हिन्दुस्तान का ताना-बाना प्रारंभ से ही विभिन्न जाति, धर्म, भाषाओं का रहा है। हम इतिहास के पन्नों को पलटे तो पाते है कि मनुस्मृति से कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का उदय हुआ था जिसके तहत् सभी अपना-अपना कार्य सुव्यवस्थित तरीके से कर रहे थे लेकिन‘‘अति सर्वत्र वर्जते’’ के साथ कुछ बुराई एवं भेद भी उत्पन्न हो गए, अन्याय एवं अत्याचार के विरूद्ध एक वर्ग लामबद्ध होना शुरू हुआ, जोकुछ हद तक सही भी था जिसके परिणाम स्वरूप सम्पन्न एवं विपन्न, ऊंची एवं नीची जातियों के बीच खाई बढ़ती गई।
दलित कौन? - आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े, दबे कुचले एवं उच्च वर्गों की नजरों में अछूतों का एक बड़ा वर्ग हिन्दु जाति में पनपा जिसे दलित शब्द से जाना गया। इनके विरूद्ध बढ़ते अमानवीय व्यवहार ने और भी विचलित कर दिया फिर शुरू हुआ दलित आंदोलन। दलित शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 19वीं सदी में प्रमुख समाजसेवी ज्योतिराव गोविंदराव फुले ने किया था। फुले ने दलितों के अधिकार के साथ शिक्षा की भी पैरवी की लेकिन, इसके समाज की मुख्यधारा में जोड़ने एवं कानूनी जामा पहनाने का कार्य सर्वप्रथम डॉ. भीमराव अम्बेडकर नेकिया। इसी समय बौद्ध धर्म के जरिये एक सामाजिक एवं राजनीतिक क्रांति लाने की भी पहल शुरू हुई। भारत में चार्वाक के बाद बुद्ध ही ऐसेपहले शख्स थे जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ न केवल आवाज उठाई बल्कि दास्ता की जंजीरों से मुक्त होने का भी दर्शन दिया।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने दलितों के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों के साथ दलितों को अलग प्रतिनिधित्व पृथक निर्वाचिका में भी स्थान मिलने की जोरदार न केवल वकालत की बल्कि इसके लिए आंदोलन भी चलाए बाद में महात्मा गांधी भी इनकेसमर्थन में कूद पड़े, गांधी ने दलितों के लिये हरिजन अर्थात् ईश्वर के बच्चे शब्द से संबोधित किया।
असली दलित कौन? - हिन्दु समाज के पारंपरिक समुदाय में चमड़े का काम, पाखाना साफ करने का काम, झाडू लगाने, सफाई करने, धुलाई करने में लगे होने के कारण हिन्दुओं के उच्च जातियों के सामाजिक कार्यों में भाग लेने पर प्रतिबंध था, जैसे स्कूल सार्वजनिक जलस्रोत, मंदिरों में प्रवेश वर्जित था एवं गांव के बाहर इनकी बस्ती रहती थी। इस प्रकार उच्च वर्गों द्वारा यह तिरस्कृत समूह बन गया था। दलित एवं इनके समान समूह भारत के अलावा नेपाल श्रीलंका, बांग्लादेश, जापान, कोरिया, सोमालिया आदि में देखन को मिलते है।
आरक्षण का आधार - हिन्दु समाज से अलग-थलग पड़े दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए एवं उनके उत्थान के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किये गए। विधि विशेषज्ञ एवं संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सच्चे अर्थों में दलितों के उत्थानके लिए दृढ़ संकल्पित थे ने केवल 10 वर्ष के लिये आरक्षण की बात कही ताकि ये वर्ग मुख्यधारा में आ स्वावलम्बी बन सके। समय सीमा इसलिए रखी ताकि ये लोग आरक्षण की वैशाखी के साथ कही जिंदगी भर के लिए अपाहिज न रहे, अकर्मण्ड न रहे एवं जाति, लिंग, धर्म, रंग,स्थान के आधार पर भेद न करने वाले संविधान की भी मर्यादा बनी रहे।
दलित आंदोलनों का इतिहास -
1882 में हंटर कमीशन के समक्ष महात्मा ज्योतिराव फुले ने सर्वप्रथम सभी के लिए
मुक्त एवं अनिवार्य शिक्षा की वकालत के साथ शासकीय नौकरी में आरक्षण की बात कही।
1891 टेªवनकोर राज्य में स्थानीय एवं बाहरी लोगों के आरक्षण की बात शुरू हुई।
1901 महाराष्ट्र की प्रिंसले स्टेट में कोल्हापुरे के साहू महाराज ने आरक्षण शुरू
किया, बड़ोदरा एवं मैसूर में पहले से ही लागू था।
1908- ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न जातियों एवं समुदायों के आरक्षण की बात कही।
1909 - भारत सरकार को एक्ट में प्रावधान की बात शुरू हुई।
1919 - भारत सरकार एक्ट में प्रावधान कर दिया गया।
1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातीय आधार पर 44 प्रतिशत गैर ब्राहृाण 16 प्रतिशत
ब्राहृाण, 16 प्रतिशत मुसलमान, 16 प्रतिशत एग्लो भारतीय, इसाई 8 प्रतिशत, अनुसूचित जाति का आरक्षण किया।
1932 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूना पेक्ट के तहत् दलितों के लिये पृथक से
संसदीय निर्वाचन क्षेत्र की मांग की।
1935 - भारत शासन एक्ट में प्रावधान किया गया।
1942 - डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने आल इंडिया दलित फेडरेशन का गठन कर
अनुसूचित जाति के लोगों को शासकीय नौकरियों एवं शिक्षा में आरक्षण की बात कही।
1946 - केबिनेट मिशन ने अनुपातिक प्रतिनिधित्व के अतिरिक्त भी अनुशंसाए की।
1947 - भारतीय संविधान कमेटी के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर बनाये गए।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत् धर्म, जाति, लिंग, स्थान के आधार पर भेद नहीं किया जायेगा, लेकिन अनुच्छेद 16 (4) में विशेषप्रावधान के तहत् सामाजिक एवं शैक्षणिक तौर से पिछड़े विशेषतः अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को 10 वर्ष के लिए आरक्षणकिया गया था।
1950 - 26 जनवरी को भारत का संविधान अस्तित्व में आया।
1995 - 77वंे संशोधन के साथ 16 (4) के तहत् अनुसूचित जाति एवं जनजाति को
प्रमोशन में भी आरक्षण की सुविधा शुरू हुई।
2005- 93वां संवैधानिक संशोधन के तहत् अशासकीय शिक्षण संस्थाओं में अनुसूचित जाति एवं
अनुसूचित जनजाति एवं पिछडे वर्ग के आरक्षण की बात कही आरक्षण को लेकर समय-समय पर कोर्ट में भी इस व्यवस्था को लेकर कई बारचुनौती दी गई।
1951 - अनुच्छेद 15 (1) को लेकर मद्रास शासन के विरूद्ध चंपाकाम दोराइरंजन ने ए.आई.आर.
1951 एस.सी. (226) के तहत् केस दायर किया, शासन ने अनुच्छेद 15 (4) में ही संशोधन कर दिया।
1963 - कोर्ट ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण न हो कहा (एम.आर.बालाजी सुप्रीम कोर्ट 649)
तमिलनाडु (69 प्रतिशत, 9वीं सूची के तहत् संशोधन) एवं राजस्थान (68 प्रतिशत) को छोड़ सभी राज्यों ने इसका पालन किया, 2005 मेंआन्ध्र प्रदेश में इस सीमा को पार करने की कोशिश की लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया।
1992 - आरक्षण को प्रमोशन में लागू नहीं किया जा सकता। शासन ने रोस्टर प्रणाली लागू की।
1994 - सुप्रीम कोर्ट ने पुनः तमिलनाडू को 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा को मानने को कहा।
2005 - भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 (5) में 93वां संवैधानिक संशोधन किया
इसमें प्रायवेट संस्थानों में लागू करने एवं क्रीमीलेयर को बढ़ाने की बात कही।
केन्द्र सरकार ने शैक्षणिक संस्थाओं में पूर्व में उपलब्ध आरक्षण 22.5 प्रतिशत में से 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं 7.5 प्रतिशत अनुसूचितजनजाति के अलावा पिछड़ा वर्ग का 27 प्रतिशत आरक्षण के साथ यह सीमा 49.5 प्रतिशत आरक्षण वर्तमान में पहुंच गया है।
2005 - पी. ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य ने 2005 में (सुप्रीम कोर्ट 3226)
कहा प्रायवेट, गैर अनुदान प्राप्त संस्थाओं पर आरक्षण को बलपूर्वक लागू नहीं किया जा सकता है।
क्या हो रहा है -
निःसंदेह ज्योतिराव फुले, गुरूघासीदास, रैदास, कबीरदास, रविदास, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, जगजीवनराम, पलवांकर बालू अपनी मेहनत,काबिलियत से समाज में पथप्रदर्शक रहे और उनका ध्येय केवल और केवल दलित उत्थान ही रहा, लेकिन समय बीतने के साथ अब ऐसाकोई भी नहीं है। अब सभी दलितों के हिमायती बन राजनीति कर दलितों को केवल मोहरा बना अपनी-’अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने मेंलगे हुए है। आज दलितों के सबसे बड़े दुश्मन ब्राहृाण नहीं बल्कि विगत् 60 वर्षों में तेजी से उभरता दलितों के मध्य एक अभिजात्य वर्ग होगया है जिसमें कलेक्टर, डॉक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर एवं ऊंचे पदों पर बैठे लोग है जो मुख्य धारा में कभी के आ चुके है और अब वास्तविकदलितों के हकों पर डाका डाल रहे है।
आज अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का एक सुविधा सम्पन्न वर्ग बन गया है इसीलिए आज सभी नैतिक एवंअनैतिक तरीके से फर्जी प्रमाण पत्रों के सहारे आसानी से शासकीय नौकरियां पा रहे है। वर्तमान में ऐसे लोगों की संख्या लगभग 400 केकरीब है जिनकी जांच लंबित है अब तो उच्च जातियों वाले सरनेम जैसे शर्मा, वर्मा, ठाकुर एवं सिंह भी लिखने लगे है।
कलेक्टर, डॉक्टर, इंजीनियर एवं अधिकारियों के बच्चों को अब आरक्षण की क्या आवश्यकता है। समाज की मुख्य धारा में आचुके है। अब ये लोग वास्तविक दलित बच्चों का हक मार रहे है इसके लिए अति दलितों को पुनः एक नया आंदोलन चला इन्हें आरक्षण केदायरे से बाहर करना होगा।
1. बाबा भीमराव अम्बेडकर की मंशानुसार 10 वर्ष के पश्चात् आरक्षण की स्थिति को रिव्यू किया जाना था जो नहीं किया गया आखिरकार क्यों ?
2. विगत् 60 वर्षों में 10 वष्र के अंतराल में कितने दलित मुख्य धारा में आए एवं कितने रह गए का रिव्यू क्यों नहीं किया गया?आखिर किसकी जवाबदेही बनती है। सूचना का अधिकार के तहत् केन्द्र एवं राज्य शासन से जनता पूछ सकती हैं?
क्या होना चाहिए-
1. डॉक्टर, कलेक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर एवं अन्य ऊँचे प्रशासनिक पदों पर बैठे लोगों को दलित आरक्षण से बाहर रखा जाए एवंदस्तावेज तैयार किया जावें।
2. मध्यमवर्गीय दलित एवं अति दलितों को चरणबद्ध तरीके से सुविधा प्रदान कर मुख्य धारा में लाने का टारगेट समय सीमा द्वारा दृढ़विश्वास के साथ निश्चित् करें एवं पालन न करने वालों को कड़ा दण्ड भी दिया जावें।
3. उस समय सीमा का भी सर्व सम्मति से निर्धारण हो जिसके तहत् आरक्षण को पूर्णतः समाप्त कर एक विकसित समाज का निर्माणहो जिसे समय-समय पर न्यायपालिका भी कहती रहती है।
4. विचारों में दृढ़ता एवं राजनीतिक स्वार्थ को परे रख स्वस्थ्य समाज के निर्माण में विकास के लिए सभी एक जुट हो न होने पर दण्ड का भी प्रावधान हो।