कुरान - अल्लाह बड़ा या मोहम्मद ?
पैगंबरवाद मध्यपूर्व मजहबों की अभिन्न परंपरा रही है जिसका आधार ईश्वरी प्रकटीकरण या खुदाई इलहाम का सिध्दांत है।पैगंबर के माध्यम से अल्लाह अपनी इच्छा प्रकट करता है।चूंकि अल्लाह को निराकार घोषित कर दिया जाता है जिससे जनमानस अल्लाह से सीधा संबध नहीं बना सकता , पैगंबर का अल्लाह से सीधा संबंध होने के कारण उसके शब्द मुख्य और अल्लाह के शब्द गौण हो जाते हैं। पैगंबर के पास ही जन्नत के दरवाजे की चाभी होने के कारण वह अल्लाह से अधिक ताकतवर और मान्य भी हो जाता है और जन्नती हूरों को प्राप्त करने का माध्यम भी । इसलिये पैगंबरवाद का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के स्वतंत्र चिंतन तथा विवेक और सत्य को प्राप्त करने की उसकी जिज्ञासा की हत्या कर उसे भाग्यवादी बना देना ही है।यह मनुष्य पर इस कदर हावी होने का हथियार है कि वह पैगंबर के मरने के बाद भी उसकी कब्र के अधीन रहे।
पीढ़ी दर पीढ़ी और 40 वर्षों से मूर्ति पूजक रहे अबू- अल कासिम मुहम्मद इब्न अब्द अल-मुत्तालिब इब्न हाशिम ने लोमड़ी जैसी चतुराई से पैगंबरवाद की कल्पना का उपयोग कर प्रारम्भ में खुद को अल्लाह का विनम्र सेवक बताते हुये बाद में अल्लाह का समकक्ष और अंत में खुद को अल्लाह से भी शक्तिशाली घोषित और स्वीकार्य करा लिया। इसीलिये इस्लाम वास्तव में मोहम्मदी दीन ही है।पैगंबरवाद की गिरफ्त में फंसे ईमानवाले इसी कारण अल्लाह को बुरा भला कहे जाने पर तो मौन रहते हैं परंतु मोहम्मद के कार्टून या उसकी आलोचना पर टायर पंचर की दुकान और सब्जी ठेले छोड़कर सड़कों पर उतर आते हैं। कुछ दिनों पहले हजरत कमलेश तिवारी (प्रभु उनको शाति दें) के मोहम्मद पर की गयी टिप्पणी का विरोध पैगंबरवाद की गुलामी का स्वाभाविक परिणाम था।
चूंकि इस्लाम अपने मूल स्वरूप में एकेश्वरवाद ना होकर मूर्ति पूजक ही है तथा मोहम्मद को ना केवल अल्लाह के साथ शरीक कर बल्कि उससे भी ताकतवर मान कर पूजता है , यह आवश्यक हो जाता है कि इस बात को कुरान की आयतों से ही समझ लिया जाये। तो संग चलिये अल्लाह के विनम्र सेवक से अल्लाह का पूज्य बन जाने की मोहम्मद की तीन चरण की कुरानिक यात्रा पर ।
1- मुहम्मद अल्लाह का विनम्र सेवक :
जबतक मुहम्मद सैन्य रूप से कमजोर था वो अल्लाह का विनम्र सेवक ही बना रहा और उसी के अनुसार अल्लाह से आयतें उतरवायीं जैसा निम्न आयतों से साफ है ।
* ( ओ मुहम्मद !) ' उन्हें राहपर लाना तुम्हारे जिम्मे नहीं है बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहता है राह दिखाता है । ' ( सूरा 2:272 )
* ( ओ मुहम्मद !) तुम तो केवल सावधान करने वाले हो और अल्लाह हर एक चीज़.का संरक्षक है । ' ( सूरा 11:2 )
* तुम्हारा " रब ' तुम्हे भली भांति जानता है । वह चाहे तो तुमपर दया करे और चाहे तो तुम्हें यातना दे । और ( हे नबी ! ) हमने तुम्हें
उनपर कोई हवलदार बनाकर नहीं भेजा है। " ( 17:54 )
* " अल्लाह के साथ कोई दूसरा ' इलाह ' (पूज्य) न गढ़ना , नहीं तो निंदित और ठुकराया हुआ ' जहन्नम ' में झोंक दिया जायेगा । " ( सूरा 17:39 )
* " तुम्हें ( ओ मुहम्मद !) इस मामले में कोई अधिकार नहीं है - चाहे वह (अल्लाह) उन्हें क्षमा करे या उन्हें यातना में ग्रस्त करे क्योंकि वे जालिम हैं । " ( सूरा 3:128 )
* ओ ( पैगंबर ! ) तुम जिसे चाहो मार्ग पर नहीं ला सकते , पर अल्लाह जिसे चाहता है मार्ग पर लाता है । " ( सूरा 28:56 )
2 - मुहम्मद अल्लाह का दोस्त :
थोड़ा और ताकतवर होने पर मुहम्मद अल्लाह के समकक्ष खड़ा हो गया और अब मुहम्मद के बिना अल्लाह अशक्त भी था । अर्थात अल्लाह लाशरीक नहीं रहा जैसा खुद कुरान की आयतें.साबित करती हैं । मुहम्मद ने अपने को अल्लाह की दैवीय प्रतिष्ठा में शामिल कर लिया ।
* कह दो : अल्लाह और उसके ' रसूल ' (मुहम्मद) की आज्ञा का पालन करो ।" (सूरा 3:32 )
* " और अल्लाह और ' रसूल ' का आदेश मानो ताकि तुमपर दया की जाये । " ( सूरा 3:132 )
* " अल्लाह का आदेश मानो और ' रसूल ' का आदेश मानो । " ( सूरा 4:59 )
* " जिसने रसूल का आदेश माना उसने अल्लाह का आदेश माना । " ( सूरा 4:80 )
* " रसूल का विरोध करने वालों का ठिकाना
जहन्नम है । " ( 4:115 )
* " और ना किसी ईमान वाले पुरूष को और न किसी ईमान वाली औरत को यह हक़ है कि जब अल्लाह और उसक रसूल किसी बात फ़ैसला कर दे तो फिर उन्हें अपने मामले में कोई अधिकार रहे और कोई अल्लाह और उसके ' रसूल ' की अवज्ञा करे तो वह गुमराही में पड़ गया । " ( सूरा 33:36 )
3 - अल्लाह द्वारा मुहम्मद की पैरवी व पूजा :
तीसरे और अंतिम चरण में अल्लाह और मुहम्मद के रिश्ते उलट गये जब अल्लाह और फरिश्तों से उसने अपनी पूजा करवानी शुरु कर दी।
* " नमाज कायम करो ओर ' जकात ' दो और ' रसूल ' ( मुहम्मद ) का हुक्म मानो ताकि तुम पर दया की जाये । " ( सूरा 24:56 )
* " कह दो कि यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो तो मेरा ( मुहम्मद ) अनुसरण करो । अल्लाह तुमसे प्रेम करने लगेगा और तुम्हारे गुनाहों को क्षमा करेगा । ( सूरा 3:31 )
* हमने जो रसूल भी भेजा इसीलिए भेजा कि अल्लाह की अनुज्ञा से उसके आदेशों का पालन किया जाये । " ( सूरा 4:64 )
* " निश्चय ही अल्लाह और उसकी कि 'फरिश्ते' नबी पर रहमत (कर्म कांड युक्त प्रार्थना ) भेजते हैं । हे लोगों ! जो ईमान लाये हो तो तुम भी उनपर रहमत ( कर्मकांड युक्त प्रार्थना ) भेजो और खूब सलाम भेजो । "
( सूरा 33:56 )
पैगंबरवाद मध्यपूर्व मजहबों की अभिन्न परंपरा रही है जिसका आधार ईश्वरी प्रकटीकरण या खुदाई इलहाम का सिध्दांत है।पैगंबर के माध्यम से अल्लाह अपनी इच्छा प्रकट करता है।चूंकि अल्लाह को निराकार घोषित कर दिया जाता है जिससे जनमानस अल्लाह से सीधा संबध नहीं बना सकता , पैगंबर का अल्लाह से सीधा संबंध होने के कारण उसके शब्द मुख्य और अल्लाह के शब्द गौण हो जाते हैं। पैगंबर के पास ही जन्नत के दरवाजे की चाभी होने के कारण वह अल्लाह से अधिक ताकतवर और मान्य भी हो जाता है और जन्नती हूरों को प्राप्त करने का माध्यम भी । इसलिये पैगंबरवाद का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के स्वतंत्र चिंतन तथा विवेक और सत्य को प्राप्त करने की उसकी जिज्ञासा की हत्या कर उसे भाग्यवादी बना देना ही है।यह मनुष्य पर इस कदर हावी होने का हथियार है कि वह पैगंबर के मरने के बाद भी उसकी कब्र के अधीन रहे।
पीढ़ी दर पीढ़ी और 40 वर्षों से मूर्ति पूजक रहे अबू- अल कासिम मुहम्मद इब्न अब्द अल-मुत्तालिब इब्न हाशिम ने लोमड़ी जैसी चतुराई से पैगंबरवाद की कल्पना का उपयोग कर प्रारम्भ में खुद को अल्लाह का विनम्र सेवक बताते हुये बाद में अल्लाह का समकक्ष और अंत में खुद को अल्लाह से भी शक्तिशाली घोषित और स्वीकार्य करा लिया। इसीलिये इस्लाम वास्तव में मोहम्मदी दीन ही है।पैगंबरवाद की गिरफ्त में फंसे ईमानवाले इसी कारण अल्लाह को बुरा भला कहे जाने पर तो मौन रहते हैं परंतु मोहम्मद के कार्टून या उसकी आलोचना पर टायर पंचर की दुकान और सब्जी ठेले छोड़कर सड़कों पर उतर आते हैं। कुछ दिनों पहले हजरत कमलेश तिवारी (प्रभु उनको शाति दें) के मोहम्मद पर की गयी टिप्पणी का विरोध पैगंबरवाद की गुलामी का स्वाभाविक परिणाम था।
चूंकि इस्लाम अपने मूल स्वरूप में एकेश्वरवाद ना होकर मूर्ति पूजक ही है तथा मोहम्मद को ना केवल अल्लाह के साथ शरीक कर बल्कि उससे भी ताकतवर मान कर पूजता है , यह आवश्यक हो जाता है कि इस बात को कुरान की आयतों से ही समझ लिया जाये। तो संग चलिये अल्लाह के विनम्र सेवक से अल्लाह का पूज्य बन जाने की मोहम्मद की तीन चरण की कुरानिक यात्रा पर ।
1- मुहम्मद अल्लाह का विनम्र सेवक :
जबतक मुहम्मद सैन्य रूप से कमजोर था वो अल्लाह का विनम्र सेवक ही बना रहा और उसी के अनुसार अल्लाह से आयतें उतरवायीं जैसा निम्न आयतों से साफ है ।
* ( ओ मुहम्मद !) ' उन्हें राहपर लाना तुम्हारे जिम्मे नहीं है बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहता है राह दिखाता है । ' ( सूरा 2:272 )
* ( ओ मुहम्मद !) तुम तो केवल सावधान करने वाले हो और अल्लाह हर एक चीज़.का संरक्षक है । ' ( सूरा 11:2 )
* तुम्हारा " रब ' तुम्हे भली भांति जानता है । वह चाहे तो तुमपर दया करे और चाहे तो तुम्हें यातना दे । और ( हे नबी ! ) हमने तुम्हें
उनपर कोई हवलदार बनाकर नहीं भेजा है। " ( 17:54 )
* " अल्लाह के साथ कोई दूसरा ' इलाह ' (पूज्य) न गढ़ना , नहीं तो निंदित और ठुकराया हुआ ' जहन्नम ' में झोंक दिया जायेगा । " ( सूरा 17:39 )
* " तुम्हें ( ओ मुहम्मद !) इस मामले में कोई अधिकार नहीं है - चाहे वह (अल्लाह) उन्हें क्षमा करे या उन्हें यातना में ग्रस्त करे क्योंकि वे जालिम हैं । " ( सूरा 3:128 )
* ओ ( पैगंबर ! ) तुम जिसे चाहो मार्ग पर नहीं ला सकते , पर अल्लाह जिसे चाहता है मार्ग पर लाता है । " ( सूरा 28:56 )
2 - मुहम्मद अल्लाह का दोस्त :
थोड़ा और ताकतवर होने पर मुहम्मद अल्लाह के समकक्ष खड़ा हो गया और अब मुहम्मद के बिना अल्लाह अशक्त भी था । अर्थात अल्लाह लाशरीक नहीं रहा जैसा खुद कुरान की आयतें.साबित करती हैं । मुहम्मद ने अपने को अल्लाह की दैवीय प्रतिष्ठा में शामिल कर लिया ।
* कह दो : अल्लाह और उसके ' रसूल ' (मुहम्मद) की आज्ञा का पालन करो ।" (सूरा 3:32 )
* " और अल्लाह और ' रसूल ' का आदेश मानो ताकि तुमपर दया की जाये । " ( सूरा 3:132 )
* " अल्लाह का आदेश मानो और ' रसूल ' का आदेश मानो । " ( सूरा 4:59 )
* " जिसने रसूल का आदेश माना उसने अल्लाह का आदेश माना । " ( सूरा 4:80 )
* " रसूल का विरोध करने वालों का ठिकाना
जहन्नम है । " ( 4:115 )
* " और ना किसी ईमान वाले पुरूष को और न किसी ईमान वाली औरत को यह हक़ है कि जब अल्लाह और उसक रसूल किसी बात फ़ैसला कर दे तो फिर उन्हें अपने मामले में कोई अधिकार रहे और कोई अल्लाह और उसके ' रसूल ' की अवज्ञा करे तो वह गुमराही में पड़ गया । " ( सूरा 33:36 )
3 - अल्लाह द्वारा मुहम्मद की पैरवी व पूजा :
तीसरे और अंतिम चरण में अल्लाह और मुहम्मद के रिश्ते उलट गये जब अल्लाह और फरिश्तों से उसने अपनी पूजा करवानी शुरु कर दी।
* " नमाज कायम करो ओर ' जकात ' दो और ' रसूल ' ( मुहम्मद ) का हुक्म मानो ताकि तुम पर दया की जाये । " ( सूरा 24:56 )
* " कह दो कि यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो तो मेरा ( मुहम्मद ) अनुसरण करो । अल्लाह तुमसे प्रेम करने लगेगा और तुम्हारे गुनाहों को क्षमा करेगा । ( सूरा 3:31 )
* हमने जो रसूल भी भेजा इसीलिए भेजा कि अल्लाह की अनुज्ञा से उसके आदेशों का पालन किया जाये । " ( सूरा 4:64 )
* " निश्चय ही अल्लाह और उसकी कि 'फरिश्ते' नबी पर रहमत (कर्म कांड युक्त प्रार्थना ) भेजते हैं । हे लोगों ! जो ईमान लाये हो तो तुम भी उनपर रहमत ( कर्मकांड युक्त प्रार्थना ) भेजो और खूब सलाम भेजो । "
( सूरा 33:56 )