गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

आर्टिकल 147 क्या है ?




अगर आज दिल और दिमाग , दोनों को हिलाना है , तो इस पोस्ट को पूरा पढ़ें किस प्रकार बाबा साहेब आंबेडकर,जवाहर लाल नेहरू ( कोतवाल गयासुद्दीन गाज़ी का पोता ) और  राजेंद्र प्रसाद के सत्ता लालच की वजह से हम आज भी अंग्रेजों के गुलाम है , मित्रो हम आज भी कानूनी रूप से सविधान संवत ब्रिटिश सरकार के गुलाम है , ऐसा मैं नहीं हमारे भारत के संविधान का आर्टिकल 147 कहता है , यही वो चोर दरवाजा है ,जिसके जरिये अंग्रेजों को दुबारा भारत पर शासन करने का कानूनी अधिकार है , और इस आर्टिकल को अंग्रेजो ने 1935 में जवाहर लाल गाजी और राजेंदर प्रसाद से ड्राफ्ट करवाया था , इसकी भाषा इतनी कठिन है की आप चाहे हिंदी या अंग्रेजी में कितनी भी बार पढ़ लो आप उसको समझ नहीं पाओगे की इसका अर्थ क्या है , मैंने इसे बीस बार पढ़ा है , मैं तो नहीं समझ सका , भारत के संविधान में कुल 395 आर्टिकल है सब के सब इतनी मुस्किल और घुमा फिरा कर छिपा कर लिखे गए है की वकीलों की भी जिन्दगी निकल जाती है वो भी समझ नहीं पाते , तो फिर आप आदमी की बात ही क्या है , होना तो ये चाहिए था की जो संविधान नागरिकों के लिए बनाया गया है , कम से कम नागरिकों को तो आसानी से समझ आना चाहिए था , हर नागरिक को अपने संविधान की भाषा इतनी सरल लगनी चाहिए की वह उसे आसानी से समझ सके , परन्तु अगर ऐसा होता हो अंग्रेज भारत पर शासन किस प्रकार कायम रख सकते थे , इसी लिए अंग्रेजो ने इन्डियन इंडीपेडेंट एक्ट 1935 को इतना घुमा फिर कर लिखा आप भी पढ़े की आर्टिकल 147 किस प्रकार की भाषा में लिखा गया है , आपकी सुविधा के लिए मैंने इसे हिंदी और अंग्रेजी में प्रस्तुत किया है

अगर समझ में आ जाये तो मुझे भी समझा देना  ......
निर्वचन–इस अध्याय में और भाग 6 के अध्याय 5 में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि के किसी सारवान्‌ प्रश्न के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उनके अतंर्गत भारत शासन अधिनियम, 1935 के (जिसके अंतर्गत उस अधिनियम की संशोधक या अनुपूरक कोई अधिनियमिति है) अथवा किसी सपरिषद आदेश या उसके अधीन बनाए गए किसी आदेश के अथवा भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के या उसके अधीन बनाए गए किसी आदेश के निर्वचन के बारे में विधि के किसी सारवान्‌ प्रश्न के प्रति निर्देश हैं।

Article 147 in The Constitution Of India 1949.
147. Interpretation In this Chapter and in Chapter V of Part VI references to any substantial question of law as to the interpretation of this Constitution shall be construed as including references to any substantial question of law as to the interpretation of the Government of India Act, 1935 (including any enactment amending or supplementing that Act), or of any Order in Council or order made thereunder, or of the Indian Independence Act, 1947 , or of any order made thereunder CHAPTER V COMPTROLLER AND AUDITOR GENERAL OF INDIA

बाबा साहेब आंबेडकर अंग्रेज भक्त और अंग्रेजों की हुकूमत ने जवाहर लाल गाजी और राजेंदर प्रसाद को भारत की सत्ता का लालच देकर इसे लिखवाया था , ताकि वक्त आने पर ( या सुभाष चन्द्र बोस के स्वतंतत्रा आन्दोलन के ठंडा पड़ जाने के बाद ) दुबारा भारत पर राज किया जा सके , मित्रो आज भी गोपनीय ब्रिटिश क़ानून के तहत हम ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम है और इसके लिए यही तीन जिम्मेदार है , जो की 1947 में प्रधान मंत्री ( जवाहर लाल गाजी ) , राष्ट्रपति ( राजेंद्र प्रसाद ) , और स्वयम घोषित राष्ट्रपिता ( दुरात्मा गाँधी ) बने भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्या नयायाधीश को आज भी ब्रिटिश कोर्ट का क़ानून मानना पड़ता है ,( यह गोपनीय क़ानून के तहत आता है , इसीलिए इसे उजागर नहीं किया जाता ) आज भी भारत का प्रधानमन्त्री जिस समय शपथ लेता है तो शपथ के बाद राष्ट्रपति उससे एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करवाता है , वह रजिस्टर भी ब्रिटिश सरकार का ही है , 1947 के बाद जितने भी प्रधान मंत्री हुए सबने उस पर हस्ताक्षर किये है , और यही आर्टिकल 147 , इन सबको ब्रिटिश सरकार के प्रति जवाबदेह और प्रतिबद्ध करता है .यह वही रजिस्टर है जिस पर अंग्रेजो ने 15 अगस्त 1947 की आधी रात को ट्रांसफर आफ पवार एग्रीमेंट पर करार किया था .( इसकी जानकारी भी गोपनीय है , राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के अतिरिक्त आज तक इसे किसी ने नहीं देखा है , और न ही कोई देख सकता है , क्योंकि आर्टिकल 147 यही कहता है ) भारत के सुप्रीम कोर्ट के हर मुख्या नयायाधीश को आज भी एक बार ब्रिटिश कोर्ट के प्री-वी कौंसिल में हाजिरी जरूर लगनी पड़ती है , और आर्टिकल 147 पर हस्ताक्षर करने होते है , अर्थात भारत में दो ही सत्ता के शक्तिशाली स्तम्भ है – प्रधानमन्त्री और सुप्रीम कोर्ट का मुख्या नयायाधीश ,
आर्टिकल 147 में यही दोनों आज भी बंधे हुए है ,
तो फिर हम गुलाम कैसे नहीं है ??

Please Watch This Video For More Information ( संविधान का अनुच्छेद 147 यह कहता है कि प्रिवी काउंसिल (ब्रिटेन का सुप्रीम कोर्ट) द्वारा दिए गए फैसले भारत के सुप्रीम कोर्ट पर बाध्यकारी होंगे। अधिक स्पष्टीकरण के लिए यह वीडियो देखें — https://www.youtube.com/watch?v=x5essvg9oHc )

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

कुंती पुत्र अर्जुन और सुभद्रा के विवाह पर शंका समाधान

हमारे प्राणप्रिय देश भारत (आर्यावर्त) में विभिन्न प्रकार   संस्कृतीयो और सभ्यताओ का समावेश पाया जाता है, पुरे विश्वमें एकमात्र भारत में मौजूद विभिन्नता में एकता सम्बन्धी अनेकोविचार प्रकट होते हैं, ये विभिन्न सभ्यता और संस्कृति भीविश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता "आर्य संस्कृति" और विश्व के प्राचीनतम ज्ञान "वेद" से ही उत्पन्न हुई हैं, भले ही कुछ सभ्यताओऔर संस्कृतीयो में विसंगति पायी जाती हो, क्योंकि इन सभ्यताओ और संस्कृतीयो का पालन पोषण भारत से बाहर हुआ, तथापि अनेको सत्य सत्य बाते जो भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं वो भी इन विदेशी संस्कृतीयो में पायी जाती है, अतः सिद्ध है की विदेशी संस्कृतीयो पर भी भारतीय सभ्यता का प्रभाव पड़ा है।

        अब से लगभग 5000 वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व में आर्यो का एकछत्र
राज था, सभी विदेशी सभ्यताए, आर्यो को चक्रवर्ती सम्राट स्वीकार कर, उनसे आश्रय पाती थी, अतः जो नियम कानून आर्य संस्कृति ने
अपनाये उनका ही प्रचार प्रसार अधीनस्थ देशो में किया, महाभारत काल के बाद अधिकांश विद्वानो के आभाव में, समय के प्रभाव से आर्यो का राज क्षीण हुआ, और वेद विद्या का प्रचार प्रसार रुक जाने के कारण अनेको विसंगतियां सम्पूर्ण भारतवर्ष में फ़ैल गयी, जिनके कारण ही विदेशी सभ्यताओ में और भी पाखंड और अनाचार फैला, क्योंकि
सम्पूर्ण विश्व का आध्यात्मिक गुरु "भारत" स्वयं पाखंड में लिप्त हो गया, तो विदेशियो की मौज बन आई, जैसा जिसने चाहा वैसा मत बनाकर प्रचार किया, इसीलिए इस्लामी और ईसाइयत जैसी विदेशी संस्कृतीयो में भाई बहन (चचेरी, ममेरी आदि) का विवाह मान्य है, तो इस कुरीति को वैध ठहराने हेतु विदेशी संस्कृति की भावना से पीड़ित कुछ मनुष्य ऐसा आरोप गढ़ते हैं की कुंती पुत्र अर्जुन ने अपने मामा
की लड़की सुभद्रा से विवाह किया, अतः आर्यो की संस्कृति (हिन्दू समाज) में भी भाई बहन का विवाह मान्य है, इसलिए चचेरे, ममेरे भाई बहन के विवाह पर आपत्ति करने के स्थान पर इस कुरीति को मान्यता देनी चाहिए। अब ऐसे आँख के अंधे और गाँठ के पुरे मनुष्यो को क्या समझाए, क्योंकि समझाया उसे ही जाता है, जो समझना चाहे, जो जान बूझकर ही असत्य को सत्य मानता हो, उसे समझाया तो नहीं जा सकता, हालांकि ये कुरीति और कुंठा, आर्यो की संतान में भी घर न बना ले, इस हेतु से ये लेख लिखा जाता है, कृपया ध्यानपूर्वक चिंतन करे, इस लेख में हम चार प्रकार से विचार करेंगे :
१. सपिण्ड, गोत्र व्यवस्था
२. सुभद्रा के माता पिता सम्बन्धी भ्रम
३. अर्जुन की माता कुंती और शूरसेन
की पुत्री पृथा में अंतर
४. हिन्दू विवाह अधिनियम, भारत
सबसे पहले हम सपिण्ड, गोत्र व्यवस्था पर विचार करते हैं, देखिये
मनुस्मृति क्या कहती है :
असपिण्डा च या मातुरसगोत्र च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।४।। मनु०।।
जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और
पिता के गोत्र की न हो तो उस कन्या से विवाह करना उचित है। ४।।
अब इसका प्रयोजन भी समझे, महर्षि दयानंद, कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में बताते हैं : परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः।। शतपथ०।। यह निश्चित बात है कि जैसी परोक्ष पदार्थ में प्रीति होती है वैसी प्रत्यक्ष में नहीं। जैसे किसी ने मिश्री के गुण सुने हों और खाई न हो तो उसका मन उसी में लगा रहता है । जैसे किसी परोक्ष वस्तु की प्रशंसा सुनकर मिलने की उत्कट इच्छा होती है, वैसे ही दूरस्थ अर्थात् जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो उसी कन्या से वर का विवाह होना चाहिये। यहाँ जो पीढ़ी का अंतर बताया है, वह इसलिए ही है विवाह करने वाले पुरुष वा स्त्री का उनकी माता वा पिता से निकट सम्बन्ध न हो, इसीलिए भारतीय परिवेश में ऋषियों और मुनियो ने उत्तम संतान की प्राप्ति हेतु गोत्र व्यवस्था निर्धारित
की है। अब जहाँ तक हम देखते हैं की अर्जुन नियोग द्वारा उतपन्न संतान जिनके जेनेटिकल पिता तो इंद्र हैं, पर क्योंकि वे नियोग से उत्पन्न हुए इसलिए उनको गोत्र मिला उनके पिता, पाण्डु का अतः
अर्जुन का गोत्र "अत्रि गोत्र" होना संभव है (मतस्य पुराण)। अब हम विचार करते हैं माता कुंती का गोत्र क्या था, तो हमें यहाँ माता कुंती की कथा का संक्षिप्त विवरण पाठको को उपलब्ध करवाना होगा, कुंती माता की जन्म की सत्याया  कुछ इस प्रकार है, कुंती माता का  न्म शूरसेन महाराज के घर हुआ था, माता कुंती का वास्तविक नाम
पृथा था एवं इनके भाई का नाम वासुदेव था। शूरसेन जी के मित्र
कुंतिभोज निःसंतान थे, अतः शूरसेन जी ने पृथा को कुंतिभोज को गोद देकर अपना वचन निभाया, इस प्रकार पृथा का नाम महाराज कुंतिभोज के नाम पर कुंती प्रसिद्द हो गया। महाराज शूरसेन का गोत्र कौशल्य, (अङ्गिरस वंश के गोत्र प्रवर्तक ऋषियों में से एक, मत्स्य पुराण) था, तो माता कुंती का गोत्र कौशल्य हुआ। अतः यहाँ यह सिद्ध है की गोत्र आदि व्यवस्था के चलते ही, महाराज पाण्डु का विवाह माता कुंती से हुआ। यहाँ एक तथ्य पर विचार करे, पृथा (कुंती) को कुंतिभोज महाराज को गोद दिया गया था। अब क्योंकि सुभद्रा का गोत्र, अर्जुन से भिन्न है, तो विवाह में कोई आपत्ति नहीं, रही बात सपिण्ड की तो उसके लिए पीढ़ी का अंतर जांच लेवे, अब थोड़ा
पीढ़ी का अंतर देख लेवे :
१. सुभद्रा
२. रोहिणी
३. वसुदेव
४. शूरसेन
सुभद्रा का गोत्र अलग है, और वो महाराज शूरसेन से चौथी पीढ़ी में गिनी गयी, वहीँ अर्जुन का गोत्र भी अलग है, और वो सुभद्रा के मुकाबले, ६ठवी पीढ़ी में गिना जायेगा।
१. अर्जुन
२. कुंती
३. शूरसेन
४. वसुदेव
५. रोहिणी
६. सुभद्रा
क्योंकि पृथा का जन्म महाराज शूरसेन के घर तो हुआ, मगर विवाह से पूर्व ही पृथा को सात्वत के दुसरे पुत्र महाभोज के वंशज भोजवंशी यादव वंश में उत्पन्न राजा कुन्तिभोज उसे गोद दे दिया था और उन्हीने कुंती का विवाह करवाया था। अतः माता की ६ पीढ़ी का अंतर से आशय है दूर का सम्बन्ध, अतः यहाँ निकट सम्बन्ध का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, न ही अर्जुन और सुभद्रा का गोत्र ही सामान था, इसलिए दोनों को भाई बहन ठहराना, युक्तियुक्त भी नहीं। अब इस विषय को दूसरे पहलु से समझने का प्रयास करते हैं, सुभद्रा के
माता पिता को लेकर एक शंका बनी रहती है, जहाँ महाभारत में कृष्ण ने सुभद्रा को अपनी बहन तो बताया पर सहोदर भाई सारण को बताया, उसी तथ्य पर उपरोक्त निष्कर्ष निकलता है, तब भी अर्जुन और सुभद्रा भाई बहन नहीं ठहरते, वहीँ दूसरी और उड़ीसा की महाभारत, जहाँ जगन्नाथ कृष्ण, बलराम और सुभद्रा को पूज्य माना जाता है, जगन्नाथ रथ यात्रा विश्व प्रसिद्द है, उस उड़िया महाभारत के मध्य पर्व में सुभद्रा, अपने माता पिता का परिचय नन्द बाबा और यशोदा के रूप में अर्जुन को देती हैं, अब यदि इस आधार को भी माने तो भी अर्जुन और सुभद्रा भाई बहन सिद्ध नहीं होते, देखिये :
शूरसेन और पार्जन्य दो भाई थे, शूरसेन से वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा,
आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक, वृक आदि
संतान हुई। पार्जन्य से उपानंद, अभिनंद, नन्द, सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, धरानंद, धुव्रनंद और वल्लभ नाम के पुत्र हुए इस प्रकार नन्द बाबा ‘पार्जन्य’ के तीसरे पुत्र थे तथा वसुदेव जी के चचेरे भाई थे।
इस प्रकार भी अर्जुन और सुभद्रा भाई बहन सिद्ध नहीं होते।
वहीँ श्रीमद भागवतम भी नन्द और यशोदा के यहाँ एक पुत्री जिसका नाम "भद्रा" था उत्पन्न हुई, ऐसा घोषणा करता है, इसलिए दो प्रमाण तो ये ही उपलब्ध हैं की सुभद्रा के माता पिता, वासुदेव न होकर, नन्द बाबा भी हो सकते हैं, हालांकि इस विषय पर पर्याप्त खोज की आवश्यकता है, जिसके लिए साल भर का समय चाहिए, ये मेरी खोज कुछ महीनो की ही है। फ़िलहाल तो इस चंद महीने की खोज से ही प्रमाणित हो रहा है की अर्जुन और सुभद्रा का भाई बहन का रिश्ता महज एक कपोल कल्पना ही है। अब बात करते हैं तीसरे विषय पर, पृथा और कुंती एक ही किरदार है, मगर पृथा शूरसेन की पुत्री थी जिनका गोत्र कुंतिभोज को गोद देने पर बदल गया, ठीक वैसे ही जैसे, एक महिला विवाहोपरांत अपने पति का गोत्र ग्रहण करती है, वैसे
ही दत्तक पुत्र वा पुत्री, अथवा नियोग संतान नियुक्त का गोत्र ग्रहण करता / करती है। इसलिए भी अर्जुन और सुभद्रा भाई बहन सिद्ध नहीं
होते, यह एक तार्किक पक्ष है, जिसमे विचार किया जा सकता है, यदि
मुझसे गलती हो जाए तो कृपया भूल सुधरवाने का कष्ट करे।
अब हम आते हैं भारतीय संविधान पर, क्योंकि कुछ नवबौद्धि,
ज्यादातर इस मसले पर कटाक्ष करते हैं, तो जरा इस विषय को,
भारतीय संविधान निर्माता "बाबा साहब आंबेडकर" जी के भी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं, देखिये भारतीय संविधान "हिन्दू विवाह अधिनियम 1955" के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने पिता के रिश्तों में पाँच पीढियों तक और माता के रिश्तों में तीन पीढ़ियों तक के रिश्तों में विवाह नहीं कर सकता। तो यहाँ तो माता की
पीढ़ी में केवल ३ पीढ़ी तक का निषेध है, जबकि हम ऊपर देख चुके हैं की अर्जुन और सुभद्रा की पीढ़ी में ६ पीढ़ी का ही अंतर है, यदि इसे और
भी निष्पक्ष रूप से देखना चाहे तो भी बाबा भीमराव आंबेडकर जी का संविधान "हिन्दू विवाह अधिनियम 1955" के अनुसार, कोई भी व्यक्ति अपनी माता की तीन पीढ़ी से ऊपर किसी भी कन्या से विवाह करने पर दंड का अधिकारी नहीं है, तो इस हिसाब से भी समझ लेवे :
१. अर्जुन
२. कुंती
३. कुंतिभोज
४. शूरसेन
अतः उपरोक्त तथ्यों के आधार पर और भारतीय न्याय वयवस्था
जो आंबेडकर साहब ने रची, इन सब तथ्यों के आधार पर भी अर्जुन और सुभद्रा भाई बहन सिद्ध नहीं होते, न ही इस विवाह में कोई दोष ही सिद्ध होता है, अब भी यदि भाई बहन का निकाह करवाने वाले, अपने
घृणित कार्यो को यदि आर्य सिद्धांतो के अनुसार ही उचित ठहराना
चाहते हो, तो इसका खंडन भी समय समय पर अनेको भद्र
पुरुष करते रहेंगे, अभी तो इस विषय पर ये केवल शुरुआत भर
है, आगे विद्वतजन विचार करे।
कृपया अपने ग्रंथो को ध्यानपूर्वक पढ़िए, सभी जवाब उसमे मौजूद हैं, सुनी सुनाई बातो और अफवाहों को दरकिनार करे, मनुष्य हों, स्वाध्याय करे, सत्य को अपनाये, असत्य को त्याग देवे।
आइये लौट चले वेदो की ओर ।