अप्रैल मई 2014 के लोकसभा चुनाव में फिर से बस्तर में वोट गिरेंगे, इस इलाके में देश के सभी बड़े नेता अपनी
सभाएं करने कि तैयारी कर रहे होगे लेकिन सभी इस तथ्य से मुंह मोड़े हुए हैं कि बस्तर संभाग
के कोई 182 मतदान केंद्र ऐसे हैं जिसमे पिछली बार मतदान केंद्रों के स्थान बदले फिर भी
वहां वोट नहीं पड़े । कई जगह तो शून्य मतदान हुआ और बाकी में दस से भी कम ।
प्रशासन भी आशंकित है कि इस बार भी उन स्थानों पर वोट पड़ेंगे कि नहीं । आने वाले
दिनों जिन गांवों में कोई भी सियासी दल नहीं पहुंच पायेगा , वहां नक्सली
जुलूस निकालगे,आम सभा करेगे और जनता को बतायेगे कि सरकार व
पुलिस उन पर अत्याचार करती है, सो मतदान का बहिष्कार करें । उनकी सभाओं में
खासी भीड़ भी पहुंचेगी ।नक्सलवाद की आग में झुलस रहे छत्तीसगढ़ में भी लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज गई है । वैसे तो राज्य का लगभग तीन चौथाई
हिस्सा नक्सल हिंसा से प्रभावित है, लेकिन महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश,
उ.प्र., झारखंड और उड़ीसा की सीमाओं के करीबी बस्तर को नक्सलियों की गढ़ या
आश्रय स्थल है और ऐसा माना जाता है । विडंबना है या फिर कोई सोची-समझी साजिश, वहां पर हिंसा व
प्रतिहिंसा कोई चुनावी मुद्दा है ही नहीं। हां यह तय है कि गोलियों के बीच
पलायन,, विस्थापन, डर और आशंकाओं ने वहां के बहुल निवासी जनजातियों की
बोली, संस्कृति, लोक-रंग सभी पर विपरीत असर डाला है । शायद सत्ता के रास्ते
में इन मानवीय संवेदनाओं के कोई मायने नहीं है, सो प्रशासन को चिंता है कि
किस तरह नक्सल प्रभावित इलाकों में वोट गिर जाएं और नेताओं की योजना है कि
किसी भी तरह ‘उनके वोट’ बटन दबा जाएं। कोई मांग कर रहा है कि उंगली पर
स्याही का निशान लगाने के कानून से यहां मुक्ति दे दी जाए, लेकिन कहीं कोई
भी दल यह नहीं कह रहा है कि वह इलाके में शांति के लिए पहल करेगा ।
पुलिश पर इतना बड़ा हमला पहले भी हुआ था जैसा कि अभी कल हुआ है पर मुल्क की राजनीतिक बिरादरी पर नक्सलियों का इतना बड़ा हमला इसके पहले भी हुआ था इसी बस्तर के जीरम घाटी में , जिसमें विद्याचरण शुक्ल से ले कर महेन्द्र कर्मा व नंदलाल पटले तक कई कद्दावर कांग्रेसी नेता मारे गए। उसकी जांच एनआईए के पास है, लेकिन नतीजा वहीं ढाक के तीन पात है। हालांकि इससे पहले चंद्रबाबू नायडू, खुद महेन्द्र कर्मा व नंदलाल पटेल ऐसे हमलों से बच चुके थे। इसके बावजूद सरकारी योजना, केंद्र व राज्य दोनो की; नरसंहार से ज्यादा नहीं रही- नरसंहार अपने ही लोगों का – चाहे वे सरकारी बंदूक लिए हों या फिर सरकारी सिपाहियों से लूटी गईं। सिलसिला अनंत है, यह समझे बगैर कि ना तो लाल सलाम से आदिवासियों का भला हो रहा है और ना ही कोबरा या ग्रेहाउंड के खूंखार कमांडो से। दोनों तरफ बेहद गरीब परिवार से आए लोगों के हाथों में असलहे हैं जो निरूद्देश्य एक दूसरे पर ताने हुए हैं ।
पिछले साल मई को ही बस्तर के बीजापुर जिले के अर्सपेटा गांव में रात साढ़े नौ बजे सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए आठ ‘‘आतंकवादियों’’ की घटना को याद कर लें, इनमें ‘‘तीन आतंकवादी’’ दस साल से कम उम्र के बच्चे थे, इन आतंवादियों के हाथों में कोई हथियार नहीं थे। सारा गांव अपने घर वालों की लाशें लिए दो दिनों तक थाने को घेरे रहा। यह खबर किसी अखबार के पहले पन्ने पर नहीं आई, टीवी चैनलों के लिए तो इसके कोई मायने ही नहीं थे। आप यह कतई ना समझें कि सुरक्षा बलों की नृशंसता को सामने रख कर नक्सलियों के कायराना हमले को मेरे द्वारा न्यायोचित ठहराया जा सकता है ।
यदि अरण्य में नक्सली समस्या को समझना है तो बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर भी गौर करना जरूरी होगा। दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी हैं, जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं, इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेशी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं। सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। इसके साथ ही एक और चौंकाने वाला आंकड़ा गौरतलब है कि ताजा जनगणना बताती है कि बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद रहे 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी । सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में शेष देश के विपरीत महिला-पुरूष का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियों के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है ? यदि सरकार की सभी चार्जशीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए शोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं जो कि इन आदिवासियो कि बहुत बड़ी भूल है अधिकार हथियार से नहीं मिल सकते है ।पर इतने दमन पर भी सभी राजनीतिक दल मौन हैं और यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है ।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की सात साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं – सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है – राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों – ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सशस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि एक हजार नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्य लगाई जाती हैं और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है ।क्यों ? कहा है हमारा खुपिया बिभाग , क्या ये सिर्फ मोटी तनखाह लेकर खर्राटे लेने के लिए है ? भारत सरकार ''मिजोरम और नगालैंड'' जैसे छोटे राज्यों में शांति के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कश्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुर्रियत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से शांतिपूर्ण हल की गुफ्तगूँ करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए हैं। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग हैं जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोशिशें क्यों नहीं की गईं। याद करें 01 जुलाई 2010 की रात को आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के जंगलों में महाराष्ट्र की सीमा के पास सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद और देहरादून के एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। पुलिस का दावा था कि यह मौतें मुठभेड़ में हुई जबकि तथ्य चीख-चीख कर कह रहे थे कि इन दोनों को 30 जून को नागपुर से पुलिस ने उठाया था। उस मामले में सीबीआई जांच के जरिए भले ही मुठभेड़ को असली करार दे दिया गया हो, लेकिन यह बात बड़ी साजिश के साथ छुपा दी गई कि असल में वे दोनों लोग स्वामी अग्निवेश का एक खत ले कर जा रहे थे, जिसके तहत शीर्ष नक्सली नेताओं को केंद्र सरकार से शांति वार्ता करना था। याद करें उन दिनों तत्कालीन गृह मंत्री चिदंबरम ने अपना फैक्स नंबर दे कर खुली अपील की थी कि माओवादी हमसे बात कर सकते हैं। उस धोखें के बाद नक्सली अब किसी भी स्तर पर बातचीत से डरने लगे हैं। इस पर निहायत चुप्पी बड़ी साजिश की ओर इशारा करती है कि वे कौन लोग हैं जो नक्सलियों से शांति वार्ता में अपना घाटा देखते हैं । यदि आंकड़ों को देखें तो सामने आता है कि जिन इलाकों में लाल-आतंक ज्यादा है, वहां वही राजनीतिक दल जीतता है जो वैचारिक रूप से माओ-लेनिन का सबसे मुखर विरोधी है ।हालाकि ईसके अपवाद भी हो सकते है ।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के सरंक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग । बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख । नक्सल आंदोलन के जवाब में ''जातीय सेनाओ '' का स्वरूप कितना बदरंग हुआ और इसकी परिणति बिहार में कई जगह देखने को मिल चुकी है बिहार में माओवादियो और जातीय सेनाओ कि नृशंसता सबके सामने है। बंदूकों को अपनो पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देश नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोशिश करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। कोई नक्सलियों के हाथों मारे गए अपने नेताओं की राख से वोट कबाड़ना चाहता है तो कोई सलवा जुडुम या सुरक्षा बलों की तत्परता की दुहाई दे कर, लेकिन इस रक्तपात के अंत की बात कहीं हो नहीं नहीं रही है । आज ही अपने गृहमंत्री शुसील कुमार सिंदे ने बयान दिया है ''हमले का बदला लिया जायेगा '' जाहिर है कि उनकी बात महज खोखले बयान से ज्यादा नहीं है । क्या कर रही थी कांग्रेश कि सरकार पिछले कई दशको से ?
आखिर लोग हिंसा को समाप्त करने के स्थाई हल के लिए बातचीत का रास्ता क्यों नहीं खोलना चाहते ?
आखिर चुनावों में इतने गंभीर मसले पर कोई भी दल अपनी स्पष्ट नीति क्यों नहीं रखता ?
शायद सभी को वहां का खूनखराबा अपने लिए मुफीद ही लगता है ?
पुलिश पर इतना बड़ा हमला पहले भी हुआ था जैसा कि अभी कल हुआ है पर मुल्क की राजनीतिक बिरादरी पर नक्सलियों का इतना बड़ा हमला इसके पहले भी हुआ था इसी बस्तर के जीरम घाटी में , जिसमें विद्याचरण शुक्ल से ले कर महेन्द्र कर्मा व नंदलाल पटले तक कई कद्दावर कांग्रेसी नेता मारे गए। उसकी जांच एनआईए के पास है, लेकिन नतीजा वहीं ढाक के तीन पात है। हालांकि इससे पहले चंद्रबाबू नायडू, खुद महेन्द्र कर्मा व नंदलाल पटेल ऐसे हमलों से बच चुके थे। इसके बावजूद सरकारी योजना, केंद्र व राज्य दोनो की; नरसंहार से ज्यादा नहीं रही- नरसंहार अपने ही लोगों का – चाहे वे सरकारी बंदूक लिए हों या फिर सरकारी सिपाहियों से लूटी गईं। सिलसिला अनंत है, यह समझे बगैर कि ना तो लाल सलाम से आदिवासियों का भला हो रहा है और ना ही कोबरा या ग्रेहाउंड के खूंखार कमांडो से। दोनों तरफ बेहद गरीब परिवार से आए लोगों के हाथों में असलहे हैं जो निरूद्देश्य एक दूसरे पर ताने हुए हैं ।
पिछले साल मई को ही बस्तर के बीजापुर जिले के अर्सपेटा गांव में रात साढ़े नौ बजे सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए आठ ‘‘आतंकवादियों’’ की घटना को याद कर लें, इनमें ‘‘तीन आतंकवादी’’ दस साल से कम उम्र के बच्चे थे, इन आतंवादियों के हाथों में कोई हथियार नहीं थे। सारा गांव अपने घर वालों की लाशें लिए दो दिनों तक थाने को घेरे रहा। यह खबर किसी अखबार के पहले पन्ने पर नहीं आई, टीवी चैनलों के लिए तो इसके कोई मायने ही नहीं थे। आप यह कतई ना समझें कि सुरक्षा बलों की नृशंसता को सामने रख कर नक्सलियों के कायराना हमले को मेरे द्वारा न्यायोचित ठहराया जा सकता है ।
यदि अरण्य में नक्सली समस्या को समझना है तो बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर भी गौर करना जरूरी होगा। दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी हैं, जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं, इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेशी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं। सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। इसके साथ ही एक और चौंकाने वाला आंकड़ा गौरतलब है कि ताजा जनगणना बताती है कि बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद रहे 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी । सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में शेष देश के विपरीत महिला-पुरूष का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियों के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है ? यदि सरकार की सभी चार्जशीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए शोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं जो कि इन आदिवासियो कि बहुत बड़ी भूल है अधिकार हथियार से नहीं मिल सकते है ।पर इतने दमन पर भी सभी राजनीतिक दल मौन हैं और यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है ।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की सात साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं – सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है – राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों – ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सशस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि एक हजार नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्य लगाई जाती हैं और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है ।क्यों ? कहा है हमारा खुपिया बिभाग , क्या ये सिर्फ मोटी तनखाह लेकर खर्राटे लेने के लिए है ? भारत सरकार ''मिजोरम और नगालैंड'' जैसे छोटे राज्यों में शांति के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कश्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुर्रियत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से शांतिपूर्ण हल की गुफ्तगूँ करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए हैं। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग हैं जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोशिशें क्यों नहीं की गईं। याद करें 01 जुलाई 2010 की रात को आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के जंगलों में महाराष्ट्र की सीमा के पास सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद और देहरादून के एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। पुलिस का दावा था कि यह मौतें मुठभेड़ में हुई जबकि तथ्य चीख-चीख कर कह रहे थे कि इन दोनों को 30 जून को नागपुर से पुलिस ने उठाया था। उस मामले में सीबीआई जांच के जरिए भले ही मुठभेड़ को असली करार दे दिया गया हो, लेकिन यह बात बड़ी साजिश के साथ छुपा दी गई कि असल में वे दोनों लोग स्वामी अग्निवेश का एक खत ले कर जा रहे थे, जिसके तहत शीर्ष नक्सली नेताओं को केंद्र सरकार से शांति वार्ता करना था। याद करें उन दिनों तत्कालीन गृह मंत्री चिदंबरम ने अपना फैक्स नंबर दे कर खुली अपील की थी कि माओवादी हमसे बात कर सकते हैं। उस धोखें के बाद नक्सली अब किसी भी स्तर पर बातचीत से डरने लगे हैं। इस पर निहायत चुप्पी बड़ी साजिश की ओर इशारा करती है कि वे कौन लोग हैं जो नक्सलियों से शांति वार्ता में अपना घाटा देखते हैं । यदि आंकड़ों को देखें तो सामने आता है कि जिन इलाकों में लाल-आतंक ज्यादा है, वहां वही राजनीतिक दल जीतता है जो वैचारिक रूप से माओ-लेनिन का सबसे मुखर विरोधी है ।हालाकि ईसके अपवाद भी हो सकते है ।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के सरंक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग । बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख । नक्सल आंदोलन के जवाब में ''जातीय सेनाओ '' का स्वरूप कितना बदरंग हुआ और इसकी परिणति बिहार में कई जगह देखने को मिल चुकी है बिहार में माओवादियो और जातीय सेनाओ कि नृशंसता सबके सामने है। बंदूकों को अपनो पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देश नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोशिश करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। कोई नक्सलियों के हाथों मारे गए अपने नेताओं की राख से वोट कबाड़ना चाहता है तो कोई सलवा जुडुम या सुरक्षा बलों की तत्परता की दुहाई दे कर, लेकिन इस रक्तपात के अंत की बात कहीं हो नहीं नहीं रही है । आज ही अपने गृहमंत्री शुसील कुमार सिंदे ने बयान दिया है ''हमले का बदला लिया जायेगा '' जाहिर है कि उनकी बात महज खोखले बयान से ज्यादा नहीं है । क्या कर रही थी कांग्रेश कि सरकार पिछले कई दशको से ?
आखिर लोग हिंसा को समाप्त करने के स्थाई हल के लिए बातचीत का रास्ता क्यों नहीं खोलना चाहते ?
आखिर चुनावों में इतने गंभीर मसले पर कोई भी दल अपनी स्पष्ट नीति क्यों नहीं रखता ?
शायद सभी को वहां का खूनखराबा अपने लिए मुफीद ही लगता है ?