इस ब्लॉग में मेरा उद्देश्य है की हम एक आम नागरिक की समश्या.सभी के सामने रखे ओ चाहे चारित्रिक हो या देश से संबधित हो !आज हम कई धर्मो में कई जातियों में बटे है और इंसानियत कराह रही है, क्या हम धर्र्म और जाति से ऊपर उठकर सोच सकते इस देश के लिए इस भारतीय समाज के लिए ? सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वें भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत।। !! दुर्भावना रहित सत्य का प्रचार :लेख के तथ्य संदर्भित पुस्तकों और कई वेब साइटों पर आधारित हैं!! Contact No..7089898907
गुरुवार, 10 मई 2012
दिलीप मंडल 'इंडिया टुडे' के संपादक हो गए तो इस मैग्जीन का पाठक संख्या बढ़ेगी ?
दिलीप मंडल जी को शुचिता का पाठ पढ़ाने वालों के तथ्य अपनी जगह सही हैं..बेशक उन्हें खुद आकर अपना पक्ष रखना चाहिए...मेरा तो कहना ये है कि उपरोक्त नुक्ताचीनी करने वाले अधिकतर (या सारे?) एक वर्ग विशेष के क्यों हैं...मंडल जी क्या इस तरह की शुचिता के लिए जाने जाते रहे हैं...वे सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं..आप लोगो के शब्दों में कहूं तो एससी, एसटी, ओबीसी के पक्षधर हैं। क्या यह कवर उनकी इस विचारधारा के प्रतिकूल है? फिर क्या इंडिया टुडे में वे तानाशाह की भूमिका में हैं? क्या जो छपा उसमें उनकी कितनी सहमति रही या कितनी असहमति रही होगी..ये किसको पता है...लोगों को यह अखर रहा है कि इंडिया टूडे में मंडल जी को जगह मिल कैसे गई..जाति भेद के आधार पर भर्ती नहीं रुकवा पाए तो नैतिकता का जोश चढ़ाकर किसी बहाने से उनसे इस्तीफी दिलवा दो..बस फिर कोई पंडित जी बैठ जाएंगे..और फिर चाहे जो छपे तो छपे उनकी बला से..............यह पोस्ट अभी -अभी सुबह ७.००(१०/५/२०१२) बजे देखा मैंने !!सच का सामना !! ग्रुप फेसबुक में जिसे महेंद्र यादव जी ने पोस्ट किया था इसी पोस्ट को आधार लेकर यह ब्लॉग है ......
.महेंद्र यादव जे एकी पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी .पर एक बात समझ नहीं आती की हर जगह पर सभी पोस्ट में किसी ना किसी ब्राह्मणों या राजपूतो या फिर बनियों को मतलब सवर्णों को घसीटना इनकी फितरत बन गई है मैंने सुना की दिलीप मंडल साहब इंडिया टुडे मैग्जीन में जा रहे हैं. सुनकर विश्वास नहीं हुआ. पर लगा कि अरुण पुरी जिस तरह के फैसले आजकल ले रहे हैं तो उसमें अगर उन्होंने यह भी फैसला ले लिया है तो कोई गलत नहीं किया है. कहावत है न कि दिया बुझने से पहले बड़ी तेज भभकता-धधकता है. अरुण पुरी और उनके ग्रुप का हाल यही है.क्योकि इंडिया टुडे के पातःक संख्या जिस तरह से घट रही है और घटेगी क्योकि दिलीप मंडल जी को कमंडल के शिवा क्या आता है .दिलीप मंडल जी को भी सभी जगह पर सिर्फ और सिर्फ दलित ही नजर आते है ,इससे साफ़ जाहिर है की दिलीप मंडल जी के संपादक के रूप में वही नई बोतल में पुरानी साराब ही रहेगी ..और निश्चय ही यह सराब सभी सवर्ण पीना पसंद नहीं करेगे ...! ,गल्तियां सुधारने के नाम पर यह ग्रुप और ज्यादा बड़ी गल्तियां करते जा रहा है!वह चाहे चैनल हो या मैग्जीन, हर जगह ऐसे लोगों को लाकर बड़े पदों पर बिठाया जा रहा है जो पिटे हुए मोहरे हैं, एकांगी हैं, पत्रकारिता से परे हैं. फिलहाल दिलीप मंडल की बात करेंगे. यह साहब काफी समय से बेरोजगार हैं. एक खास किस्म के वामपंथी गैंग को पकड़कर ये साहब आईआईएमसी में घुस गए. बच्चों को ये क्या पढ़ाते रहे होंगे, इसका अंदाजा उनके फेसबुकी स्टेटस आदि से चल जाता है. हर वक्त सिर्फ दलित दलित दलित दलित कहने करने लिखने बोलने वाला यह शख्स वाकई नार्मल इंसान है या नहीं, इसका पता लगाया जाना चाहिए........ दलितों का कतई विरोधी नहीं हूं. दलितों के प्रति जो ऐतिहासिक गल्तियां समाज से हुई है, उसका परिष्कार, उसमें सुधार अनिवार्य तौर पर हो रहा है. पर यह व्यक्ति जिस तरीके से हर चीज में दलित एंगल खोज लेता है, और फिर उसी एंगल का डमरू बजाता है, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने अपने करियर का पंचलाइन 'रे मन, बस दलित दलित भजकर भजाए रहो' बना लिया है. अगर ये दिलीप मंडल भाईसाहब इंडिया टुडे हिंदी के कार्यकारी संपादक हो रहे हैं तो फिर हम सभी कल्पना कर सकते हैं कि इस मैग्जीन में अब कैसी कैसी खबरें छपा करेंगी. कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जिन पर लगातार उत्तेजक बहस की गुंजाइस रहती है... जैसे हिंदू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित, मार्क्सवाद-हिंदूवाद, स्त्री-पुरुष... आदि !!दिलीप मंडल जैसे लोग इन स्थायी उत्तेजना वाले विषयों को छेड़ छेड़ कर मुफ्त में अच्छी खासी टीआरपी हासिल करते रहते हैं. दिलीप मंडल उन्हीं में से हैं. दिलीप मंडल दलितों के मुद्दे पर होने वाली किसी बहस में दलितों की तरफ से एक प्रवक्ता तो हो सकते हैं लेकिन उनसे अगर किसी मैग्जीन के निष्पक्ष संपादक होने की उम्मीद की जाए तो गलत होगा. आखिरी बात, टाइम्स आफ इंडिया समेत कई बड़े कारपोरेट मीडिया घरानों में काम कर चुके दिलीप मंडल पानी पी पी करके कारपोरेट मीडिया को गरियाते हैं. !! पर उनकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वह उसी कारपोरेट मीडिया के साथ गलबहियां डालकर हमबिस्तर हो जाते हैं. उनसे हर कोई एक एक्टिविस्ट बने रहने की तमन्ना करता रहता है लेकिन दिलीप मंडल जी हैं कि दूसरों को तो क्रांति के लिए भड़काएंगे और खुद किसी कारपोरेट ग्रुप में चिपककर महीने में लाखों की सेलरी उठाएंगे. इस विरोधाभाष को क्या कहा जाए? मैं दिलीप मंडल को दलित के मुद्दे पर अच्छा एक्टिविस्ट मानता हूं लेकिन उन्हें एक संपूर्ण संपादक के रूप में कतई नहीं देख पाता. इस कारण मैं अभी से यह ऐलान कर रहा हूं कि दिलीप मंडल के इंडिया टुडे ज्वाइन करते ही मैं इंडिया टुडे को पढ़ना बंद कर दूंगा. हालांकि मैं यहां कह रहा हूं कि मैं न तो दलित विरोधी हूं और न कारपोरेट मीडिया का समर्थक पर मेरे इस लिखे को अगर दिलीप मंडल अपने दलित कार्ड के हिसाब से भुना ले जाएं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी क्योंकि वे यही काम लंबे समय से करते आ रहे हैं.और आगे भी करते रहेगे क्योकि दिलीप मंडल जी के पास कोई एनी मुद्दे तो है नहीं ...सिवास देश तोड़ने और समाज को बाटने की राजनीति करते है भीम राव आंबेडकर जी की तरह .........पर मुझे तो नहीं लगता की इंडिया टुडे की पाठक संख्या बढेगी ? हां सुरुआत में हो सकता है की सस्ती लोकप्रियता प्राप् कर ले दिलीप मंडल जी पर लम्बी रेस का घोड़ा होगे अभी कहना मुस्किल है ! भगवान् दिलीप मंडल जी को कामयाबी देगे या नहीं मई नहीं जनता हु पर मेरी शुभ कामनाये तो दिलीप मंडल जी के साथ है .........!
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