रीवा और नैकहाई
ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि -
संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
है निशा-दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड है,
चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है।
- राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त।
देना गवाही इतिहास का
तत्कालीन रीमाँ राज्य की ‘नैकहाई जुज्झि’ बहुचर्चित है। तीन सदियाँ बीत जाने के बाद भी इसकी चर्चा जब तब होती ही रहती है। यह विवादित भी है। किंबदंतियों को आधार बनाये हुए य जो जितना सुन कर जानते हैं उसे ही राग बनाये अपनी डफली बजातेे नहीं थकते। नैकहाई जुज्झि हुई थी राज्य विस्तारवादी, तत्कालीन बाँदा नवाब अलीबहादुर के सिपहसालार, ‘नायक’ यशवंत राव निम्बालकर के विरुद्ध, रीमाँ राज्य के गिने-चुने सरदारों के मध्य। वह जमाना था जिसकी लाठी उसकी भैंस का। देश में वर्चस्व था बाहुबलियों का।
होना स्थापित बधेल राज्य गहोरा, बाँधोगढ़़ और रीमाँ का
आइये काल इतिहास निहारें। गुजरात क्षेत्र से मघ्यदेश में आकर बघेल राजपूतों ने भट्ठा-गहोरा राज्य की स्थापना की। यह राज्य यमुना नदी के दक्षिण वर्तमान उत्तर प्रदेश के बाँदा जिला से लेकर वर्तमान मिरजापुर जिला तक एक पट्टी के रूप में स्थापित रहा है। राजधानी का नाम रहा है गहोरा। जहाँ रहते इन बघेलों ने लगभग दौ सौ वर्षों तक यह राज्य संचालित किया। अपने शासन काल के मध्य राजा रामचन्द्र देव ने ईस्वी सन 1563 में गहोरा त्याग कर सुदूर दक्षिणी बनप्राँतर में स्थिति पुराने बाँधोगढ़ को राजधानी बना कर बाँधौं राज्य की स्थापना की थी। मात्र 34 वर्ष बीते, तभी राजनैतिक उठा-पटक के चलते ईस्वी सन् 1597 में तत्कालीन हिन्दुस्तान के बादशाह अकबर ने बाँधोगढ़ को मुगुल सल्तनत के आधीन कर लिया। मुक्त किया ईस्वी सन् 1602 में, बाँधो के राजा रामचन्द्र देव के पुत्र, राजा वीरभद्र देव के कनिष्ठ पुत्र दुर्योधन का टीका कर के। दुर्योधन जिन्हे जिरजोधन कहा जाता रहा, राजा वीरभद्र देव के मुसलमान भितरहाई के पेट से जनमेंय जारज पुत्र रहे हैं। जेठे पुत्र विक्रमादित्य जिन्हे बिकरमाजीत कहा जाता रहा, रानी के पेट से जनमें जायज पुत्रय बागी घोषित थे। ईस्वी सन् 1605 में अकबर का निधन हुआ, जहाँगीर बादशाह बने। इन्होने विक्रमादित्य को माफ कर, 18 परगने की रीमाँ-मुकुन्दपुर जागीर बहाल की। राजा विक्रमादित्य ने अपने राज्य की राजधानी रीमाँ में स्थापित की। जो उन दिनो रीमाँ मण्डी केे नाम से विख्यात था। यहाँ बीहर और बिछिया नदियों के संगम तट पर, तत्कालीन भारत के बादशाह शेरशाह सूरी के दूसरे क्रम के शाहजादे जलाल खाँ अफगान की तामीर कराई गढ़ी रिक्त पड़ी हुई थी। उसे विस्तृत करा कर राजा विक्रमादित्य ने अपना आवास बनाया और रहने लगे। सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से पूर्व और उत्तर दिशा में परकोटे का निर्माण कराया। दक्षिण में बिछिया और पश्चिम में बीहर नदियाँ प्रवाहित हैं। इन्होने गढ़ी के बाहर विस्तृत परिसर, उपरहटी में बस्ती बसाईं, जहाँ इक्का दुक्का लोगों की बसाहट थी। शीघ्र ही अच्छी खासी बस्ती बस गयी। राजा के समीपी वर्ग में मुसलमान सम्प्रदाय का जत्था, जो गहोरा से बाँधवगढ़ और बाँधवगढ़ से रीमाँ राजा के साथ साथ चलता था, राजा के मिरदहा ‘साहनी’ (ऊँट चराने वाले)े, रात को राजा के माचा का पहरा देने वालों के अलावा महावत लोगों की गिनती इसी तबके में थी। सहानियों को उपरहटी के निकटवर्ती स्थान में पूरब की ओर स्थान दिया गया। केवल महावतों के लिये पटपर दरवाजे पर बसाने का कदाचित हाथियों को नहलाने की सुविधा के कारण जगह मिली बाकी सम्पूर्ण बस्ती में ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र ही आज तक रहते आये हैं। क्षत्रिय (राजपूत) या तो बसाये नहीं गये या रीमाँ में बसना पसन्द नहीं किया। दलितों को उपरहटी के बाहर ही रहना पड़ा अर्थात वे रानी तालाब के निकट से लेकर धोबिया टंकी तक फैले हुये हैं शेष मुस्लिम समाज को साहनी टोला में कुछ दूर पर स्थान मिला। (प्रो0 अख्तर हुसैन निजामी द्वारा संपादित ‘अजीत फतेह नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृष्ठ 299।)
पहले रीमाँ, फिर रीवाँ अंततः रीवा राज्य का इतिहास, इसी काल से प्रारंभ होकर क्षेत्रफल बढ़ता-घटता, ऊँच-नीच भोगता, महाराजा मार्तण्ड सिंह के शासन काल के अंत, ईस्वी सन 1948 तक का है।
विक्रमादित्य को रीमाँ-मुकुन्दपुर जागीर मिली। फिर चरितार्थ हुई रिमही उक्खान कि ‘गें नरदा के नियाउ का औ हारि आयें बखरी। उन्होने बाँधोगढ़ पर अपना दावा पेश किया जो बादशाह के यहाँ से नामंजूर हो गया। तब आव देखा न ताव कतिपय अपने समर्थकों के साथ चल पड़े बाँधोगढ़ पर हमला करने। बादशाह जहाँगीर ने राजा महा सिंह कछवाहा को विद्रोह समन करने का फरमान जारी कर दिया। राजा महा सिंह, विद्रोह दमन करने में सफल रहे। बादशाह ने रीमाँ-मुकुन्दपुर जागीर इन्ही राजा महा सिंह को बहाल कर दी। यह घटना है ईस्वी सन 1610 की, जो दर्ज है रीवा गजेटियर सन 1992 के पृष्ठ 35 पर।
बात वही, कि ‘आधी छाँड़ पूरी को धाबै, आधी रहै न पूरी पाबै। परेशान विक्रमादित्य ने शाहजादा खुर्रम, जो बाद में शाहजहाँ बादशाह हुये से सम्पर्क साध कर तत्कालीन बादशाह जहाँगीर के दरबार में हाजिर होकर अपने गुनाह की माफी मागी। गुनाह माफ हुआ, जिसका जिकर ‘तुजुक जहाँगीरी’ में इस प्रकार है- ‘आज रीवाँ का राजा आया और उसका कुसूर माफ हुआ, सन 1618’ ़ संभवतः इसीलिए इतिहासकार राजा विक्रमादित्य का शासन काल सन 1618 से उनके मृत्युकाल 1624 तक मानते हैं। इनके बाद की छठवीं पीढ़ी के राजा अजीत सिंह के शासन काल में ‘नैकहाई जुज्झि’ हुई थी।
रीमाँ रियासत के प्रथम राजा विक्रमादित्य के अवसान के बाद, सन 1624 में इनके सुपुत्र राजा अमर सिंह ने राज्य की बागडोर सम्हाली और भारत के तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ से पंचहजारी मनसब प्राप्त की। एक यही पहले और आखिरी रीमाँ के बघेल राजा रहे, जिन्होने मुगलिया मनसब के साथ दो बार शाही अभियान में शामिल हुये। ये दोनो युद्ध ओरछा के बुँदेला राजा के विरुद्ध लड़े गए थे। इसका खामियाजा इनके वारिस राजा अनूप सिंह को भुगतना पड़ा जिन्होने सन 1640 में रीमाँ राज्य की सत्ता सम्हाली थी। इन्हे भी एक हजारी मनसब प्राप्त हुआ था जिसका उपभोग ये न कर सके।
मुगलिया सेना के फौजी ओहदेदार, मनसबदार कहलाते थे। मनसबदारी हुआ करती थी एक हजारी, दो हजारी, सेह हजारी माने तीन हजारी। ऐसे ही चार, पाँच और इसके आगे की संख्या की भी। इसके लिए निर्धारित संख्या में मनसबदार को हाथी, ऊँट, घोडे़ और सैनिक रखने पड़ते थे। जिसके लिए मनसबदार को तनख्वाह निर्धारित हुआ करती थी, ताकि इन सबका रख रखाव हो सके। (संदर्भ-विश्व इतिहास कोश- श्री चन्द्रराज भण्डारी)
ओरछा के बुँदेला राजा जो पहले मुगलिया सलतनत के दुश्मन हुआ करते थे अब हो गए थे उसके आधीन। राजा पहार सिंह बुँदेला को चैरागढ़ के बागी गोंड़ राजा हिरदे साहि को सबक सिखाने के लिए बादशाह ने भेजा। हिरदे साहि सपरिवार भाग आये रीमाँ, जहाँ राजा अनूप सिंह ने पनाह दी। पहार सिंह को अपने पूर्वज और बघेल राजा के वारिस से बदला लेने का मौका मिला, वह बढ़ चले रीमाँ की ओर। राजा अनूप सिंह अपने परिवार और राजा हिरदे साहि के परिवार के साथ रीमाँ की अपनी गढ़ी छोड़ कर जा पहुँचे त्योंथर के बनाँचल में। पहार सिंह ने रीमाँ आकर मनपसार लूट मचाई। हँकबा ले गये हाथी, ऊँट घोड़े भी। बाद में लूटे हुयेे, दो हाथी और तीन हथिनियों मे से एक हाथी और दो हथिनियाँ बादशाह को नजर कर दीें। राज्य का काफी बड़ा भूभाग भी हड़प लिया। राजा अनूप सिंह का आमेर के मिर्जा राजा जय सिंह की सिफारिस से बादशाह ने गुनाह माफ कर दिया। इन्हे पुनः सन 1656 में रीमाँ राज्य वापस मिला, पर काफी बड़े भूभाग से हाथ धोना पड़ा। इन बातों की जानकारी ब्लैकमैन कृत हिन्दी अनुवाद ‘आइने अकबरी’ से मिलती है। अनूप सिंह को सन 1657 में सेहहजूरी मनसब तो मिला, किन्तु इन्हे भी सेना गठन की नहीं सूझी। ( संदर्भ ‘अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा’)।
राजा अनूप सिंह के वारिस राजा भाव सिंह का शासन काल रहा है ईस्वी सन 1660 से 1694 तक। इन्होने गढ़ी को भव्यता प्रदान कर गढ़ का रूप दिया। सामने एक महल का निर्माण कराते हुए जगन्नाथ स्वामी का मंदिर तो निर्माण कराया ही, परिसर के भीतर पूर्व-दक्षिण ओर यायावर व्यापारी लमानो के तामीर कराये प्राचीन मृत्युन्जय महादेव मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर भव्यता प्रदान की। यही हैं पहले राजा जिन्होने गोलगुम्बद वास्तु का रीमाँ में चलन शुरू किया। इनके डेढ़ दर्जन रानियो के होते हुए, एक भी संतान नहीं थी। इनकी रानी अजब कुँवरि का निर्माण कराया राजधानी रीमाँ में रानीतालाब और राजस्थानी शैली की बावली दर्शनीय है। रानी तालाब जहाँ वर्ष में दो बार मेला भरता है, को हाल ही में नगर निगम रीवा ने सुंन्दर ‘पिकनिक स्पाट’ के रूप में सजा डाला है। यहाँ नौकायन का भी प्रावधान है।
राजा भाव सिंह के शासन काल में भी राज्य सेना का अभाव था, जबकि बादशाह औरंगजेब से एक हजारी औपचारिक मनसब इन्हे भी प्राप्त था। हाँ, बादशाह अकबर के समान इनकी भी दरबार जमती थी। जिसके लिए राज्य के बाहर से विद्वानो को आमंत्रित कर राज्य में बसाया गया था। दरबार के नौ रत्नो में से एक रहे हैं रूपणि शर्मा जिनसे संस्कृत में ‘बघेल वंश वर्णनम’ नाम के ग्रंथ की रचना करवायी गयी थी।
पुत्र के अभाव में उत्तराधिकारी हेतु बादशाह से मंजूरी ले कर राजा भाव सिंह ने अपने अनुज, सेमरिया इलाकेदार के कनिष्ठ पुत्र अनिरुद्ध सिंह को गोद ले लिया था। दत्तक पुत्र के स्वीकृति लेने के लिए कुछ व्यय करने के साथ ही रिश्तेदारो-सरदारों की भी सहायता लेनी पड़ती थी। लहुरे भाई को रीमाँ राजा द्वारा गोद ले लिए जाने से जेठे भाई राज्य के दुश्मन बन गए थे।
राजा भाव सिंह के शासन काल में तत्कालीन रत्नपुर नरेश तखत सिंह देव के चचेरे भाई नीलकंठ देव कर्चुली अपने परिवार और साथियों के साथ रीमाँ आये। उन्हे पश्चिम की ओर 15 किलोमीटर दूर गाँव भोलगढ़ रहने के लिये दिया गया। जिसका उल्लेख डा0 रामकुमार सिंह कृति ‘कलचुरि नरेश और उनके वंशज’ के पृष्ठ 15 पर हुआ है।
राजा भाव सिंह के दत्तक पुत्र राजा अनिरुद्ध सिंह का शासन काल रहा है ईस्वी सन 1694-1700 रानी बीनकुँवरि से युवराज अवधूत सिंह पैदा हो चुके थे, जब राजा अनिरुद्ध सिंह ने ठाकुर रघुनाथ सिंह सेंगर की कन्या के साथ राक्षस विवाह करने का प्रयास किया। ठाकुर घर में न थे, कहीं बाहर गए हुए थे। ठाकुर कन्या ने अपनी सुरक्षा के लिए बंदूक उठयी और राजा अनिरुद्ध सिंह को निशाना बना कर दाग दिया। राजा वहीं धराशायी हो गये। उसी स्थल पर उनकी छतुरी, मनिगमा गढ़ी से बाहर नदी किनारे आज भी खड़ी है। रानी ने राज्य की व्यवस्था, तरौंहा (करवी तहसील जिला बाँदा) के रुद्रसाह के पुत्र हृदय राय सुरकी को सौंप कर दुधमुहे शिशु को लेकर मायके प्रतापगढ़ पधार गईं। (‘अजीत फते नायक रायसा बघेल खण्ड का आल्हा’ पृष्ठ 6) इस समय राजा अनिरुद्ध सिंह के वारिस, राजा अवधूत सिंह मात्र 6 माह के शिशु रहे हैं। जिनका शासन काल विभिन्न इतिहास के पन्नो में ईस्वी सन 1700 से 1755 तक दर्ज है
।
बनाना छत्रसाल का बृहत राज्य बुँदेलखण्ड
यह वह काल रहा है जब बघेलखण्ड शब्द भविष्य के कोख में पनप रहा था, जबकि चैदहवीं सदी से जाना-माना जाता है बुँदेलखण्ड। जहाँ रुपये 350 वार्षिक आमदनी वाले महोबा के मामूली जागीरदार चंपतराय ने बुँदेलखण्ड की स्वतंत्रता के लिए लड़ते-लड़ते सब कुछ गँवा कर, गवाँ दिया था प्राण भी। उनके सुपुत्र बालक छत्रसाल यहाँ-वहाँ मारे-मारे फिरने लगे। थके हारे, जंगल में एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे असाधारण बालक छत्रसाल पर महाबली नाम के एक सामान्य कृषक व्यक्ति की नजर पड़ी। वह बालक छत्रसाल को अपने धर में रख कर, लालन-पालन करने लगा। विषम परिस्थित से दो दो हाथ करते किशोर हुये छत्रसाल ने जाँबाजों की एक छोटी सी सेना गठित की। अपने पिता के हत्यारे के प्राण हत लिये। अपने बाहुबल, पराक्रम एवं बुद्धि कौशल से शक्ति अर्जित कर मुगल ठिकानो, चैकियों और मनसबदारों को एक एक कर ठिकाने लगाते बृहत बुँदेलखण्ड राज्य का निर्माण किया। ये प्रसिद्ध हो चले बुँदेल केसरी छत्रसाल महाबली के नाम से। अपने नाम के साथ महाबली जोड़ना छत्रसाल की महान उदारता है। यह उस महाबली को दिया गया ‘अनुपम बदला’ है जिसने उन्हे बचपन मे पाल कर बड़ा किया था। (‘हंस की उड़ान,’ कुँअर सूर्यबली सिंह का बाल उपयोगी साहित्य, ‘छत्रसाल का अनुपम बदला’ पृष्ठ 103)।
रीमाँ किले पर कब्जा हिरदे साह बुँदेले का, होना बँुदेलहाई जुज्झि का और पराक्रम कर्चुलियों का।
बुँदेल केसरी छत्रसाल के बेटे, हिरदे साह बँटवारे से नाराज होकर, पन्ना आकर रहने लगे थे। उनकी गिद्ध दृष्टि रीमाँ राज्य के विसम परिस्थिति पर पड़ी तो एक बड़ी सेना के साथ आ धमके। ना मारा न खून किया के तर्ज पर रीमाँ किला में कब्जा कर लिया। रीमाँ के लोगों के कान में जूँ तक न रेंगी। रीमाँ किला को ‘गैरिजन’ बनाकर एक हजार बुँदेला सिपाहियों को सुपुर्द कर पन्ना वापस चले गए हिरदे साह । कतिपय के हाँ और कतिपय के ना, पर, विवादित है बात कि ‘हिरदे साह ने अपने जीत की निशानी किले के बाहर ‘बुँदेला दरवाजा’ तामीर कराया था।’ हाँ वाले कहते हैं कि हिरदे साह के तामीर कराये बँुदेला दरवाजे को उन्नीसवीं सदी के महाराज रघुराज सिंह ने नेस्त नाबूद करा कर उसी स्थल पर निर्मित करा दी थी ‘कोतवाली टावर’। वह अब जर्जर हो कर अब गिरी कि तब गिरी हो रही है।
हिरदे साह का रीमाँ किला का कब्जा करना नागवार गुजरा भोलगढ़ में रह रहे नीलकंठ देव कर्चुली को। रणकौशल पटु ,वृद्ध नीलकंठ देव ने अपने चारों पुत्रों को बुलाकर, वीरोचित कर्तव्य बोध का पाठ पढ़ाते कहा-‘हमने राजा को राज्यरक्षा का वचन दे रखा है। किले में बैरी घुसा पड़ा है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। यह क्षत्रिय धर्म का घोर अपमान है। आज परीक्षा की घड़ी सामने है। जाओ बैरी दल को किला से खदेड़ दो। अपने कर्तव्य का निरवहन करते, भले बोटी बोटी कट जाना पर पराजित होकर वापस आ मुझे मुंह मत दिखाना। मै वृद्ध, अशक्त हूँ, अन्यथा मैं तुम सब का मार्गदर्शन करता, बैरी को सबक सिखाता।’ युद्ध फतह की अपनी बनाई योजना से अवगत कराते हुए कहा ‘इस युद्ध के लिए तेंदुन के वीर बघेलों को भी आमंत्रित कर अपनी वीर वाहिनी की संख्या में इजाफा कर सकते हो।’
इस आयोजित युद्ध योजना में मात्र 46 योद्धा ही जुट पाये। जोे रात ही किले के दक्षिण स्थिति कुठुलिया वन में पहुँचे और दाँतो से तलवार दबाये एक एक कर, प्रवाहित बिछया नदी को पार करते जा पहुँचेे किला के पछीत में। पौ फटने लगी, तभी जैसे सिंह, सिंहनी अपने शावको के साथ रखरे हुए मृग झुण्ड पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार ये योद्धा, बैरी दल पर जा झपटे। पहरा दे रहे सैनिक दल को विदार कर जा घुसे किला के भीतर और वहाँ भी भीषण मार-काट मचा दी। मच गयी भगदड़। डयोढ़ी छेंक कर खड़े थे उसी दिन विवाह कर के आये हुए, साहब राय कर्चुली के पुत्र और नीलकंठ देव के पौत्र, 16 वर्षीय मरदन साह। जो भी बैरी भागता; बाहर निकलने को होता; उससे दो दो हाथ करते, उसके मौत का रमन्ना काट देते। यह सब करते वे स्वयं भी बुरी तरह घायल होकर वहीं शहीद हो गये, जिनकी स्मारक छतुरी; उसी स्थल पर; परिसर के अन्दर तब के किला डयोढ़ी पर खड़ी है। (डा0 रामकुमार सिंह कृति ‘कलचुरि नरेश और उनके वंशज’ पृष्ठ 16)
भीषण मार-काट से बचा; बैरी दल भागा, पीछा किया रणबाँकुरे रीमाँ के दल ने और घेर लिया आकर वर्तमान घोघर स्कूल रीवा के मैदान में। जहाँ मच गया रौद्ररस संचारी घोर भीषण युद्ध। मरदन साह के पिता ने अपने पुत्र को और तीनो चाचाओं ने देखा था; शहीद होते अपने लाड़ले भतीजे को। बाँध लिया था सर पर कफन, यह संकल्प करते कि; ‘आज बैरी दल का हर हालत में दमन कर डालना है, चाहे शरीर के रक्त की अंतिम बूँद भी बहा देना पड़े। यह युद्ध हमारे जीवन का अन्तिम निर्णायक युद्ध होगा।’ इनके युद्ध प्रमाद को देखने वलों ने दाँतो तले उँगली दबाते कहा कि ‘इन सब के शरीर में भैरवी प्रवेश कर गयी है।’
साहब राय उनके भाई हिम्मत राय और चिन्तामन राय के प्राण हत करके, दुबारा की मार-काट से बचा बैरी दल सर पर पैर रख भाग खड़ा हुआ। कहा जाता है कि खानवा युद्ध (सन1527) में राणा संग्राम सिंह को 72 घाव लगे थे। इस युद्ध में, इसी संख्या के घाव साहब राय के मृत शरीर पर गिने गये थे। ईस्वी सन 1702 में लड़ा गया यह युद्ध, ‘बुँदेलहाई जुज्झि’ के नाम से जाना गया।
‘बँुदेलहाई जुज्झि’ में जूझे हिम्मत राय, साहेब राय और चिन्तामनि राय के स्मारक उसी स्थल पर निर्मित अति जर्जर छतुरियाँ वर्तमान काल के घोधर स्कूल परिसर में खड़ी हैं। ‘तत्कालीन शासन ने इन वीरों के बलिदान की स्वीकृति के रूप में उनके वंशजों का बड़ा सम्मान किया। मानदेय के रूप में उनके वंशजों को मुड़वार जागीरें प्रदान की-पटना-हिम्मत राय, रायपुर-साहेब राय, डिहिया-हिमाँचल साह, और चिन्तामनि राय-खुझ।(‘कलचुरि नरेश और उनके वंशज’ पृष्ठ 17 तथा 54-डा0 रामकुमार सिंह)
इस युद्ध में वीरगति प्राप्त तेंदुन के बघेल गयन्द शाह को हटवा ग्राम मुड़वार पवाई (जागीर) दी गई थी। ( ‘अजीत फतेह नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा’ के पृष्ठ 201 पर डा0 दिवाकर सिंह के लेख ‘तेंदुनहा बघेल’ ) मुड़वार अदेन पवाई राज्य सुरक्षा में शहीद (मूड़ कटाये) पुरखे के वारिसों को दी जाती थी। कुछ दशाओं में सैनिक सेवा भी ली जा सकती थी। पवाई अहस्तान्तारणीय होती थी। (कुँ0 रविरंजन सिंह कृत ‘रीवा तब अउर अब’ पृष्ठ 96)।
वापसी रीमाँ; राजा अवधूत सिंह की, बनना बाजीराव पेशवा का छत्रसाल का तीसरा बेटा और बनना मस्तानी का प्रेयसी रानी।
बुँदेल केसरी छत्रसाल ही थे जिन्होने बादशाह औरंगजेब आलमगीर की सत्ता को चुनौती दी थी। औरंगजेब केे सन 1707 में अवसान हो जाने पर मुगल सत्ता चरमराने लग गयी थी। औरंगजेब के उत्तराधिकारी हुये बहादुरशाह शाह आलम प्रथम। रीमाँ के राजा अवधूत सिंह की मोहर थी जिसमें ‘अवधूत सिंह वन्द-ए- शाह आलम बहादुर शाह गाजी‘ लिखा हुआ था। यही सहारा बनी अवधूत सिंह की, वे बादशाह केे कृपापात्र और राजा बनकर वापस हुये प्रतापगढ़ से रीमाँ। तब तक बहुत कुछ बदल चुका था। छत्रसाल ने अपने राज्य विस्तार के लिए, बघेल राज्य रीमाँ के पश्चिमोत्तर भूभाग के बिरसिंहपुर, ककरेड़ी, मैनहा और इलाका पथरहट (माधवगढ़) इत्यादि पर कब्जा कर लिया था। इसकी शिकायत राजा अवधूत सिंह ने बादशाह तक पहुँचायी। जहाँ से इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद खाँ बंगस को बादशाह का फरमान जारी हुआ कि वे तत्काल छत्रसाल का दमन करें। अब बुँदेल केसरी छत्रसाल की उम्र हो चली थी 80 वर्ष। इनके बेटे, बंगस की सेना को न रोक सके और जाकर जैतपुर में पिता के साथ पनाह ली। बात सन 1728-29 की है बंगस की सेना आगे बढ़ती गयी और जाकर छत्रसाल और उनके पुत्र हिरदे साह को बंदी बना लिया। विवश महाराजा छत्रसाल ने तत्काल पूना के बाजीराव पेशवा को पत्र भेज कर सहायता मागी। बाजीराव पेशवा ने पहँुच कर जैतपुर में बंगस को ऐसा घेरा कि उसके फौज को खाने तक के लाले पड़ गये। बंगस क्षमाप्रार्थी हो कर वापस हो गया।
पेशवा की इस सहायता से अहसानमंद होकर, महाराजा छत्रसाल ने उन्हे अपना तीसरा पुत्र घोषित किया। अपने राज्य बुँदेलखण्ड का विशाल पश्चिमी भूभाग बक्स दिया, साथ ही अपनी मुसलमान नर्तकी की बेटी ‘मस्तानी’ को भी प्रदान कर दिया, जिसे फारसी वाले लूली कहते-लिखते रहे। यही मस्तानी, बाजीराव पेशवा की प्रेयसी रानी बनी, जिसने जन्म दिया पेशवाजादा शमशेर बहादुर को।
‘नैकहाई जुज्झि’ बनना कारक, पेशवा जादा; शमशेर बहादुर के पुत्र अलीबहादुर का।
मस्तानी के जने बेटे की मान्यता और लालन पालन पेशवाजादे के ही समान हुआ। किन्तु ब्राह्मण पेशवा के इस बेटे को उनके भाई-बन्दो ने ब्रह्मण मानने से इन्कार कर दिया। तब नामकरण हुआ शमशेर बहादुर। वयस्क होने पर इनका विवाह मुसलमान घराने में सम्पन्न हुआ। इन्ही के पुत्र थे अलीबहादुर उर्फ कृष्ण सिंह, जिनके सेनापति ‘नायक जसवंत राव निम्बालकर‘ ने राजा अजीत सिंह के शासन काल में ‘नैकहई जुज्झि’ रोपी थी। पेशवाजादा दोनो बाप बेटे की पूना में मराठा माहौल में ही परवरिश हुई थी। दोनो ही मराठा सेना के साथ युद्ध अभियानो में जाया करते थे तथा पेशवाजादा होने की हैसियत से इनको उचित सम्मान मिलता था। इन्हे पेशवाई का प्रतीक ‘जरी पटका’ भी हासिल था, जिसके नीचे आकर अपराधी भी पकड़ धकड़ से बच जाते थे।
मच जाना बमचक बुँदेलखण्ड में, इधर रीमाँ राज्य मंे राजगद्दी पर बिराज मान होना महाराजा अजीत सिंह का।
महाराजा छत्रसाल के अवसान सन 1733 के बाद, उनके बेटों, हिरदे साह और जगत राय के बीच बटवारे को लेकर गृहयुद्ध की स्थिति बन गई। बाजीराव पेशवा भी नहीं रहे, जिन्हे बुँदेलखण्ड का तीसरा पश्चिमी भाग मिला हुआ था। मचा हुआ था बमचक बुँदेलखण्ड में। आजमानेे लगे अपना जोर बाहुबली राजे और जागीरदार। उस समय जैतपुर के बटवारे से चरखारी एवं बाँदा में दो सगे भाई राज्य कर रहे थे, जिनके बीच गोद लेने का झगड़ा उठ खड़ा हुआ।
सन 1755 में रीमाँ के राजा अवधूत सिंह के स्वर्गारोहण के बाद, राजा अजीत सिंह राजगद्दी पर बिराजमान हुये। राज्य में तब अमन चैन था। सन 1781 में राजा पन्ना अनिरुद्ध सिंह के स्वर्गवास के बाद लहुरे भाई धौकल सिंह को बैठा दिया गया था राजगद्दी पर। तब जेठे सिरनेत सिंह ने विरोध किया। राजा धौकल सिंह के दीवान और सेनापति बने बेनी हुजूरी। सन 1783 में राजा मधुकर सिंह ने बाँदा में सत्ता सम्हाली। जिनके दीवान और सेनापति हुये नोने अर्जुन सिंह पवार। राजा मधुकर सिंह की मृत्यु हो जाने पर उनके नाबालिग बेटे बखत सिंह के बाँदा राज्य के ‘रीजेन्ट’ भी बन बैठे अर्जुन सिंह और पन्ना के झगड़े में लिप्त हो कर बेनी हुजूरी से बैर ठान लिया। सन 1788 में छतरपुर के पास गोठरी में युद्ध हुआ, बेनी हुजूरी मारे गये और अर्जुन सिंह गंभीर रूप से घायल हो गये। यही तो बचे थे जो मराठों से पंगा ले सकते थे, जिन्होने पन्ना राजा धौकल सिंह, चरखारी राजा विजय बहादुर और अजयगढ़ राजा गज सिंह को दबा रखा था।
आना कृष्ण सिंह उर्फ अलीबहादुर का बुँदेलखण्ड, हासिल करना हैसियत बाँदा नवाब की।
पूना में पेशवाजादा शमशेर बहादुर प्रथम के पुत्र अलीबहादुर के पास चरखारी के वकील ने जाकर बुँदेलखण्ड की कैफियत जाहिर करते, शिकायत की कि नोने अर्जुन सिंह पवार, बाँदा के दीवान एवं सेनापति ने राजा विजय बहादुर को बेदखल कर के राज्य छीन लिया है और पन्ना राज्य पर भी अनाधिकार कब्जा कर लिया है। नोने अर्जुन सिंह के खिलाफ बुँदेलखण्ड के अन्य राजाओं ने भी एसी ही शिकायतें कर रखी थीं। यह सब सुन जान कर अलीबहादुर ने बंुँदेलखण्ड में प्रवेश किया, साथ में थे सहायक, राजा ‘अनूप गिरि‘ हिम्मत बहादुर गोसाँई, गनी बेग, दीवान सदाशिव अंबालकर और सेनापति ‘नायक’ जसवंत राव निंबालकर।
नायक पदवी के बारे में किसी प्रकार का लिखित दस्तावेज तो कहीं नहीं मिलता पर जसवंत राव, ‘नायक‘ के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध रहे हैं, तभी तो उनके और रीमाँ वालों के बीच लड़े गए युद्ध को ‘नैकहाई जुज्झि’ की संज्ञा मिली। कहा यह जाता है कि जसवंत राव निम्बालकर ने अपने बलबूते नौ राज्यों को नवाब बाँदा के अधीन करा देने से ‘नायक’ की पदवी हासिल की थी।
बात सन 1791 की है जब अलीबहादुर ने धसान नदी पार कर के पन्ना के धौकल सिंह और जैतपुर के गज सिंह को आधीनता स्वीकार कराते पूना के पेशवा का बकाया राज्य कर अदा करने को बाध्य किया। तत्कालीन बुँदेलखण्ड मे सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले बाँदा के दीवान और रीजेन्ट नोने अर्जुन सिंह पवार, उस समय अजयगढ़ में पड़ाव डाले पड़े थे। जसवंत राव एक बड़ी सेना लिये जाकर चढ़ाई कर बैठा। साथ थी गनी बेग और हिम्मत बहादुर की सेना भी। अलीबहादुर की इस विशाल सेना ने अर्जुन सिंह की पैदल सेना को परास्त कर दिया। तब अर्जुन सिंह ने हाथी पर चढ कर बैरी दल पर धावा बोला। महावत मारा गया तो खुद उसकी जगह लेकर पवार तीर और तमंचा चलाता रहा, किन्तु बुरी तरह से घायल होकर धरती पर आ गिरा। तीन सौ सिपाही उसके हाथी के आस पास मरे पड़े थे। नाबालिग राजा बखत सिंह बंदी बना लिया गया और अर्जुन सिंह का सर काट कर अलीबहादुर को अर्पित कर दिया गया। अर्जुन जैसे वीर योद्धा के मारे जाने से बुँदेलखण्ड में सनसनी फैल गई। अर्जुन सिंह की शहादत सन 1793 के 18 अप्रैल को हुई थी। तत्काल ही अलीबहादुर अजयगढ़ पर कब्जा कर बाँदा राज्य का स्वामी बन कर बाँदा को अपनी राजधानी बनाकर ‘नवाब‘ की उपाधि ग्रहण की।
अर्जुन सिंह के मारे जाने पर पन्ना के राजा धौकल सिंह से अलीबहादुर ने समझौते की बात चलायी। कहा कि ‘आप को लड़ाई का खर्च देना चाहिये। धौकल सिंह का जवाब था ‘टीका और पगड़ी तो मुझे पेशवा के यहाँ से प्राप्त हो गई है जिसका नजराना ले लिया जाय बस।’ नजराने की राशि दस लाख तय हुई। धौकल सिंह नजराना देने में हीला हवाला करते रहे आये। राशि बढ़ा कर, कर दी गयी रुपये 17 लाख। धौेकल सिंह को यह राशि न देनी थी और न दी ही। तब अलीबहादुर ने पन्ना पर चढ़ाई कर दी। धौकल सिंह अपने दीवान राजधर के साथ जंगल की राह पकड़ ली और किले पर मराठों का कब्जा होे गया। रिआयत करने पर भी जब धौकल सिंह की ओर से आना कानी हुई तो अलीबहादुर ने नायक जसवंत राव के द्वारा मड़फा की गढ़ी और गहोरा का परगना फतेह करा कर जागीर स्वरूप नायक को दे दिया। (यह परगना कभी बघेल राजाओं का हुआ करता था)।
आना राजा धौकल सिंह का रीमाँ, देना पनाह राजा अजीत सिंह का, होना बध खुमान सिंह के हाथो, गोपाल राव का और परिचय खुमान सिंह का।
इधर धौकल सिंह गायब हो गये। बुँदेलखण्ड छोड़ कर रीमाँ के राजा अजीत सिंह के यहाँ पनाह ले ली। इसके 35 वर्ष पहले सन 1758 की बात है, जब बादशाह शाह आलम का पीछा ईस्ट इण्डिया कम्पनी का लार्ड क्लाइव कर रहा था। बादशाह के साथ थीे गर्भिणी बेगम मुबारक महल (लाल बाई)ं। महाराजा अजीत सिंह ने बेगम को पनाह दी थी। उनके रहने के लिये मुकुन्दपुर की गढ़ी और खर्चे के लिये यह परगना भी लगा दिया था। गढ़ी मुकुन्दपुर में ही बेगम ने जना था अकबर सानी को जिसे अकबर द्वितीय भी कहा जाता रहा। लेकिन तब राज्य रीमाँ की हालत खस्ता न थी, जैसी अब हो चली थी।
जब अलीबहादुर के कान में यह बात पड़ी कि धौकल सिंह रीमाँ में पनाह पाये हुये हैं, तब उनकी राज्यविस्तारवादी नजर इस ओर फिरी। सेनापति नायक जसवंत राव से परामर्श कर एक हजार सेना के साथ गोपाल राव को रीमाँ भेजा। बीच राह में इस सेना की मुठभेड़ हो गई खुमान सिंह बघेल से। जिन्होने अपने तीस जाँबाज सैनिकों के साथ धाबा बोल कर गोपाल राव का सर कलम कर दिया।
खुमान सिंह; रीमाँ राज्य की पश्चिमोत्तर सीमाँ से लगे बघेल रियासत कोठी के गाँव मनकहरी के ठिकानेदार रहे हैं। ये थे नाते में उन्नीसवीे सदी सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अमर शहीद रणमत्त सिंह के पितामह के जेठे भाई। खुमान सिंह ने अपने जीवन काल में जब जब रीमाँ राज्य पर युद्ध के बादल छाये तब तब अपने भाई केसरी सिंह तथा इनके सात बेटों के साथ आकर बादलों को तिरोहित करने में मददगार रहे। इनका पूरा परिबार रीमाँ राज्य में बहुत मान्य रहा है। कई मुड़वार पवाइयाँ इस परिवार को रीमाँ राज्य की ओर से मिली हुई थीं।
पूर्व में कोठी राज्य के राजा जगतराय के भाई उदयंत राय को नैना और भरत शाह को मनकहरी मौजे बतौर गुजारा दिये गये थे जिनकी सीमा एक ही है। सरहद और रकबे को लेकर दोनो भाइयों के बीच चलता मनमुटाव उनके उत्तराधिकारियों के बीच भी चलता ही रहा आया। तीसरे पुश्त में यह मनमुटाब इतना बढ़ा कि नैना के ठाकुर महाराज सिंह और मनकहरी के ठाकुर खुमान सिंह एक दूसरे के जानी दुश्मन हो गये।
गोपाल राव का वध कर देने वाले खुमान सिंह, नवाब बाँदा अलीबहादुर के बैरी करार हुये। महराज सिंह ने काँंटे से काँटा निकालने की योजना बनायी। वे जा पहंँुचे बाँदा नवाब की मुलाजिमत करने। मौका निकाल कर; उन्होने अलीबहादुर के कान भरे, ‘आपके दो दो दुश्मन इस समय रीमाँ में हैं। एक धौकल सिंह दूसरे खुमान सिंह। रीमाँ राज्य की हालत भी खस्ता है। यह उचित समय है रीमाँ को आधीन कर लेने का। मैं रहँूगा मार्गदर्शक।’
अलीबहादुर को बात जँच गयी। साथ में बैठे नायक जसवंत राव से परामर्श कर रीमाँ राज्य पर चढ़ाई कर देने का हुक्म दे दिया। नायक ने दस हजार की सेना संगठित की। मकसद था प्रदर्शन, कि रीमाँ भयभीत होकर युद्ध नहीं करेगा और आधीनता स्वीकार कर के फौज हरजाना अधिक देगा तथा चैथ देना भी स्वीकार कर लेगा।
बाँदा से रवाना होकर नायक जा पहुँचा रीमाँ राज्य के उत्तरी इलाका जिरौंहा। जिसे बिना खून-खच्चर किये आधीनता स्वीकार कराते सरदेशमुखी चैथ बाँध दी। टाटी का भी यही अंजाम हुआ। फिर नायक कूच कर जा पहुँचा सेमरिया, जहाँ के इलाकेदार ने खूब आव भगत इसलिये की क्यों कि रीमाँ पर चढा़ई करने के लिये नायक को इन्होने भी आमंत्रित किया था। दोनो के बीच दुरभिसंधि थी कि रीमाँ को परास्त कर इलाकेदार सेमरिया को रीमाँ की राजगद्दी सौंप दी जायेगी। अतः नायक ने न तो सेमरिया को आधीनता स्वीकार करने के लिये विवश किया ना ही सरदेशमुखी चैथ की बात की। इस बाबत इतिहास का काला पन्ना छिपा है। तभी तो ‘श्री अजीत फते नायक रायसा’ के कवि दुर्गादास महापात्रकी कलम भी लड़खडा़ई है। दृष्टव्य है ग्रन्थ का छंद 67-
‘यारिमसे उलटा बाँचु, लीन मामला तासु न साँचु।
जीति जिरौहा टाटी लीन, आइ गोरैया थाना कीन।।
‘यारिमसे से उलटा बाँचु’, (बाँचु माने पढ़ो) तब व्यक्त होता है सेमरिया से मामला नहीं लिया सच बात नहीं है। जिरौहा और टाटी को जीत कर गोरैया में पड़ाव डाला।
दरसल बात यह थी कि बीते दो पुस्तों से सेमरिया इलाकेदारों की कोप दृष्टि रही है रीमाँ राज्य पर। लिखा जा चुका है कि रीमाँ के अपुत्र राजा भाव सिंह ने वंश वृद्धि बाबत सेमरिया के इलाकेदार अपने अनुज के जेठे बेटे मुकुन्द सिंह को गोद न लेकर लहुरे बेटे अनिरुद्ध सिंह को गोद लेकर अपने शासन काल में ही टीका कर दिया था। इसे नाजायज करार देते नाराज सेमरिया के इलाकेदार मुकुन्द सिंह ने राज्य शासन के विरुद्ध बगावत कर दी थी, जिसका अनुसरण उनके बाद की पीढि़यों ने भी किया। राजा अनिरुद्ध सिंह के अवसान के बाद उनके पुत्र अवधूत सिहं रीमाँ के राजगद्दी पर बिराजे। फिर इनकेे पुत्र राजा अजीत सिंह विराजे। यदि भाव सिंह ने मुकुन्द सिंह को गोद लिया होता तो सेमरिया के तत्कालीन इलाकेदार, राज्य रीमाँ के राजा होते।
चलिये, अब चल रही बात के छूटे छोर को पुनः पकड़ते, बात आगे बढ़ाई जाय। रीमाँ राज्य के तत्कालीन बाबू जय सिंह को यह पता चला कि नायक ने गोरैया में पड़ाव डाल रखा है, तब वे कतिपय सरदारों के साथ नायक से पंगा लेने चल पडे़, गोरैया की ओर। (उन दिनो रीमाँ राज्य के युवराज को बाबू साहब का खिताब बहाल रहा है। उन्नीसवीं सदी बीतते कहे जाने लगे थे महाराज कुमार।) सयाने सरदाारों ने वहाँ की परिस्थिति का निरीक्षण कर बिना छेड़ छाड़ किये वापस चलने की जायज राय प्रकट की। उनकी बात को तरजीह देते दल वापस आ गया रीमाँ। (बाबू साहब जय सिंह का सदलबल चढ़ाई करने जाना ‘श्री अजीज फते रायसा’ रचनाकार की मात्र कल्पना है।-लेखक)
नायक का सदलबल गोरैया से कूच कर जा पहँुचना चोरहटा-बाबूपुर गाँव, करना कायम अस्थाई छावनी और करना मंत्रणा राजा अजीत सिंह का।
रीमाँ की दयनीय दशा से वाकिफ, राजा धौकल सिंह; जुज्झि विभीषिका निर्मित होने के पहले ही जा चुके थे। नायक जसवंत राव गोरैया से सदलबल प्रस्थान कर आ धमका रीमाँ सहर के पश्चिम प्रवाहित बीहर नदी पार, (वर्तमान काल के रीवा वासी इसे घोघर नदी कहते हैं) और बाबूपुर-चोरहटा में ‘कैम्प’ स्थापित किया। अलीबहादुर नवाब बाँदा का खरीता भेजा गया राजा अजीत सिंह के पास। जिसमें उल्लेख था कि राजा रीमाँ, बाँदा की आधीनता के साथ सरदेशमुखी-चैथ देना स्वीकार करें, अन्यथा रीमाँ किला नेस्त-नाबूद कर जाब्ते से राज्य कब्जे में कर लिया जायेगा।’ जवाब मे राजा अजीत सिंह ने अपने खरीते में लिखवाया कि ‘न हमने आज तक किसी को कर दिया न अब देंगे’ और आयी बला से निपटने के लिये मंत्रणा करने के लिये दरबार आयोजित करने की आज्ञा दी।
उपरहटी के उत्तरी नगरकोट के सामने, खलगा में उन दिनो कर्चुलियों तथा तेंदुनहा बघेल सरदारों के खैपरैल डेरे थे। यहाँ मंत्रणा दरबार की खबर पहुँची और सरदारान जा पहुँचे किला के तत्कालीन दरबार हाल में। उक्त काल तक किला के महलों ने वर्तमान स्वरूप नहीं ले पाया था। सरदारों को आई विपदा से अवगत कराते हुये राय मांगी गई कि आज की परिस्थिती में क्या करना उचित होगा? सयाने सरदारों ने राज्य की दयनीय दशा का बखान करते राय दी कि नायक के पास पंचो को पठा कर मामला पटा लिया जाय। युवक कर्चुली सरदार बहादुर सिंह ने विरोध करते कहा ‘प्रजा को डाँट-फटकार कर त्रसित करते कर वसूली करके बैरी को दें यह मुझ कर्चुली को असहनीय है। मैं युद्ध कर नायक का प्राणांत करूँगा।’ कर्चुलियों के सरगना इनके चाचा श्याम साह ने भतीजे की तारीफ करते उनकी बात का समर्थन किया। किन्तंु अन्य सरदार मौन रहे, मानों उन्हे साँप सूँध गया हो। राजा अजीत सिंह की पाँच रानियों में से तीसरी चँदेलिन महारानी कुन्दन कुँवरि सामने आईं और अपनी मनोवैज्ञानिक वार्ता, धिक्कार और चुनौती पूर्ण बातों से सरदारान को उत्तेजित कर दिया। कहा ‘आप लोग चूड़ी पहन नारी श्रृगार करें, सामग्री मैं लिवा लायी हूँ, अपनी तलवार मुझे दें, मैं रणांगन में जाऊँगी।’ रानी दो थालों में; दासियों के हाँॅथो जो सामग्री साथ लिवा लायीं थी। एक थाल में नारी वस्त्र और श्रृंगार समग्री, दूसरे थाल में थे पान बीड़े। कर्चुली सरदार कलंदर सिंह तमक कर उठे और एक बीड़ा उठा कर मुह मे डाल क्रोधित हो दाँत पीस पीस कर चबाने लगे। पान बीड़ा उठाना संकेत था युद्ध करने की स्वीकारोक्ति।
करना सरदारों का जुज्झि की तैयारी, बोल देना धावा और नायक को मार कर जीत लेना जुज्झि।
दरबार समापन पश्चात अपने डेरे में आकर सरदारों ने आपस में मंत्रणा कर युद्ध योजना निर्मित करते हुये इत्तला करने के लिये उन ठिकाना की ओर साँडि़या सवार रवाना किये जहाँ के लोग ऐसे युद्धों में भाग लिया करते थे। अपने साथ लड़ने वाले लोगों को भी सूचित किया। कहना न होगा कि राजीवी बघेल जिनके बड़े बड़े इलाके और पवाईदारियाँ रही हैं वे ऐसे पचड़े से दूर ही रहते थे। तभी तो उनके बारे में प्रचारित था कि ‘खिरकी (पछीत) से पराय के रसोइयाँ म लुकात हँय’। बहरहाल बमुश्किल दौ सौ सशस्त्र उन्मादी सूरमा आ जुटे। दो दल बने एक का नेतृत्व किया तेंदुन के बघेल गजरूप सिंह तथा दूसरे दल के रायपुर के कलंदर सिंह कर्चुली ने।
बीहर नदी पार कर गजरूप सिंह के दल ने नायक की सेना पर सामने से धावा किया। कलंदर सिंह का दल गोड़टुटा घाट छोड़, घोघर घाट से नदी पार कर पीछे से धावा किया। नायक की ओर से जहाँ राह रुकावट के लिये खेतो मे खड़ेे अरहर के पौधोें को आपस में बँधवा दिया गया था। रायपुर वालों के सरूपा हाथी को सूँड़ मे साँकल पकड़ा दी गयी थी वह आगे आगे राह साफ करता चल रहा था। कलंदर सिंह का दल रणांगन में पहुँचा, वहाँ भयंकर मारकाट मची हुयी थी। नायक हाथी पर सवार था साथ में नीचे घोड़े पर सवार थे नैना वाले महाराज सिंह। नायक जसवंत राव की दस हजारी सेना में शामिल थीं भाड़े की सेनायें भी। कमानदार करनल मीसलबेक तो रास्ते में अटके थे, उनकी सेना तो रणांगन में उतरी ही नहीें। यही हाल हुआ हिम्मत बहादुर गोसाईं की नागा सेना और पठान सेना का। अँगरेजी में जिसे ‘ओवर कान्फीडेन्स’ कहा जाता है से प्रेरित नायक बस अपनी सेना को ही उतार कर घमण्ड से चूर, हाथी पर चढ़ा, रीमाँ सेना के रण कौशल का निरीक्षण कर रहा था। पंचम बरगाही जो सजे-बजे मोतियों की माला पहने मारे गये थे; को देख कर नायक ने महाराज सिंह से कहा था ‘बघेल जी राजा तो मारा गया। क्या यही हैं जाँबाज बघेल, जिनके जंग की आप तारीफ के पुल बाँधते थे? तभी आ धमका था कलंदर सिंह का दल, जिसे नायक की पहचान कराने के लिये कहा था महाराज सिंह ने कि ‘नायक जी आ गये बघेल’। महाराज सिंह को रीेमाँ वालों ने धिक्कारा था कि बघेल हो कर तुम बघेलों के खिलाफ दुश्मन को चढ़ा लाये। महाराज सिंह की जमीर जागी तो वे यह हरकत कर बैठे थे।
नायक की पहचान होते ही, घेर लिया इस दल ने उसके हाथी को, दोनो ओर से बरछी, भाले और तलवारें चलने लगीं। नायक हाथी से उतर कर अपनी कबूतरी नाम की घोड़ी पर चढ़ने का उपक्रम कर ही रहा था कि प्रताप सिंह ने उसके छाती को लक्ष कर भाला मारा, साथ ही भगवान सिंह की बरछी आकर छाती बेधते कलेजे में जा घुसी। तभी भूलुण्ठित नायक का सर अमरेश ़ ने काट कर झोली में डाला और भाग खड़े हुये। नायक के दल में भगदड मच गयी। रीमाँ वालों ने बैरी दल को कुछ दूर तक खदेड़ा फिर वापस हो जयकार करते चल दिये किला की ओर ,जहाँ विजय उत्सव मनाया गया।
धर देना उतार कर पगड़ी नवाब अलीबहादुर का और करना वसूल जुज्झि खर्च का राजा अजीत सिंह से।
अलीबहादुर कोे जब अपने बफादार बहादुर सिपहसालार के मारे जाने का समाचार मिला तो वह तड़प उठा। उसने अपनी पगड़ी उतार का धर दी और प्रण किया कि जब तक इसका बदला रीमाँ वालों से नहीं ले लूँगा पगड़ी नहीं बाँधूगा।
नैकहाई जुज्झि शिकस्त का असर कई आयामो पर पड़ा। बुँदेलखण्ड के कई राजे और जागीरदार अराजक होकर लूट-पाट मचाते नवाब का नाकों दम कर दिया। बंद कर दिया चैथ देना। अब तक में राजा अजीत सिंह की भाँति अलीबहादुर भी ठन ठन गोपाल हो चले थे। जुज्झि के बाद दो वर्ष बीते, तब सन 1798 में अलीबहादुर दस हजारी सेना लेकर चल पड़े रीमाँ की ओर, जुज्झि हरजाना वसूलने। इस बार भी करनल मीसलबेक और हिम्मत बहादुर की सेना उनके साथ में थी। सेना कोे छूट थी कि रास्ते के गाँवों में वह अपने वेतन के एवज में जो भी चाहे लूट कर हासिल कर लंे।
सेना आ पहँुची रीमाँ। नवाब बाँदा के प्रवक्ता हुये हिम्मत बहादुर गोेसाईं और रीमाँ के कलंदर सिंह। नवाब ने हरजाना तय किया रुपये दस लाख। ना नुकुर, राज्य की दशा की दुहाई आदि करते कराते यह माँग गिरते गिराते अंततः जाकर ठहरी रुपये दो लाख में। किन्तु कहाँ था रोकड़ा रीमाँ के राजकोष में, वहाँ तो भूँजी भाँग नहीं थी, लोटती थी घँुइस। हाँ जोड़ तँगोड़ राजा अजीत सिंह ने अपने पास से किसी तरह निकाले रुपये बारह हजार रोकड़। नौ नगद न तेरह उधार के तर्ज पर नवाब ने स्वीकार कर बकाया भुगतान के जमानत में कलंदर सिंह को अमानत बनाकर साथ लेकर वापस हो गये बाँदा। बाद में राजा अजीत सिंह ने त्योंथर का इलाका राजा माँडा के यहाँ गहन कर उधारी रकम माँग कर बाँदा भेजा और कलंदर सिंह बाँदा से वापस रीमाँ आये।
छिन जाना राज्य रीमाँ का दक्षिणी भूभाग और होना संधि ‘एच, ई, आई, सी, से, बाबू अलंकरण का बदल कर हो जाना महाराज कुमार।
दो वर्षों पूर्व की गयी संधि तोड़ कर सन 1808 में नागपुर के भोंसले राजा ने कब्जा कर लिया था, रीमाँ राज्य के दक्षिणी भूभाग पर। यही भूभाग वर्तमान में बन गया है मध्य प्रदेश का एक राजस्व संभाग शहडोल। इस भूभाग का उपभोग भोसले बहुत दिनों तक नहीं कर पाये। भोसले और एच, ई, आई, सी, याने आनरेबल ईस्ट इण्डिया कंपनी के साथ हुये युद्ध में 17 नवंबर 1817 को भोसले की पराजय हंुई। नागपुर राज्य कम्पनी के स्वामित्व में आगया। तब स्वमेव रीमाँ राज्य का वह भूभाग अँग्रेजों के स्वामित्व में आ गया। सन 1809 में राजा अजीत सिंह का बैकुण्ठवास हो गया। बाबू जय सिंह राजा बन कर रीमाँ की राजगद्दी पर बिराजे। उस काल में राज्य कोष में मात्र हाथी दाँत के दो टुकड़े बचे पड़े हुये थे। एच ई आई सी के चपेट में इन्होने एक बार अक्टूवर सन 1812 और दुबारा 5 जून सन 1813 में संधि कर ली; जो अभिलेख में दर्ज हुई-(भ्वदतंइसम म्ंेज प्दकपं ब्वउचंदल ंदक जीम त्ंरं श्रंप ैपदही क्मव त्ंरं व ित्मूंी ंदक डववानदकचववत) घ्यातव्य हंै ‘राजा’ तथा ‘रेवाह ऐण्ड मूकुन्डपूर’ शब्द। नाम बिगाड़ू अँगरेज ही हैं जिन्होनेे रीमाँ को पहले रेवाह बाद में रेवा लिखते उच्चारित करने लगे रीवा। फारसी में तो रीमाँ, रीवाँ लिखा ही जायेगा। क्योंकि उसमे ‘मँ’, ‘वँ’ हो जाता है।
साहित्य में मन रमाने वाले राजा जय सिंह ने सन 1820 में राज-काज सौंप दिया अपने बाबू साहब विश्वनाथ सिंह को। ये कुशल प्रशासनिक सिद्ध हुये। राज्य को प्रगति पथ पर लाकर माली हालत भी सुधारी और पाँच पीढि़यों के बाद रजकीय सेना भी इन्होने ही गठित की। कहा तो यह जाता है कि सेना का गठन इस मन्तव्य से किया गया था कि ‘एचईआईसी’ से लड़कर अपने राज्य का दक्षिणी बडा भूभाग छीन लें। क्यों कि संधि हो जाने के बाद भी बार बार माँग करने पर कम्पनी हीला हवाला करती आ रही थी। किन्तु राजा विश्वनाथ सिंह कम्पनी से पंगा लेने की हिम्मत न कर सके। सेना बिना काम के सफेद हाथी साबित हो रही थी। अतः उसका उपयोग सरहदी छोटे राज्यों और जागीरदारों को आधीनता स्वीकार कराने के लिये उपयोग में लाया गया। इस सेना ने राजकीय नादेहन्द इलाकेदारों और पवाईदारों पर भी दवाब बनाया। कई के आधे-चैथाई भूभाग छीन कर खालसे में शामिल कर लिये गये। कडा़ई से राजस्व वसूली होने लगी फलतः राजकोष लबा लब हो चला।
राजा विश्वनाथ सिंह भी पिता की भाँति ही महान साहित्यकार रहे हैं। हिन्दी भाषा का प्रथम नाटक ‘आनन्द रघुनन्दन’ इन्ही की देन है। पिता जय सिंह के सन 1833 में गोलोकवासी हो जाने पर बाबू विश्वनाथ सिंह राजा बन कर राजगद्दी पर बिराजे जिनका स्वर्गवास सन 1854 में हुआ। तब महाराज कुमार रघुराज सिंह ने बहैसियत राजा; राजसत्ता सँभाली। युवराज के लिये पूर्व काल से चले आरहे ‘बाबू साहब’ अलंकरण को राजा विश्वानाथ सिंह ने ही बदल कर ‘महाराज कुमार’ कर दिया था, जो राज्य विलीनीकरण तक अक्षुण रहा आया। अपनी धार्मिक धाक जमाने के लिये तत्कालीन राजे; मठ-मंदिरों की स्थापना और तुलादान आदि में अधिक रुचि रखते थे। इसी के साथ अपने वैभव-विलासिता, राजकीय परिवार के विवाह आदि में जनता से वसूले धन को बेरहमी से पानी की तरह बहा दने में अपना गौरव मानते थे। राजा रघुराज सिंह ने भी इस परंपरा का निर्वाह किया। ये भी अपने पितामह और पिता की भाँति महान साहित्यकार थे। इनकी सृजित गं्रथ संख्या; पूर्वजों से अधिक हैं। इन्होने लिखा है- जाके विद्या ताहि नाह भूप भये भये ना। काव्य शक्ति पाय काह राज कये कये ना।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन 1857 में राजा रघुराज सिंह ने राष्ट्र के विरुद्व ‘एचईआईसी’ को दिल खोल कर सहायता की थी। इन पर आक्षेप है कि इन्होन उक्त काल के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रणमत्त सिंह की गिरफ्तारी में सहयोग किया था। जबकि नैकहाई जुज्झि के अलावा अन्य जुज्झियों में रणमत्त सिंह के पूर्वजों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाते अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये थे। बचाते रहे आये रीमाँ राज्य को, पराधीन होने से। इनके पूर्वजों के नाम है स्वर्गीय खुमान सिंह इनके अनुज केसरी सिंह, भतीजेे कमोद सिंह, बलभद्र सिंह और शिवराज सिंह। कल्पनीय है यदि नैकहाई जुज्झि में इन सब का सहयोग न होता, फतहयाबी न हुई होती तब रीमाँ राज्य की दशा क्या होती? ‘श्री अजीत फते नायक रायसा’ के कवि दुर्गादास ने तो लिखा है-‘नायक अभिमानी जानै कहा, ये तो हिन्दुआनो तुरकानो करि डारतो।’
बनना ‘एच ई आई सी’ का ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट,
जाना राज्य का शासन इसके हाथ और बदल जाना रीमाँ नाम।
सन 1857 ंके स्वतंत्रा संग्राम का समन कर ‘एचईआईसी’ टूटकर बन बैठी ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट‘ जिसकी राजधानी थी तत्कालीन कलकत्ता। देश भारत (इण्डिया) हो गया ‘ग्रेटब्रिटेन’ का उपनिवेश। इसी वर्ष ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ की रीमाँ में एक एजेन्सी कायम होकर सन 1858 में नामबदल कर बन गयी ‘सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी’ और सन 1862 में स्थानान्तरित हो गयी सतना। जहाँ सन 1867-68 से रेलगाडियाँ आने जानेे लगी थीं। सन 1870 में बुँदेलखण्ड की तर्ज पर आ धमका शब्द ‘बघेलखण्ड।’
‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ ने राजा रघुराज सिंह को उनके सहयोग के उपलक्ष में उपाधि दी और दो तोप फायर बहाल के अतिरिक्त सन 1859 में वापस कर दिया वर्तमान शहडोल का सम्पूर्ण भूभाग। राजा रघुराज सिंह की फिजूल खर्ची इतनी बढ़ी हुई थी कि राजकोष खुक्ख हो गया और राज्य ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेंट’ का रुपये दस लाख का कर्जइत हो गया। तब सन 1875 में ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ की ‘पोलेटिकएजेन्सी’ नेे अपने हाथों राज्य का शासन प्रबन्ध ले लिया। राजा रघुराज सिंह के सन 1880 में परलोक सिधारने पर इनके वारिस, चार वर्षीय ब्यंकट रमण सिंह को ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ ने राजा घोषित कर के ले लिया अपने संरक्षण में। राजा ब्यंकट रमण सिंह के वयस्क होने पर सन 1895 में एजेन्सी ने प्रशासन सौंप दिया। कहना न होगा इन बीस वर्षों के अंतराल में ‘बृटिश पोलेटिकल एजेन्सी’ ने कर्ज तो पटा ही दिया और कर दी राज्य की कायापलट। किन्तु सदियों से चली आ रही राजभाषा रिमँही को हटा कर बैठ गयी फारसी।
मुगुल काल से चली आ रही दफ्तरी भाषा फारसी को अँगरेजों ने यथावत अपनाये रखा था। किन्तु ‘पोलेटिकल डिपार्टमेन्ट’ में सब काम अँगरेजी में हुआ करता था। ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ ने जब रीमाँ राज्य का प्रशासन अपने हाथो लिया तो यहाँ भी वही सब नियम लागू हो गये। तब सब से बड़ा बदलाव यह आया कि रीमाँ नाम परिवर्तित हो कर फारसी मे रीवाँ और अँगरेजी में त्म्ॅ। लिखा बोला जाने लगा रीवा। सदियों से चले आ रहे राजकीय विभाग अब बन गये महकमा और ‘डिपार्टमेन्ट’। पुराने अधिकारी नाम बदल कर हो गये हाकिम और आफीसर। अब राज्य और राजधानी का नाम रीवाँ हो चला था। बहरहाल इस राज्य के लिये उन्नीसवीे सदी के पचहत्तरवें वर्ष से जो प्रगति पथ बना वह प्रशस्त होता गया। ‘पोलेटिकल एजेन्सी’ के हाथ में रीवाँ राज्य का प्रशासन आते तक दीवान के बैठने तक का कार्यालय नहीं था। कचहरी बनी, जेल का निर्माण हुआ, सिविल लाइन बनी और ‘कमसेरियेट’ इत्यादि स्थापित हुये।
सन 1895 में राजा व्यंकट रमण सिंह के बालिग होने पर एजेन्सी ने इन्हे प्रशासन सौंप दिया। एजेन्सी के बनाये गये प्रगति पथ को इन्होने आगे बढ़या। बीसवीं सदी आ धमकी। शुरूआत में ही कई उल्लेखनीय काम हुये। पहला-राजा व्यंकट रमण सिंह ने आदेश प्रसारित किया कि दफ्तरों का काम देवनागरी लिपि में हों। फारसी वालों ने देवनागरी लिपि सीखी। दूसरा-डाक्टर ग्रिअर्सन ने भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण किया। उन्होने सदियों पूर्व से चले आ रहे राज्य की बोली ‘रिमँही‘ का नाम, नये शब्द बघेलखण्ड को मान्यता देते हुये बदल कर कर दिया बघेलखण्डी। उनकी रपट ‘ंिलंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया’ में बघेलखण्डी दर्ज है, जो घिस, धिसा कर अब बन गयी है, मात्र तीन अक्षरों की बघेली। बोली होते हुये भी इसेे अघोषित भाषा मान कर हर विधा का साहित्य रचा जा रहा है। तीसरा-‘नैकहाई जुज्झि‘ संबंधी काव्यग्रंथ ‘श्री अजीत फते नायक रायसा की प्रतियों को राजा विश्वनाथ सिंह ने कर्चुलियों के विरोध के कारण रोक दिया था। उसे लाल बलदेव सिंह ने अपने प्रेस से सन 1902 में प्रकाशित करवाया। सन 1915 में इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद करया गया पर वह सही रूप में नहीे हो पाया।
राजा व्यंकट रमण सिंह का सन 1918 में निधन हो गया। महाराज कुमार गुलाब सिंह इन्दौर में शिक्षारत थे। रीवा बुलाकर ‘असिसटैण्ट गवर्नर जनरल’ ने उन्हे राजा घोषित किया। उनके नाबालिग होने के कारण ‘रीजेन्सी‘ कायम कर के राजा के मामा रतलाम नरेश सज्जन सिंह को ‘रीजेन्ट’ नियुक्त कर दिया गया। राजा गुलाब सिंह बालिग हुये तो 31 अक्टूबर सन 1923 को ‘ब्रिटिश इण्डिया’ के ‘वायसराय ऐण्ड गवर्नर जनरल’ लार्ड रीडिंग ने इन्दौर में उन्हंे ‘रीवा स्टेट’ का प्रशासनिक अधिकार बहाल कर दिया। इनका प्रशासन बहुत-चुस्त दुरुस्त और रहा है प्रगतिशील। इनके शासन काल में सन 1939 में ‘रीवा स्टेट आर्मी’ के ‘चीफ आफ द जनरल स्टाफ’ कर्नल जनार्दन सिंह ने अपनी पुस्तक ‘रीवा राज्य का सैनिक इतिहास’ में ‘नैकहाई जुज्झि’ में भाग लिये और जूझ गये योद्धाओं का वर्णन किया है। राजा गुलाब सिंह के ही शासन काल में ‘नैकहाई जुज्झि’ स्थल पर स्थिति शहीदों के स्मारक छतुरियों का सर्वेक्षण करा का स्थल को संरक्षित कराया गया था। आवागवन के साधन विस्तार करते हुये धड़ा धड़ शिक्षा संस्थानो की स्थापना करने, राज्य में ‘लोकल सेल्फ गवर्नमेन्ट’ घोषित करने वाले शासक राजा गुलाब सिंह अचानक ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ के कोप भाजन बन बैठे। फलस्वरूप 31 जनवरी सन 1946 को इनसे प्रशासनिक अधिकार छीन कर महाराज कुमार मार्तण्ड सिंह को सौंप कर राजा कोे राज्य छोड़ कर अन्यत्र चले जाने का आदेश प्रसारित कर दिया। तदानुसार 6 फरवरी सन 1946 को राजा मार्तण्ड सिंह रीवा राजगद्दी पर बिराजे। 15 अगस्त सन 1947 को देश भारत स्वतंत्र हुआ और एक वर्ष के अंतराल में देश के 40 प्रतिशत भूभाग में काबिज रियासतंे भारत संघ का अंग बन गयीं। राजतंत्र का अंत हो गया।
बघेलखण्ड और बुँदेलखण्ड की 35 रियासतो तथा जागीरों को संयुक्त कर के 4 अप्रैल 1948 को ‘संयुक्त विन्ध्य प्रदेश’ घोषित किया गया। राजा मार्तण्ड सिंह इस प्रदेश के राज प्रमुख और पन्ना के राजा यादवेन्द्र सिंह उप राज प्रमुख घोषित हुये। कप्तान अवधेश प्रताप सिंह इस प्राँत के प्रधान मंत्री मनोनीत हुये और इसी वर्ष के 10 जुलाई को शपथ ग्रहण की। इनका मंत्रिमण्डल 14 अप्रैल 1949 को भंग हो गया और विन्ध्य प्रदेश केन्द्र शासित हो गया।
भारत के संविधान का निर्माण तो हो चुका था, इसे लोकार्पित कर देश को गणतंत्र घोषित करने की तिथि 26 जनवरी सन 1950 की बाट जोही जा रही थी। उसके 25 दिन पूर्व एक जनवरी को राज प्रमुख मार्तण्ड सिंह ने पद छोड़ दिया, क्योंकि यह पद समाप्त कर दिया गया था। देश ही नहीं संसार को मार्तण्ड सिंह का अवदान रहा है 27 मई सन 1951 को सीधी जिले के बरगड़ी से पकड़वाया गया विलक्षण सफेद नस्ल का बाघ ‘मोहन‘। सदियों पूर्व पूर्वजों का स्थापित किया रीवा राज्य देश को सौंपा, शहनशाही त्याग, सामान्य जन सा जीवन जीता, 20 नवंबर 1995 को मार्तण्ड अस्त हो गया।
भारत गणतंत्र घोषित हो जाने के बाद देश का प्रथम आम चुनाव सन 1952 में हुये। विन्ध्य प्रदेश में भारतीय काँग्रेस पार्टी जीत कर आयी और पं0 शम्भू नाथ शुक्ल मुख्य मंत्री निर्वाचित हो कर 2 अप्रैल 1952 को शपथ ग्रहण की। इनका मंत्रिमंडल एक पंचवर्षीय योजना भी पूरी नहीं कर पाया था कि भाषावार राज्य पुनर्गठन की चपेट में आकर एक नवंबर 1956 को उन दिनो; देश के सब से बड़े प्रदेश मघ्य प्रदेश में मिला दिया गया। विन्ध्य इकाई में दो राजस्व संभाग रहे हैं, बघेलखण्ड और बुँदेलखण्ड। संयुक्त 35 रियासतों वाले विन्ध्य प्रदेश में अन्य 34 रियासतों के छेत्रफल से अधिक 13000 वर्गमील का क्षेत्र रहा है अकेले रीवा रियासत का। विन्ध्य इकाई से बुँदेलखण्ड संभाग तो पहले ही अलग हो चुका था। बघेलखण्ड को खण्ड खण्ड विखण्डित करने के साजिश में 14 जून 2008 में संभाग के दक्षिणी जिले शहडोल को संभाग बना दिया गया।
ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि -
संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
है निशा-दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड है,
चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है।
- राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त।
देना गवाही इतिहास का
तत्कालीन रीमाँ राज्य की ‘नैकहाई जुज्झि’ बहुचर्चित है। तीन सदियाँ बीत जाने के बाद भी इसकी चर्चा जब तब होती ही रहती है। यह विवादित भी है। किंबदंतियों को आधार बनाये हुए य जो जितना सुन कर जानते हैं उसे ही राग बनाये अपनी डफली बजातेे नहीं थकते। नैकहाई जुज्झि हुई थी राज्य विस्तारवादी, तत्कालीन बाँदा नवाब अलीबहादुर के सिपहसालार, ‘नायक’ यशवंत राव निम्बालकर के विरुद्ध, रीमाँ राज्य के गिने-चुने सरदारों के मध्य। वह जमाना था जिसकी लाठी उसकी भैंस का। देश में वर्चस्व था बाहुबलियों का।
होना स्थापित बधेल राज्य गहोरा, बाँधोगढ़़ और रीमाँ का
आइये काल इतिहास निहारें। गुजरात क्षेत्र से मघ्यदेश में आकर बघेल राजपूतों ने भट्ठा-गहोरा राज्य की स्थापना की। यह राज्य यमुना नदी के दक्षिण वर्तमान उत्तर प्रदेश के बाँदा जिला से लेकर वर्तमान मिरजापुर जिला तक एक पट्टी के रूप में स्थापित रहा है। राजधानी का नाम रहा है गहोरा। जहाँ रहते इन बघेलों ने लगभग दौ सौ वर्षों तक यह राज्य संचालित किया। अपने शासन काल के मध्य राजा रामचन्द्र देव ने ईस्वी सन 1563 में गहोरा त्याग कर सुदूर दक्षिणी बनप्राँतर में स्थिति पुराने बाँधोगढ़ को राजधानी बना कर बाँधौं राज्य की स्थापना की थी। मात्र 34 वर्ष बीते, तभी राजनैतिक उठा-पटक के चलते ईस्वी सन् 1597 में तत्कालीन हिन्दुस्तान के बादशाह अकबर ने बाँधोगढ़ को मुगुल सल्तनत के आधीन कर लिया। मुक्त किया ईस्वी सन् 1602 में, बाँधो के राजा रामचन्द्र देव के पुत्र, राजा वीरभद्र देव के कनिष्ठ पुत्र दुर्योधन का टीका कर के। दुर्योधन जिन्हे जिरजोधन कहा जाता रहा, राजा वीरभद्र देव के मुसलमान भितरहाई के पेट से जनमेंय जारज पुत्र रहे हैं। जेठे पुत्र विक्रमादित्य जिन्हे बिकरमाजीत कहा जाता रहा, रानी के पेट से जनमें जायज पुत्रय बागी घोषित थे। ईस्वी सन् 1605 में अकबर का निधन हुआ, जहाँगीर बादशाह बने। इन्होने विक्रमादित्य को माफ कर, 18 परगने की रीमाँ-मुकुन्दपुर जागीर बहाल की। राजा विक्रमादित्य ने अपने राज्य की राजधानी रीमाँ में स्थापित की। जो उन दिनो रीमाँ मण्डी केे नाम से विख्यात था। यहाँ बीहर और बिछिया नदियों के संगम तट पर, तत्कालीन भारत के बादशाह शेरशाह सूरी के दूसरे क्रम के शाहजादे जलाल खाँ अफगान की तामीर कराई गढ़ी रिक्त पड़ी हुई थी। उसे विस्तृत करा कर राजा विक्रमादित्य ने अपना आवास बनाया और रहने लगे। सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से पूर्व और उत्तर दिशा में परकोटे का निर्माण कराया। दक्षिण में बिछिया और पश्चिम में बीहर नदियाँ प्रवाहित हैं। इन्होने गढ़ी के बाहर विस्तृत परिसर, उपरहटी में बस्ती बसाईं, जहाँ इक्का दुक्का लोगों की बसाहट थी। शीघ्र ही अच्छी खासी बस्ती बस गयी। राजा के समीपी वर्ग में मुसलमान सम्प्रदाय का जत्था, जो गहोरा से बाँधवगढ़ और बाँधवगढ़ से रीमाँ राजा के साथ साथ चलता था, राजा के मिरदहा ‘साहनी’ (ऊँट चराने वाले)े, रात को राजा के माचा का पहरा देने वालों के अलावा महावत लोगों की गिनती इसी तबके में थी। सहानियों को उपरहटी के निकटवर्ती स्थान में पूरब की ओर स्थान दिया गया। केवल महावतों के लिये पटपर दरवाजे पर बसाने का कदाचित हाथियों को नहलाने की सुविधा के कारण जगह मिली बाकी सम्पूर्ण बस्ती में ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र ही आज तक रहते आये हैं। क्षत्रिय (राजपूत) या तो बसाये नहीं गये या रीमाँ में बसना पसन्द नहीं किया। दलितों को उपरहटी के बाहर ही रहना पड़ा अर्थात वे रानी तालाब के निकट से लेकर धोबिया टंकी तक फैले हुये हैं शेष मुस्लिम समाज को साहनी टोला में कुछ दूर पर स्थान मिला। (प्रो0 अख्तर हुसैन निजामी द्वारा संपादित ‘अजीत फतेह नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृष्ठ 299।)
पहले रीमाँ, फिर रीवाँ अंततः रीवा राज्य का इतिहास, इसी काल से प्रारंभ होकर क्षेत्रफल बढ़ता-घटता, ऊँच-नीच भोगता, महाराजा मार्तण्ड सिंह के शासन काल के अंत, ईस्वी सन 1948 तक का है।
विक्रमादित्य को रीमाँ-मुकुन्दपुर जागीर मिली। फिर चरितार्थ हुई रिमही उक्खान कि ‘गें नरदा के नियाउ का औ हारि आयें बखरी। उन्होने बाँधोगढ़ पर अपना दावा पेश किया जो बादशाह के यहाँ से नामंजूर हो गया। तब आव देखा न ताव कतिपय अपने समर्थकों के साथ चल पड़े बाँधोगढ़ पर हमला करने। बादशाह जहाँगीर ने राजा महा सिंह कछवाहा को विद्रोह समन करने का फरमान जारी कर दिया। राजा महा सिंह, विद्रोह दमन करने में सफल रहे। बादशाह ने रीमाँ-मुकुन्दपुर जागीर इन्ही राजा महा सिंह को बहाल कर दी। यह घटना है ईस्वी सन 1610 की, जो दर्ज है रीवा गजेटियर सन 1992 के पृष्ठ 35 पर।
बात वही, कि ‘आधी छाँड़ पूरी को धाबै, आधी रहै न पूरी पाबै। परेशान विक्रमादित्य ने शाहजादा खुर्रम, जो बाद में शाहजहाँ बादशाह हुये से सम्पर्क साध कर तत्कालीन बादशाह जहाँगीर के दरबार में हाजिर होकर अपने गुनाह की माफी मागी। गुनाह माफ हुआ, जिसका जिकर ‘तुजुक जहाँगीरी’ में इस प्रकार है- ‘आज रीवाँ का राजा आया और उसका कुसूर माफ हुआ, सन 1618’ ़ संभवतः इसीलिए इतिहासकार राजा विक्रमादित्य का शासन काल सन 1618 से उनके मृत्युकाल 1624 तक मानते हैं। इनके बाद की छठवीं पीढ़ी के राजा अजीत सिंह के शासन काल में ‘नैकहाई जुज्झि’ हुई थी।
रीमाँ रियासत के प्रथम राजा विक्रमादित्य के अवसान के बाद, सन 1624 में इनके सुपुत्र राजा अमर सिंह ने राज्य की बागडोर सम्हाली और भारत के तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ से पंचहजारी मनसब प्राप्त की। एक यही पहले और आखिरी रीमाँ के बघेल राजा रहे, जिन्होने मुगलिया मनसब के साथ दो बार शाही अभियान में शामिल हुये। ये दोनो युद्ध ओरछा के बुँदेला राजा के विरुद्ध लड़े गए थे। इसका खामियाजा इनके वारिस राजा अनूप सिंह को भुगतना पड़ा जिन्होने सन 1640 में रीमाँ राज्य की सत्ता सम्हाली थी। इन्हे भी एक हजारी मनसब प्राप्त हुआ था जिसका उपभोग ये न कर सके।
मुगलिया सेना के फौजी ओहदेदार, मनसबदार कहलाते थे। मनसबदारी हुआ करती थी एक हजारी, दो हजारी, सेह हजारी माने तीन हजारी। ऐसे ही चार, पाँच और इसके आगे की संख्या की भी। इसके लिए निर्धारित संख्या में मनसबदार को हाथी, ऊँट, घोडे़ और सैनिक रखने पड़ते थे। जिसके लिए मनसबदार को तनख्वाह निर्धारित हुआ करती थी, ताकि इन सबका रख रखाव हो सके। (संदर्भ-विश्व इतिहास कोश- श्री चन्द्रराज भण्डारी)
ओरछा के बुँदेला राजा जो पहले मुगलिया सलतनत के दुश्मन हुआ करते थे अब हो गए थे उसके आधीन। राजा पहार सिंह बुँदेला को चैरागढ़ के बागी गोंड़ राजा हिरदे साहि को सबक सिखाने के लिए बादशाह ने भेजा। हिरदे साहि सपरिवार भाग आये रीमाँ, जहाँ राजा अनूप सिंह ने पनाह दी। पहार सिंह को अपने पूर्वज और बघेल राजा के वारिस से बदला लेने का मौका मिला, वह बढ़ चले रीमाँ की ओर। राजा अनूप सिंह अपने परिवार और राजा हिरदे साहि के परिवार के साथ रीमाँ की अपनी गढ़ी छोड़ कर जा पहुँचे त्योंथर के बनाँचल में। पहार सिंह ने रीमाँ आकर मनपसार लूट मचाई। हँकबा ले गये हाथी, ऊँट घोड़े भी। बाद में लूटे हुयेे, दो हाथी और तीन हथिनियों मे से एक हाथी और दो हथिनियाँ बादशाह को नजर कर दीें। राज्य का काफी बड़ा भूभाग भी हड़प लिया। राजा अनूप सिंह का आमेर के मिर्जा राजा जय सिंह की सिफारिस से बादशाह ने गुनाह माफ कर दिया। इन्हे पुनः सन 1656 में रीमाँ राज्य वापस मिला, पर काफी बड़े भूभाग से हाथ धोना पड़ा। इन बातों की जानकारी ब्लैकमैन कृत हिन्दी अनुवाद ‘आइने अकबरी’ से मिलती है। अनूप सिंह को सन 1657 में सेहहजूरी मनसब तो मिला, किन्तु इन्हे भी सेना गठन की नहीं सूझी। ( संदर्भ ‘अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा’)।
राजा अनूप सिंह के वारिस राजा भाव सिंह का शासन काल रहा है ईस्वी सन 1660 से 1694 तक। इन्होने गढ़ी को भव्यता प्रदान कर गढ़ का रूप दिया। सामने एक महल का निर्माण कराते हुए जगन्नाथ स्वामी का मंदिर तो निर्माण कराया ही, परिसर के भीतर पूर्व-दक्षिण ओर यायावर व्यापारी लमानो के तामीर कराये प्राचीन मृत्युन्जय महादेव मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर भव्यता प्रदान की। यही हैं पहले राजा जिन्होने गोलगुम्बद वास्तु का रीमाँ में चलन शुरू किया। इनके डेढ़ दर्जन रानियो के होते हुए, एक भी संतान नहीं थी। इनकी रानी अजब कुँवरि का निर्माण कराया राजधानी रीमाँ में रानीतालाब और राजस्थानी शैली की बावली दर्शनीय है। रानी तालाब जहाँ वर्ष में दो बार मेला भरता है, को हाल ही में नगर निगम रीवा ने सुंन्दर ‘पिकनिक स्पाट’ के रूप में सजा डाला है। यहाँ नौकायन का भी प्रावधान है।
राजा भाव सिंह के शासन काल में भी राज्य सेना का अभाव था, जबकि बादशाह औरंगजेब से एक हजारी औपचारिक मनसब इन्हे भी प्राप्त था। हाँ, बादशाह अकबर के समान इनकी भी दरबार जमती थी। जिसके लिए राज्य के बाहर से विद्वानो को आमंत्रित कर राज्य में बसाया गया था। दरबार के नौ रत्नो में से एक रहे हैं रूपणि शर्मा जिनसे संस्कृत में ‘बघेल वंश वर्णनम’ नाम के ग्रंथ की रचना करवायी गयी थी।
पुत्र के अभाव में उत्तराधिकारी हेतु बादशाह से मंजूरी ले कर राजा भाव सिंह ने अपने अनुज, सेमरिया इलाकेदार के कनिष्ठ पुत्र अनिरुद्ध सिंह को गोद ले लिया था। दत्तक पुत्र के स्वीकृति लेने के लिए कुछ व्यय करने के साथ ही रिश्तेदारो-सरदारों की भी सहायता लेनी पड़ती थी। लहुरे भाई को रीमाँ राजा द्वारा गोद ले लिए जाने से जेठे भाई राज्य के दुश्मन बन गए थे।
राजा भाव सिंह के शासन काल में तत्कालीन रत्नपुर नरेश तखत सिंह देव के चचेरे भाई नीलकंठ देव कर्चुली अपने परिवार और साथियों के साथ रीमाँ आये। उन्हे पश्चिम की ओर 15 किलोमीटर दूर गाँव भोलगढ़ रहने के लिये दिया गया। जिसका उल्लेख डा0 रामकुमार सिंह कृति ‘कलचुरि नरेश और उनके वंशज’ के पृष्ठ 15 पर हुआ है।
राजा भाव सिंह के दत्तक पुत्र राजा अनिरुद्ध सिंह का शासन काल रहा है ईस्वी सन 1694-1700 रानी बीनकुँवरि से युवराज अवधूत सिंह पैदा हो चुके थे, जब राजा अनिरुद्ध सिंह ने ठाकुर रघुनाथ सिंह सेंगर की कन्या के साथ राक्षस विवाह करने का प्रयास किया। ठाकुर घर में न थे, कहीं बाहर गए हुए थे। ठाकुर कन्या ने अपनी सुरक्षा के लिए बंदूक उठयी और राजा अनिरुद्ध सिंह को निशाना बना कर दाग दिया। राजा वहीं धराशायी हो गये। उसी स्थल पर उनकी छतुरी, मनिगमा गढ़ी से बाहर नदी किनारे आज भी खड़ी है। रानी ने राज्य की व्यवस्था, तरौंहा (करवी तहसील जिला बाँदा) के रुद्रसाह के पुत्र हृदय राय सुरकी को सौंप कर दुधमुहे शिशु को लेकर मायके प्रतापगढ़ पधार गईं। (‘अजीत फते नायक रायसा बघेल खण्ड का आल्हा’ पृष्ठ 6) इस समय राजा अनिरुद्ध सिंह के वारिस, राजा अवधूत सिंह मात्र 6 माह के शिशु रहे हैं। जिनका शासन काल विभिन्न इतिहास के पन्नो में ईस्वी सन 1700 से 1755 तक दर्ज है
।
बनाना छत्रसाल का बृहत राज्य बुँदेलखण्ड
यह वह काल रहा है जब बघेलखण्ड शब्द भविष्य के कोख में पनप रहा था, जबकि चैदहवीं सदी से जाना-माना जाता है बुँदेलखण्ड। जहाँ रुपये 350 वार्षिक आमदनी वाले महोबा के मामूली जागीरदार चंपतराय ने बुँदेलखण्ड की स्वतंत्रता के लिए लड़ते-लड़ते सब कुछ गँवा कर, गवाँ दिया था प्राण भी। उनके सुपुत्र बालक छत्रसाल यहाँ-वहाँ मारे-मारे फिरने लगे। थके हारे, जंगल में एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे असाधारण बालक छत्रसाल पर महाबली नाम के एक सामान्य कृषक व्यक्ति की नजर पड़ी। वह बालक छत्रसाल को अपने धर में रख कर, लालन-पालन करने लगा। विषम परिस्थित से दो दो हाथ करते किशोर हुये छत्रसाल ने जाँबाजों की एक छोटी सी सेना गठित की। अपने पिता के हत्यारे के प्राण हत लिये। अपने बाहुबल, पराक्रम एवं बुद्धि कौशल से शक्ति अर्जित कर मुगल ठिकानो, चैकियों और मनसबदारों को एक एक कर ठिकाने लगाते बृहत बुँदेलखण्ड राज्य का निर्माण किया। ये प्रसिद्ध हो चले बुँदेल केसरी छत्रसाल महाबली के नाम से। अपने नाम के साथ महाबली जोड़ना छत्रसाल की महान उदारता है। यह उस महाबली को दिया गया ‘अनुपम बदला’ है जिसने उन्हे बचपन मे पाल कर बड़ा किया था। (‘हंस की उड़ान,’ कुँअर सूर्यबली सिंह का बाल उपयोगी साहित्य, ‘छत्रसाल का अनुपम बदला’ पृष्ठ 103)।
रीमाँ किले पर कब्जा हिरदे साह बुँदेले का, होना बँुदेलहाई जुज्झि का और पराक्रम कर्चुलियों का।
बुँदेल केसरी छत्रसाल के बेटे, हिरदे साह बँटवारे से नाराज होकर, पन्ना आकर रहने लगे थे। उनकी गिद्ध दृष्टि रीमाँ राज्य के विसम परिस्थिति पर पड़ी तो एक बड़ी सेना के साथ आ धमके। ना मारा न खून किया के तर्ज पर रीमाँ किला में कब्जा कर लिया। रीमाँ के लोगों के कान में जूँ तक न रेंगी। रीमाँ किला को ‘गैरिजन’ बनाकर एक हजार बुँदेला सिपाहियों को सुपुर्द कर पन्ना वापस चले गए हिरदे साह । कतिपय के हाँ और कतिपय के ना, पर, विवादित है बात कि ‘हिरदे साह ने अपने जीत की निशानी किले के बाहर ‘बुँदेला दरवाजा’ तामीर कराया था।’ हाँ वाले कहते हैं कि हिरदे साह के तामीर कराये बँुदेला दरवाजे को उन्नीसवीं सदी के महाराज रघुराज सिंह ने नेस्त नाबूद करा कर उसी स्थल पर निर्मित करा दी थी ‘कोतवाली टावर’। वह अब जर्जर हो कर अब गिरी कि तब गिरी हो रही है।
हिरदे साह का रीमाँ किला का कब्जा करना नागवार गुजरा भोलगढ़ में रह रहे नीलकंठ देव कर्चुली को। रणकौशल पटु ,वृद्ध नीलकंठ देव ने अपने चारों पुत्रों को बुलाकर, वीरोचित कर्तव्य बोध का पाठ पढ़ाते कहा-‘हमने राजा को राज्यरक्षा का वचन दे रखा है। किले में बैरी घुसा पड़ा है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। यह क्षत्रिय धर्म का घोर अपमान है। आज परीक्षा की घड़ी सामने है। जाओ बैरी दल को किला से खदेड़ दो। अपने कर्तव्य का निरवहन करते, भले बोटी बोटी कट जाना पर पराजित होकर वापस आ मुझे मुंह मत दिखाना। मै वृद्ध, अशक्त हूँ, अन्यथा मैं तुम सब का मार्गदर्शन करता, बैरी को सबक सिखाता।’ युद्ध फतह की अपनी बनाई योजना से अवगत कराते हुए कहा ‘इस युद्ध के लिए तेंदुन के वीर बघेलों को भी आमंत्रित कर अपनी वीर वाहिनी की संख्या में इजाफा कर सकते हो।’
इस आयोजित युद्ध योजना में मात्र 46 योद्धा ही जुट पाये। जोे रात ही किले के दक्षिण स्थिति कुठुलिया वन में पहुँचे और दाँतो से तलवार दबाये एक एक कर, प्रवाहित बिछया नदी को पार करते जा पहुँचेे किला के पछीत में। पौ फटने लगी, तभी जैसे सिंह, सिंहनी अपने शावको के साथ रखरे हुए मृग झुण्ड पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार ये योद्धा, बैरी दल पर जा झपटे। पहरा दे रहे सैनिक दल को विदार कर जा घुसे किला के भीतर और वहाँ भी भीषण मार-काट मचा दी। मच गयी भगदड़। डयोढ़ी छेंक कर खड़े थे उसी दिन विवाह कर के आये हुए, साहब राय कर्चुली के पुत्र और नीलकंठ देव के पौत्र, 16 वर्षीय मरदन साह। जो भी बैरी भागता; बाहर निकलने को होता; उससे दो दो हाथ करते, उसके मौत का रमन्ना काट देते। यह सब करते वे स्वयं भी बुरी तरह घायल होकर वहीं शहीद हो गये, जिनकी स्मारक छतुरी; उसी स्थल पर; परिसर के अन्दर तब के किला डयोढ़ी पर खड़ी है। (डा0 रामकुमार सिंह कृति ‘कलचुरि नरेश और उनके वंशज’ पृष्ठ 16)
भीषण मार-काट से बचा; बैरी दल भागा, पीछा किया रणबाँकुरे रीमाँ के दल ने और घेर लिया आकर वर्तमान घोघर स्कूल रीवा के मैदान में। जहाँ मच गया रौद्ररस संचारी घोर भीषण युद्ध। मरदन साह के पिता ने अपने पुत्र को और तीनो चाचाओं ने देखा था; शहीद होते अपने लाड़ले भतीजे को। बाँध लिया था सर पर कफन, यह संकल्प करते कि; ‘आज बैरी दल का हर हालत में दमन कर डालना है, चाहे शरीर के रक्त की अंतिम बूँद भी बहा देना पड़े। यह युद्ध हमारे जीवन का अन्तिम निर्णायक युद्ध होगा।’ इनके युद्ध प्रमाद को देखने वलों ने दाँतो तले उँगली दबाते कहा कि ‘इन सब के शरीर में भैरवी प्रवेश कर गयी है।’
साहब राय उनके भाई हिम्मत राय और चिन्तामन राय के प्राण हत करके, दुबारा की मार-काट से बचा बैरी दल सर पर पैर रख भाग खड़ा हुआ। कहा जाता है कि खानवा युद्ध (सन1527) में राणा संग्राम सिंह को 72 घाव लगे थे। इस युद्ध में, इसी संख्या के घाव साहब राय के मृत शरीर पर गिने गये थे। ईस्वी सन 1702 में लड़ा गया यह युद्ध, ‘बुँदेलहाई जुज्झि’ के नाम से जाना गया।
‘बँुदेलहाई जुज्झि’ में जूझे हिम्मत राय, साहेब राय और चिन्तामनि राय के स्मारक उसी स्थल पर निर्मित अति जर्जर छतुरियाँ वर्तमान काल के घोधर स्कूल परिसर में खड़ी हैं। ‘तत्कालीन शासन ने इन वीरों के बलिदान की स्वीकृति के रूप में उनके वंशजों का बड़ा सम्मान किया। मानदेय के रूप में उनके वंशजों को मुड़वार जागीरें प्रदान की-पटना-हिम्मत राय, रायपुर-साहेब राय, डिहिया-हिमाँचल साह, और चिन्तामनि राय-खुझ।(‘कलचुरि नरेश और उनके वंशज’ पृष्ठ 17 तथा 54-डा0 रामकुमार सिंह)
इस युद्ध में वीरगति प्राप्त तेंदुन के बघेल गयन्द शाह को हटवा ग्राम मुड़वार पवाई (जागीर) दी गई थी। ( ‘अजीत फतेह नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा’ के पृष्ठ 201 पर डा0 दिवाकर सिंह के लेख ‘तेंदुनहा बघेल’ ) मुड़वार अदेन पवाई राज्य सुरक्षा में शहीद (मूड़ कटाये) पुरखे के वारिसों को दी जाती थी। कुछ दशाओं में सैनिक सेवा भी ली जा सकती थी। पवाई अहस्तान्तारणीय होती थी। (कुँ0 रविरंजन सिंह कृत ‘रीवा तब अउर अब’ पृष्ठ 96)।
वापसी रीमाँ; राजा अवधूत सिंह की, बनना बाजीराव पेशवा का छत्रसाल का तीसरा बेटा और बनना मस्तानी का प्रेयसी रानी।
बुँदेल केसरी छत्रसाल ही थे जिन्होने बादशाह औरंगजेब आलमगीर की सत्ता को चुनौती दी थी। औरंगजेब केे सन 1707 में अवसान हो जाने पर मुगल सत्ता चरमराने लग गयी थी। औरंगजेब के उत्तराधिकारी हुये बहादुरशाह शाह आलम प्रथम। रीमाँ के राजा अवधूत सिंह की मोहर थी जिसमें ‘अवधूत सिंह वन्द-ए- शाह आलम बहादुर शाह गाजी‘ लिखा हुआ था। यही सहारा बनी अवधूत सिंह की, वे बादशाह केे कृपापात्र और राजा बनकर वापस हुये प्रतापगढ़ से रीमाँ। तब तक बहुत कुछ बदल चुका था। छत्रसाल ने अपने राज्य विस्तार के लिए, बघेल राज्य रीमाँ के पश्चिमोत्तर भूभाग के बिरसिंहपुर, ककरेड़ी, मैनहा और इलाका पथरहट (माधवगढ़) इत्यादि पर कब्जा कर लिया था। इसकी शिकायत राजा अवधूत सिंह ने बादशाह तक पहुँचायी। जहाँ से इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद खाँ बंगस को बादशाह का फरमान जारी हुआ कि वे तत्काल छत्रसाल का दमन करें। अब बुँदेल केसरी छत्रसाल की उम्र हो चली थी 80 वर्ष। इनके बेटे, बंगस की सेना को न रोक सके और जाकर जैतपुर में पिता के साथ पनाह ली। बात सन 1728-29 की है बंगस की सेना आगे बढ़ती गयी और जाकर छत्रसाल और उनके पुत्र हिरदे साह को बंदी बना लिया। विवश महाराजा छत्रसाल ने तत्काल पूना के बाजीराव पेशवा को पत्र भेज कर सहायता मागी। बाजीराव पेशवा ने पहँुच कर जैतपुर में बंगस को ऐसा घेरा कि उसके फौज को खाने तक के लाले पड़ गये। बंगस क्षमाप्रार्थी हो कर वापस हो गया।
पेशवा की इस सहायता से अहसानमंद होकर, महाराजा छत्रसाल ने उन्हे अपना तीसरा पुत्र घोषित किया। अपने राज्य बुँदेलखण्ड का विशाल पश्चिमी भूभाग बक्स दिया, साथ ही अपनी मुसलमान नर्तकी की बेटी ‘मस्तानी’ को भी प्रदान कर दिया, जिसे फारसी वाले लूली कहते-लिखते रहे। यही मस्तानी, बाजीराव पेशवा की प्रेयसी रानी बनी, जिसने जन्म दिया पेशवाजादा शमशेर बहादुर को।
‘नैकहाई जुज्झि’ बनना कारक, पेशवा जादा; शमशेर बहादुर के पुत्र अलीबहादुर का।
मस्तानी के जने बेटे की मान्यता और लालन पालन पेशवाजादे के ही समान हुआ। किन्तु ब्राह्मण पेशवा के इस बेटे को उनके भाई-बन्दो ने ब्रह्मण मानने से इन्कार कर दिया। तब नामकरण हुआ शमशेर बहादुर। वयस्क होने पर इनका विवाह मुसलमान घराने में सम्पन्न हुआ। इन्ही के पुत्र थे अलीबहादुर उर्फ कृष्ण सिंह, जिनके सेनापति ‘नायक जसवंत राव निम्बालकर‘ ने राजा अजीत सिंह के शासन काल में ‘नैकहई जुज्झि’ रोपी थी। पेशवाजादा दोनो बाप बेटे की पूना में मराठा माहौल में ही परवरिश हुई थी। दोनो ही मराठा सेना के साथ युद्ध अभियानो में जाया करते थे तथा पेशवाजादा होने की हैसियत से इनको उचित सम्मान मिलता था। इन्हे पेशवाई का प्रतीक ‘जरी पटका’ भी हासिल था, जिसके नीचे आकर अपराधी भी पकड़ धकड़ से बच जाते थे।
मच जाना बमचक बुँदेलखण्ड में, इधर रीमाँ राज्य मंे राजगद्दी पर बिराज मान होना महाराजा अजीत सिंह का।
महाराजा छत्रसाल के अवसान सन 1733 के बाद, उनके बेटों, हिरदे साह और जगत राय के बीच बटवारे को लेकर गृहयुद्ध की स्थिति बन गई। बाजीराव पेशवा भी नहीं रहे, जिन्हे बुँदेलखण्ड का तीसरा पश्चिमी भाग मिला हुआ था। मचा हुआ था बमचक बुँदेलखण्ड में। आजमानेे लगे अपना जोर बाहुबली राजे और जागीरदार। उस समय जैतपुर के बटवारे से चरखारी एवं बाँदा में दो सगे भाई राज्य कर रहे थे, जिनके बीच गोद लेने का झगड़ा उठ खड़ा हुआ।
सन 1755 में रीमाँ के राजा अवधूत सिंह के स्वर्गारोहण के बाद, राजा अजीत सिंह राजगद्दी पर बिराजमान हुये। राज्य में तब अमन चैन था। सन 1781 में राजा पन्ना अनिरुद्ध सिंह के स्वर्गवास के बाद लहुरे भाई धौकल सिंह को बैठा दिया गया था राजगद्दी पर। तब जेठे सिरनेत सिंह ने विरोध किया। राजा धौकल सिंह के दीवान और सेनापति बने बेनी हुजूरी। सन 1783 में राजा मधुकर सिंह ने बाँदा में सत्ता सम्हाली। जिनके दीवान और सेनापति हुये नोने अर्जुन सिंह पवार। राजा मधुकर सिंह की मृत्यु हो जाने पर उनके नाबालिग बेटे बखत सिंह के बाँदा राज्य के ‘रीजेन्ट’ भी बन बैठे अर्जुन सिंह और पन्ना के झगड़े में लिप्त हो कर बेनी हुजूरी से बैर ठान लिया। सन 1788 में छतरपुर के पास गोठरी में युद्ध हुआ, बेनी हुजूरी मारे गये और अर्जुन सिंह गंभीर रूप से घायल हो गये। यही तो बचे थे जो मराठों से पंगा ले सकते थे, जिन्होने पन्ना राजा धौकल सिंह, चरखारी राजा विजय बहादुर और अजयगढ़ राजा गज सिंह को दबा रखा था।
आना कृष्ण सिंह उर्फ अलीबहादुर का बुँदेलखण्ड, हासिल करना हैसियत बाँदा नवाब की।
पूना में पेशवाजादा शमशेर बहादुर प्रथम के पुत्र अलीबहादुर के पास चरखारी के वकील ने जाकर बुँदेलखण्ड की कैफियत जाहिर करते, शिकायत की कि नोने अर्जुन सिंह पवार, बाँदा के दीवान एवं सेनापति ने राजा विजय बहादुर को बेदखल कर के राज्य छीन लिया है और पन्ना राज्य पर भी अनाधिकार कब्जा कर लिया है। नोने अर्जुन सिंह के खिलाफ बुँदेलखण्ड के अन्य राजाओं ने भी एसी ही शिकायतें कर रखी थीं। यह सब सुन जान कर अलीबहादुर ने बंुँदेलखण्ड में प्रवेश किया, साथ में थे सहायक, राजा ‘अनूप गिरि‘ हिम्मत बहादुर गोसाँई, गनी बेग, दीवान सदाशिव अंबालकर और सेनापति ‘नायक’ जसवंत राव निंबालकर।
नायक पदवी के बारे में किसी प्रकार का लिखित दस्तावेज तो कहीं नहीं मिलता पर जसवंत राव, ‘नायक‘ के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध रहे हैं, तभी तो उनके और रीमाँ वालों के बीच लड़े गए युद्ध को ‘नैकहाई जुज्झि’ की संज्ञा मिली। कहा यह जाता है कि जसवंत राव निम्बालकर ने अपने बलबूते नौ राज्यों को नवाब बाँदा के अधीन करा देने से ‘नायक’ की पदवी हासिल की थी।
बात सन 1791 की है जब अलीबहादुर ने धसान नदी पार कर के पन्ना के धौकल सिंह और जैतपुर के गज सिंह को आधीनता स्वीकार कराते पूना के पेशवा का बकाया राज्य कर अदा करने को बाध्य किया। तत्कालीन बुँदेलखण्ड मे सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले बाँदा के दीवान और रीजेन्ट नोने अर्जुन सिंह पवार, उस समय अजयगढ़ में पड़ाव डाले पड़े थे। जसवंत राव एक बड़ी सेना लिये जाकर चढ़ाई कर बैठा। साथ थी गनी बेग और हिम्मत बहादुर की सेना भी। अलीबहादुर की इस विशाल सेना ने अर्जुन सिंह की पैदल सेना को परास्त कर दिया। तब अर्जुन सिंह ने हाथी पर चढ कर बैरी दल पर धावा बोला। महावत मारा गया तो खुद उसकी जगह लेकर पवार तीर और तमंचा चलाता रहा, किन्तु बुरी तरह से घायल होकर धरती पर आ गिरा। तीन सौ सिपाही उसके हाथी के आस पास मरे पड़े थे। नाबालिग राजा बखत सिंह बंदी बना लिया गया और अर्जुन सिंह का सर काट कर अलीबहादुर को अर्पित कर दिया गया। अर्जुन जैसे वीर योद्धा के मारे जाने से बुँदेलखण्ड में सनसनी फैल गई। अर्जुन सिंह की शहादत सन 1793 के 18 अप्रैल को हुई थी। तत्काल ही अलीबहादुर अजयगढ़ पर कब्जा कर बाँदा राज्य का स्वामी बन कर बाँदा को अपनी राजधानी बनाकर ‘नवाब‘ की उपाधि ग्रहण की।
अर्जुन सिंह के मारे जाने पर पन्ना के राजा धौकल सिंह से अलीबहादुर ने समझौते की बात चलायी। कहा कि ‘आप को लड़ाई का खर्च देना चाहिये। धौकल सिंह का जवाब था ‘टीका और पगड़ी तो मुझे पेशवा के यहाँ से प्राप्त हो गई है जिसका नजराना ले लिया जाय बस।’ नजराने की राशि दस लाख तय हुई। धौकल सिंह नजराना देने में हीला हवाला करते रहे आये। राशि बढ़ा कर, कर दी गयी रुपये 17 लाख। धौेकल सिंह को यह राशि न देनी थी और न दी ही। तब अलीबहादुर ने पन्ना पर चढ़ाई कर दी। धौकल सिंह अपने दीवान राजधर के साथ जंगल की राह पकड़ ली और किले पर मराठों का कब्जा होे गया। रिआयत करने पर भी जब धौकल सिंह की ओर से आना कानी हुई तो अलीबहादुर ने नायक जसवंत राव के द्वारा मड़फा की गढ़ी और गहोरा का परगना फतेह करा कर जागीर स्वरूप नायक को दे दिया। (यह परगना कभी बघेल राजाओं का हुआ करता था)।
आना राजा धौकल सिंह का रीमाँ, देना पनाह राजा अजीत सिंह का, होना बध खुमान सिंह के हाथो, गोपाल राव का और परिचय खुमान सिंह का।
इधर धौकल सिंह गायब हो गये। बुँदेलखण्ड छोड़ कर रीमाँ के राजा अजीत सिंह के यहाँ पनाह ले ली। इसके 35 वर्ष पहले सन 1758 की बात है, जब बादशाह शाह आलम का पीछा ईस्ट इण्डिया कम्पनी का लार्ड क्लाइव कर रहा था। बादशाह के साथ थीे गर्भिणी बेगम मुबारक महल (लाल बाई)ं। महाराजा अजीत सिंह ने बेगम को पनाह दी थी। उनके रहने के लिये मुकुन्दपुर की गढ़ी और खर्चे के लिये यह परगना भी लगा दिया था। गढ़ी मुकुन्दपुर में ही बेगम ने जना था अकबर सानी को जिसे अकबर द्वितीय भी कहा जाता रहा। लेकिन तब राज्य रीमाँ की हालत खस्ता न थी, जैसी अब हो चली थी।
जब अलीबहादुर के कान में यह बात पड़ी कि धौकल सिंह रीमाँ में पनाह पाये हुये हैं, तब उनकी राज्यविस्तारवादी नजर इस ओर फिरी। सेनापति नायक जसवंत राव से परामर्श कर एक हजार सेना के साथ गोपाल राव को रीमाँ भेजा। बीच राह में इस सेना की मुठभेड़ हो गई खुमान सिंह बघेल से। जिन्होने अपने तीस जाँबाज सैनिकों के साथ धाबा बोल कर गोपाल राव का सर कलम कर दिया।
खुमान सिंह; रीमाँ राज्य की पश्चिमोत्तर सीमाँ से लगे बघेल रियासत कोठी के गाँव मनकहरी के ठिकानेदार रहे हैं। ये थे नाते में उन्नीसवीे सदी सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अमर शहीद रणमत्त सिंह के पितामह के जेठे भाई। खुमान सिंह ने अपने जीवन काल में जब जब रीमाँ राज्य पर युद्ध के बादल छाये तब तब अपने भाई केसरी सिंह तथा इनके सात बेटों के साथ आकर बादलों को तिरोहित करने में मददगार रहे। इनका पूरा परिबार रीमाँ राज्य में बहुत मान्य रहा है। कई मुड़वार पवाइयाँ इस परिवार को रीमाँ राज्य की ओर से मिली हुई थीं।
पूर्व में कोठी राज्य के राजा जगतराय के भाई उदयंत राय को नैना और भरत शाह को मनकहरी मौजे बतौर गुजारा दिये गये थे जिनकी सीमा एक ही है। सरहद और रकबे को लेकर दोनो भाइयों के बीच चलता मनमुटाव उनके उत्तराधिकारियों के बीच भी चलता ही रहा आया। तीसरे पुश्त में यह मनमुटाब इतना बढ़ा कि नैना के ठाकुर महाराज सिंह और मनकहरी के ठाकुर खुमान सिंह एक दूसरे के जानी दुश्मन हो गये।
गोपाल राव का वध कर देने वाले खुमान सिंह, नवाब बाँदा अलीबहादुर के बैरी करार हुये। महराज सिंह ने काँंटे से काँटा निकालने की योजना बनायी। वे जा पहंँुचे बाँदा नवाब की मुलाजिमत करने। मौका निकाल कर; उन्होने अलीबहादुर के कान भरे, ‘आपके दो दो दुश्मन इस समय रीमाँ में हैं। एक धौकल सिंह दूसरे खुमान सिंह। रीमाँ राज्य की हालत भी खस्ता है। यह उचित समय है रीमाँ को आधीन कर लेने का। मैं रहँूगा मार्गदर्शक।’
अलीबहादुर को बात जँच गयी। साथ में बैठे नायक जसवंत राव से परामर्श कर रीमाँ राज्य पर चढ़ाई कर देने का हुक्म दे दिया। नायक ने दस हजार की सेना संगठित की। मकसद था प्रदर्शन, कि रीमाँ भयभीत होकर युद्ध नहीं करेगा और आधीनता स्वीकार कर के फौज हरजाना अधिक देगा तथा चैथ देना भी स्वीकार कर लेगा।
बाँदा से रवाना होकर नायक जा पहुँचा रीमाँ राज्य के उत्तरी इलाका जिरौंहा। जिसे बिना खून-खच्चर किये आधीनता स्वीकार कराते सरदेशमुखी चैथ बाँध दी। टाटी का भी यही अंजाम हुआ। फिर नायक कूच कर जा पहुँचा सेमरिया, जहाँ के इलाकेदार ने खूब आव भगत इसलिये की क्यों कि रीमाँ पर चढा़ई करने के लिये नायक को इन्होने भी आमंत्रित किया था। दोनो के बीच दुरभिसंधि थी कि रीमाँ को परास्त कर इलाकेदार सेमरिया को रीमाँ की राजगद्दी सौंप दी जायेगी। अतः नायक ने न तो सेमरिया को आधीनता स्वीकार करने के लिये विवश किया ना ही सरदेशमुखी चैथ की बात की। इस बाबत इतिहास का काला पन्ना छिपा है। तभी तो ‘श्री अजीत फते नायक रायसा’ के कवि दुर्गादास महापात्रकी कलम भी लड़खडा़ई है। दृष्टव्य है ग्रन्थ का छंद 67-
‘यारिमसे उलटा बाँचु, लीन मामला तासु न साँचु।
जीति जिरौहा टाटी लीन, आइ गोरैया थाना कीन।।
‘यारिमसे से उलटा बाँचु’, (बाँचु माने पढ़ो) तब व्यक्त होता है सेमरिया से मामला नहीं लिया सच बात नहीं है। जिरौहा और टाटी को जीत कर गोरैया में पड़ाव डाला।
दरसल बात यह थी कि बीते दो पुस्तों से सेमरिया इलाकेदारों की कोप दृष्टि रही है रीमाँ राज्य पर। लिखा जा चुका है कि रीमाँ के अपुत्र राजा भाव सिंह ने वंश वृद्धि बाबत सेमरिया के इलाकेदार अपने अनुज के जेठे बेटे मुकुन्द सिंह को गोद न लेकर लहुरे बेटे अनिरुद्ध सिंह को गोद लेकर अपने शासन काल में ही टीका कर दिया था। इसे नाजायज करार देते नाराज सेमरिया के इलाकेदार मुकुन्द सिंह ने राज्य शासन के विरुद्ध बगावत कर दी थी, जिसका अनुसरण उनके बाद की पीढि़यों ने भी किया। राजा अनिरुद्ध सिंह के अवसान के बाद उनके पुत्र अवधूत सिहं रीमाँ के राजगद्दी पर बिराजे। फिर इनकेे पुत्र राजा अजीत सिंह विराजे। यदि भाव सिंह ने मुकुन्द सिंह को गोद लिया होता तो सेमरिया के तत्कालीन इलाकेदार, राज्य रीमाँ के राजा होते।
चलिये, अब चल रही बात के छूटे छोर को पुनः पकड़ते, बात आगे बढ़ाई जाय। रीमाँ राज्य के तत्कालीन बाबू जय सिंह को यह पता चला कि नायक ने गोरैया में पड़ाव डाल रखा है, तब वे कतिपय सरदारों के साथ नायक से पंगा लेने चल पडे़, गोरैया की ओर। (उन दिनो रीमाँ राज्य के युवराज को बाबू साहब का खिताब बहाल रहा है। उन्नीसवीं सदी बीतते कहे जाने लगे थे महाराज कुमार।) सयाने सरदाारों ने वहाँ की परिस्थिति का निरीक्षण कर बिना छेड़ छाड़ किये वापस चलने की जायज राय प्रकट की। उनकी बात को तरजीह देते दल वापस आ गया रीमाँ। (बाबू साहब जय सिंह का सदलबल चढ़ाई करने जाना ‘श्री अजीज फते रायसा’ रचनाकार की मात्र कल्पना है।-लेखक)
नायक का सदलबल गोरैया से कूच कर जा पहँुचना चोरहटा-बाबूपुर गाँव, करना कायम अस्थाई छावनी और करना मंत्रणा राजा अजीत सिंह का।
रीमाँ की दयनीय दशा से वाकिफ, राजा धौकल सिंह; जुज्झि विभीषिका निर्मित होने के पहले ही जा चुके थे। नायक जसवंत राव गोरैया से सदलबल प्रस्थान कर आ धमका रीमाँ सहर के पश्चिम प्रवाहित बीहर नदी पार, (वर्तमान काल के रीवा वासी इसे घोघर नदी कहते हैं) और बाबूपुर-चोरहटा में ‘कैम्प’ स्थापित किया। अलीबहादुर नवाब बाँदा का खरीता भेजा गया राजा अजीत सिंह के पास। जिसमें उल्लेख था कि राजा रीमाँ, बाँदा की आधीनता के साथ सरदेशमुखी-चैथ देना स्वीकार करें, अन्यथा रीमाँ किला नेस्त-नाबूद कर जाब्ते से राज्य कब्जे में कर लिया जायेगा।’ जवाब मे राजा अजीत सिंह ने अपने खरीते में लिखवाया कि ‘न हमने आज तक किसी को कर दिया न अब देंगे’ और आयी बला से निपटने के लिये मंत्रणा करने के लिये दरबार आयोजित करने की आज्ञा दी।
उपरहटी के उत्तरी नगरकोट के सामने, खलगा में उन दिनो कर्चुलियों तथा तेंदुनहा बघेल सरदारों के खैपरैल डेरे थे। यहाँ मंत्रणा दरबार की खबर पहुँची और सरदारान जा पहुँचे किला के तत्कालीन दरबार हाल में। उक्त काल तक किला के महलों ने वर्तमान स्वरूप नहीं ले पाया था। सरदारों को आई विपदा से अवगत कराते हुये राय मांगी गई कि आज की परिस्थिती में क्या करना उचित होगा? सयाने सरदारों ने राज्य की दयनीय दशा का बखान करते राय दी कि नायक के पास पंचो को पठा कर मामला पटा लिया जाय। युवक कर्चुली सरदार बहादुर सिंह ने विरोध करते कहा ‘प्रजा को डाँट-फटकार कर त्रसित करते कर वसूली करके बैरी को दें यह मुझ कर्चुली को असहनीय है। मैं युद्ध कर नायक का प्राणांत करूँगा।’ कर्चुलियों के सरगना इनके चाचा श्याम साह ने भतीजे की तारीफ करते उनकी बात का समर्थन किया। किन्तंु अन्य सरदार मौन रहे, मानों उन्हे साँप सूँध गया हो। राजा अजीत सिंह की पाँच रानियों में से तीसरी चँदेलिन महारानी कुन्दन कुँवरि सामने आईं और अपनी मनोवैज्ञानिक वार्ता, धिक्कार और चुनौती पूर्ण बातों से सरदारान को उत्तेजित कर दिया। कहा ‘आप लोग चूड़ी पहन नारी श्रृगार करें, सामग्री मैं लिवा लायी हूँ, अपनी तलवार मुझे दें, मैं रणांगन में जाऊँगी।’ रानी दो थालों में; दासियों के हाँॅथो जो सामग्री साथ लिवा लायीं थी। एक थाल में नारी वस्त्र और श्रृंगार समग्री, दूसरे थाल में थे पान बीड़े। कर्चुली सरदार कलंदर सिंह तमक कर उठे और एक बीड़ा उठा कर मुह मे डाल क्रोधित हो दाँत पीस पीस कर चबाने लगे। पान बीड़ा उठाना संकेत था युद्ध करने की स्वीकारोक्ति।
करना सरदारों का जुज्झि की तैयारी, बोल देना धावा और नायक को मार कर जीत लेना जुज्झि।
दरबार समापन पश्चात अपने डेरे में आकर सरदारों ने आपस में मंत्रणा कर युद्ध योजना निर्मित करते हुये इत्तला करने के लिये उन ठिकाना की ओर साँडि़या सवार रवाना किये जहाँ के लोग ऐसे युद्धों में भाग लिया करते थे। अपने साथ लड़ने वाले लोगों को भी सूचित किया। कहना न होगा कि राजीवी बघेल जिनके बड़े बड़े इलाके और पवाईदारियाँ रही हैं वे ऐसे पचड़े से दूर ही रहते थे। तभी तो उनके बारे में प्रचारित था कि ‘खिरकी (पछीत) से पराय के रसोइयाँ म लुकात हँय’। बहरहाल बमुश्किल दौ सौ सशस्त्र उन्मादी सूरमा आ जुटे। दो दल बने एक का नेतृत्व किया तेंदुन के बघेल गजरूप सिंह तथा दूसरे दल के रायपुर के कलंदर सिंह कर्चुली ने।
बीहर नदी पार कर गजरूप सिंह के दल ने नायक की सेना पर सामने से धावा किया। कलंदर सिंह का दल गोड़टुटा घाट छोड़, घोघर घाट से नदी पार कर पीछे से धावा किया। नायक की ओर से जहाँ राह रुकावट के लिये खेतो मे खड़ेे अरहर के पौधोें को आपस में बँधवा दिया गया था। रायपुर वालों के सरूपा हाथी को सूँड़ मे साँकल पकड़ा दी गयी थी वह आगे आगे राह साफ करता चल रहा था। कलंदर सिंह का दल रणांगन में पहुँचा, वहाँ भयंकर मारकाट मची हुयी थी। नायक हाथी पर सवार था साथ में नीचे घोड़े पर सवार थे नैना वाले महाराज सिंह। नायक जसवंत राव की दस हजारी सेना में शामिल थीं भाड़े की सेनायें भी। कमानदार करनल मीसलबेक तो रास्ते में अटके थे, उनकी सेना तो रणांगन में उतरी ही नहीें। यही हाल हुआ हिम्मत बहादुर गोसाईं की नागा सेना और पठान सेना का। अँगरेजी में जिसे ‘ओवर कान्फीडेन्स’ कहा जाता है से प्रेरित नायक बस अपनी सेना को ही उतार कर घमण्ड से चूर, हाथी पर चढ़ा, रीमाँ सेना के रण कौशल का निरीक्षण कर रहा था। पंचम बरगाही जो सजे-बजे मोतियों की माला पहने मारे गये थे; को देख कर नायक ने महाराज सिंह से कहा था ‘बघेल जी राजा तो मारा गया। क्या यही हैं जाँबाज बघेल, जिनके जंग की आप तारीफ के पुल बाँधते थे? तभी आ धमका था कलंदर सिंह का दल, जिसे नायक की पहचान कराने के लिये कहा था महाराज सिंह ने कि ‘नायक जी आ गये बघेल’। महाराज सिंह को रीेमाँ वालों ने धिक्कारा था कि बघेल हो कर तुम बघेलों के खिलाफ दुश्मन को चढ़ा लाये। महाराज सिंह की जमीर जागी तो वे यह हरकत कर बैठे थे।
नायक की पहचान होते ही, घेर लिया इस दल ने उसके हाथी को, दोनो ओर से बरछी, भाले और तलवारें चलने लगीं। नायक हाथी से उतर कर अपनी कबूतरी नाम की घोड़ी पर चढ़ने का उपक्रम कर ही रहा था कि प्रताप सिंह ने उसके छाती को लक्ष कर भाला मारा, साथ ही भगवान सिंह की बरछी आकर छाती बेधते कलेजे में जा घुसी। तभी भूलुण्ठित नायक का सर अमरेश ़ ने काट कर झोली में डाला और भाग खड़े हुये। नायक के दल में भगदड मच गयी। रीमाँ वालों ने बैरी दल को कुछ दूर तक खदेड़ा फिर वापस हो जयकार करते चल दिये किला की ओर ,जहाँ विजय उत्सव मनाया गया।
धर देना उतार कर पगड़ी नवाब अलीबहादुर का और करना वसूल जुज्झि खर्च का राजा अजीत सिंह से।
अलीबहादुर कोे जब अपने बफादार बहादुर सिपहसालार के मारे जाने का समाचार मिला तो वह तड़प उठा। उसने अपनी पगड़ी उतार का धर दी और प्रण किया कि जब तक इसका बदला रीमाँ वालों से नहीं ले लूँगा पगड़ी नहीं बाँधूगा।
नैकहाई जुज्झि शिकस्त का असर कई आयामो पर पड़ा। बुँदेलखण्ड के कई राजे और जागीरदार अराजक होकर लूट-पाट मचाते नवाब का नाकों दम कर दिया। बंद कर दिया चैथ देना। अब तक में राजा अजीत सिंह की भाँति अलीबहादुर भी ठन ठन गोपाल हो चले थे। जुज्झि के बाद दो वर्ष बीते, तब सन 1798 में अलीबहादुर दस हजारी सेना लेकर चल पड़े रीमाँ की ओर, जुज्झि हरजाना वसूलने। इस बार भी करनल मीसलबेक और हिम्मत बहादुर की सेना उनके साथ में थी। सेना कोे छूट थी कि रास्ते के गाँवों में वह अपने वेतन के एवज में जो भी चाहे लूट कर हासिल कर लंे।
सेना आ पहँुची रीमाँ। नवाब बाँदा के प्रवक्ता हुये हिम्मत बहादुर गोेसाईं और रीमाँ के कलंदर सिंह। नवाब ने हरजाना तय किया रुपये दस लाख। ना नुकुर, राज्य की दशा की दुहाई आदि करते कराते यह माँग गिरते गिराते अंततः जाकर ठहरी रुपये दो लाख में। किन्तु कहाँ था रोकड़ा रीमाँ के राजकोष में, वहाँ तो भूँजी भाँग नहीं थी, लोटती थी घँुइस। हाँ जोड़ तँगोड़ राजा अजीत सिंह ने अपने पास से किसी तरह निकाले रुपये बारह हजार रोकड़। नौ नगद न तेरह उधार के तर्ज पर नवाब ने स्वीकार कर बकाया भुगतान के जमानत में कलंदर सिंह को अमानत बनाकर साथ लेकर वापस हो गये बाँदा। बाद में राजा अजीत सिंह ने त्योंथर का इलाका राजा माँडा के यहाँ गहन कर उधारी रकम माँग कर बाँदा भेजा और कलंदर सिंह बाँदा से वापस रीमाँ आये।
छिन जाना राज्य रीमाँ का दक्षिणी भूभाग और होना संधि ‘एच, ई, आई, सी, से, बाबू अलंकरण का बदल कर हो जाना महाराज कुमार।
दो वर्षों पूर्व की गयी संधि तोड़ कर सन 1808 में नागपुर के भोंसले राजा ने कब्जा कर लिया था, रीमाँ राज्य के दक्षिणी भूभाग पर। यही भूभाग वर्तमान में बन गया है मध्य प्रदेश का एक राजस्व संभाग शहडोल। इस भूभाग का उपभोग भोसले बहुत दिनों तक नहीं कर पाये। भोसले और एच, ई, आई, सी, याने आनरेबल ईस्ट इण्डिया कंपनी के साथ हुये युद्ध में 17 नवंबर 1817 को भोसले की पराजय हंुई। नागपुर राज्य कम्पनी के स्वामित्व में आगया। तब स्वमेव रीमाँ राज्य का वह भूभाग अँग्रेजों के स्वामित्व में आ गया। सन 1809 में राजा अजीत सिंह का बैकुण्ठवास हो गया। बाबू जय सिंह राजा बन कर रीमाँ की राजगद्दी पर बिराजे। उस काल में राज्य कोष में मात्र हाथी दाँत के दो टुकड़े बचे पड़े हुये थे। एच ई आई सी के चपेट में इन्होने एक बार अक्टूवर सन 1812 और दुबारा 5 जून सन 1813 में संधि कर ली; जो अभिलेख में दर्ज हुई-(भ्वदतंइसम म्ंेज प्दकपं ब्वउचंदल ंदक जीम त्ंरं श्रंप ैपदही क्मव त्ंरं व ित्मूंी ंदक डववानदकचववत) घ्यातव्य हंै ‘राजा’ तथा ‘रेवाह ऐण्ड मूकुन्डपूर’ शब्द। नाम बिगाड़ू अँगरेज ही हैं जिन्होनेे रीमाँ को पहले रेवाह बाद में रेवा लिखते उच्चारित करने लगे रीवा। फारसी में तो रीमाँ, रीवाँ लिखा ही जायेगा। क्योंकि उसमे ‘मँ’, ‘वँ’ हो जाता है।
साहित्य में मन रमाने वाले राजा जय सिंह ने सन 1820 में राज-काज सौंप दिया अपने बाबू साहब विश्वनाथ सिंह को। ये कुशल प्रशासनिक सिद्ध हुये। राज्य को प्रगति पथ पर लाकर माली हालत भी सुधारी और पाँच पीढि़यों के बाद रजकीय सेना भी इन्होने ही गठित की। कहा तो यह जाता है कि सेना का गठन इस मन्तव्य से किया गया था कि ‘एचईआईसी’ से लड़कर अपने राज्य का दक्षिणी बडा भूभाग छीन लें। क्यों कि संधि हो जाने के बाद भी बार बार माँग करने पर कम्पनी हीला हवाला करती आ रही थी। किन्तु राजा विश्वनाथ सिंह कम्पनी से पंगा लेने की हिम्मत न कर सके। सेना बिना काम के सफेद हाथी साबित हो रही थी। अतः उसका उपयोग सरहदी छोटे राज्यों और जागीरदारों को आधीनता स्वीकार कराने के लिये उपयोग में लाया गया। इस सेना ने राजकीय नादेहन्द इलाकेदारों और पवाईदारों पर भी दवाब बनाया। कई के आधे-चैथाई भूभाग छीन कर खालसे में शामिल कर लिये गये। कडा़ई से राजस्व वसूली होने लगी फलतः राजकोष लबा लब हो चला।
राजा विश्वनाथ सिंह भी पिता की भाँति ही महान साहित्यकार रहे हैं। हिन्दी भाषा का प्रथम नाटक ‘आनन्द रघुनन्दन’ इन्ही की देन है। पिता जय सिंह के सन 1833 में गोलोकवासी हो जाने पर बाबू विश्वनाथ सिंह राजा बन कर राजगद्दी पर बिराजे जिनका स्वर्गवास सन 1854 में हुआ। तब महाराज कुमार रघुराज सिंह ने बहैसियत राजा; राजसत्ता सँभाली। युवराज के लिये पूर्व काल से चले आरहे ‘बाबू साहब’ अलंकरण को राजा विश्वानाथ सिंह ने ही बदल कर ‘महाराज कुमार’ कर दिया था, जो राज्य विलीनीकरण तक अक्षुण रहा आया। अपनी धार्मिक धाक जमाने के लिये तत्कालीन राजे; मठ-मंदिरों की स्थापना और तुलादान आदि में अधिक रुचि रखते थे। इसी के साथ अपने वैभव-विलासिता, राजकीय परिवार के विवाह आदि में जनता से वसूले धन को बेरहमी से पानी की तरह बहा दने में अपना गौरव मानते थे। राजा रघुराज सिंह ने भी इस परंपरा का निर्वाह किया। ये भी अपने पितामह और पिता की भाँति महान साहित्यकार थे। इनकी सृजित गं्रथ संख्या; पूर्वजों से अधिक हैं। इन्होने लिखा है- जाके विद्या ताहि नाह भूप भये भये ना। काव्य शक्ति पाय काह राज कये कये ना।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन 1857 में राजा रघुराज सिंह ने राष्ट्र के विरुद्व ‘एचईआईसी’ को दिल खोल कर सहायता की थी। इन पर आक्षेप है कि इन्होन उक्त काल के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रणमत्त सिंह की गिरफ्तारी में सहयोग किया था। जबकि नैकहाई जुज्झि के अलावा अन्य जुज्झियों में रणमत्त सिंह के पूर्वजों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाते अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये थे। बचाते रहे आये रीमाँ राज्य को, पराधीन होने से। इनके पूर्वजों के नाम है स्वर्गीय खुमान सिंह इनके अनुज केसरी सिंह, भतीजेे कमोद सिंह, बलभद्र सिंह और शिवराज सिंह। कल्पनीय है यदि नैकहाई जुज्झि में इन सब का सहयोग न होता, फतहयाबी न हुई होती तब रीमाँ राज्य की दशा क्या होती? ‘श्री अजीत फते नायक रायसा’ के कवि दुर्गादास ने तो लिखा है-‘नायक अभिमानी जानै कहा, ये तो हिन्दुआनो तुरकानो करि डारतो।’
बनना ‘एच ई आई सी’ का ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट,
जाना राज्य का शासन इसके हाथ और बदल जाना रीमाँ नाम।
सन 1857 ंके स्वतंत्रा संग्राम का समन कर ‘एचईआईसी’ टूटकर बन बैठी ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट‘ जिसकी राजधानी थी तत्कालीन कलकत्ता। देश भारत (इण्डिया) हो गया ‘ग्रेटब्रिटेन’ का उपनिवेश। इसी वर्ष ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ की रीमाँ में एक एजेन्सी कायम होकर सन 1858 में नामबदल कर बन गयी ‘सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी’ और सन 1862 में स्थानान्तरित हो गयी सतना। जहाँ सन 1867-68 से रेलगाडियाँ आने जानेे लगी थीं। सन 1870 में बुँदेलखण्ड की तर्ज पर आ धमका शब्द ‘बघेलखण्ड।’
‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ ने राजा रघुराज सिंह को उनके सहयोग के उपलक्ष में उपाधि दी और दो तोप फायर बहाल के अतिरिक्त सन 1859 में वापस कर दिया वर्तमान शहडोल का सम्पूर्ण भूभाग। राजा रघुराज सिंह की फिजूल खर्ची इतनी बढ़ी हुई थी कि राजकोष खुक्ख हो गया और राज्य ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेंट’ का रुपये दस लाख का कर्जइत हो गया। तब सन 1875 में ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ की ‘पोलेटिकएजेन्सी’ नेे अपने हाथों राज्य का शासन प्रबन्ध ले लिया। राजा रघुराज सिंह के सन 1880 में परलोक सिधारने पर इनके वारिस, चार वर्षीय ब्यंकट रमण सिंह को ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ ने राजा घोषित कर के ले लिया अपने संरक्षण में। राजा ब्यंकट रमण सिंह के वयस्क होने पर सन 1895 में एजेन्सी ने प्रशासन सौंप दिया। कहना न होगा इन बीस वर्षों के अंतराल में ‘बृटिश पोलेटिकल एजेन्सी’ ने कर्ज तो पटा ही दिया और कर दी राज्य की कायापलट। किन्तु सदियों से चली आ रही राजभाषा रिमँही को हटा कर बैठ गयी फारसी।
मुगुल काल से चली आ रही दफ्तरी भाषा फारसी को अँगरेजों ने यथावत अपनाये रखा था। किन्तु ‘पोलेटिकल डिपार्टमेन्ट’ में सब काम अँगरेजी में हुआ करता था। ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ ने जब रीमाँ राज्य का प्रशासन अपने हाथो लिया तो यहाँ भी वही सब नियम लागू हो गये। तब सब से बड़ा बदलाव यह आया कि रीमाँ नाम परिवर्तित हो कर फारसी मे रीवाँ और अँगरेजी में त्म्ॅ। लिखा बोला जाने लगा रीवा। सदियों से चले आ रहे राजकीय विभाग अब बन गये महकमा और ‘डिपार्टमेन्ट’। पुराने अधिकारी नाम बदल कर हो गये हाकिम और आफीसर। अब राज्य और राजधानी का नाम रीवाँ हो चला था। बहरहाल इस राज्य के लिये उन्नीसवीे सदी के पचहत्तरवें वर्ष से जो प्रगति पथ बना वह प्रशस्त होता गया। ‘पोलेटिकल एजेन्सी’ के हाथ में रीवाँ राज्य का प्रशासन आते तक दीवान के बैठने तक का कार्यालय नहीं था। कचहरी बनी, जेल का निर्माण हुआ, सिविल लाइन बनी और ‘कमसेरियेट’ इत्यादि स्थापित हुये।
सन 1895 में राजा व्यंकट रमण सिंह के बालिग होने पर एजेन्सी ने इन्हे प्रशासन सौंप दिया। एजेन्सी के बनाये गये प्रगति पथ को इन्होने आगे बढ़या। बीसवीं सदी आ धमकी। शुरूआत में ही कई उल्लेखनीय काम हुये। पहला-राजा व्यंकट रमण सिंह ने आदेश प्रसारित किया कि दफ्तरों का काम देवनागरी लिपि में हों। फारसी वालों ने देवनागरी लिपि सीखी। दूसरा-डाक्टर ग्रिअर्सन ने भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण किया। उन्होने सदियों पूर्व से चले आ रहे राज्य की बोली ‘रिमँही‘ का नाम, नये शब्द बघेलखण्ड को मान्यता देते हुये बदल कर कर दिया बघेलखण्डी। उनकी रपट ‘ंिलंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया’ में बघेलखण्डी दर्ज है, जो घिस, धिसा कर अब बन गयी है, मात्र तीन अक्षरों की बघेली। बोली होते हुये भी इसेे अघोषित भाषा मान कर हर विधा का साहित्य रचा जा रहा है। तीसरा-‘नैकहाई जुज्झि‘ संबंधी काव्यग्रंथ ‘श्री अजीत फते नायक रायसा की प्रतियों को राजा विश्वनाथ सिंह ने कर्चुलियों के विरोध के कारण रोक दिया था। उसे लाल बलदेव सिंह ने अपने प्रेस से सन 1902 में प्रकाशित करवाया। सन 1915 में इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद करया गया पर वह सही रूप में नहीे हो पाया।
राजा व्यंकट रमण सिंह का सन 1918 में निधन हो गया। महाराज कुमार गुलाब सिंह इन्दौर में शिक्षारत थे। रीवा बुलाकर ‘असिसटैण्ट गवर्नर जनरल’ ने उन्हे राजा घोषित किया। उनके नाबालिग होने के कारण ‘रीजेन्सी‘ कायम कर के राजा के मामा रतलाम नरेश सज्जन सिंह को ‘रीजेन्ट’ नियुक्त कर दिया गया। राजा गुलाब सिंह बालिग हुये तो 31 अक्टूबर सन 1923 को ‘ब्रिटिश इण्डिया’ के ‘वायसराय ऐण्ड गवर्नर जनरल’ लार्ड रीडिंग ने इन्दौर में उन्हंे ‘रीवा स्टेट’ का प्रशासनिक अधिकार बहाल कर दिया। इनका प्रशासन बहुत-चुस्त दुरुस्त और रहा है प्रगतिशील। इनके शासन काल में सन 1939 में ‘रीवा स्टेट आर्मी’ के ‘चीफ आफ द जनरल स्टाफ’ कर्नल जनार्दन सिंह ने अपनी पुस्तक ‘रीवा राज्य का सैनिक इतिहास’ में ‘नैकहाई जुज्झि’ में भाग लिये और जूझ गये योद्धाओं का वर्णन किया है। राजा गुलाब सिंह के ही शासन काल में ‘नैकहाई जुज्झि’ स्थल पर स्थिति शहीदों के स्मारक छतुरियों का सर्वेक्षण करा का स्थल को संरक्षित कराया गया था। आवागवन के साधन विस्तार करते हुये धड़ा धड़ शिक्षा संस्थानो की स्थापना करने, राज्य में ‘लोकल सेल्फ गवर्नमेन्ट’ घोषित करने वाले शासक राजा गुलाब सिंह अचानक ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ के कोप भाजन बन बैठे। फलस्वरूप 31 जनवरी सन 1946 को इनसे प्रशासनिक अधिकार छीन कर महाराज कुमार मार्तण्ड सिंह को सौंप कर राजा कोे राज्य छोड़ कर अन्यत्र चले जाने का आदेश प्रसारित कर दिया। तदानुसार 6 फरवरी सन 1946 को राजा मार्तण्ड सिंह रीवा राजगद्दी पर बिराजे। 15 अगस्त सन 1947 को देश भारत स्वतंत्र हुआ और एक वर्ष के अंतराल में देश के 40 प्रतिशत भूभाग में काबिज रियासतंे भारत संघ का अंग बन गयीं। राजतंत्र का अंत हो गया।
बघेलखण्ड और बुँदेलखण्ड की 35 रियासतो तथा जागीरों को संयुक्त कर के 4 अप्रैल 1948 को ‘संयुक्त विन्ध्य प्रदेश’ घोषित किया गया। राजा मार्तण्ड सिंह इस प्रदेश के राज प्रमुख और पन्ना के राजा यादवेन्द्र सिंह उप राज प्रमुख घोषित हुये। कप्तान अवधेश प्रताप सिंह इस प्राँत के प्रधान मंत्री मनोनीत हुये और इसी वर्ष के 10 जुलाई को शपथ ग्रहण की। इनका मंत्रिमण्डल 14 अप्रैल 1949 को भंग हो गया और विन्ध्य प्रदेश केन्द्र शासित हो गया।
भारत के संविधान का निर्माण तो हो चुका था, इसे लोकार्पित कर देश को गणतंत्र घोषित करने की तिथि 26 जनवरी सन 1950 की बाट जोही जा रही थी। उसके 25 दिन पूर्व एक जनवरी को राज प्रमुख मार्तण्ड सिंह ने पद छोड़ दिया, क्योंकि यह पद समाप्त कर दिया गया था। देश ही नहीं संसार को मार्तण्ड सिंह का अवदान रहा है 27 मई सन 1951 को सीधी जिले के बरगड़ी से पकड़वाया गया विलक्षण सफेद नस्ल का बाघ ‘मोहन‘। सदियों पूर्व पूर्वजों का स्थापित किया रीवा राज्य देश को सौंपा, शहनशाही त्याग, सामान्य जन सा जीवन जीता, 20 नवंबर 1995 को मार्तण्ड अस्त हो गया।
भारत गणतंत्र घोषित हो जाने के बाद देश का प्रथम आम चुनाव सन 1952 में हुये। विन्ध्य प्रदेश में भारतीय काँग्रेस पार्टी जीत कर आयी और पं0 शम्भू नाथ शुक्ल मुख्य मंत्री निर्वाचित हो कर 2 अप्रैल 1952 को शपथ ग्रहण की। इनका मंत्रिमंडल एक पंचवर्षीय योजना भी पूरी नहीं कर पाया था कि भाषावार राज्य पुनर्गठन की चपेट में आकर एक नवंबर 1956 को उन दिनो; देश के सब से बड़े प्रदेश मघ्य प्रदेश में मिला दिया गया। विन्ध्य इकाई में दो राजस्व संभाग रहे हैं, बघेलखण्ड और बुँदेलखण्ड। संयुक्त 35 रियासतों वाले विन्ध्य प्रदेश में अन्य 34 रियासतों के छेत्रफल से अधिक 13000 वर्गमील का क्षेत्र रहा है अकेले रीवा रियासत का। विन्ध्य इकाई से बुँदेलखण्ड संभाग तो पहले ही अलग हो चुका था। बघेलखण्ड को खण्ड खण्ड विखण्डित करने के साजिश में 14 जून 2008 में संभाग के दक्षिणी जिले शहडोल को संभाग बना दिया गया।