बाघेल वंश के आदि पुरुष व्याघ्रदेव जूदेव से पार्श्ववर्ती राज्य के तरोहा के परिहार शासक मुकुंददेव चंद्रावत ने अपनी एकलौती बेटी "सिन्दूरमती" का व्याह किया था और कोई पुत्र न होने पर अपना राज्य भी इन्हें सौप दिया था। व्याघ्रदेव की परिहारिन रानी के पाँच पुत्र हुए। सबसे बड़े करण देव गहोरा के अधिकारी, दूसरे सूरत देव नि:संतान, तीसरे कीरत देव दक्षिण में चले गए, चौथे श्यामदेव- गुजरात गये और पाँचवे कंधर देव को कसौटा (शंकरगढ़) और परदमा मिला। श्री अर्जुनसिंह इसी कसौटा शाखा से निर्गत बघेल राजपूत है।
रीवा इलाहाबाद मार्ग पर स्थित रायपुर के कलचुरियों की एक शाखा राज्य रीवा के दक्षिण में था, जो "चंदनियाँ" कहलाता था। इन्हीं में से सोमदत्त करचुली के अधिकार में बांधवगढ़ का किला था। सोमदत्त ने अपनी पुत्री (“पद्यकुँवरि") का ब्याह करणदेव से कर दिया और बांधवगढ़ का किला दहेज में दे दिया। अब इस राज्य की उत्तरी राजधानी गहोरा और दक्षिणी राजधानी बांधवगढ़ हो गई।
पाटन के व्याघ्रपल्ली देवस्थली में जन्मे करणदेव (कल्याणदेव) संस्कृत के धुरंधर विद्वान थे। इन्होंने ज्योतिष शास्त्र का एक अच्छा प्रामाणिक ग्रन्ध "सारावली"लिखा है।
इसी बांधवगढ़ के कारण यह राजवंश कालान्तर में "बांधवेश महाराजा" कहलाया।
सारंग देव (करण देव के पौत्र) के युवराज काल में इनकी मुठभेड़ परमर्दिदेव चंदेल राजा से हुई, जिसके फलस्वरूप उसने वि.सं. 1246 के लगभग एक बहुत बड़ी सेना लेकर, बांधवगढ़ पर चढ़ाई करने के लिए अपने प्रसिद्ध सामंत ऊदल को भेजा। घोर संग्राम के बाद सारंग देव ने ऊदल को पकड़ कर बांधवगढ़ क़िले की एक कोठरी में बंद कर दिया, जिसे आज भी "ऊदल की कोठरी" कहते हैं। ऊदल जैसे अजयवीर को जीत लेने के कारण इन्हें वीर वघेला राय “संग्राम सिंह" भी कहा जाता था।
वि.सं.1300 के आस-पास सारंग देव के पश्चात. इनके पुत्र विलासदेव राजा हुए। इन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। वर्तमान बिलासपुर पहले एक गाँव था जिसे बिलासा नाम की एक मछुई (मल्लाहिन) ने बसाया था। उसका नाम “बिलसिया" था। इसी को बिलासदेव ने शहर के रूप में आकर इसका नाम बिलासपुर रखा। इन्हीं के शासनकाल में राज्य की सीमा बस्तर तक पहुच गई।
चुरहट के राव- इनका खानदान 16वीं शताब्दी के तृतीय चरण में, कसौटा के महाराज करनसिंह के ज्येष्ठ पुत्र विक्रमजीतसिंह से स्थापित हुआ है। विक्रमजीत कही बाहर थे, तभी इनके छोटे भाई मेदनी सिंह कसौटा की गद्दी में बैठ गए। छोटे भाई से विवाद न कर, महाराव विक्रमजीत सिंह, महाराजा रामचंद्र सिंह देव की सेवा बांधवगढ़ चले आये। यहाँ इन्हें राव की पदवी और चुरहट का ठिकाना 85, जिनकी आमदनी 35,000 रूपये थी, जागीर में मिली। चंवर, लंगर, डंका, निशान आदि मंसब भी प्रदान किया गया।
चुरहट के आदि पुरुष राव विक्रमजीत सिंह ने मड़वास के बालेन्दु राजा को हराकर, अपने आधीन कर लिया। कलचुरी राज्य के समाप्त हो जाने पर बालेन्दु राजाओं ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया और मड़वास को राजधानी बनाया था।
तब, मड़वास के जंगलों में जंगली हाथी बहुतायत से पाये जाते थे, और बांधवगढ़ हाथियों के बिक्री का प्रमुख केन्द्र था। महाराजा रघुराजसिंह जू देव के शासन काल वि सं.1927 में, मड़वास के जंगल से 30 हाथियों के पकड़े जाने का उल्लेख मिलता है। राव विक्रमजीत सिंह के पश्चात् इनके पुत्र गणेश सिंह, गणेश सिंह के पुत्र संग्राम सिंह और इनके पुत्र मदन सिंह चुरहट गद्दी पर बैठे। राव मदन सिंह की पहली यानी बड़ी रानी से 12 पुत्र व छोटी रानी से पाँच पुत्र हुए। किंतु छोटी रानी से पहले पुत्र करन सिंह हुए। बड़ी रानी को बाद में पुत्र प्राप्त हुए। उत्तराधिकार के लिए हुए विवाद के कारण राव मदनसिंह, बड़ी ठकुराइन के बारह पुत्रों को लेकर रामपुर नेकिन चले गए और दोनों ठिकानों की सरहद बाँध दी। घुघरी नदी के पूर्व दिशा में चुरहट इलाक़ा और पश्चिम में रामपुर नेकिन वालों को “लल्लू साहब" की उपाधि दी गई।
महाराजा गुलाबसिंह ने, अपने शासन के लगभग अंतिम दौर में, रामपुर के लल्लू साहब को “राव" की उपाधि दी।राव मदनसिंह के रामपुर नेकिन चले जाने से इनके ज्येष्ठ पुत्र करनसिंह चुरहट की गद्दी पर बैठे। इनके दूसरे भाई लालशाह को मोहनिया, जोरावर सिंह का बरखड़ा बैरीलाल को लकोड़ा और पाँचवे भाई पृथ्वी सिंह को घोघरा मिला। मोहिनिया में यह अंधविश्वास व्याप्त था कि यहाँ के ठाकुर का वंश नहीं चलेगा लिए लालशाह नाराज़ होकर रीवा दरबार में चले आये और चामू का इलाका प्राप्त किया। इन्ही के वंशज चामू के ठाकुर शत्रुघ्नसिंह के तृतीय पुत्र कर्नल, लाल जनार्दन सिंह, जो महाराजा वेंकटरमण सिंह जू देव के निजी सचिव थे। इनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराज ने ताला इलाका प्रदान किया। इनके पुत्र कुँ. मोरध्वजसिंह महाराजा मार्तण्ड सिंह जू देव के ए.डी.सी.थे। मेनपुरी के चौहान राजा उदयभानसिंह के छोटे भाई गणेशराय की रिश्तेदार चुरहट के बघेलों के यहाँ थी। इसी कारण इनके पुत्र भू गाँव से वि.सं.1729 में चुरहट आये। इन्हें यहाँ टिका लिया गया और निर्वाह के लिए देवगढ़ दे दिया।रीवा महाराजा अवधूत सिंह (विसं. 1759-1812) के समय हृदयशाह बुन्देला ने रीवा पर चढ़ाई की थी। इस युद्ध में, चौहान बंधु रुद्रशाह और विरुद्ध शाह प्रशंसनीय वीरता के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। इसी युद्ध में मर्दन शाह कलचुरी जो उसी दिन नवपरिणिता पत्नी के साथ घर आये थे। हाथ-पाँव कट जाने के बाद भी अनुपम वीरता से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए थे। रीवा क़िले के अंदर इनकी एकमात्र छतरी अभी भी बनी हुई है।चौहान बंधुओं की वीरता से प्रसन्न होकर, बघऊँ इलाके के कुछ गाँव पटपरा, बढ़ोना, हटवा, पहाड़ी, कमजी, कोल्हूडीह, तेंदुआ और खडबरा, चौहानों को दे दिया गया।
बालेन्दु राजा भीष्मशाह तक, मड़वास लगभग ढाई सौ वर्ष तक, चुरहट के अधीन रहा। चुरहट के राव ज़बरदस्त सिंह (वि. सं. 1860-1893) के समय में, मड़वास, पथरोला आदि के इलाकों का सीधा संबंध रीवा दरबार से हो गया।15 अक्टूबर 1812 (वि. सं. 1869) को, अंग्रेजी सरकार और रीवा महाराजा जयसिंह के बीच संधि हुई। इसी संधि के अंतर्गत अंग्रेजों ने रेल, तार और डाक की व्यवस्था प्रारंभ कर दी। एक डाक घर चुरहट में भी खोला गया। राव जबरदस्त सिंह की शह पर, अंग्रेजी सरकार की डाक लूट ली गई। अग्रता को महाराजा जयसिंह पर संदेह हो गया। वि.सं.1872 में अंग्रेजों ने रीवा पर चढ़ाई कर दी। अंग्रेज़ों का शिविर जब ग्राम सथिनी के पास पड़ा था, कुछ लोगों ने छापा मारकर, अंग्रेजों को भारी नुकसान पहुँचाया। इस प्रकार रीवा राज्य अंग्रेजों से पहले विद्रोह, चुरहट वालों ने ही किया। अंग्रेजी सेना में खलबली मच गई। इसकी सूचना जब जयसिंह को मिली, उन्होंने स्वयं अंग्रेजों के शिविर में जाकर चढ़ाई में अंग्रेजो के खर्च हुए पैंतालीस हज़ार, एक सौ तिहत्तर रूपये देने और विदोहियों का दमन करने का वचन दिया।चढ़ाई का जो खर्च दिया गया, उसके बदले में चुरहट के इलाके का बघऊ परगना राज्य में मिला लिया गया। बघऊ इलाक़े के आठ गाँव पहले ही चौहानों को दिये जा चुके थे।बि सं. 1876 में, बर्दा के राजा अजीतसिंह ने रीवा महाराजा अजीतसिंह अधीनता स्वीकार कर ली। इसी के साथ चौहानों का चौहान खंड और वेणुवंशियो का सिंगरौली राज्य भी रीवा राज्य के अधीन आ गया।