सोमवार, 19 नवंबर 2012

आर्य द्रविण सिध्यांत एक मिथक है ....

आर्य जाती और आर्यों का आक्रमण दोनों ही कोरी कल्पना है जिसमे कोई सत्यता नहीं , ये अंग्रेजो द्वारा गढ़ा गया मिथक है जो उन्होंने अपना स्वार्थ साधने के लिए किया था| आज भी कुछ भारतीय इसी आर्य -द्रविण  सिद्धांत के  मिथक को जीवित रखना चाहते है ताकि उनका निजी स्वार्थ सिद्ध हो और भारत  फिर से विभाजित हो सके |

आर्य आक्रमण सिद्धांत की सबसे पहली कल्पना ये कहती है की सिन्धु घटी सभ्यता आर्यों से पहले की सभ्यता है आर्यों 1500 ईसा पूर्व उसे आक्रमण करके नष्ट कर दिया था परन्तु आर्यों के इस काल्पनिक आक्रमण के काल और सिन्धु घाटी सभ्यता (जो की वास्तव में सिन्धु सरस्वती सभ्यता है) के अंत के बीच में 250 वर्षों का अंतर है | इसके अतिरिक्त सिन्धु घाटी के अवशेषों में कोई भी ऐसा साक्ष्य नहीं मिला है जो की ये सिद्ध करे की इसका अंत किसी आक्रमण के कारण हुआ था | वहां जो भी मानव अस्थि अवशेष मिले हैं वो सभ्यता के मध्य काल के हैं ना की अंत काल के इसके अतिरिक्त उन पर ऐसे कोई निशान नहीं जिससे पता लगे की उनकी हत्या हुई थी |
इस सिद्धांत का दूसरा तथ्य ये कहता है की आर्य श्वेत वर्णी  थे परन्तु   क्या  आप बता सकते हैं की आर्य श्रेष्ठ राम और कृष्ण काले क्यों थे?

अगर वेदों  के रचनाकार ऋषि श्वेत वर्णी होते तो कम से कम उनके अन्दर श्वेत वर्ण के प्रति आकर्षण तो होना चाहिए था परन्तु ऋग्वेद ११-३-९ में कहते हैं "त्वाष्ट्र के आशीर्वाद से हमारी संतान पिशंग अर्थात गेहूं के रंग के पीले भूरे हों "

इसी तरह से एक तर्क ये भी है की आर्य मूर्ती पूजा के विरोधी थे और केवल यज्ञ करते थे जब की सिन्धु घाटी के निवासी केवल मूर्ती पूजा करते थे |परन्तु सिन्धु घटी के नगरों में भी यज्ञ शालाएं मिली हैं|

भारतीय भाषाओ को आर्य-द्रविण के आधार पर विभाजित कर दिया गया है परन्तु संस्कृत , हिंदी,मराठी, तमिल भाषाओ का समावेश है|
वेदों में सर्वत्र भारत भूमि का ही वर्णन आया है इससे ये सिद्ध होता है वेद भारत भूमि में ही रचे गए हैं परन्तु वेदों में कपास का वर्णन नहीं हैं जबकी इसका उपयोग सिन्धु घटी सभ्यता में होता था अतः यह स्वयं सिद्ध है की वेद सिन्धु घटी सभ्यता से अत्यंत प्राचीन हैं और इससे यह निष्कर्ष निकला जा सकता है की वेदों के रचनाकार ऋषि कथित आर्य आक्रमण से कहीं पूर्व में भारत में ही थे |

वास्तव में आर्य कोई जाती समूह नहीं था और ना ही कोई नस्लीय समूह आर्य का वही अर्थ है जो की आज "सभ्य" शब्द का था और सिन्धु घटी सभ्यता वास्तव में आर्यों की ही सभ्यता थी और वेद भी उनकी ही कृति थे |आर्य ना तो घुमक्कड़ थे और ना ही आक्रान्ता आपितु वो कृषि कर्म करने वाले और भारत की भूमि के ही निवासी थे और आज भी उनके ही वंशज यहाँ रह रहे हैं , और आर्य -द्रविण सिद्धांत एक मिथक है जिसे अगर न रोका गया तो भारत एक बार फिर से विभाजन के द्वार पर खड़ा होगा

!! मूर्ति पूजा की सुरुआत !!

इतिहास के जानकारों ने मूर्ति पूजा की बुनियाद का आरंभ किया है, वह है कि संसार भर में पहले सात मंदिर बनाये गये थे। वह मंदिर सितारों(तारे) के थे, उनकी पूजा नहीं की जाती थी। अपितु प्राकृतिक प्रभावों का उपयोग लिया जाता था। इन सात मंदिरों में एक आदित्य का मंदिर भारत के मुल्तान के अंदर था। दूसरा मंदिर मक्का में था।, जो शनि का था। अल्साना मसऊदी बड़ा लेखक और यात्री था, उसने लिखा है कि-
इन्नवैतुल्हरामा वैते जुहेलुन (यरुजुज्जहव वा मुआदीन उलजौहर)
कि मक्का का मंदिर शनि का मंदिर है,
तीसरा मंदिर इस्फान पहाड़ पर है, चौथा मंदिर नौ बिहार में था, जिसे मनु चहरे ने बलख में बनवाया था, जो बहुत दूर जाता था। पाँचमा मंदिर गमदान यमन देश में था और जुहाक ने उसको शुक्र के नाम से बनवाया था। छठा मंदिर भी सूर्य का था जो खुरासान फरगाना में था। सातवाँ मंदिर चीन में था, यह बड़ा ही विचित्र मंदिर था, इसमें अपने आप कपड़ा बुना जाता था और लकड़ी की खड्डियाँ बनी होती थीं। जो वायु के प्रभाव से चलती थीं।
इन सब मंदिरों के सामने एक बड़ा हवन कुण्ड था। ये सभी मंदिर गृहों तारों के थे। इनकी पूजा नहीं होती थी। इनके प्रकृतिक उपयोग लिये जाते थे। जैसा चीन के मंदिर के विषय में लिखा गया दुनियाँ के इन सात मंदिरों के सामने हवन कुण्ड का होना इस बात का प्रभाण है कि इऩ मंदिरों को मानने वाले लोग वेद को मानते थे। इन मंदिरों का ईश्वर और ईश्वर की पूजा से कोई संबंध नहीं था। इनका भौतिक कार्यों में उपयोग होता था। फिर मंदिर तो गिरा दिये गये। एक मुल्तान और दूसरा मक्का का शेष रह गया। समय बदला और लोग प्राकृतिक उपयोग लेना भूल गये तथा पूजा आरंभ कर दी। साथ में बलिदान भी आरंभ कर दिया।………(मुरु जुज्जहब वा मुआदिनिल जौहर….भाग ४ पृष्ठ ४२ से ५४ तक)
मूर्ति पूजा का दूसरा और अल्लामामसऊदी ने इस प्रकार लिखा है-
जो लोग परमात्मा को नहीं मानते थे, जब उनके पूर्वज मर गये तो उन्होंने उनकी मूर्तियाँ बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया।
इसके पश्चात मूर्ति पूजा का तीसरा दौर हजरत नूर के समय का मालुम होता है। उस समय के लोग विभिन्न पशु पक्षियों की मूर्तियाँ पूजने लगे। वह लोग जिन्होंने अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ बनाई, जैन और बौद्ध लोग ही थे, क्योंकि वही भगवान को नहीं मानते थे। तब हिन्दु भी उनके मंदिरों में पूजा के लिये जाने लगे। इस बात को देखकर हिन्दुओं ने भी अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ बनाई और उन्हें मंदिरों में रख दिया और कहा कि न गच्छेत जैन मंदिरम् हस्तिना नाडयमानोपिन न गच्छे जैन मंदिरम्।। अर्थात् हाथी से कुचले जाने पर भी कोई भी जैन मंदिर में न जाय। उन लोगों ने अपने तीर्थकरों ही मूर्तियाँ बनाई, मगर हिन्दुओं ने अपने तारों, देवताओं, देवियों, नदियों तथा पूर्वजों आदि की मूर्तियाँ बनाकर लोगों को मूर्ति पूजा में फंसा दिया और जैन बौद्ध मूर्तियों की तरफ उन्हें हटा दिया। इन सबमें शिवलिंग की पूजा लज्जाजनक होने पर भी शीघ्र फैल गई। इस अनात्य पूजा के कारण ही अधर्म ने अपना अड्डा जमा लिया और इसी ने भारत का विनाश कर दिया, और लाखों लोग विधर्मी होकर दूसरे धर्म में पलायन कर गये। और भारत की बहुमूल्य सम्पत्ति विदेशियों ने लूट ली।
उपरोक्त प्रसंग आचार्य देव प्रकाश / मौलवी अरबी फाजिल द्वारा लिखि पुस्तक मंदिरों की लूट / हिन्दुओं की बरबादी से पेज नंबर १० से १३ तक से लिया गया हैं।

मूर्ति पूजा और पश्चिम मतः-
बाईबिल को मानने वाले लोग भी मूर्ति पूजक थे। बाईबिल में बुतों को तोड़ने के आदेश दिये गये हैं, लेकिन वह बुत दूसरी जातियों के थे। पश्चिमी जातियों में बना इस्त्रईस का वंश बड़ा प्रसिद्ध है। यह वंश हजरत याकूब से चला था। याकूब अपनी ससुराल में रहता था, उसका विचार अपने पैतृक देश में आने का हो गया, वह वहाँ से अपना सारा सामान लेकर चला। तीसरे दिन उसके ससुर को पता चला कि याकूब भाग गया है। तब उसने अपने सात भाईयों को साथ लेकर याकूब का पीछा किया और जल्लाद के पहाड़ों में इससे जा मिला, उसने कहा कि अब तो तुझे अपने घऱ जाना है। क्योंकि तू वहाँ जाने का बहुत इच्छुक है। मगर तू मेरे इष्टदेवों को क्यों चुरा लाया है।
इसके उत्तर में याकूब ने कहा कि जिसके पास तू अपने इष्टदेवों (मूर्तियों) को पावे उसे आप जीवित मत छोड़ना, परन्तु याकूब नहीं जानता था कि उसकी पत्नि राखिल मूर्तियों को चुरा लाई है।...
इस पर लावन ने याकूब के सारे सामान की तलाशी ली, परन्तु मूर्तियाँ कहीं से न मिलीं तब वह राखिल के तम्बू में प्रविष्ट हुआ तब राखिल उन मूर्तियों को ऊँट के कजावे में
रखकर उसके ऊपर बैठी हुई थी, लावन ने सब कुछ खोजा परन्तु कुछ न पाया, फिर राखिल ने अपने पिता से कहा कि मैं आपके सामने उठ नहीं सकती क्योंकि मैं मासिक धर्म में हूँ, पता भी कैसे चलता क्योंकि राखिल मूर्तियों को ऊँट के कजावे में रखकर उसके ऊपर बैठी हुई थी।
--(उत्पत्ति पुस्तक अध्याय 31 पृष्ठ 56)
इतने बड़े पैगम्बर की बीबी अपने बाप की मूर्ति चुरा कर ले आई, इससे स्पष्ट है कि वह लोग मूर्तिपूजा करते थे। उसका वर्णन बाईबिल में इस प्रकार लिखा है कि तुम पराये बुतों की पूजा न करो, इससे यह सिद्ध होता है कि इनकी अपनी परम्परा की मूर्तियाँ थीं, जिनको यह पूजते थे। अगले वाक्यों में लिखा है कि सुलेमान की सात सौ स्त्रियाँ थीं, जब सुलेमान बूढा हुआ, तब उसकी स्त्रियों ने सुलेमान के दिल को दूसरे दुष्ट देवों की तरफ फेर दिया, तब खुदा सुलेमान पर बहुत क्रोधित हुआ, क्योंकि उसने उसे आज्ञा दी थी, कि वह पराये इष्टदेवों की पूजा न करे, इससे यह भी जाना गया है कि उनके घरों में उनकी औरतें प्रायः मूर्तियों की पूजा करती थीं, इससे यह भी मालुम होता है कि उनके अपने बुत भी थे, जिनकी वह पूजा करते थे, फिर लिखा है कि याकूब सुबह उठा और उस पत्थर को जिसको याकूब ने अपना माथा टेका बनाया हुआ था, उसे लेकर स्तम्भ की तरह खड़ा कर दिया, और उसके सिर पर तेल डाला और उस स्थान का नाम बैतेईल (खुदा का घर) रखा। फिर याकूब ने कहा यह पत्थर मैंने खड़ा किया है, इसका नाम खुदा का घर होगा।
--(उत्पत्ति पुस्तक अध्याय 25, पृष्ठ 62)
यही प्रथा आजकल जंगली भीलों में पाई जाती है कि वह जाते जाते रास्ते में एक पत्थर रख देते है, उस पत्थर पर तेल व सिन्दूर डालकर कहते हैं कि यह हमारा देवता है, ऐसे ही याकूब पत्थर खड़ा करके उस पत्थर को खुदा का घर बताता था। बाईबिल में मूर्तिपूजा का खण्डन आता है, वह दूसरों की मूर्तियों का है, अपनी मूर्तियों का नहीं।