गुरुवार, 5 अगस्त 2021

अयोध्या...मनु से मोदी तक ।

5अगस्त: हिंदू उत्थान दिवस पर ...
अयोध्या:....मनु से मोदी तक ....

अयोध्या ! भारत की पवित्र सप्तपुरियों में से एक। एक प्राचीन नगरी जो स्थित है पवित्र सरयू के तट पर। 

सरयू जो कभी उद्गमित होती थी कैलाश से लेकिन अब उत्तराखंड के सरमूल ग्राम से प्रारंभ होने वाली एक हिमालयीन नदी। बाद में  गंगा भले ही भारत की पवित्रतम नदी बनी लेकिन इस राष्ट्र का उदय तो सरयू के  किनारे बसी अयोध्या में ही होना था। 

पुरातत्वविद भले ही भूगर्भीय जलस्तर तक हुये उत्खनन के आधार पर इसे 700 ई.पू. की एक बस्ती घोषित करें लेकिन उनके द्वारा निर्धारित इस समयसीमा पर यह नगरी व्यंग्य से मुस्कुराती है क्योंकि पुरातत्व इतिहास का भौतिक श्रृंगार तो हो सकता है लेकिन उसके शरीर व आत्मा का निर्माण नहीं कर सकता। उसका निर्माण तो उन घटनाओं के सातत्य में होता है जो  संपूर्ण आर्य साहित्य में बिखरी हुई हैं और जिनके प्रमाण आधुनिक भूगोल व उन घटनाओं के तारतम्य में उपस्थित हैं। इसलिये जो इतिहासकार केवल पुरातत्व को ही इतिहास मानता है वह इतिहास के मर्म से अनभिज्ञ है। चूंकि भारत का संपूर्ण इतिहास ही  इतिहासकारों की इस विडंबना का शिकार है तो अयोध्या इसका अपवाद कैसे बनती? 

लेकिन, अयोध्या  केवल एक नगरी का नाम नहीं है बल्कि राष्ट्र की अवधारणा और उसके मूर्त रूप में उदय की महागाथा भी है, एक जीवंत इतिहास है। अतः उसका अनुशीलन आवश्यक है। इसी प्रक्रम में आर्ष साहित्य में अयोध्या के इतिहास की वे कड़ियाँ प्राप्त होती हैं जिनके प्राचीनतम छोर का प्रारंभ वस्तुतः सभ्यता का प्रारंभ था। 

 पामीर, 

संसार की छत अर्थात सुमेरु पर्वत पर जिस देव सभ्यता ने जन्म लिया उसके कुछ गण स्वायंभुव मनु के एक पुत्र उत्तानपाद के नेतृत्व में हिमालयीन रास्तों से यमुनोत्री क्षेत्र के आगे तक आ बसे। उनके पुत्र ध्रुव ने यक्ष जाति को पीछे धकेल कर इस क्षेत्र को सुरक्षित बनाया। एक पीढ़ी बाद उत्तानपाद के भाई प्रियव्रत के पोते नाभि के नेतृत्व में दूसरा जत्था और नीचे तराई में उतरकर बस गया और यह क्षेत्र 'हिमवर्ष' के स्थान पर उनके नाम से 'अजनाभवर्ष' कहलाने लगा ठीक वैसे ही जैसे देवों से अलग हुये ये गण समूह स्वयं को 'मानव' अर्थात मनु की संतान और 'आर्य' अर्थात श्रेष्ठ कहने लगे। 
 
नाभि के प्रतापी और संवेदनशील पुत्र ऋषभ ने इस बस्ती को लकड़ी के कठोर सुरक्षा घेरे से आवृत्त करवाया और नाम दिया 'अयोध्या' अर्थात 'जहाँ कभी युद्ध न हो'।  यह संवेदनशील ऋषभ के व्यक्तित्व के अनुरूप ही था क्योंकि कुछ समय बाद यही ऋषभ विरक्त होकर भगवान विष्णु के अवतार के रूप में सनातन मार्गियों में पूजित होने वाले थे और  अहिंसाव्रती भगवान आदिनाथ के रूप में जैनों की निवृत्तिमार्गी श्रमण परंपरा की नींव रखने वाले थे। 

भगवान ऋषभ की अहिंसा वृत्ति उनके अपने पुत्र भरत को प्रभावित न कर सकी और उन्होंने आसपास के सारे गण समूहों और जातियों पर आक्रमण कर अपने जनों के विस्तार की राह खोली लेकिन 'गणसमानता' के प्रश्न पर छोटे भाई बाहुबली से आंतरिक विग्रह हो गया। व्यक्तिगत द्वंद में भरत पर बाहुबली भारी पड़े परंतु पराजय से क्षुब्ध भरत के दीन म्लान चेहरे को देखकर बाहुबली को स्वयं पर ग्लानि हो आई और वे ज्येष्ठ के चरण पकड़कर रो दिये। ज्येष्ठ को भी अनुज पर बाल्यकाल का स्नेह याद आ गया और वे बाहुबली को गले से लगकर सबकुछ भूल गये। 

उस दिन भातृप्रेम में बहे उन आँसुओं पर विश्व के प्रथम राष्ट्र की नींव रखी गई और साथ ही जैनों की श्रमण परंपरा ने पाया एक और कैवलिन। 

राष्ट्र निर्माण के तीन मुख्य कारक 'जन', 'भूमि' और 'संस्कृति' उपस्थित थे। आधुनिक प्रकार का 'राष्ट्र राज्य' तो नहीं लेकिन फिर भी 'राष्ट्र' का जन्म हो चुका था। विश्व का प्रथम 'राष्ट्र' जिसकी भावनात्मक पारिकल्पना आगे चलकर ऋषियों के मुख से माँ और संतान के पवित्र संबंध के रूप में अभिव्यक्त हुई- 

”माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्या”

भरत के प्रभावक्षेत्र की सारे आर्य गण कहलाये 'भरत' और यह भूखंड कहलाया 'भरतखंड'। 

'मानव'  अपनी संस्कृति की ध्वजा लेकर बस्तियां बसाते अन्य जातियों से समन्वय व सांस्कृतिक संबंध स्थापित करते आगे बढ़ते रहे और जा पहुंचे दक्षिणी  समुद्र तक। इस तरह पामीर से लेकर  दक्षिणी समुद्रतट के भूक्षेत्र को एक भौगोलिक संज्ञा मिली 'भारतवर्ष' व इसका राजनैतिक सांस्कृतिक केंद्र बनी 'अयोध्या'। 

सन्तानवृद्धि की अपार आकांक्षा, सर्वसमावेशीकरण व पुर्नसंस्कार की अद्भुत क्षमता के कारण 'आर्यत्व' के ध्वज तले विभिन्न गण जातियाँ राष्ट्रीय भाव में गूँथी जाने लगीं पर तभी.......

....तभी आया एक महान संकट। एक ऐसी भयानक आपदा जिसने केवल अयोध्या व भारत ही नहीं पूरे विश्व के  इतिहास को बदल कर रख दिया। 

जल प्रलय!

एक ऐसी घटना जिसका विवरण विश्व की प्रत्येक सभ्यता की पुस्तक में दर्ज है लेकिन ब्राह्मण व पुराण आदि ग्रंथों  में इसका विवरण पूरे वैज्ञानिक तथ्यों के साथ वर्णित किया गया। 

कोई एस्ट्रॉयड या भूमि की कोर में किसी हलचल के कारण दक्षिणी महासागर से महाभयंकर सुनामी आने वाली थी लेकिन रहस्यमय रूप से यह जानकारी पामीर पर उपस्थित देवों को हो गई और 'विष्णु पद' पर अभिषिक्त 'भगवान विकुण्ठ' ने  पूरे शरीर पर मछली जैसी पोशाक धारण करने वाले, दक्षिण भारत से ईराक स्थित बेबीलोन तक सागरसंचारी 'मत्स्य जनों' की सहायता से संसार की सभ्यताओं को बचाने का महाअभियान प्रारंभ किया। इन्हीं मत्स्यजनों ने बाद में राजस्थान में मत्स्य गण की स्थापना की जिसकी राजधानी विराटनगर बनी। 

सभी को ऊंचे स्थान पर पहुंचने का निर्देश दिया गया। भारत के दक्षिण में उपस्थित विवस्वान जाति के श्राद्ध देव उपनाम  'सत्यव्रत' के नेतृत्व में महाअभियान प्रारंभ हुआ जो दक्षिण में एक आर्य बस्ती का नेतृत्व करते थे।  

हिमालय तक स्थलमार्ग से इतना त्वरित आवागमन संभव नहीं था अतः विशाल नौकाओं के बेड़े में 'मत्स्यजन' के सागरज्ञान व  दिशानिर्देश की सहायता से यथासंभव सभी गण जातियों के स्वस्थ युवक युवतियों तथा ज्ञात अन्न, औषधि, फलों के बीजों व पालतू पशुओं के जोड़ों को लेकर समुद्री मार्ग से पंजाब की ओर से हिमालय तक पहुंचाया गया। 

अयोध्या व हिमालय की तराई में उपस्थित 'भरत जन' भी कैलास व त्रिवष्टिप अर्थात तिब्बत पर  हिमालय की ऊंचाइयों पर पहुंचकर सुरक्षित होकर सूर्यपूजक विवस्वान जाति के अतिथि बने जिसके गणमुख्य सूर्य के प्रतिनिधि मानकर पूजे जाते थे।  

सागर के लवणीय जल ने पूरे दक्षिणी प्रायःद्वीप को जलाक्रान्त कर दिया और सुनामी की लहरें हिमालय की तराई को भी डुबो गईं। जीव जंतुओं सहित वनस्पतियों का भारी विनाश हुआ। 

पर यह बुरा वक्त भी गुजर गया। अंततः बाढ़ का जल उतरा और जातियाँ वापस अपने स्थानों की ओर लौटने लगीं। 

लेकिन लवणीय जल के कारण भूमि की उत्पादक क्षमता नष्ट हो चुकी थी अतः भोजन की कमी के कारण भरत गणसंघ में आंतरिक विग्रह  उठ खड़े हुये और वेन की हत्या हो गई। उनके उत्तराधिकारी पृथु ने परंपरा तोड़कर भूमि पर हल चलाने और खाद के द्वारा भूमि की उर्वरता को पुनः प्राप्त करने की विधि ढूंढ निकाली। इन्ही पृथु  के अनुवर्ती पृथुगण अपने दायाद बांधव 'प्रशुओं' के साथ पश्चिम की ओर निकल कर ईरान में क्रमशः 'पार्थियन' व 'पारसीक' साम्राज्यों का निर्माण करने वाले थे। 

इधर पृथु की कृषि तकनीक से संपन्न सातवें मनु पद पर निर्वाचित विवस्वान के पुत्र श्राद्धदेव 'सत्यव्रत' अर्थात वैवस्वत मनु के वंशज और और भरत जन भी दो हिस्सों में विभक्त हो गये। 'सोम' अर्थात 'चंद्र' के वंश से जुड़े 'पंच जन' 'भरतों' के नेतृत्व में पश्चिम की ओर अफगानिस्तान के रास्ते सप्तसिंधु में आ बसे और उधर भरतों के शेष जन वैवस्वत श्राद्धदेव मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वैवस्वत वंशी गणों के साथ  प्राचीन  हिमालयीन मार्ग से भरतों के प्राचीन क्षेत्र हिमालय की तराई वाले क्षेत्र में उतर गये। इक्ष्वाकुओं से निकले  लिच्छिवि, विदेह, कोसल आदि गणों ने पूर्वी भारत में वैशाली व मिथिला जैसी स्थायी बस्तियों की स्थापना की। 

इसी क्रम में सरयू के तट पर प्राचीन अयोध्या  की ही स्मृति में नवीन बस्ती को भी 'अयोध्या' नाम ही दिया गया। लेकिन इक्ष्वाकुओं के पराक्रम के कारण इसका अर्थ प्रचलित हुआ  'जिसे जीता न जा सके'।  

इक्ष्वाकु गणसंघ की विभिन्न शाखाओं ने एक ही समय पर अपने अपने क्षेत्रों राज्य किया लेकिन वे  गणसंघ के रूप में अयोध्या से सम्बंधित मान लिये गये जिसे पुराणकारों ने भ्रमवश एक ही वंश में गूंथ दिया और यही कारण है कि वाल्मीकि रामायण में श्रीराम तक केवल 24 राजा हैं जाबकि भागवत में 43। 

जब इक्ष्वाकु गण पूर्वी क्षेत्र में फैल रहे थे तब उसी समय पश्चिम से भरतों के नेतृत्व में पंचजन - यदु,तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु व पुरु उत्तरी व पश्चिमी भारत में अन्य आर्य गणों के साथ फैल रहे थे। सिन्धुवसौवीर क्षेत्र में फोनेशियन व यवन आर्यों की बस्तियां भी विकसित हो रहीं थी जिन्हें आज हम मोएंजोदारो, हड़प्पा व लोथल कहते है। 

इक्ष्वाकुओं का देवभूमि से संपर्क अभी भी था और कभी कभी  देवासुर संग्राम में देवपक्ष की ओर खड़े हो जाते थे लेकिन असली मुसीबत आई गृहयुध्द के रूप में।

दाशराज्ञ अर्थात दस राजाओं का युद्ध जो कहने को तो दस राजाओं का युद्ध था लेकिन वास्तव में इसमें उत्तरी भारत की हर गण जाति की तरह  अयोध्या व इक्ष्वाकुओं को भी भाग लेना पड़ा। 

वसिष्ठ व विश्वामित्र के बीच 'वर्ण व वर्णान्तरण' की परिभाषा को लेकर छिड़ा सैद्धांतिक विवाद सैन्य संघर्ष में बदल गया। सुदूर अफगानिस्तान के पठानों से लेकर पूर्व के इक्ष्वाकु और तृत्सु जैसे आर्य शुद्धतावादियों से लेकर शिश्णु, यक्ष और पिशाच जैसे अनार्य संस्कृति के कबीलों ने भाग लिया। परुष्णी अर्थात रावी के तट पर अंतिम संग्राम हुआ। विश्वामित्र सैन्य रूप से परास्त हुये लेकिन सैद्धांतिक तौर पर विजयी हुये। वसिष्ठ को उनकी गायत्री विद्या को सर्वोच्च मान्यता देनी पड़ी और उन्हें क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि भी स्वीकार करना पड़ा। 

विश्वामित्र की इस विजय में  अयोध्या में इक्ष्वाकु संघ के तत्कालीन  प्रमुख हरिश्चन्द्र व उनके पुत्र रोहिताश्व सबसे बड़े माध्यम बने और 'नरमेध' सदैव के लिये प्रतिबंधित हो गया। 
पर यह युद्ध पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ और हैहय व भृगुओं के बीच संघर्ष के रूप में पुनः भड़क उठा।परशुराम ने  हैहयों को कुछ समय के लिये कुचल दिया परंतु इक्ष्वाकुओं में फूट पड गई और कुछ इक्ष्वाकु जो हैहयों से जुड़े थे उन्हें परशुराम का कोप झेलना पड़ा, इस तथ्य के बावजूद कि उनकी माँ रेणुका एक इक्ष्वाकु सरदार की ही पुत्री थीं। 

इस बीच भरतों व पुरुओं का विलय हो गया और  इस स्मृति में दुष्यंत के बेटे का नाम प्रतीकात्मक तौर पर भरत रखा गया जिन्होंने पूरे भारत की गणजातियों को अपनी प्रभुसत्ता स्वीकारने पर बाध्य कर एक बार फिर भारत का 'राष्ट्रीय' संगठन किया व आदि भरत का नाम सार्थक किया। 

अयोध्या इस समय बुरे दौर से गुजर रही थी और भरत के वंशजों की कमजोरी का लाभ उठाकर हैहय एक बार फिर प्रबल हो उठे और इस बार उनके निशाने पर थे काशी और कोशल। इक्ष्वाकु संघ परास्त हुआ और गर्भवती रानी भृगुओं की शरण में पहुंची। राजकुमार सगर ने भृगुओं की सहायता से केवल हैहयों को ही नहीं हराया बल्कि उनके साथ आये द्रुह्यु तथा विदेशी भाड़े के योद्धाओं को पश्चिमोत्तर की ओर खदेड़ दिया। 

पर सगर व उनके वंशजों का सर्वाधिक महान कार्य था सुदूर हिमालय से महारुद्र शिव को प्रसन्न कर उनकी सहायता से हिमालयीन ग्लेशियर गोमुख से जलधारा को अलकनंदा में मिलाना और नवीन धारा को गंगा के रूप में मैदानों तक उतारने में सफलता प्राप्त करना। संपूर्ण इक्ष्वाकु मंडल अब धनधान्य से संपन्न हो उठा और अयोध्या साम्राज्य प्रगति करने लगा। हालांकि अयोध्यावासियों के लिये सरयू ही गंगा थी।  

पर अयोध्या के स्वर्णिम दिन तो अभी आने बाकी थे। 
इक्ष्वाकुओं की एक और शाखा के प्रमुख दिलीप का अधिकार अयोध्या पर हुआ जो अपनी गोभक्ति और गोधन के वैभव के लिये विख्यात थे। उनके पुत्र हुये रघु जिन्होंने लगभग संपूर्ण उत्तरीभारत के समस्त राज्यों व गणों को कर देने पर विवश किया और दक्षिण भारत पर भी अभियान किया। रघु के प्रताप के कारण इक्ष्वाकुओं की इस शाखा के वंशज स्वयं को रघुवंशी कहने लगे। इसी वंश में रघु के प्रपौत्र के रूप में जन्म लिया उन्होंने जिनके कारण अयोध्या ही नहीं संपूर्ण धराधाम ही धन्य हो उठा। 

#मर्यादापुरुषोत्तम #श्रीराम

जिनकी महानता का वर्णन आजतक होता आया है उनके गुण लीलाओं का वर्णन इस लघुनिबन्ध में कैसे संभव हो सकता है लेकिन इतना कहना पर्याप्त होगा कि ''राम" शब्द इस राष्ट्र के प्रत्येक जन के ह्रदय में आत्मा की तरह अंकित हो गया। हर श्वास से लेकर मृत्य तक ही नहीं बल्कि उससे परे परलोक में भी प्रत्येक भारतीय का संबल बन गया। राम से बेहतर इस राष्ट्र की कोई दूसरी परिभाषा हो ही नहीं सकती। 

राम अपना नाम और मर्यादा की शिक्षायें इस धरा को भेंट कर चले गये और उनके  पीछे रह गई उजाड़ अयोध्या क्योंकि अधिसंख्य अयोध्याजनों ने राम के पीछे ही सरयू में अपने नश्वर देह त्यागकर उनका अनुगमन किया। 

कुश ने दक्षिण कोशल से लौटकर पिता की स्मृतियों को संरक्षित किया लेकिन उनकी दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद अयोध्या का पतन रुका नहीं और रुकता भी कैसे? मर्यादापुरुषोत्तम के वंश में अग्निवर्ण जैसे कामुक वंशज जो पैदा होने लगे। 

यूँ भी प्रकृति में उद्विकास का अटल नियम है- 'शीर्ष के बाद ढलान शुरू होती है।' 

आठ चक्र और नौ द्वारों वाली जिस वैभवशाली अयोध्या की तुलना ऋषियों ने आठ जागृत ऊर्जा चक्रों वाले अभेद्य योगी से की थी वही अयोध्या भोगों के कारण 'रोगी' बन गई।  उसकी अजेयता समाप्त हुई और महाभारत में भगवान राम का वंशज वृहद्वल अभिमन्यु के हाथों गौरवहीन मृत्यु को प्राप्त हुआ। 

बौद्धकाल में प्रसेनजित तक आते आते अयोध्या के स्थान पर श्रावस्ती इक्ष्वाकुओं की राजधानी बन गई लेकिन तथागत बुद्ध अपने उस महान पूर्वज को कैसे भूलते जिसके वंश की एक शाखा में वह स्वयं जन्मे थे?  तथागत के आगमन से अयोध्या धन्य हुई लेकिन उन्होंने अपने पूर्वजों के स्थान का अतिक्रमण करना उचित नहीं समझा और उन्होंने अपने संघ सहित अयोध्या के एक उपनगरीय क्षेत्र में विहार किया जो #साकेत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

सम्राट अशोक ने जब तथागत के स्मृति स्थलों को सहेजा तो साकेत में भी विहार बनवाये यद्यपि मूल अयोध्या अपने राम के साथ भक्तिमग्न रही। 

मौर्य साम्राज्य दुर्बल हुआ। बौद्ध संघारामों में राजनीति व विलासिता का बोलबाला होने लगा। यूनानियों ने मौका पाया और सिकंदर के अधूरे स्वप्न को पूरा करने वे निकल पड़े बैक्ट्रिया से। 

बृहद्रथ की कायरता व विलासिता से क्रुद्ध पुष्यमित्र शुंग ने सेना के समक्ष ही उसे वहाँ पहुंचा दिया जहाँ कभी चाणक्य द्वारा धननंद को पहुंचाया गया था। उधर  यूनानी सेना तेजी से आगे बढ़ रही थी। राजस्थान व मथुरा को रौंदते हुये डेमेट्रियस व मिनांडर आगे बढ़ रहे थे। एक सेना के साथ डेमेट्रियस पाटलिपुत्र की ओर बढ़ा व दूसरी सेना के साथ मिनांडर अयोध्या की ओर। 

बौद्धों ने देशद्रोह किया और अयोध्या का पतन हो गया। 
कहते हैं कि मिनांडर पहला विदेशी आक्रांता था जिसने राम की जन्मभूमि व अन्य स्मृति चिन्हों का विध्वंस किया। देशद्रोही बौद्धों ने ये भी न सोचा कि विदेशी आक्रांता जिस राम के स्मृति चिन्हों का अपमान कर रहा है वे राम स्वयं तथागत के पूर्वज थे। 

बौद्धों की देशद्रोही भूमिका से क्रुद्ध पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध विहारों पर आक्रमण कर 'घर के भेदियों को साफ' किया, यूनानियों को खदेड़ दिया व अयोध्या का वैभव पुनः लौटाने की कोशिश की। 

लेकिन वास्तविक प्रतिशोध लिया एक ब्राह्मण ने जिसका नाम था नागसेन जिसने मिनांडर को उसकी ही राजधानी में शास्त्रार्थ में परास्त कर अपना शिष्य बनाया। यूनान अयोध्या के चरणों में नत हुआ। मिनांडर बना मिलिंद और विश्व को मिली बौद्ध दर्शन की अनुपम कृति 'मिलिंदपन्हों'।

शकों-मुरुण्डों के आक्रमण की बाढ़ में अयोध्या पूर्ण  रूपेण उजाड़ हो गई लेकिन प्रवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय व व्यापारी अयोध्या व राम के नामों की महिमा को बाहर पूर्वी एशिया में ले गये जिसके कारण वहाँ कई'अयोथिया' बसीं और थाईलैंड के अयोथिया शासक तो आज भी 'सेरी राम' की उपाधि ही धारण करते हैं। 

इधर मालव गणराज्य के राष्ट्रपति विक्रमादित्य ने शकों को कुछ समय के लिये पश्चिमोत्तर में खदेड़ दिया और  श्रीराम जन्मभूमि को कुछ शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर ढूंढकर वहाँ मंदिर बनवाया। 

गुप्तकाल में और विशेषतः चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अयोध्या ने कुछ अच्छे दिन पुनः देखे और अयोध्या गुप्त साम्राज्य की तीसरी राजधानी बनी।

यह भी कहा जाता है कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि ढूंढकर वहाँ मंदिर बनवाने वाले विक्रमादित्य वस्तुतः यही गुप्तवंशी विक्रमादित्य थे। लकड़ी के भवन और मंदिरों का स्थान अब पाषाण स्थापत्य ने लिया। 

वर्धन, प्रतिहार व गाहड़वाल युग में राजनैतिक सांस्कृतिक केंद्र कन्नौज बन गया और अयोध्या पुनः उपेक्षित हो गई। यद्यपि गाहड़वाल राजाओं ने श्रीराम मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। 

तराइन के द्वितीय युद्ध में पराजय के बाद मुस्लिम सत्ता इस देश में परजीवी के समान जड़ बनाकर बैठ गई और फिर शुरू हुआ मंदिरों के विध्वंस व पुनर्निर्माण का क्रम। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर इसका अपवाद क्यूं कर रहता?

इस दौरान अयोध्या ने मंदिर विध्वंस ही नहीं बल्कि  बलवन जैसे क्रूर बर्बर शासकों द्वारा मीलों तक खड़ी सूलियों में बिंधे मानव शरीरों की श्रृंखलाओं जैसे घिनौने दृश्य और बलात धर्मांतरण भी होते देखे। 

फिर आ घुसा मुगल बाबर। मिनांडर काल का इतिहास फिर दोहराया गया जब अयोध्या में हिंदू साधु के मुस्लिम शिष्यों ने गुरुद्रोह व देशद्रोह कर बाबर के शिया सेनापति मीर बाकी की मदद से श्रीराम जन्मभूमि पर खड़े जीर्णशीर्ण मंदिर को भी तुड़वा डाला और उसके स्थान पर मंदिर के ही मलबे से बनाई गई कुख्यात बाबरी मस्जिद। 

पर जो नाम हर भारतवासी के ह्रदयमन्दिर में  धड़कन की तरह धड़क रहा हो उसके अपमान पर वे कैसे चुप बैठते? लाखों ने अपने शीश दिये। यहाँ तक कि सुदूर पंजाब से आकर सिखों ने भी अपने गुरु साहिबान के इन महान पूर्वज के स्मृति चिन्ह की मुक्ति के लिये अपना खून उसी तरह बहाया जैसे महताब सिंह जैसे राजपूतों व ब्राह्मण, अहीर, गुर्जर, भूमिहार आदि हर जाति के हिंदू ने। 

1947 में आजादी आई लेकिन दुर्भाग्य से सत्ता पर काबिज था एक अर्धमुस्लिम विचार का व्यक्ति जिसे हिंदू होने पर शर्म आती थी अतः हिंदुओं को अपने ही देश में अपने राष्ट्र प्रतीक के स्मृति चिन्हों को पुनः प्राप्त करने के लिये आंदोलन करने पड़े, गोलियाँ खानी पड़ीं। कोठारी बंधु जैसे कई राष्ट्रनिष्ठ हिंदुओं ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। 

एक पूरी पीढ़ी ने इस आंदोलन को अपने श्रम, आंसुओं व रक्त से सींचा और कई तो भव्य राममन्दिर का स्वप्न देखते हुये इस संसार से विदा हो गये। 

राष्ट्रनिष्ठ संतों के आह्वान पर श्री लालकृष्ण आडवाणी, स्व.अटल जी, श्री मुरलीमनोहर जोशी, स्व. श्री अशोक सिंहल, श्री प्रवीण भाई तोगड़िया, साध्वी दीदी ऋतंभरा, साध्वी उमा भारती सहित सैकड़ों नेताओं ने विविध स्तरों पर इस आंदोलन का नेतृत्व किया। 

अंततः हिंदुओं की आहों और रक्त बलिदानों से विधाता का भी ह्रदय पसीजा और उन्होंने इस आंदोलन में चुपचाप अपना योगदान दे रहे ऐसे राष्ट्रसेवक को रामकाज हेतु चुना जो  'कांटे से कांटा' निकालने की कला में पारंगत था--  नरेंद्र दामोदरदास मोदी 

अंसारी, औवेसी, शहाबुद्दीन जैसे विधर्मियों तथा आसुरी  इटालियन कांग्रेस व कपिल सिब्बल जैसों के तमाम कुटिल प्रयत्नों के बाद भी हिंदुओं की आकांक्षाओं के सच्चे प्रतिनिधि, भारत माता के सपूत, यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी और उनके परम विश्वसनीय कौटिल्य बुद्धि गृहमंत्री श्री अमितभाई शाह के प्रयत्नों से रामजन्मभूमि इन असुरों के काले पाश से 2019 में मुक्त हुई और अंततः 5 अगस्त 2020 को सुबह 9 बजे भूमिपूजन द्वारा भव्य मंदिर के निर्माण का श्रीगणेश हुआ।

अब आशा है कि अयोध्या भारत की सांस्कृतिक राजधानी के साथ साथ पुनः आठ चक्र व नौ द्वारों वाले सुव्यवस्थित महानगर के रुप में विकसित होकर भारत की राजनैतिक राजधानी भी घोषित हो क्योंकि भारत की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की नाभि अयोध्या में ही निहित है।

इतिहास से तो ऐसा ही प्रतीत होता है। 

इति!
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स्रोत:-
ऋग्वेद,
अथर्ववेद,
शतपथ ब्राह्मण,
वाल्मीकि रामायण,
महाभारत,
सारे पुराण, 
पश्चिम एशिया व ऋग्वेद:डॉ रामविलास शर्मा, 
महागाथा:रांगेय राघव ..
मूल लेखक... अनुज श्री देवेंद्र सिंह सिखरवार जी