कुछ समय से सरसों एवं अन्य खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ रही है । आखिरकार ऐसा क्यों हो रहा है?
लेकिन सर्वप्रथम यह विचार करने की आवश्यकता है कि सरकार को क्या सुनिश्चित करना चाहिए - उत्पादकों को अधिक लाभ मिले या उपभोक्ताओं को सस्ता उत्पाद मिले ? द्वितीय, किस बिंदु पर उत्पादकों और उपभोक्ताओं का हित एक हो सकता है?
अगर किसानों को सरसों के उत्पाद पे MSP से 25 प्रति शत अधिक दाम मिल रहा है, तो सरसों के तेल की कीमत कैसे कम रह सकती है?
फिर, सरकार ने पिछले वर्ष सरसों के तेल पे किसी प्रकार के खाद्य तेल के मिश्रण पर प्रतिबंध लगा दिया था। यद्यपि यह प्रतिबंध तीन माह में रद्द कर दिया गया था, लेकिन सरकार ने पुनः 8 जून से सरसों के तेल के साथ किसी अन्य खाद्य तेल के मिश्रण पर प्रतिबंध लगा दिया है। दूसरे शब्दों में, "शुद्ध" सरसो के तेल में 20% तेल पाम वृक्ष का होता था जिसे मलेशिया एवं इंडोनेशिया से आयात किया जाता है।
क्या हम सस्ते के चक्कर में मिलावटी तेल खाना चाहते है, वह भी उस देश का जो भारत का विरोध करता है; एक जिहादी को अपने यहाँ शरण दे रखी है?
अब कुछ तथ्य देखते है।
अप्रैल 2021 में भारतीय बंदरगाहों पर पाम तेल की औसत कीमत 1,173 डॉलर प्रति टन थी, जो एक साल पहले 599 डॉलर थी। यानि कि मिलावट वाले तेल का दाम भी दोगुना हो गया है।
पिछले वर्ष जून में सरसों बीज की मंडी में कीमत 46362 रुपये प्रति टन थी; आज 72500 रुपये है। सोया बीन 38208 रुपये बिका था; आज 72000 रुपये मिल रहा है। सूरजमुखी 47000 था; आज 68000 रुपये है।
पिछले वर्ष जून में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोया बीन का 442 डॉलर प्रति टन मिल रहा था; आज 820 डॉलर में बिक रहा है। सरसों 214 डॉलर था; आज 320 डॉलर प्रति टन है।
दूसरे शब्दों में, सभी जगह खाद्य तेल के उत्पादों में भारी उछाल है और हम चाहते है कि भारत में तेल सस्ता मिले।
लेकिन एक अन्य बिंदु पर भी विचार करना आवश्यक है।
आज हमारी प्रति व्यक्ति तेल की खपत लगभग 15-16 किलो प्रतिवर्ष है। इसका अर्थ है कि हमें लगभग 220-230 लाख टन की प्रति वर्ष आवश्यकता है। लेकिन भारत लगभग 80 लाख टन तेल का उत्पादन करता हैं। अतः हमें अपनी आवश्यकता की पूर्ती के लिए लगभग 130 लाख टन पाम आयल और कुछ सोया तेल का आयात करना पड़ता हैं।
तो क्या हम खाद्य तेल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकते है?
खाद्य विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले वर्षों में भारत में खाद्य तेल की खपत लगभग 20-21 किलो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पे स्थिर हो जायेगी। इसका अर्थ है कि हमें प्रति वर्ष लगभग 300 टन तेल की आवश्यकता होगी और उस लक्ष्य तक पहुंचने का कोई आसान रास्ता नहीं है।
इस कारण से तिलहन की कीमतों में उछाल आया हैं; सभी कीमतें एमएसपी से 15 से 25 प्रति शत अधिक हैं और किसानों के लिए यह अच्छी खबर है। लेकिन उपभोक्ताओं के लिए खराब।
भारत में पारंपरिक तिलहन का प्रति हेक्टेयर लगभग 300-500 किलो तेल का उत्पादन होता हैं, चाहे वह सरसों, मूंगफली, बिनौला, या चावल की भूसी हो; जबकि पाम वृक्ष प्रति हेक्टेयर लगभग 3.5-4 टन तेल का उत्पादन करता है। जलवायु के कारण भारत में केवल 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पे पाम वृक्ष उगाया जा सकता है। लेकिन तब भी हम केवल 80 लाख टन पाम तेल लाख उत्पादन कर पाएंगे। अन्य तिलहनों की तुलना में पाम ऑयल में बड़ा निवेश करना पड़ता है और लगभग आठ वर्ष के बाद लाभ मिलना शुरू होता है।
दूसरे शब्दों में, हमारा कुल तेल (पारम्परिक एवं पाम) उत्पादन केवल 160 लाख टन के आस-पास सिमट कर रह जाएगा, जबकि आवश्यकता 300 टन तेल की होगी।
यहीं पर कृषि सुधारो का महत्त्व पता चलता है। आज हम ऐसी फसलें (गेंहू, चावल, गन्ना) उगा रहे है जिनका उत्पाद आवश्यकता से कहीं अधिक है और जिनकी कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार से कहीं अधिक है। हालत यह है कि अगर हम आयात का गेंहू खाना शुरू कर दे, तो वह MSP के गेंहू से सस्ता पड़ेगा।
ऐसे में किसानो को अधिक तिलहन उगाने के लिए प्रोत्साहित करना पड़ेगा जिसे वे गेंहू, चावल, गन्ना से अपना ध्यान हटाए।
तिलहन की अधिक कीमत उसी दिशा में एक कदम है।
लेख के साथ तिलहन एवं तेल के दाम की लिस्ट लगी है।
अमित सिंघल जी...