चित्रकूट। आदिकाल से धर्म की ध्वजा को विश्व में फैलाने वाला 'चित्रकूट' खुद में अबूझ पहेली है। तप और वैराग्य के साथ स्वतंत्रता की चाह में अपने प्राण का न्योछावर करने वालों के लिये यह आदर्श भूमि सिद्ध होती है। राम-राम की माला जपने वाले साधुओं ने वैराग्य की राह में रहते हुये मातृभूमि का कर्ज चुकाने के लिये अंग्रेजों की सेना के साथ दो-दो हाथ कर लड़ते-लड़ते मरना पसंद किया। लगभग तीन हजार साधुओं के रक्त के कण आज भी हनुमान धारा के पहाड़ में उस रक्तरंजित क्रांति की गवाह हैं।
बात 1857 की है। पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बज चुका था। यहां पर तो क्रांति की ज्वाला की पहली लपट 57 के 13 साल पहले 6 जून को मऊ कस्बे में छह अंग्रेज अफसरों के खून से आहुति ले चुकी थी।
एक अप्रैल 1858 को मप्र के रीवा जिले की मनकेहरी रियासत के जागीरदार ठाकुर रणमत सिंह बघेल ने लगभग तीन सौ साथियों को लेकर नागौद में अंग्रेजों की छावनी में आक्रमण कर दिया। मेजर केलिस को मारने के साथ वहां पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद 23 मई को सीधे अंग्रेजों की तत्कालीन बड़ी छावनी नौगांव का रुख किया। पर मेजर कर्क की तगड़ी व्यूह रचना के कारण यहां पर वे सफल न हो सके। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता को झांसी जाना चाहते थे पर उन्हें चित्रकूट का रुख करना पड़ा। यहां पर पिंडरा के जागीरदार ठाकुर दलगंजन सिंह ने भी अपनी 1500 सिपाहियों की सेना को लेकर 11 जून को 1858 को दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर उनका सामान लूटकर चित्रकूट का रुख किया। यहां के हनुमान धारा के पहाड़ पर उन्होंने डेरा डाल रखा था, जहां उनकी सहायता साधु-संत कर रहे थे। लगभग तीन सौ से ज्यादा साधु क्रांतिकारियों के साथ अगली रणनीति पर काम कर रहे थे। तभी नौगांव से वापसी करती ठाकुर रणमत सिंह बघेल भी अपनी सेना लेकर आ गये। इसी समय पन्ना और अजयगढ़ के नरेशों ने अंग्रेजों की फौज के साथ हनुमान धारा पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन रियासतदारों ने भी अंग्रेजों की मदद की। सैकड़ों साधुओं ने क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया। तीन दिनों तक चले इस युद्ध में क्रांतिकारियोंको मुंह की खानी पड़ी। ठाकुर दलगंजन सिंह यहां पर वीरगति को प्राप्त हुये जबकि ठाकुर रणमत सिंह बघेल गंभीर रूप से घायल हो गये। करीब तीन सौ साधुओं के साथ क्रांतिकारियों के खून से हनुमानधारा का पहाड़ लाल हो गया।
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अधिष्ठाता डा. कमलेश थापक कहते हैं कि ''वास्तव में चित्रकूट में हुई क्रांति असफल क्रांति थी'' । यहां पर तीन सौ से ज्यादा साधु शहीद हो गये थे। साक्ष्यों में जहां ठाकुर रणमत सिंह बघेल के साथ ही ठाकुर दलगंजन सिंह के अलावा वीर सिंह, राम प्रताप सिंह, श्याम शाह, भवानी सिंह बघेल (भगवान् सिंह बघेल), सहामत खां, लाला लोचन सिंह, भोला बारी, कामता लोहार, तालिब बेग आदि के नामों को उल्लेख मिलता है वहीं साधुओं की मूल पहचान उनके निवास स्थान के नाम से अलग हो जाने के कारण मिलती नहीं है। उन्होंने कहा कि वैसे इस घटना का पूरा जिक्र आनंद पुस्तक भवन कोठी से विक्रमी संवत 1914 में राम प्यारे अग्निहोत्री द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ठाकुर रणमत सिंह बघेल' में मिलता है।
बात 1857 की है। पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बज चुका था। यहां पर तो क्रांति की ज्वाला की पहली लपट 57 के 13 साल पहले 6 जून को मऊ कस्बे में छह अंग्रेज अफसरों के खून से आहुति ले चुकी थी।
शहीद ठाकुर रणमत सिंह बाघेल |
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अधिष्ठाता डा. कमलेश थापक कहते हैं कि ''वास्तव में चित्रकूट में हुई क्रांति असफल क्रांति थी'' । यहां पर तीन सौ से ज्यादा साधु शहीद हो गये थे। साक्ष्यों में जहां ठाकुर रणमत सिंह बघेल के साथ ही ठाकुर दलगंजन सिंह के अलावा वीर सिंह, राम प्रताप सिंह, श्याम शाह, भवानी सिंह बघेल (भगवान् सिंह बघेल), सहामत खां, लाला लोचन सिंह, भोला बारी, कामता लोहार, तालिब बेग आदि के नामों को उल्लेख मिलता है वहीं साधुओं की मूल पहचान उनके निवास स्थान के नाम से अलग हो जाने के कारण मिलती नहीं है। उन्होंने कहा कि वैसे इस घटना का पूरा जिक्र आनंद पुस्तक भवन कोठी से विक्रमी संवत 1914 में राम प्यारे अग्निहोत्री द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ठाकुर रणमत सिंह बघेल' में मिलता है।
1857 के क्रांतिकारियों की सूची..
1. नाना साहब पेशवा
2. तात्या टोपे
3. बाबु कुंवर सिंह
4. बहादुर शाह जफ़र
... 5. मंगल पाण्डेय
6. मौंलवी अहमद शाह
7. अजीमुल्ला खाँ
8. फ़कीरचंद जैन
9. लाला हुकुमचंद जैन
10. अमरचंद बांठिया
11. झवेर भाई पटेल
12. जोधा माणेक
13. बापू माणेक
14. भोजा माणेक
15. रेवा माणेक
16. रणमल माणेक
17. दीपा माणेक
18. सैयद अली
19. ठाकुर सूरजमल
20. गरबड़दास
21. मगनदास वाणिया
22. जेठा माधव
23. बापू गायकवाड़
24. निहालचंद जवेरी
25. तोरदान खान
26. उदमीराम
27. ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव
28. तिलका माँझी
29. देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह
2. तात्या टोपे
3. बाबु कुंवर सिंह
4. बहादुर शाह जफ़र
... 5. मंगल पाण्डेय
6. मौंलवी अहमद शाह
7. अजीमुल्ला खाँ
8. फ़कीरचंद जैन
9. लाला हुकुमचंद जैन
10. अमरचंद बांठिया
11. झवेर भाई पटेल
12. जोधा माणेक
13. बापू माणेक
14. भोजा माणेक
15. रेवा माणेक
16. रणमल माणेक
17. दीपा माणेक
18. सैयद अली
19. ठाकुर सूरजमल
20. गरबड़दास
21. मगनदास वाणिया
22. जेठा माधव
23. बापू गायकवाड़
24. निहालचंद जवेरी
25. तोरदान खान
26. उदमीराम
27. ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव
28. तिलका माँझी
29. देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह
30. नरपति सिंह
31. वीर नारायण सिंह 32. नाहर सिंह
33. सआदत खाँ
34. सुरेन्द्र साय
35. जगत सेठ राम जी दास गुड वाला
36. ठाकुर रणमतसिंह
37. रंगो बापू जी
38. भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर
39. वासुदेव बलवंत फड़कें
40. मौलवी अहमदुल्ला
41. लाल जयदयाल
42. ठाकुर कुशाल सिंह
43. लाला मटोलचन्द
44. रिचर्ड विलियम्स
45. पीर अली
46. वलीदाद खाँ
47. वारिस अली
48. अमर सिंह
49. बंसुरिया बाबा
50. गौड़ राजा शंकर शाह
51. जौधारा सिंह
52. राणा बेनी माधोसिंह
53. राजस्थान के क्रांतिकारी
54. वृन्दावन तिवारी
55 महाराणा बख्तावर सिंह
56 ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव
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31. वीर नारायण सिंह 32. नाहर सिंह
33. सआदत खाँ
34. सुरेन्द्र साय
35. जगत सेठ राम जी दास गुड वाला
36. ठाकुर रणमतसिंह
37. रंगो बापू जी
38. भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर
39. वासुदेव बलवंत फड़कें
40. मौलवी अहमदुल्ला
41. लाल जयदयाल
42. ठाकुर कुशाल सिंह
43. लाला मटोलचन्द
44. रिचर्ड विलियम्स
45. पीर अली
46. वलीदाद खाँ
47. वारिस अली
48. अमर सिंह
49. बंसुरिया बाबा
50. गौड़ राजा शंकर शाह
51. जौधारा सिंह
52. राणा बेनी माधोसिंह
53. राजस्थान के क्रांतिकारी
54. वृन्दावन तिवारी
55 महाराणा बख्तावर सिंह
56 ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव
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1857 में आजादी की पहली लड़ाई में सतना जिले के मनकहरी ग्राम निवासी ठाकुर रणमतसिंह ने भी अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। वे महाराजा रघुराजसिंह के समकालीन थे। महाराजा इन्हें काकू कहा करते थे। उन्हें रीवा की सेना में सरदार का स्थान मिला था।
1857 में बिहार के बाबू कुंवरसिंह और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारी मारकाट मचाई। लेकिन दोनों शक्तियां मिल नहीं पाईं क्योंकि बघेलखण्ड में अंग्रेज दोनों शक्तियों को मिलने नहीं देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे। महाराजा रघुराजसिंह पर भी अंग्रेजों की कड़ी नजर थी।
ठाकुर रणमतसिंह रीवा और पन्ना के बीच का क्षेत्र बुंदेलों से मुक्त कराने में उभरकर सामने आए। जब 1857 की क्रांति समाप्त हो चुकी थी। महारानी लक्ष्मीबाई शहीद हो चुकी थी। सेना का रुख पूरब की तरफ कर दिया गया। 1858 में बांदा में एक सैन्य दल ठाकुर रणमत सिंह का पीछा करने लगा।
2000 रुपए का इनाम रखा गया
ठाकुर साहब पर 2000 रु. का इनाम घोषित किया गया। उन्होंने डभौरा के जमींदार रणजीत राय दीक्षित के गढ़ में शरण ली। वहां भी अंग्रेजी सेना ने हमला बोल दिया। वे विवश होकर सोहागपुर गए। वहां भी अंग्रेजों ने पीछा किया जब ठाकुर रणमतसिंह क्योटी की गढ़ी में छिपे हुए थे अंग्रेज सेना की एक टुकड़ी ने रीवा की सेना की सहायता से उन्हें घेर लिया। वे वहां से भाग निकलने में सफल हो गए।
रीवा के महाराज पर डाला गया दबाव
अंग्रेजों ने उनको पकड़ने के लिए अंतिम चाल चली। रीवा के महाराजा पर दबाव डाला गया। उन्होंने पत्र लिखकर ठाकुर रणमतसिंह को बुलवाया। महाराजा के बुलाने पर वे गुप्त मार्ग से राजमहल में प्रविष्ट हुए और महाराजा से भेंट की। महाराजा से भेंट होने पर उन्होंने आत्मसमर्पण का विकल्प रखा।
इसके बाद जब रणमतसिंह अपने मित्र विजय शंकर नाग के घर जलवा देवी मंदिर के तहखाने में विश्राम कर रहे थे, महाराजा के संकेत पर पोलिटिकल एजेंट को यह सूचना दी गई। रणमतसिंह गिरफ्तार कर लिए गए तथा आगरा जेल में 1859 में उन्हें फांसी चढ़ा दिया गया। ठाकुर रणमतसिंह के बलिदान की गाथा लोकगीतों में गाई जाती है।
-(27/06/2015)