रविवार, 27 जून 2021

पुष्पमित्र सुंग कौन थे ?

है तो कॉपी पेस्ट, पर इतिहास में रुचि है तो जरूर पढिये....🙏

जिसके सिर पर तिलक ना दिखे उसका सर धड़ से अलग कर दो-: सम्राट पुष्यमित्र शुंग 

यह बात आज से लगभग 2100 वर्ष पहले की है । एक किसान ब्राह्मण के घर एक पुत्र ने जन्म लिया , जिसका नाम रखा गया पुष्यमित्र था अर्थात पुष्यमित्र शुंग ....... और वह बना एक महान हिंदू सम्राट जिसने भारत देश को बौद्ध देश बनने से बचाया ।

अगर पुष्यमित्र शुंग जैसा कोई राजा कंबोडिया मलेशिया या इंडोनेशिया में जन्म लेता तो आज भी यह देश हिंदू देश होते ।

जब सिकंदर राजा पोरस से मार खाकर अपना विश्व विजय का सपना तोड़ कर उत्तर भारत से शर्मिंदा होकर मगध की ओर गया था तो उसके साथ आए हुए बहुत से यवन वहां बस गए थे  ।

सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म अपना लेने से उनके बाद उनके वंशजों ने भारत में बौद्ध धर्म लागू करवा दिया ।

ब्राह्मणों के द्वारा इस नीति का विरोध होने पर उनका सबसे अधिक कत्लेआम हुआ , लाखों ब्राह्मणों की हत्याएं हुईं , हजारों मंदिर गिरा दिए गए , इसी समय पुष्यमित्र के माता-पिता को धर्म परिवर्तन के लिए कहा गया , जब उन्होंने मना कर दिया तो  छोटे से बालक पुष्यमित्र के सामने ही उसके माता-पिता को काट दिया गया  ।
बालक चिल्लाता रहा मेरे माता पिता को छोड़ दो पर किसी ने नहीं सुनी माता-पिता को मरा देखकर पुष्यमित्र की आंखों में रक्त उतर आया उसे गांव वालों की संवेदना से नफरत हो गई और उसने प्रतिज्ञा ली कि वह इसका बदला बौद्धों से एक दिन जरूर देगा और जंगल की ओर भाग गया ।

ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण योग की सूक्ष्म क्रियाओं का ज्ञान पुष्यमित्र को था अतः उसने महान योग क्रियाओं के द्वारा अपने शरीर को अत्यधिक बलवान बना लिया , वह जंगल में रहता था निरंतर योग एवं शस्त्र विद्या का अभ्यास करता था ।

एक दिन बौद्ध राजा बृहद्रथ मौर्य वन में घूम रहा था अचानक वहां उसके सामने एक सिंह आ गया , सिंह सम्राट की ओर झपटा ही था तभी अचानक एक लंबा चौड़ा बलशाली भीमसेन जैसा बलवान युवक  शेर  के सामने आ गया और उसने अपनी मजबूत भुजाओ से उस शेर के जबड़े को पकड़कर , उसके दो टुकड़े कर बीच से चीर दिया और सम्राट से कहा कि आप अब सुरक्षित हो ।

सम्राट ने पूछा - " कौन हो तुम "
युवक - " ब्राह्मण हूं महाराज "

उसका पराक्रम देखकर सम्राट ने कहा - " सेनापति बनोगे "

युवक  आकाश की ओर देखकर रक्त से अपना तिलक कर  बोला - "मातृभूमि को जीवन समर्पित है "

उसी वक्त सम्राट ने उसे मगध का उप सेनापति घोषित कर दिया जल्दी ही अपने शौर्य और पराक्रम के बल पर वह प्रधान सेनापति बन गया ।

 शांति का पाठ अधिक पढने के कारण मगध साम्राज्य कायर हो चुका था,लेकिन पुष्यमित्र के अंदर ज्वाला अभी भी जल रही थी वह रक्त से स्नान करने और तलवार से बात करने में विश्वास रखता था ।

पुष्यमित्र एक निष्ठावान हिंदू था और भारत को फिर से हिंदू राष्ट्र बनाना उसका स्वप्न था ।

आखिर वह दिन भी आ गया ,  यवनों की लाखों की फौज ने मगध पर आक्रमण कर दिया ।
पुष्यमित्र समझ गया कि अब मगध विदेशी गुलाम बनने जा रहा है , जब उसने यह बात सम्राट बृहद्रथ को बताई तो सम्राट बृहद्रथ युद्ध कर मगध रक्षा करने के पक्ष में नहीं  था , उसका कहना था की युद्ध से रक्तपात होता है और हमें शांति चाहिए युद्ध नहीं ।

मगध के नागरिकों में यवनों का भय व्याप्त होने लगा क्योंकि युद्ध के बाद यवन लूटपाट और हत्याएं तथा स्त्रियों का हरण करते थे  ।

पुष्यमित्र ने बिना सम्राट की आज्ञा लिए सेना को युद्ध के लिए तैयारी करने का आदेश दे दिया उसने कहा कि"  इससे पहले के दुश्मन के पैर हमारी मातृभूमि पर पड़े हम उसका शीश उड़ा देंगे" । यह नीति तत्कालीन मौर्य साम्राज्य के बौद्ध धार्मिक विचारों के विरुद्ध थी,
सम्राट बृहद्रथ पुष्यमित्र के पास गया और गुस्से से बोला  " यह किसके आदेश से तुम सेना को युद्ध के लिए तैयार र रहे हो " ।

पुष्यमित्र ने कहा - "मातृभूमि की रक्षा के लिए मुझे  किसी की आज्ञा की आवश्यकता नहीं है और ब्राह्मण किसी की आज्ञा नहीं  लेता है"  यह कहकर पुष्यमित्र ने सम्राट का सर तलवार के एक ही प्रहार से धड़ से अलग कर दिया ।

लाल आंखों वाले पुष्यमित्र ने सम्राट के रक्त से अपना तिलक किया और पुष्यमित्र ने सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा  - " ना बृहद्रथ महत्वपूर्ण है , ना पुष्यमित्र , महत्वपूर्ण है तो हमारी मातृभूमि क्या तुम मातृभूमि के लिए रक्त बहाने को तैयार हो पुष्यमित्र की शेर जैसी गरज की आवाज से सेना जोश में आ गई और सभी  सैनिक आगे बढ़कर बोले ..."हां सम्राट पुष्यमित्र हम तैयार हैं"

पुष्यमित्र ने कहा - " आज मैं सेनापति ही हूं " चलो काट दो यवनों को जो मगध पर अपनी विजय पताका फहराने का स्वप्न पाले हुए हैं और युद्ध में गाजर मूली की तरह ही यवनों को काट दिया गया ।

 एक सेना जो कल तक दबी हुई , डरी हुई रहती थी आज युद्ध में हर हर महादेव और जय महाकाल के नारों से दुश्मन को थर्रा रही थी ।

यवनों ने मगध तो छोड़ दिया और अपना राज्य भी खो दिया ।

इसके बाद पुष्यमित्र का राज्याभिषेक हुआ ।

 सम्राट बनने के बाद पुष्यमित्र ने घोषणा की कि - " अब मगध में कोई बौद्ध धर्म नहीं मांनेगा , हिंदू सनातन धर्म ही राजधर्म है ,  और जिसके माथे पर तिलक ना दिखे वह सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा "

उसके बाद पुष्यमित्र ने वो किया जो आज तक नहीं हुआ , जिससे आज भारत कंबोडिया नहीं है हजारों की संख्या में बौद्ध मंदिर जो कि हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर कर बनाए गए थे उन्हें ध्वस्त करा दिया गया बौद्ध मठों को तबाह कर दिया गया चाणक्य काल की वापसी की घोषणा हुई और तक्षशिला विश्वविद्यालय का सनातन शौर्य फिर से स्थापित हुआ और जो लोग अपने सनातन धर्म को त्याग कर बौद्ध बन गए थे उन्होंने पुनः सनातन धर्म में वापसी की और जिन लोगों ने सनातन धर्म का विरोध किया उनकी लाखों की संख्या में पुष्यमित्र ने हत्या करा दी ।

पुष्यमित्र शुंग के पुत्र सम्राट अग्निमित्र शुंग ने अपना साम्राज्य तिब्बत तक फैला लिया और तिब्बत भारत का अंग बन गया वह बौद्धों को दौड़ता  हुआ चीन तक ले गया वहां चीन के सम्राट ने अपनी बेटी की शादी अग्निमित्र से करके संधि स्थापित की , और  इनके वंशज आज भी चीन में शुंग उपनाम नाम ही लिखते हैं ।

पंजाब,अफगानिस्तान,सिंध की शाही ब्राह्मण वंशावली के बाद शुंग वंश सबसे बेहतरीन सनातन साम्राज्य था शायद पेशवा से भी महान , जिसने सनातन धर्म को पुनः स्थापित करने का महान कार्य किया ।

हमें गर्व करना चाहिए अपने पूर्वजों पर जिन्होंने अपने बलिदान से हमें आज सर उठा कर जीने का अधिकार दिलाया ।

 आग लगा देनी  चाहिए इस फिल्म इंडस्ट्री को जो ब्राह्मण को कमजोर और भ्रष्ट बताती है ।

हिंदू चाहे किसी भी वर्ण का हो उसे सदैव गलत और पूरे विश्व में आतंकवाद फैलाने वाले इस्लामिक आतंकवादियों से श्रेष्ठ बताती है ।

पुष्यमित्र जैसा सनातन धर्म का रक्षक आज तक कोई नहीं हुआ वह जानता था कि बिना शास्त्र और शस्त्र के धर्म की रक्षा नहीं हो सकती ।
आवश्यकता है अपने बच्चों को सही इतिहास बताने की ।

जयतु सनातन धर्म....🚩
#NSB

बुधवार, 16 जून 2021

बाघेल राजपूतों का उपनाम "बाघेल" कैसे बना

बघेलखण्ड में ‘‘बाघेला राज्य’’ स्थापित होने के पूर्व गुजरात में बघेलों की सार्वभौम्य सत्ता स्थापित हो चुकी थी, जिनकी राजधानी ‘‘अन्हिलवाड़ा’’ थी। बाघेल क्षत्रिय चालुक्यों की एक शाखा है, जिन्होंने दक्षिण भारत के चालुक्य क्षत्रियों की एक शाखा के रूप में गुजरात पहुँचकर 960ई. में अन्हिलवाड़ा में सोलंकियों का राज्य स्थापित किया था। रीवा स्टेट गजेटियर में भी यह उल्लेख किया गया है कि, बघेलखण्ड की रीवा रियासत के नरेश सोलंकी अर्थात् चालुक्य क्षत्रिय की बाघेल शाखा के राजपूत हैं। बाघेलों का इस क्षेत्र में आने के पूर्व इनके पूर्वज चालुक्यों और सोलंकियों का दक्षिणी भारत और गुजरात के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दक्षिण भारत में चालुक्यों का इतिहास छठीं शताब्दी से प्राप्त होता है। दक्षिण भारत के इन्हीं चालुक्य सम्राटों के वंशज गुजरात आये। गुजरात में ‘‘अन्हिलवाड़ा’’ के शासक के रूप में महाराज ‘‘मूलराज’’ ने सन् 960 में चालुक्य क्षत्रियों की सोलंकी शाखा की नींव डाली। इस वंश के प्रतापी नरेश ‘‘जयसिंह सिद्धराज’’ हुए, जिनके कोई सन्तान नहीं थी। इन्होंने अपने नजदीकी संबंधी  (छोटे भाई)  त्रिभुवनपाल के पुत्र कुमारपाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया। कुमारपाल (1143-1173 ई.) ने अपनी मौसी के पुत्र अर्णोराज (गोत्र-भरद्वाज) को ‘‘व्याघ्रपल्ली’’ (बाघेला गाँव) का सामन्त/जागीरदार बना दिया। अर्णोराज के पुत्र लवण प्रसाद को गुजरात के लेखों में ‘‘व्याघ्रपल्लीय’’ कहा गया है, जो कालान्तर में अप्रभंश के रूप में ‘‘बघेल/बाघेला/वाघेला/बाघेल" हो गया। इस तरह व्याघ्रपल्ली गाँव में रहने के कारण अर्णोराज के उत्तराधिकारी ‘‘‘‘बघेल/बाघेला/वाघेला/बाघेल" कहलाये जाने लगे,किन्तु रीवा स्टेट गजेटियर, जीतन सिंह द्वारा लिखित रीवा राज्य दर्पण एवं गुरु राम प्यारे अग्निहोत्री ने रीवा राज्य के इतिहास में लिखा है कि, गुजरात के पाँचवें सोलंकी राजा भीमदेव के चैथे पुत्र सारंगदेव के पुत्र वीर धवल के सुपुत्र का नाम ‘‘बाघराव’’ था। गुजरात के शासक सिद्धराज जय सिंह (1093-1142ई.) ने ‘बाघराव’ को जागीर में व्याघ्रपल्ली (अन्हिलवाड़ा से 10 मील दक्षिण पश्चिम) (‘‘बाघेला गाँव) दिया था, जिसके आधार पर बाघराव की संतानें ‘‘बघेल/बाघेला/वाघेला/बाघेल" नाम से विख्यात हुई। बाघराव इससे संतुष्ट नहीं थे, उन्होंने यह जागीर सिद्धराज जयसिंह के पुत्रों को देकर गुजरात से प्रस्थान किया। गुजरात के इस सोलंकी वंश का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 

बाघराव को ‘‘बाघदेव’’ भी कहा जाता था, गुजराती में देव का अर्थ ठाकुर होता है। यही बाघदेव दक्षिण सोलंकी सम्वत् 631 यानी सन् 1233-34 में गुजरात से लाव लश्कर ले कर चलते हुए अनेक तीर्थों का भ्रमण तथा सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन करते हुए चित्रकूट पहुँचे । चित्रकूट में पहुँचकर उन्होंने आसपास के क्षेत्र को देखा। उस समय वहाँ पर कोई सुदृढ़ सत्ता नहीं थी। तरौंहा में चन्द्रावत परिहारों का राज्य था, जिसके राजा मुकुन्ददेव थे। कालिंजर भटों के राज्य के अन्तर्गत था। ‘बाघदेव’, जिन्हें ‘व्याघ्रदेव’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है, ने कालिन्जर से 16 मील उत्तर पूर्व की और पहाड़ी पर चन्देलों के  दुर्ग ‘‘मरफा’’ पर (जो कि समुद्र तल 1240 फुट ऊँचा था) अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और उन्होंने अपने रक्षार्थ अपने साथ आये हुए लोगों की जो बस्ती बसाई उसका नाम ‘‘बघेलवारी’’ पड़ गया । बांदा गजेटियर के अनुसार व्याघ्रदेव का प्रभुत्व इस किले के उत्तर में 15 मील (24 किमी.) ‘‘बघेल भवन’’ और दक्षिण में 15 मील (24 किमी) ‘‘बघेलन नाला’’ तक था। उस समय दिल्ली के सिंहासन पर कोई सुदृढ़ शासक नहीं था और आस पड़ोस के शासकों ने व्याघ्रदेव से किसी प्रकार छेड़-छाड़ नहीं की। परिणाम यह हुआ कि उन्होंने भटदेश के राजा से कालिंजर छीन लिया और साथ ही पड़ोसी मण्डीहा राजा को जीतकर उसका राज्य ले लिया। मण्डीहा रघुवंशी राजा था।
         गहोरा में लोधियों के राज्य को भी तिवारी ब्राह्मणों के सहयोग से व्याघ्रदेव ने अधिकार कर लिया । इसी लिए रीवा के तिवारी को "अधरजिया" कहते हैं । बाग़देव ने तिवारी ब्राह्मणों को अधराज देना चाहा तो तिवारियो ने लेने से मना कर दिया (हलाँकि इन बातों का कोई प्रमाण नही है) । अय्यास लोधी राजा के सलाहकार/मंत्री तिवारी ब्राह्मण थे जो व्याघ्रदेव से मिलकर लोधी राजा के साथ छलकर युद्ध मे हरवा दिया । 
इनका पाश्र्ववर्ती राज्य तरौंहा का था, जिसके शासक मुकुन्ददेव चन्द्रावत परिहार थे। उन्होंने अपनी इकलौती बेटी ‘‘सिन्दूरमती’’ का ब्याह व्याघ्रदेव के साथ कर दिया। इनके दूसरी कोई सन्तान भी न थी, अस्तु अपना राज्य भी इन्हीं को सौंप दिया। व्याघ्रदेव ने इसके पश्चात् परदवाँ और तरिहार प्रान्त भी जीत लिया। इस तरह 13वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर ‘‘बाघेल’’ राजपूतों का आधिपत्य हुआ। व्याघ्रदेव का एक विस्तृत भू-भाग में अधिकार हो गया। इन्होंने अपनी राजधानी गहोरा में स्थापित की। गहोरा रीवा पठार के तलहारी क्षेत्र में स्थित था। वर्तमान समय में गहोरा बाँदा-चित्रकूट जिला, उत्तरप्रदेश में स्थित है। कर्बी से 14 मील पूर्व रयपुरा गाँव के निकट उसके दक्षिण में बह रही दो नदियों के मध्य ‘‘गहोरा खास’’ नामक गाँव बसा है। अभयराज सिंह परिहार ने ‘‘गहोरा का ऐतिहासिक अनुसन्धान’’ (पृष्ठ 17) में लिखा है कि, गहोरा का असली नगर नदी के दूसरे किनारे से प्रारंभ होता है, यहाँ महल, मन्दिर, कुएँ तथा नागरिकों की बस्ती के चिन्ह अभी भी पाये जाते हैं। यह हिस्सा अब ‘‘खेरवा’’ नाम से विख्यात है। उस समय इनके शासित प्रान्त की आमदनी अठारह लाख रुपये थी। गहोरा के दो हिस्से थे। एक तो ‘‘गहोराखास’’ और दूसरा ‘‘गहोराघाटी’’ था। व्याघ्रदेव की परिहारिन ठकुराइन से दो पुत्र हुए जिनमें जेठ कर्णदेव गहोरा के अधिकारी हुए और लहुरे पुत्र कन्धरदेव कसौटा और परदमा के ठाकुर हुए। व्याघ्रदेव (बाघराव) इस प्रदेश के बघेलों के आदि पुरुष हैं। जिन्होंने बघेलों की सत्ता इस प्रदेश में स्थापित की। इनका स्वर्गवास वि.सं. 1245 के आसपास हुआ। 


गुरुवार, 10 जून 2021

खाद्य तेल मंहगे क्यो हुए

कुछ समय से सरसों एवं अन्य खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ रही है ।  आखिरकार ऐसा क्यों हो रहा है? 
लेकिन सर्वप्रथम यह विचार करने की आवश्यकता है कि सरकार को क्या सुनिश्चित करना चाहिए - उत्पादकों को अधिक लाभ मिले या उपभोक्ताओं को सस्ता उत्पाद मिले ? द्वितीय,  किस बिंदु पर उत्पादकों और उपभोक्ताओं का हित एक हो सकता है?
अगर किसानों को सरसों के उत्पाद पे MSP से 25 प्रति शत अधिक दाम मिल रहा है, तो सरसों के तेल की कीमत कैसे कम रह सकती है?
फिर, सरकार ने पिछले वर्ष सरसों के तेल पे किसी प्रकार के खाद्य तेल के मिश्रण पर प्रतिबंध लगा दिया था।  यद्यपि यह प्रतिबंध तीन माह में रद्द कर दिया गया था, लेकिन सरकार ने पुनः 8 जून से सरसों के तेल के साथ किसी अन्य खाद्य तेल के मिश्रण पर प्रतिबंध लगा दिया है। दूसरे शब्दों में, "शुद्ध" सरसो के तेल में 20% तेल पाम वृक्ष का होता था जिसे मलेशिया एवं इंडोनेशिया से आयात किया जाता है। 
क्या हम सस्ते के चक्कर में मिलावटी तेल खाना चाहते है, वह भी उस देश का जो भारत का विरोध करता है; एक जिहादी को अपने यहाँ शरण दे रखी है?
अब कुछ तथ्य देखते है। 
अप्रैल 2021 में भारतीय बंदरगाहों पर पाम तेल की औसत कीमत 1,173 डॉलर प्रति टन थी, जो एक साल पहले 599 डॉलर थी। यानि कि मिलावट वाले तेल का दाम भी दोगुना हो गया है। 
पिछले वर्ष जून में सरसों बीज की मंडी में कीमत 46362 रुपये प्रति टन थी; आज 72500 रुपये है। सोया बीन 38208 रुपये बिका था; आज 72000 रुपये मिल रहा है। सूरजमुखी 47000 था; आज 68000 रुपये है। 
पिछले वर्ष जून में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोया बीन का 442 डॉलर प्रति टन मिल रहा था; आज 820 डॉलर में बिक रहा है। सरसों 214 डॉलर था; आज 320 डॉलर प्रति टन है।  
दूसरे शब्दों में, सभी जगह खाद्य तेल के उत्पादों में भारी उछाल है और हम चाहते है कि भारत में तेल सस्ता मिले। 
लेकिन एक अन्य बिंदु पर भी विचार करना आवश्यक है। 
आज हमारी प्रति व्यक्ति तेल की खपत लगभग 15-16 किलो प्रतिवर्ष है। इसका अर्थ है कि हमें लगभग 220-230 लाख टन की प्रति वर्ष आवश्यकता है। लेकिन भारत लगभग 80 लाख टन तेल का उत्पादन करता हैं।  अतः हमें अपनी आवश्यकता की पूर्ती के लिए लगभग 130 लाख टन पाम आयल और कुछ सोया तेल का आयात करना पड़ता हैं। 
तो क्या हम खाद्य तेल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकते है? 
खाद्य विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले वर्षों में भारत में खाद्य तेल की खपत लगभग 20-21 किलो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पे स्थिर हो जायेगी। इसका अर्थ है कि हमें प्रति वर्ष लगभग 300 टन तेल की आवश्यकता होगी और उस लक्ष्य तक पहुंचने का कोई आसान रास्ता नहीं है। 
इस कारण से तिलहन की कीमतों में उछाल आया हैं; सभी कीमतें एमएसपी से 15 से 25 प्रति शत अधिक हैं और किसानों के लिए यह अच्छी खबर है। लेकिन उपभोक्ताओं के लिए खराब। 
भारत में पारंपरिक तिलहन का प्रति हेक्टेयर लगभग 300-500 किलो तेल का उत्पादन होता हैं, चाहे वह सरसों, मूंगफली, बिनौला, या चावल की भूसी हो; जबकि पाम वृक्ष प्रति हेक्टेयर लगभग 3.5-4 टन तेल का उत्पादन करता है। जलवायु के कारण भारत में केवल 20 लाख  हेक्टेयर कृषि भूमि पे पाम वृक्ष उगाया जा सकता है।  लेकिन तब भी हम केवल 80 लाख टन पाम तेल लाख उत्पादन कर पाएंगे। अन्य तिलहनों की तुलना में पाम ऑयल में बड़ा निवेश करना पड़ता है और लगभग आठ वर्ष के बाद लाभ मिलना शुरू होता है। 
दूसरे शब्दों में, हमारा कुल तेल (पारम्परिक एवं पाम) उत्पादन केवल 160 लाख टन के आस-पास सिमट कर रह जाएगा, जबकि आवश्यकता 300 टन तेल की होगी। 
यहीं पर कृषि सुधारो का महत्त्व पता चलता है।  आज हम ऐसी फसलें (गेंहू, चावल, गन्ना) उगा रहे है जिनका उत्पाद आवश्यकता से कहीं अधिक है और जिनकी कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार से कहीं अधिक है। हालत यह है कि अगर हम आयात का गेंहू खाना शुरू कर दे, तो वह MSP के गेंहू से सस्ता पड़ेगा।
ऐसे में किसानो को अधिक तिलहन उगाने के लिए प्रोत्साहित करना पड़ेगा जिसे वे गेंहू, चावल, गन्ना से अपना ध्यान हटाए। 
तिलहन की अधिक कीमत उसी दिशा में एक कदम है।
लेख के साथ तिलहन एवं तेल के दाम की लिस्ट लगी है।
अमित सिंघल जी...

शुक्रवार, 4 जून 2021

देश के लुटेरे व भगोड़े

यह उन लोगों की सूची है जिन्होंने भारतीय बैंकों को लूटा और देश छोड़कर भाग गए....

 1. विजय माल्या
 2. माहुल चौकसी
 3. नीरव मोदी
 4. निशांत मोदी
 5. पुष्पेश पाद्य
 6. आशीष जोबनपुत्र।
 7. सनी कालरा
 8. आरती हैजा
 9. संजय कालरा
 10. वर्षा कालरा
 11. सुधीर कालरा
 12. जादिन मेहता
 13. उमेश बारीकी
 14. कमलेश बारीकी
 15. नीलेश पारिखो
 16. विनय मित्तल
 17. एकवचन गढ़ी
 18. चेतन जयंतीलाल द्वारा
 19. नितिन जयंतीलाल द्वारा
 20. दीप्तिबन चेतन
 21. साविया सेठा
 22. राजीव गोयल
 23. अलका गोयल
 24. ललित मोदी
 25. रितेश जैनी
 26. हितेश नागेंद्रबाई पटेल
 27. मयूरीबेहन पटेल
 28. आशीष सुरेशबाई।

 कुल डकैती: 10,000,000,000,000/- (दस ट्रिलियन रुपये)

 विशेष तथ्य यह है कि इन  28 में से.....
 कोई आरएसएस  से नहीं है।

 कोई श्री राम सेना से नहीं है।

  कोई हिंदू सतर्कता मंच से नहीं है।

 इनमें से कोई भी बीजेपी से नहीं है ।

  इनमें से कोई भी विश्व हिंदू परिषद से नहीं है ।

  और एक बात  मई 2014 के बाद से इन लोगो ने किसी भी बैंक से कर्ज नहीं लिया है...
 2004-2014 बैंक डकैती की अवधि जब  कांग्रेस सत्ता में थी..।

 (मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से पहले.....)

और अब ये कहतें है कि इनके इन यारों को मोदी ने देश से भगा दिया है....।

अबे गुलामो,तुम्हारे चरसी युवराज की तरह तुम्हारे भी दिमाग मे गोबर भरा है ।।

बुधवार, 2 जून 2021

संख बजाने से क्या फायदा है ??


भारतीय परिवारों में और मंदिरो में में सुबह और शाम शंख बजाने का प्रचलन है। अगर आप रोजाना शंख बजाते है, तो इससे आपको काफी लाभ हो सकता है। इसके कुछ लाभ नीचे दिए जा रहे हैं।

1. रोजाना शंख बजाने से आप गुदाशय की मांसपेशियां मजबूत बनती हैं। शंख बजाना मूत्रमार्ग, मूत्राशय, निचले पेट, डायाफ्राम, छाती और गर्दन की मांसपेशियों के लिए काफी बेहतर साबित होता है। शंख बजाने से इन अंगों का व्यायाम हो जाता है।

2. शंख बजाने से श्वांस लेने की क्षमता में सुधार होता है। इससे आपकी थायरॉयड ग्रंथियों और स्वरयंत्र का व्यायाम होता है और बोलने से संबंधित किसी भी प्रकार की समस्याओं को ठीक करने में मदद मिलती है।

3. शंख बजाने से आपकी झुर्रियों की परेशानी भी कम हो सकती है। जब आप शंख बजाते हैं, तो आपके चेहरे की मांसपेशियां में खिंचाव आता है, जिससे झुर्रियां घटती हैं।

4. शंख में सौ प्रतिशत कैल्शियम होता है। रात को शंख में पानी भरकर रखें और सुबह उसे अपनी त्वचा पर मालिश करें। इससे त्वचा संबंधी रोग दूर हो जाएंगे।

5. शंख बजने से तनाव भी दूर हो जाते है, जो लोग ज्यादा तनाव में रहते हैं, उनको शंख जरुर बजाना चाहिए। क्योंकि शंख बजाते समय दिमाग से सारे विकार चले जाते है। शंख बजाने से घर के अंदर आने वाली नकारात्मक शक्तियां भी दूर रहती है। जिन घरों में शंख बताया जाता है, वहां कभी नकारात्मकता नहीं आती है।

6. शंख बजाने से आप दिल के दौरे से भी बच सकते है। नियमित रूप से शंख बजाने वाले को कभी हार्ट अटैक नहीं आती है। शंख बजाने से सारे ब्लॉकेज खुल जाते हैं। इसी तरह बार-बार सांस भरकर छोडऩे से फेंफड़े भी स्वस्थ्य रहते हैं। शंख बजाने से योग की तीन क्रियाएं एक साथ होती है – कुम्भक, रेचक, प्राणायाम।

7. शंख की आकृति और पृथ्वी की संरचना समान है नासा के अनुसार – शंख बजाने से खगोलीय ऊर्जा का उत्सर्जन होता है जो जीवाणु का नाश कर लोगो को ऊर्जा व् शक्ति का संचार करता है।

8 फेफड़ों के रोग करें खत्म : शंख बजाने से चेहरे, श्वसन प्रणाली, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों की बहुत बढिय़ा एक्सरसाइज होती है। जिन लोगों को सांस संबधी समस्याएं है, उन्हें शंख बजाने से छुटकारा मिल सकता है। हर रोज शंख बजाने वाले लोगों को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते। इससे स्मरण शक्ति भी बढ़ती है।

9. वैज्ञानिक मानते हैं कि शंख फूंकने से उसकी ध्वनि जहां तक जाती है, वहां तक के अनेक बीमारियों के कीटाणु ध्वनि-स्पंदन से मूर्छित हो जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं। यदि रोज शंख बजाया जाए, तो वातावरण कीटाणुओं से मुक्त हो सकता है। बर्लिन विश्वविद्यालय ने शंखध्वनि पर अनुसंधान कर यह पाया कि इसकी तरंगें बैक्टीरिया तथा अन्य रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए उत्तम व सस्ती औषधि हैं। रोजाना सुबह-शाम शंख बजाने से वायुमंडल कीटाणुओं से मुक्त हो जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य की किरणें ध्वनि की तरंगों में बाधक होती हैं। इसीलिए सुबह-शाम शंख बजाने की परंपरा है।

10. हड्डियों को मजबूत करे : शंख में कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस काफी मात्रा में पाए जाते हैं। यह तत्व हड्डियों को मजबूत करने के लिए बहुत जरूरी होते हैं। इसलिए शंख में रखें पानी के सेवन करें। इससे दांतो को भी फायदा मिलता है।

शंख के औषधि-प्रयोग
अधोलिखित प्रत्येक रोग में 50 से 250 मि.ग्रा. शंखभस्म ले सकते हैं।

गूँगापन: गूँगे व्यक्ति के द्वारा प्रतिदिन 2-3 घंटे तक शंख बजवायें। एक बड़े शंख में 24 घंटे तक रखा हुआ पानी उसे प्रतिदिन पिलायें, छोटे शंखों की माला बनाकर उसके गले में पहनायें तथा 50 से 250 मि.ग्रा. शंखभस्म सुबह शाम शहद साथ चटायें। इससे गूँगापन दूर होता है। एक से 2 ग्राम आँवले के चूर्ण में 50 से 250 मि.ग्रा. शंखभस्म मिलाकर सुबह शाम गाय के घी के साथ देने से तुतलेपन में लाभ होता है।

बल-पुष्टि-वीर्यवर्धक: शंखभस्म को मलाई अथवा गाय के दूध के साथ लेने से बल-वीर्य में वृद्धि होती है।
पाचन, भूख बढ़ाने हेतु: छोटी पीपर का 1 ग्राम चूर्ण एवं शंखभस्म सुबह शाम शहद के साथ भोजन के पूर्व लेने से पाचनशक्ति बढ़ती है एवं भूख खुलकर लगती है।
श्वास-कास-जीर्णज्वर: 10 मि.ली. अदरक के रस के साथ शंखभस्म सुबह शाम लेने से उक्त रोगों में लाभ होता है। नागरबेल के पत्तों (पान) के साथ शंखभस्म लेने से खाँसी ठीक होती है।

पेटदर्द: 5 ग्राम गाय के घी में 1.5 ग्राम भुनी हुई हींग एवं शंखभस्म लेने से उदरशूल मिटता है। नींबू के रस में मिश्री एवं शंखभस्म डालकर लेने से अजीर्ण दूर होता है। गरम पानी के साथ शंखभस्म देने से भोजन के बाद का पेटदर्द दूर होता है।

आमातिसार: 1.5 ग्राम जायफल का चूर्ण, 1 ग्राम घी एवं शंखभस्म एक एक घण्टे के अंतर पर देने से मरीज को आराम होता है।

प्लीहा में वृद्धि: अच्छे पके हुए नींबू के 10 मि.ली. रस में शंखभस्म डालकर पीने से कछुए जैसी बढ़ी हुई प्लीहा भी पूर्ववत् होने लगती है।।
(डॉ0 विजय शंकर मिश्र)

मंगलवार, 1 जून 2021

मध्य भारत (मध्यप्रदेश) के प्रथम पत्रकार/प्रकाशक

रीवा राज्य के भूतपूर्व सेनापति श्री महाराज कुमार लाल बलदेव सिंह बाघेला ने सन 1887 में रीवा में मध्य भारत का पहला प्रेस “भारत-भ्राता प्रेस ” स्थापित किया और पहला अखबार “भारत-भ्राता” नाम से  निकालना प्रारम्भ किया. इसी प्रेस से उन्होंने रीवा महाराज रघुराज सिंह जूदेव के सभी ग्रन्थ जैसे आनंदाम्बुनिधि,रुक्मिणी परिचय , राम स्वयम्बर,भक्ति विलास,जगन्नाथ शतक आदि मुद्रित कराकर प्रकाशित कराए । सन 1895  में लाल बलदेवसिंह एक शिष्टमंडल लेकर  महाराज वेंकट रमण सिंह से मिले और उनसे दफ्तरों में उर्दू लिपि के स्थान पर हिन्दी भाषा के उपयोग का अनुरोध किया , परिणाम  स्वरुप महाराजा के आदेश से सम्पूर्ण दफ्तरों में हिन्दी में काम होने लगा. लाल बलदेवसिंह का जन्म बसंत पंचमी रविवार 17 जनवरी  1869 को सतना जिला के ग्राम देवराजनगर हुआ. सन 1890  में उन्हें रीवा राज्य का सेनापति नियुक्त किया गया. सन 1903  में 35  वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया ।