शुक्रवार, 22 जून 2012

!!मूर्ति भंजक महमूद गजनवी को किस तरह मार कर भगाया !!

कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ‘कक्रोटा वंश’ का 245 वर्ष का राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। इस वंश के राजाओं ने अरब हमलावरों को अपनी तलवार की नोक पर कई वर्षों तक रोके रखा था। कक्रोटा की माताएं अपने बच्चों को रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाकर राष्ट्रवाद की प्रचंड आग से उद्भासित करती थीं। यज्ञोपवीत धारण के साथ शस्त्र धारण के समारोह भी होते थे, जिनमें माताएं अपने पुत्रों के मस्तक पर खून का तिलक लगाकर मातृभूमि और धर्म की रक्षा की सौगंध दिलाती थीं। अपराजेय राज्य कश्मीर इसी कक्रोटा वंश में चन्द्रापीड़ नामक राजा ने सन् 711 से 719 ई.तक कश्मीर में एक आदर्श एवं शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह राजा इतना शक्तिशाली था कि चीन का राजा भी इसकी महत्ता को स्वीकार करता था। इससे कश्मीरियों की दिग्विजयी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। अरब देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने की दृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कूटनीतिज्ञता का आभास भी दृष्टिगोचर होता है। अरबों के आक्रमणों को रोकने के लिए चीन के सम्राट के साथ सैनिक संधि के परिणामस्वरूप, चीन से सैनिक टुकड़ियां कश्मीर के राजा चन्द्रापीड़ की सहायतार्थ पहुंची थीं। इसका प्रमाण चीन के एक राज्य वंश ‘ता-आंग’ के सरकारी उल्लेखों में मिलता है। साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसकी सर्वधर्मसमभाव पर आधारित जीवन प्रणाली, उसके अद्भुत कला कौशल और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा। कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। इसी प्रकार उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी। शौर्य का इतिहास ईरान, तुर्किस्तान तथा भारत के कुछ हिस्सों को अपने पांवों तले रौंदने वाला सुल्तान महमूद गजनवी भी दो बार कश्मीर की धरती से पराजित होकर लौटा था। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कश्मीरी सैनिकों की तलवार के वार वह सह न सका और जिंदगी भर कश्मीर की वादियों को जीतने की तमन्ना पूरी न कर सका। कश्मीर के इस शौर्य को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया महाराजा संग्रामराज के शासनकाल में। इस शूरवीर राजा ने कश्मीर प्रदेश पर 1003 ई.से लेकर 1028 ई.तक राज्य किया। महमूद गजनवी का अंतिम आक्रमण भारत पर 1030 ई. में हुआ था। संग्रामराज महमूद की आक्रमण शैली को समझता था। धोखा, फरेब, देवस्थानों को तोड़ने, बलात्कार इत्यादि महाजघन्य कुकृत्य करने वाले महमूद गजनवी के आक्रमण की गंभीरता को समझते हुए उसने पूरे कश्मीर की सीमाओं पर पूरी चौकसी रखने के आदेश दिए। सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया ताकि पूरी सतर्कता से प्रत्येक परिस्थिति का सामना कर सकें। प्रसिद्ध इतिहासकार अल्बरूनी ने कश्मीर की सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था में लोगों के योगदान की चर्चा की है, ‘कश्मीर के लोग अपने राज्य की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर में प्रवेश द्वार और इसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप, उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना, बहुत कठिन है।…इस समय तो वे किसी अनजाने हिन्दू को भी प्रवेश नहीं करने देते, दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’ भाग खड़ा हुआ महमूद भारत की सीमाओं पर महमूद गजनवी ने कई आक्रमण किए उसने भारत के अनेक नगर रौंदे। कांगड़ा के नगरकोट किले को फतह करने के बाद उसकी गिद्ध दृष्टि पास लगते स्वतंत्र कश्मीर राज्य पर पड़ी। उसने इस राज्य को भी फतह करने के इरादे से सन् 1015 ई.में कश्मीर पर आक्रमण किया। कश्मीर की सीमा पर स्थित लोहकोट नामक किले के पास तौसी नामक मैदान में उसने सैनिक पड़ाव डाला। तौसी छोटी नदी को कहते हैं। इस स्थान पर यह नदी झेलम नदी में मिलती है अत: इसका नाम तौसी मैदान पड़ा। महमूद के आक्रमण की सूचना सीमा क्षेत्रों पर बढ़ाई गई चौकसी और गुप्तचरों की सक्रियता के कारण तुरंत राजा तक पहुंची। कश्मीर की सेना ने एक दक्ष सेनापति तुंग के नेतृत्व में कूच कर दिया। कश्मीर प्रदेश के साथ लगे काबुल राज्य पर त्रिलोचनपाल का राज्य था। राजा त्रिलोचनपाल स्वयं भी सेना के साथ तौसी के मैदान में आ डटा। गजनवी की सेना को चारों ओर से घेर लिया गया। महमूद की सेना को मैदानी युद्धों का अभ्यास था। वह पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ थी। महमूद की षड्यंत्र-युक्त युद्धशैली कश्मीरी सेना की चातुर्यपूर्ण पहाड़ी व्यूहरचना के आगे पिट गई। तौसी का युद्ध स्थल महमूद के सैनिकों के शवों से भर गया। प्रारंभिक अवस्था में लोहकोट के किले पर महमूद का कब्जा था। कश्मीर से संग्रामराज के द्वारा भेजी गई एक और सैनिक टुकड़ी, जो किले की व्यूहरचना को तोड़ने में सिद्ध हस्त थी, ने किले को घेरकर भेदकर अंदर प्रवेश किया तो महमूद, जो किले के भीतर एक सुरक्षित स्थान पर दुबका पड़ा था, अपने इने-गिने सैनिकों के साथ भागने में सफल हो गया। मिट्टी में मिला गुरूरभारत में महमूद की यह पहली बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गई और उनका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात् महमूद की सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्तव्यस्त हालत में गजनवी तक पहुंच सकी। कश्मीरी सेना के हाथों इतनी मार खाने के बाद महमूद ने संग्रामराज की सैनिक क्षमता का लोहा तो माना परंतु उसके मन में कश्मीर विजय का स्वप्न पलता रहा। वह अपनी पाशविक आकांक्षा पर नियंत्रण न कर सका। अत: महमूद 1021 ई.में पुन: कश्मीर पर आक्रमण करने आ पहुंचा। इस बार भी उसने लोहकोट किले पर ही पड़ाव डाला। काबुल के हिन्दू राजा त्रिलोचनपाल ने फिर उसे खदेड़ना शुरू किया। परंतु इस बार महमूद अधिक शक्ति के साथ आक्रमण की तैयारी करके आया था। पिछले घावों का दर्द अभी बाकी था। नई मार से वह पागल जानवर की तरह हताश हो गया। त्रिलोचनपाल की सहायता के लिए कश्मीर के राजा संग्रामराज ने भी तुरंत सेना भेज दी। महमूद की सेना चारों खाने चित पिटने लगी। महमूद गजनवी की पुन: पराजय हुई और वह दूसरी बार कश्मीरियों के हाथों पिट कर गजनी भाग गया। इसके बाद उसकी मरते दम तक न केवल कश्मीर अपितु पूरे भारत की ओर देखने की हिम्मत नहीं हुई। पुनर्जीवित हो राष्ट्रनिष्ठा महमूद की इस दूसरी अपमानजनक पराजय के संबंध में एक मुस्लिम इतिहासकार मजीम के अनुसार ‘महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का बदला लेने और अपनी इज्जत पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने रास्ते से ही आक्रमण किया परंतु फिर लोहकोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किले बंदी के बाद, बर्बादी की संभावना से डरकर महमूद ने दुम दबाकर भाग जाने की सोची और बचे हुए चंद सैनिकों के साथ भाग गया। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का इरादा उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।’ उपरोक्त वर्णन के मद्देनजर वर्तमान संदर्भ में ये समझना जरूरी है कि हमलावर विदेशी लुटेरों की आक्रामक तहजीब को आधार बनाकर कश्मीर घाटी में भारत विरोधी हिंसक जिहाद का संचालन कर रहे इन्हीं कश्मीरी नेताओं के हिन्दू पूर्वजों ने अनेक शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों को धूल चटाई है। परंतु लम्बे समय तक बलात् मतान्तरण के परिणामस्वरूप इनकी राष्ट्रनिष्ठा लुप्त हो गई। अत: इस समाप्त हो चुकी राष्ट्रनिष्ठा को पुनर्जीवित किए बिना कश्मीर की वर्तमान समस्या नहीं सुलझाई जा सकती।
साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से

!! बौध्धो की कायरता और धोखेबाजी !!


मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पोत्र महान अशोक (?) ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक अगर राजपाठ छोड़कर बौद्ध भिक्षु बनकर धर्म प्रचार में लगता तब वह वास्तव में महान होता । परन्तु अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया। अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी। उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट व्रहद्रथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था । जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत
से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस
दिखा दिया। सम्राट व्रहद्रथ के शासनकाल में ग्रीक शासक मिनिंदर जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर
आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा। बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया। सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ  हथियार भी छुपा दिए गए। दूसरी तरफ़ सम्राट व्रहद्रथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध
कि सेना का सेनापति बन चुका था । बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट वृहद्रथ ने मना कर दिया।
किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत शुंग , सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया। मठों में स्थित
सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी ग्रिफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी। पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहासुनी हो गई।सम्राट वृहद्रथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वध कर दिया। वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया।
सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली। मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये। सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से
ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया। बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ,पुन:ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ। डर से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया .किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी ,जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे। पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्र्मद्वित्य व आगे चलकर गुप्त साम्रराज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया.............

!!इसे कहते है भारतीय संस्कृति !!


मोदी जी ने कच्छ मे नखतराना मे एशिया का संबसे बड़ा स्टील प्लांट का उदघाट्न किया .. फिर उन्हें जब बताया गया कि यहाँ से कुछ दुरी पर महिलाओ द्वारा संचालित एक कच्छी हस्तकला केन्द्र है तो उन्होंने उसे देखने की इच्छा जताई .. फिर उन्होंने केन्द्र मे जाने के पहले अपने जूते उतार दिये . .. जब केन्द्र की संचालिका ने उन्हें मना किया तो उन्होंने कहा की कोई भी कार्य स्थल किसी मंदिर की तरह पवित्र होता है..........
यही है भारतीय संस्कृत ..जन कोई सेकुलर कहता है की नरेन्द्र मोदी जी PM नहीं बन सकते तो ऐसी गुस्सा लगती नही की...................?