मायावती की हार पहले से अपेक्षित थी. मैं पहले से कहता रहा हूं कि बुद्ध से आंबेडकर तक की लड़ाई जातिविरोधी थी, मायावती ने इस परंपरा को जातिवादी बना दिया. जातियों का समीकरण बनाकर ही वह सत्ता में आई थीं. मायावती का उत्थान जातीय ध्रुवीकरण के आधार पर हुआ था और उसी ध्रुवीकरण ने मायावती को नेस्तनाबूद कर दिया है. जाति के मुद्दे से छेड़छाड़ करने वाले को यह परिणाम देखना ही पड़ेगा.
जाति एक बेहद खतरनाक अवधारणा है. इसके खिलाफ एक सतत संघर्ष की आवश्यकता है. बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन, क्षत्रीय सम्मेलन, बनिया सम्मेलन हों या स्वयं दलित जातियों के अलग-अलग सम्मेलन, इनसे जाति विनाश का नहीं, जातीय भावना भड़काकर जातिवाद बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त हुआ. इसी प्रक्रिया में जातीय सत्ता की होड़ लगी. मायावती को अल्पकाल के लिए भले फायदा हुआ हो, लेकिन यह जातीय ध्रुवीकरण दूर तक चलने वाली चीज नहीं है.
इस समय देश में जो तीन समस्याएं सबसे बड़ी समस्या के रूप में जनतंत्र के सामने उभरकर आई हैं, वे हैं- जातिवाद, सांप्रदायिकतावाद और क्षेत्रीयतावाद. इन्हीं विचारधाराओं के चलते देश भर में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती जा रही है. मायावती की मुख्य गलती जातिविरोधी आंदोलनों को जातिवादी बनाना है. दूसरे, उन्होंने बुद्ध के नारे 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' को 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' में बदल दिया. यह कृत्रिम बदलाव जातिविरोधी आंदोलनों की मूलभूत विचारधारा के खिलाफ था.
मायावती ने घोषित कर दिया कि ब्राह्मण शोषित हैं, इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों को चुनाव में शामिल होने, जितवाने और सत्ता में लाने का खुलेआम निमंत्रण दिया. पहली बार ऐसा हुआ कि एक दलित नेता के मुंह से यह बात कही गई कि ब्राह्मण इस देश में शोषित हैं और हाशिए पर चले गए हैं. यह बिल्कुल गलत था, सौ प्रतिशत गलत. बसपा ने अपने चुनाव चिन्ह हाथी पर यह नारा भी बना डाला- 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है'. दलितों के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों की अवधारणाओं को मायावती ने बिल्कुल उलट दिया था.
मायावती ने अगली गलती यह की कि एक तानाशाह के रूप में उभरकर आईं. दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को मायावती ने कभी भी उभरने का मौका नहीं दिया. आज के लोकतांत्रिक विकास के दौर में किसी भी राजनीतिक दल में ऐसी तानाशाही होने पर उसकी हार होना स्वाभाविक है. अपराधियों को नियंत्रण में करने के वायदे करने वाली मायावती ने बड़े-बड़े माफियाओं को टिकट देकर जिताया था. कैबिनेट में एक-तिहाई से ज्यादा मंत्री माफिया ही थे. अंतिम क्षणों में उन लोगों को हटाकर मायावती ने खुद अपने पैर में कुल्हाड़ी मारी. इससे उनका जनाधार बसपा से चला गया. कुल मिलाकर बसपा ने एक गैर-लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में खुद को स्थापित किया. उन्होंने अपनी और अपने परिवारजनों की मूर्तियां लगवाना शुरू किया. कांशीराम की अच्छी बातों को मायावती भूल गईं.
मायावती के तानाशाही रवैए का परिणाम मुलायम का विकल्प बनने में सहायक सिद्ध हुआ. इस चुनाव की अच्छी बात यह है कि भाजपा को इस चुनाव में धक्का लगा है. वह फिर से राममंदिर के मुद्दे को उठाकर अपने मूल चरित्र में सामने आ रही थी. कांग्रेस का भी पत्ता साफ ही कहा जाएगा. राहुल गांधी को उन्होंने भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया था. इसलिए सबसे बड़ी हार उन्हीं की है.
उत्तर प्रदेश के इस चुनाव का कई दिशाओं में दूरगामी परिणाम होने जा रहा है. मुलायम का जन-उभार कांग्रेस के लिए काफी परेशानियां खड़ी कर सकता है. उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी का कांग्रेस को खड़ा करने का प्रोजेक्ट फ्लॉप हो चुका है. कांग्रेस को उदार हिंदुत्व की जगह अपनी पुरानी धर्मनिरपेक्ष राजनीति की ओर लौटना चाहिए. जातिविरोधी राजनीति भी उन्हें अपनानी पड़ेगी. उत्तर प्रदेश का यह चुनाव जातिगत ध्रुवीकरण पर ही आधारित था. मुलायम को मिला बहुमत जातिय ध्रुवीकरण का ही परिणाम है. बसपा के साथ रहने वाली जातियां सरक कर मुलायम के साथ आ गईं. यही इस चुनाव में सपा की जीत का आधार रहा.
( दैनिक भास्कर में छपे लेख में तुलसी राम ने बसपा के जीत की समीक्षा की है. मीनाक्षी मीणा से हुई बातचीत पर आधारित)