसदीय चुनाव से पूर्व बनी राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल और उसी समय अस्तित्व में आने वाली वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया परंपरा से चली आ रही मुस्लिम राजनीति से दूर हटकर जमीनी सोच लेकर राजनीति करती हुई दिखाई पड़ती हैं। डॉ. मोहम्मद अयूब और उनकी पीस पार्टी ने विधानसभा चुनाव में एकला चलो रे की नीति को अपनाया है। इसी प्रकार आजमगढ़ क्षेत्र में उलेमा काउंसिल का दबदबा है।

स्थानीय मुसलमानों पर मौलाना आमिर की जो पकड़ है, वह यह सिद्ध करती है कि राज्य और राष्ट्र स्तर की पार्टियों का खेल वह बिगाड़ सकते हैं। उत्तरप्रदेश में जब मुस्लिम वोट बैंक की चर्चा करते हैं, तब यह भी विचार करना आवश्यक है कि कुल 16 प्रतिशत वोटों में 11 प्रतिशत वोट सुन्नियों के हैं, जबकि पांच प्रतिशत शिया वोट हैं। यदि विधानसभा की दृष्टि से देखें, तो 23 विधानसभाओं में शिया निर्णायक हैं। उत्तरप्रदेश की 106 विधानसभाओं में शिया मतदाता हैं, पर दुर्भाग्य से न तो उनकी कोई पार्टी है और न ही कोई नेता। शिया समुदाय सुन्नियों की तुलना में अधिक पढ़ा-लिखा है। वहां की सरकारी नौकरशाही में भी उसका वर्चस्व है।

मुस्लिमों की धार्मिक संस्था पर्सनल लॉ बोर्ड में जब शियाओं की नहीं सुनी गई, तो उन्होंने जाने माने विद्वान मौलाना अतहर के नेतृत्व में शिया पर्सनल लॉ बोर्ड अलग बना लिया। भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों में शिया लघु अल्पसंख्यक हैं, पर भारत के हर राज्य की सरकारें और केंद्र सरकार मुस्लिमों के नाम पर सारे लाभ सुन्नियों को देती हैं। वास्तविकता तो यह है कि भारत के नेताओं को भी इसका ज्ञान नहीं है कि मुस्लिमों का सारा लाभ सुन्नी उठाते हैं। बेचारे शियाओं को कोई नहीं पूछता। इसीलिए पिछले कुछ समय से मौलाना जफरूल हसन ने शिया समाज नाम का एक संगठन बनाया है, जिसके तहत शियाओं की आवाज को बुलंद करने का प्रयास किया जा रहा है।  शियाओं की लाचारी को जनता के समक्ष पेश करने का प्रयास किया जा रहा  हैं। शियाओं का प्रतिनिधित्व न तो हज कमेटी में होता है और न ही उर्दू अकादमी, फाइनेंस कॉरपोरेशन जैसी सरकारी संस्थाओं में। अत: शियाओं को जनसंख्या के अनुसार प्रत्येक स्थान पर प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। चुनाव में भी उनको अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। मुस्लिम वोट किस दिशा में गए हैं, इसका सही अनुमान तो परिणाम आने के बाद ही हो सकेगा, पर फिलहाल सभी पाटियों के कुल मिलाकर 216 उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं।


!!खाद्य प्रासंस्करण मंत्रालय नई दिल्ली द्वारा !!

*****!!खाद्य प्रासंस्करण मंत्रालय नई दिल्ली द्वारा !!*****
!!-----खाद्य प्रासंस्करण उद्यमिता विकाश ट्रेनिंग 2012-----!!

संस्था द्वारा यह प्रसिक्षण पुर्णतः निशुल्क दिया जा रहा है ! इस प्रसिक्षण के आवेदन २१,२२,और २३ फरवरी २०१२ को बितरित. किये जावेगे और २४,२५ फरवरी को फॉर्म जमा किया जाएगा तथा २७ फरवरी २०१२ से प्रसिक्षण आरंभ होगा !!प्रसिक्षण की अवधि ४५ दिन की होगी !

नोट --इस प्रसिक्षण कार्यक्रम में मध्यप्रदेश के सभी जिले के अभ्यार्थी अपने नजदीकी प्रसिक्षण केंद्र पर भाग ले सकते है !!

नोट --प्रसिक्षण से सम्बंधित समस्त पुस्तके पुर्णतः निःशुल्क बितरित की जावेगी ..!!

नोट --प्रसिक्षण सुबह ११.०० बजे से दोपहर ३.०० बजे तक !!

पता --HIGH TECH COMPUTER EDUCATION
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महत्व पूर्र्ण सूचना ---अधिक जानकारी के लिए "पत्रिका समाचार पत्र " दिनाक १५/०२/२०१२ को देखे (इंदौर शंस्करण )

!! लडकिया सच में पराया धन होती है ?

बचपन से ही हर घर मे यही सुना कि लड़की का क्या वो तो परायी अमानत होती पराया धन होती है यह बात सिर्फ राजपूत सामाज में ही नहीं सभी समाज में कही जाती है । कुछ हद तक तो एक समय के लिए मुझे भी लगा की वाकई बेटियाँ पराया धन होती हैं क्यूंकी पाल पोस कर, पढ़ा लिखा कर फिर एक अच्छा रिश्ते ढूँढ कर उसको घर से विदा करना कितना (अब सुखद कहूँ या दुखद भाव दोनो ही आते हैं उस वक्त जब बेटी को विदा किया जाता है) बड़ा और पुण्य का काम है| किंतु बेटी को घर भी नही बिठाया जा सकता ....... पुरानी रीत चली आ ...रही है, एक ना एक दिन तो बेटी को विदा करना है, ये तो रीत सबको निभानी होती है चाहे वो ग़रीब हो या अमीर|
किंतु तभी ख़याल आया बेटी पराया धन कहाँ होती हैं ......... आपको थोड़ा सा भी कष्ट हो बेटी तुरंत हाज़िर होती है ......... यदि आपको प्यास लगी हो तो बेटी तुरंत पानी लाती है चाहे वो खाना ही क्यूँ ना खा रही हो ........| यदि आपको सिर दर्द है तो तुरंत सिर दबाने बैठ जाती है .........| शादी के बाद भी बेटी का झुकाव अक्सर अपने माता पिता की ओर ही रहता है ..... फिर भी ये पराया धन ही कहलाती है ........ |

तो सोचो क्या कोई पराया इतना कर सकता है आप के लिए ...... मुझे तो नही लगता .......
बेटियाँ सुख की छाया होती हैं फिर भी उनको बचपन से ही पराया धन कहा जाता है ... क्यूँ, समझ से बाहर है ....|
हाँ आजकल कुछ आधुनिक माता पिता इनको पराया धन नहीं मानते । तो आप सभी के बिचार आमंत्रित है की क्या लडकिया  सच में पराया धन होती है ?