कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ‘कक्रोटा वंश’ का 245 वर्ष का
राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। इस वंश के राजाओं ने अरब हमलावरों
को अपनी तलवार की नोक पर कई वर्षों तक रोके रखा था। कक्रोटा की माताएं अपने
बच्चों को रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाकर राष्ट्रवाद की प्रचंड आग से
उद्भासित करती थीं। यज्ञोपवीत धारण के साथ शस्त्र धारण के समारोह भी होते
थे, जिनमें माताएं अपने पुत्रों के मस्तक पर खून का तिलक लगाकर मातृभूमि और
धर्म की रक्षा की सौगंध दिलाती थीं। अपराजेय राज्य कश्मीर इसी कक्रोटा वंश
में चन्द्रापीड़ नामक राजा ने सन् 711 से 719 ई.तक कश्मीर में एक आदर्श
एवं शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह राजा इतना शक्तिशाली था कि चीन का
राजा भी इसकी महत्ता को स्वीकार करता था। इससे कश्मीरियों की दिग्विजयी
मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। अरब देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने
की दृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कूटनीतिज्ञता का
आभास भी दृष्टिगोचर होता है। अरबों के आक्रमणों को रोकने के लिए चीन के
सम्राट के साथ सैनिक संधि के परिणामस्वरूप, चीन से सैनिक टुकड़ियां कश्मीर
के राजा चन्द्रापीड़ की सहायतार्थ पहुंची थीं। इसका प्रमाण चीन के एक राज्य
वंश ‘ता-आंग’ के सरकारी उल्लेखों में मिलता है। साहस और पराक्रम की
प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ का नाम कश्मीर के इतिहास में
सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों,
उसकी सर्वधर्मसमभाव पर आधारित जीवन प्रणाली, उसके अद्भुत कला कौशल और
विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों
में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त
करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और
12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा। कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था।
इसी प्रकार उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और
दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का
राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की
पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी। शौर्य का इतिहास ईरान, तुर्किस्तान
तथा भारत के कुछ हिस्सों को अपने पांवों तले रौंदने वाला सुल्तान महमूद
गजनवी भी दो बार कश्मीर की धरती से पराजित होकर लौटा था। यह एक ऐतिहासिक
सच्चाई है कि कश्मीरी सैनिकों की तलवार के वार वह सह न सका और जिंदगी भर
कश्मीर की वादियों को जीतने की तमन्ना पूरी न कर सका। कश्मीर के इस शौर्य
को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया महाराजा संग्रामराज के शासनकाल में। इस
शूरवीर राजा ने कश्मीर प्रदेश पर 1003 ई.से लेकर 1028 ई.तक राज्य किया।
महमूद गजनवी का अंतिम आक्रमण भारत पर 1030 ई. में हुआ था। संग्रामराज महमूद
की आक्रमण शैली को समझता था। धोखा, फरेब, देवस्थानों को तोड़ने, बलात्कार
इत्यादि महाजघन्य कुकृत्य करने वाले महमूद गजनवी के आक्रमण की गंभीरता को
समझते हुए उसने पूरे कश्मीर की सीमाओं पर पूरी चौकसी रखने के आदेश दिए।
सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया ताकि
पूरी सतर्कता से प्रत्येक परिस्थिति का सामना कर सकें। प्रसिद्ध इतिहासकार
अल्बरूनी ने कश्मीर की सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था में लोगों के योगदान की
चर्चा की है, ‘कश्मीर के लोग अपने राज्य की वास्तविक शक्ति के विषय में
विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर में प्रवेश द्वार और इसकी
ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप, उनके साथ
कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना, बहुत कठिन है।…इस समय तो वे किसी अनजाने
हिन्दू को भी प्रवेश नहीं करने देते, दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’
भाग खड़ा हुआ महमूद भारत की सीमाओं पर महमूद गजनवी ने कई आक्रमण किए उसने
भारत के अनेक नगर रौंदे। कांगड़ा के नगरकोट किले को फतह करने के बाद उसकी
गिद्ध दृष्टि पास लगते स्वतंत्र कश्मीर राज्य पर पड़ी। उसने इस राज्य को भी
फतह करने के इरादे से सन् 1015 ई.में कश्मीर पर आक्रमण किया। कश्मीर की
सीमा पर स्थित लोहकोट नामक किले के पास तौसी नामक मैदान में उसने सैनिक
पड़ाव डाला। तौसी छोटी नदी को कहते हैं। इस स्थान पर यह नदी झेलम नदी में
मिलती है अत: इसका नाम तौसी मैदान पड़ा। महमूद के आक्रमण की सूचना सीमा
क्षेत्रों पर बढ़ाई गई चौकसी और गुप्तचरों की सक्रियता के कारण तुरंत राजा
तक पहुंची। कश्मीर की सेना ने एक दक्ष सेनापति तुंग के नेतृत्व में कूच कर
दिया। कश्मीर प्रदेश के साथ लगे काबुल राज्य पर त्रिलोचनपाल का राज्य था।
राजा त्रिलोचनपाल स्वयं भी सेना के साथ तौसी के मैदान में आ डटा। गजनवी की
सेना को चारों ओर से घेर लिया गया। महमूद की सेना को मैदानी युद्धों का
अभ्यास था। वह पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ थी। महमूद की षड्यंत्र-युक्त
युद्धशैली कश्मीरी सेना की चातुर्यपूर्ण पहाड़ी व्यूहरचना के आगे पिट गई।
तौसी का युद्ध स्थल महमूद के सैनिकों के शवों से भर गया। प्रारंभिक अवस्था
में लोहकोट के किले पर महमूद का कब्जा था। कश्मीर से संग्रामराज के द्वारा
भेजी गई एक और सैनिक टुकड़ी, जो किले की व्यूहरचना को तोड़ने में सिद्ध
हस्त थी, ने किले को घेरकर भेदकर अंदर प्रवेश किया तो महमूद, जो किले के
भीतर एक सुरक्षित स्थान पर दुबका पड़ा था, अपने इने-गिने सैनिकों के साथ
भागने में सफल हो गया। मिट्टी में मिला गुरूरभारत में महमूद की यह पहली
बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गई और उनका
पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। अत्यधिक प्राणहानि के
पश्चात् महमूद की सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्तव्यस्त हालत में
गजनवी तक पहुंच सकी। कश्मीरी सेना के हाथों इतनी मार खाने के बाद महमूद ने
संग्रामराज की सैनिक क्षमता का लोहा तो माना परंतु उसके मन में कश्मीर विजय
का स्वप्न पलता रहा। वह अपनी पाशविक आकांक्षा पर नियंत्रण न कर सका। अत:
महमूद 1021 ई.में पुन: कश्मीर पर आक्रमण करने आ पहुंचा। इस बार भी उसने
लोहकोट किले पर ही पड़ाव डाला। काबुल के हिन्दू राजा त्रिलोचनपाल ने फिर
उसे खदेड़ना शुरू किया। परंतु इस बार महमूद अधिक शक्ति के साथ आक्रमण की
तैयारी करके आया था। पिछले घावों का दर्द अभी बाकी था। नई मार से वह पागल
जानवर की तरह हताश हो गया। त्रिलोचनपाल की सहायता के लिए कश्मीर के राजा
संग्रामराज ने भी तुरंत सेना भेज दी। महमूद की सेना चारों खाने चित पिटने
लगी। महमूद गजनवी की पुन: पराजय हुई और वह दूसरी बार कश्मीरियों के हाथों
पिट कर गजनी भाग गया। इसके बाद उसकी मरते दम तक न केवल कश्मीर अपितु पूरे
भारत की ओर देखने की हिम्मत नहीं हुई। पुनर्जीवित हो राष्ट्रनिष्ठा महमूद
की इस दूसरी अपमानजनक पराजय के संबंध में एक मुस्लिम इतिहासकार मजीम के
अनुसार ‘महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का बदला लेने और अपनी इज्जत पुन:
प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने रास्ते से ही आक्रमण किया
परंतु फिर लोहकोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किले
बंदी के बाद, बर्बादी की संभावना से डरकर महमूद ने दुम दबाकर भाग जाने की
सोची और बचे हुए चंद सैनिकों के साथ भाग गया। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य
की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का इरादा उसने सदा
सर्वदा के लिए त्याग दिया।’ उपरोक्त वर्णन के मद्देनजर वर्तमान संदर्भ में
ये समझना जरूरी है कि हमलावर विदेशी लुटेरों की आक्रामक तहजीब को आधार
बनाकर कश्मीर घाटी में भारत विरोधी हिंसक जिहाद का संचालन कर रहे इन्हीं
कश्मीरी नेताओं के हिन्दू पूर्वजों ने अनेक शताब्दियों तक विदेशी
आक्रमणकारियों को धूल चटाई है। परंतु लम्बे समय तक बलात् मतान्तरण के
परिणामस्वरूप इनकी राष्ट्रनिष्ठा लुप्त हो गई। अत: इस समाप्त हो चुकी
राष्ट्रनिष्ठा को पुनर्जीवित किए बिना कश्मीर की वर्तमान समस्या नहीं
सुलझाई जा सकती।
साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से