लेखक
– नरेश मिश्र
जंगल में एक शेर और सियार रहते
थे । सियार शेर के शिकार का बचा खुचा हिस्सा खा कर खूब मोटा तगड़ा हो गया था
। उसकी जवानी बुलन्दी पर थी । एक दिन उसे शेर दिखायी दिया । वह भरपेट
शिकार खा कर अपनी गुफा में सोने जा रहा था ।
सियार ने कुछ फासले पर खड़े हो कर
शेर को ललकारा, – लोग तुझे जंगल का राजा कहते हैं । दम खम हो तो मुझसे
दो-दो हाथ कर ले । तुझे भी पता चल जायेगा कि जंगल का असली राजा कौन है ?
शेर ने पलट कर सियार की तरफ देखा
। उसे गुस्सा नहीं आया । वह भरपेट खाने के बाद गहरी नींद सोने के मूड में
था । उसने जंभाई लेते हुये कहा – मेरे बाप तू अपने रास्ते जा । तू ही जंगल
का राजा है । मुझे नींद आ रही है । मैं तुझसे लड़ना नहीं चाहता ।
सियार तैश में आ कर उछल पड़ा – तू
मुझसे डर गया । अब मेरे जैसे सवा शेर से पाला पड़ा है तो तेरी हेकड़ी हवा हो
गयी ।
शेर बोला – तू ऐसा ही समझ ले पर
मेरे रास्ते से हट जा ।
सियार सीना फुला कर बोला – मैं
हटने वाला नहीं । तूने शेरनी मां का दूध पिया है तो मुझसे निबट ले । मैंने
कसम खायी है कि आज तुझे छठी का दूध याद दिलाऊंगा ।
मां की बात सुनते ही शेर की
औंघाई हिरन हो गयी । वह अपनी दहाड़ से जंगल को कंपाता सियार पर टूट पड़ा ।
शेर की दहाड़ सुनते ही सियार का मल-मूत्र बाहर निकल आया । वह जान बचाने के
लिये पलट कर भागा । सियार आगे-आगे शेर पीछे पीछे । सियार को जान बचाने के
लिये कोई जगह नहीं मिली तो वह उस खाईं की तरफ दौड़ा जिसमें जंगल के सारे
जानवर निबटान मारते थे । वह खाईं गन्दगी और मल से लबालब थी । सियार उसमें
कूद गया । उसके बदन में गन्दगी लिपट गयी । उसने फिर शेर को ललकारा, –
हिम्मत है तो मेरे पास आ, मैं तुझसे लड़ने को तैयार हूं ।
शेर ने खाईं के किनारे खड़े हो कर
सियार को देखा और बोला – मैं तुझसे हार मानता हूं । जिस गन्दगी में तू उतर
गया है, वहां जाना मेरे वश की बात नहीं है ।
साहबान, मेहरबान, कद्रदान, अब
जरा इधर दीजिये ध्यान !
बंदा जो बयान कर रहा है, उसका
ताल्लुक रामजन्मभूमि-बाबरी ढांचा मुकद्दमें के फैसले से है । इस फैसले से
सभी सियासी पार्टियों ने माप-तोल कर बोलने का फैसला किया । ज्यादातर
सेकुलर पाखंडी ही जबान खोलने के पहले सौ बार सोचने को मजबूर नजर आये ।
सिर्फ एक समाजवादी जीव हैं जो साम्प्रदायिक विद्वेष की गन्दी खाईं में कूद
कर देश को ललकार रहे हैं । वह इस फैसले को अपने लिये सुनहरा मौका मान कर
भुनाना चाहते हैं । वह बहुत साल से सत्ता सुंदरी को गले लगाने के लिये तड़प
रहा है । उसने दो टूक बयान जारी कर कहा है – इस फैसले से मुस्लिम खुद को
ठगा और मायूस महसूस कर रहे हैं ।
सोशलिस्ट बन्दे को मुल्क के अमनोअमान
से कुछ लेना देना नहीं है । उसे तो मुस्लिम भाइयों को भड़काने का माकूल
मौका मिल गया है । उसे पता है कि मुस्लिम वोट बैंक के हाथ से निकल जाने का
कैसा खामियाजा भुगतना पड़ता है । बड़ी मेहनत से वोट बैंक की इस मछली ने
कांटे में लगा चारा निगला था । बदकिस्मती से मछली कांटा तोड़ कर निकल गयी वह
जब तक दोबारा नहीं फंसती तब तक सत्ता की कुर्सी के वियोग में घड़ियाली आंसू
बहाने पड़ेंगे ।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले ने
जो मौका दिया है उसे गंवाना सियासी जहालत के सिवा और कुछ नहीं है, कोशिश
करके देखने में कोई हर्ज नहीं है । देश का हिंदू-मुस्लिम समुदाय इस फैसले
से शांत है । वह जानता है कि यह फैसला आखिरी नहीं है, अभी सुप्रीम कोर्ट से
अन्तिम फैसला होना बाकी है । सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठ । हजारों
पेज में लिखे गये फैसले को पढ़ने की फुसर्त सबको नहीं मिल सकती । सियासी
दुकानदारों को तो मुश्किल से ही मिल सकती है । मुल्क में सियासत ही इकलौता
पेशा है जिसमें पढ़ा लिखा होना कतई जरूरी नहीं है । पढ़ाई लिखाई आमतौर पर
सियासतबाजों के लिये अपात्रता साबित होती है । बस भड़काऊ नारे लगाओ और अपनी
गोट लाल करो ।
मुस्सिम समुदाय को पटाने और भड़काने के लिये कुछ भड़काऊ नारे और बयान सियासत
के इस शातिर शतरंज खिलाड़ी के बायें हाथ का खेल है । मुस्लिम भाई नहीं भड़कते
तो क्या फर्क पड़ता है । यह मलाल तो नहीं रह जायेगा कि बंदे ने कोई कोशिश
नहीं की ।
मुल्क सचमुच नेताओं, सेकुलर
पाखंडी मीडिया माहिरों की बनिस्बत ज्यादा समझदार है । वह भड़काने वाले
तथाकथित सेकुलरों की चाल समझ गया है । काठ की हांडी दो बार नहीं चढती । लोग
जानते हैं कि साम्प्रदायिकता की गंदगी में लिपटा हुआ सियार क्या कह रहा है
।
हमें पहली बार यकीन हो गया कि
मुल्क के असली दुश्मन वे सियासतबाज हैं जो समुदायों के बीच तनाव फैला कर,
लाशों की सीढ़ी चढ़ कर भी सत्ता की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं ।