उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश समेत देश के कम से कम छह राज्यों में सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आज भी जारी है.....         
इंदौर में राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग  के एक सदस्य के मुताबिक इस कुप्रथा को सरकार कानून बनाकर करीब दो दशक पहले  ही इसे प्रतिबंधित कर चुकी है. ........... 
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से जुडे़ आयोग के सदस्य ने   बताया, 'मैंने अब तक पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तराखंड,  उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश का दौरा किया है. इन सभी राज्यों  में यह प्रथा आज भी जारी है..............    
 सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने जोर देकर कहा कि इस कुप्रथा को खत्म करने के लिये सफाई  कर्मचारियों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराये जाने चाहिये. एक सवाल पर  उन्होंने कहा कि दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली मायावती के मुख्यमंत्री  होने के बावजूद उत्तरप्रदेश में सिर पर मैला ढोने की परंपरा जारी है. ....'मध्यप्रदेश के उज्जैन के कुछ इलाकों में आज भी सिर पर मैला ढोया जा रहा है.'.............
 
कौन अपने खुसी से किसी का  मैला ढोना चाहेगा पर यह हकीकत है की ,,,बरोठा (मध्यप्रदेश में देवास से २६  किलो मीटर ) गांमित्रा बाई जब शादी करके आई  थी तब उनकी सास ने  उन्हें अपनी जागीर सौंप दी थी और उन्हें जागीर में मिला था 25 घरों का मैला  ढोने का काम। असभ्य समाज में भी इस तरह की प्रथा का प्रचलन नहीं था पर  विकसित होते समाज में बदस्तूर ऐसी प्रथा का पालन किया जा रहा है जिसमें  इंसान का इंसान से ही मल साफ करवाया जा रहा है............
इसी व्यवहार के सम्बन्ध में अब तक किये गये  प्रयासों से यह मान्यता स्थापित होती गई है कि यदि एक समुदाय मानव मल ढोने  का काम कर रहा है तो इसका सबसे बड़ा कारण आर्थिक अभाव नहीं बल्कि सामाजिक  असंवेदनशीलता और प्रतिबध्दता की कमी है। सुमित्रा बाई ने खुद को इस पेशे के  चक्रव्यूह में से बाहर निकालने की जध्दोजहद की। अब से कुछ   साल पहले  उन्होंने मैला ढोने का काम बंद कर दिया था। उन्हें अ -न्त्यावसायी योजना के  अन्तर्गत राष्ट्रीयकृत बैंक से वैकल्पिक रोजगार के लिये 20 हजार रूपये का  ऋण भी मिला। वह खुश थीं कि अब उनके बच्चों को समाज में सम्मान मिलेगा और वह  बेहतर जीवन जी पायेंगी। सुमित्रा बाई ने ऋण राशि से गांव में कपड़े की  दुकान खोली परन्तु मुक्ति का वह रास्ता किसी अंधेरी गुफा में जा पहुंचा।  तीन माह तक हर रोज सुमित्रा बाई बड़ी उम्मीद के साथ दुकान खोलती पर इस दौरान  गांव से कपड़े का एक टुकडा भी किसी व्यक्ति ने उनके यहां से नहीं खरीदा।  बात प्रचलित हो गई कि सुमित्रा बाई मसान के कपड़े बेच रही है। आखिरकार  उन्हें अपनी दुकान बंद कर देना पड़ी और एक सुखद सपने का शुरूआत से पहले ही  अंत हो गया। डेढ़ साल तक फिर भी वह अन्य विकल्पों की तलाश करती रही पर  उन्हें निराशा ही हाथ लगी और सुमित्रा बाई को एक बार फिर कच्चे शौचालयों की  सफाई के काम की ओर कदम बढ़ाने पड़े। पहले एक प्रशासनिक अधिकारी और अब  सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से इस मुद्दे पर काम कर रहे हर्शमन्दर कहते  हैं कि यह सम्मान और गरिमा का सवाल है; कोई आर्थिक मदद या सरकारी योजना  इसका जवाब नहीं खोज सकती है। अभी तक हम योजना आधारित पुनर्वास की कोशिशें  करते रहे हैं जबकि जरूरत सामाजिक बदलाव की है। इसमें दो तरफा पहल की जरूरत  है, एक तो मैला ढोने के काम में लगे लोग इस काम को छोडें और दूसरे स्तर पर  समाज उन्हें समानता का दर्जा देते हुए बिना किसी भेदभाव के स्वीकार करें।  विगत एक दशक में सरकार 144 करोड़ रूपये खर्च करके भी इन परिवारों को अमानवीय  पीड़ा से मुक्ति नहीं दिला पाई है। उनके दावों का अब भी कोई आधार नहीं है, न  ही वे अपने काम को जवाबदेय ही मानते हैं। 
मध्यप्रदेश में दलित समानता के लिए की गई पहल को दुनिया  भर में ख्याति मिली है और राज्य सरकार के उसी दलित एजेण्डे में यह स्पष्ट  रूप से दावा किया गया था कि अप्रैल 2003 तक प्रदेश के सभी शौचालयों को  जलवाहित शौचालयों में बदलने का काम पूर्ण कर लिया जायेगा परन्तु आज की  स्थिति में भी मध्यप्रदेश में 78 हजार से ज्यादा शुष्क शौचालय हैं जिनमें  मैला साफ करने में अठारह हजार लोग लगे हुए हैं। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी  आयोग के अनुसार भी मध्यप्रदेश के 16 जिलों में अभी व्यापक रूप से यह प्रथा  प्रचलन में है। सबसे अहम् बात यह है कि सरकार के स्तर पर किये गये प्रयासों  में अभी भी सामाजिक सोच में बदलाव की कोशिशों का पूर्णत: अभाव है और तो और  उन्हें व्यवस्था की मदद भी नहीं मिल पा रही हैं। शासन की कल्याणकारी योजना  के अनुसार अस्वच्छ पेशों में संलग्न परिवारों के बच्चों को शिक्षा के लिए  हर वर्ष साढ़े सात सौ रूपये की छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है परन्तु धरातल  पर यह योजना विसंगति पूर्ण परिणाम दे रही हैं पन्ना जिले के बिसानी गांव की  तीन महिलाओं ने जब यह पेशा छोड़ा तो उन्हें प्रोत्साहन मिलना तो दूर तत्काल  उनके बच्चों को मिलने वाली छात्रवृत्तिा बंद कर दी गई। उनमें से एक अनिता  वाल्मिकी कहती हैं कि उस छात्रवृत्तिा से कम से कम बच्चों की किताबें और  कपड़े तो आ ही जाते थे परन्तु अब तो वह मदद भी बंद हो गई। सरकार मानती है कि  मैला ढोने का काम बंद करते ही उन्हें दूसरे अच्छे काम मिल जाते हैं जबकि  वास्तविकता यह है कि ऐसा करने से उनके दूसरे विकल्प भी छिन जाते हैं। देवास  जिले की बागली तहसील की शांतिबाई कहती हैं कि हमें इस काम के एवज में हर  घर से एक बासी रोटी और त्यौंहारों पर पुराने कपड़े मिलते थे। हम तो उनके  गुलाम जैसे थे इसलिये काम करवाने वाले हमारी कुछ मदद भी कर देते थे परन्तु  जबसे यह काम छोड़ा है तब से हमारा तो जैसे सामाजिक बहिष्कार हो गया है। अब  जरूरत पड़ने पर भी जब हम सवर्णों से रोटी या अन्य मदद मांगने जाते हैं तो एक  भी परिवार हमारी मदद नहीं करता है। इतना ही नहीं शांति बाई को यह कहकर  मजदूरी पर नहीं लगाया गया कि तुम तो मैला ढोने वाले हो तुमसे मजदूरी कैसे  होगी देवास के गंधर्वपुरी गांव की मुन्नी बाई से कहा गया कि जिन्होंने  तुमसे मैला ढोने का काम छुड़वाया है अब उन्हें से जाकर मदद मांगो। शिक्षा अब  एक मौलिक अधिकार है और सरकार 14 वर्ष तक के बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा के  लिए प्रतिबध्द है। परन्तु हर जिले में सरकारी स्कूल में बच्चों से 30 रूपये  प्रतिमाह शुल्क लिया जा रहा है। दलित परिवारों के सामने यह दुविधा की  स्थिति है। 
सामाजिक संरचना पर वर्गभेद इस कदर हावी है कि व्यापक समाज  यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि वाल्मिकी समाज इस अस्वच्छ पेशे  से मुक्त हो। वहीं दूसरी ओर समाज (वाल्मिकी) के भीतर भी भेदभाव चरम स्तर पर  है। 
मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन में लगे गरिमा  अभियान के एक अध्ययन से पता चला है कि जिन 531 परिवारों का उन्होंने  सर्वेक्षण मध्यप्रदेश में किया उनमें से 506 परिवारों में यह काम केवल  महिलायें ही करती हैं। परम्परा यह है कि महिला विवाह के बाद जब अपने ससुराल  पहुंचती है तो तत्काल उसे जागीरदारी में 20-25 घरों के मैला ढोने का काम  मिलता है। अध्ययन का यह निष्कर्ष चौंकाने वाला है कि अस्पृश्यता औषण की  पीड़ग रहे दलित समुचर्मकार, बरगुण्डा और बैरवा जाति के अस्सी फीसदी लोग यह  मानते है कि वाल्मिकी समुदाय को यह करते रहना चाहिए क्योंकि यह उनकी  जिम्मेदारी है। 
वास्तव में इस व्यवसाय का आर्थिक पहलू का  विष्लेषण भी अपने आप में बहुत रोचक है। अब तक यह माना जाता है कि चूंकि  वाल्मिकी समाज के परिवारों को इस पेशे से आय होती है और इसी से वे जीवनयापन  करते हैं इसलिये ये यह काम नहीं छोड़ना चाहते हैं। परन्तु आकलन से पता चलता  है कि एक परिवार से मैला उठाने के एवज में उन्हें 5 से 20 रूपये प्रतिमाह  मिलते है। और अधिकतम 25 घरों की सफाई का काम इनके पास रहता है। इस तरह इस  गरिमाहीन पेशे से उन्हें प्रतिमाह 125 से 500 रूपये की ही आय होती है और  त्यौंहारों या समारोहों के मौके पर उन्हे पुराने कपड़े और मिठाई भी मिल जाती  है। टोंक की रेखा बाई कहती हैं कि मैं चार सौ रूपये कमाने के लिए बहुत बड़ी  कीमत चुकाती हूं। वाल्मिकी समाज अकल्पनीय छुआछूत को भोगता है। आज भी गांव  या कस्बे की चाय की दुकानों पर उनके लिये अलग टूटे बरतन रखे जाते हैं।  देवास, पन्ना, होशंगाबाद, शाजापुर, हरदा और मन्दसौर के साढ़े तीन सौ गांवों  में वाल्मिकी बलाई एवं चर्मकार समाज के लोगों के बाल नाई नहीं काटते है।  आमलाताज बनवाने और बाल कटवाने के ते हैं क्योंलिये एक बार में 65 से 70  रूपये खर्च करने पड़कि इसके लिये हमें 20 रूपये खर्च करके सोनकच्छ जाना पड़ता  है, 15 रूपये दाढ़ी-कटिंग के देने होते है। और समय इतना लगता है कि 35  रूपये की मजदूरी चली जाती है।
सरकारी स्तर पर अपरिपक्व नजरिये के कारण कई प्रयास सफल  नहीं हो पा रहे हैं। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी कर्मचारी आयोग के सदस्य  गिरिजा शंकर प्रसाद कहते हैं कि केन्द्र सरकार पिछले आठ सालों से लगातार  राज्य सरकार को निर्देश दे रही है परन्तु यहां के प्रशासनिक अधिकारी  संवेदनशीलता के साथ योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं कर रहे हैं और अब तो यह  निर्देश भी जारी कर दिये गये है कि किसी जिले में एक भी व्यक्ति इस पेशे  में संलग्न पाया जाता है और यदि वहां कानून के अनुसार कार्रवाई नहीं होती  है तो जिलाधिकारी को इस कोताही के लिए जिम्मेदार माना जायेगा। परन्तु यह  बात भी स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार ने अब तक जारी 13 गंभीर आदेशों-दिशा  निर्देशों और तीन सम्बन्धित कानूल्यांयास नहीं किये है_ था के उन्मूनों की  निगरानी-मूकन के लिए अब तक कार्इे प्र। स्वाभाविक है कि इस प्रलन के प्रयास  में क्रियान्वयन की जिम्मेदारी जिला प्रशासन की है परन्तु इस संवेदनशील  प्रथा के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही असंवेदनशील तरीके से प्रयास हुये हैं।  सरकार की अन्त्यावसायी योजना के अन्तर्गत अस्वच्छ कामों में लगी महिलाओं को  किसी कला या अन्य कार्य के कौशल विकास के लिये छह माह का प्रशिक्षण दिये  जाने का प्रावधान है। इसी के आधार पर होशंगाबाद की सोहागपुर तहसील में 30  महिलाओं को मूर्तिकला का प्रशिक्षण दिया गया। अब तक मैला उठाने वाले हाथ  इतनी जल्दी र उन्हानें मांशिक्षण की अवधि और बढ़ा दी जाये परन्तु प्रशासन ने  तत्काल यह कला सीख नहीं पाये औग की कि उनके प्रयह कहते हुये इस जरूरत को  नजरअंदाज कर दिया कि शासन की योजनाओं मे यह प्रावधान नहीं है। परिणामस्वरूप  उन महिलाओं को प्रशिक्षण मिलने के बाद भी उस सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल  सका। मध्यप्रदेश के पन्ना, देवास सहित 36 जिले दावा कर चुके हैं कि वहां  मैला ढोने का काम बंद हो चुका है। जबकि वहां आज भी सत्तार हजार से ज्यादा  कच्चे शौचालय मौजूद हैं। देवास के कमलापुर थाने में ही अब भी कच्चा शौंचालय  हैं और मध्यप्रदेश के सभी नगरीय निकायों में साफ-सफाई के काम में इसी  समुदाय के लोगों को नियुक्त किया जा रहा है। वास्तव में व्यापक समाज के  स्तर पर यह मानसिकता स्थापित हो चुकी है कि अस्वच्छता से सम्बन्धित किसी भी  काम में इसी समुदाय को जिम्मेदारी दी जानी चाहिये। 
गरिमा अभियान ने छह जिलों में अपने सघन  प्रयासों से छह सौ महिलाओं को इस पेशे से मुक्त करवाया है परन्तु अब उसके  सामने भी यह अनुभव उभरकर सामने आने लगा है कि मैला साफ करने का काम छोड़ने  वाली महिला पर यह काम फिर से शुरू करने का दबाव बहुत बढ़ रहा है। उसके अपने  आंकड़े भी हैं कि तीस महिलाओं ने फिर से यह काम अपना लिया है। कारण साफ है  कि यह पेशे को अपनाने या छोडने का मामला नहीं है बल्कि सामाजिक  व्यवस्था  के भेदवादी चरित्र को चुनौती देने का मामला हैं.........
सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को समाप्त करने के लिये सरकार ने वर्ष 1993  में सफाई कर्मचारियों का नियोजन और शुष्क शौचालयों का निर्माण (प्रतिबंध)  नाम का कानून बनाया था. इसमें स्पष्ट प्रावधान हैं कि कोई भी व्यक्ति न तो  सिर पर मैला ढोने का काम करेगा, न ही शुष्क शौचालयों का रख-रखाव करेगा.......
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने आरोप लगाया कि मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें प्रदेश दौरे के वक्त  उचित सुरक्षा मुहैया नहीं करायी. उन्होंने इंदौर के जिलाधिकारी राघवेंद्र  कुमार सिंह के यहां आयोग की बैठक में शामिल न होने पर गुस्से में उन्हें  'दलित विरोधी' तक कह दिया. .......