बुधवार, 31 दिसंबर 2014

अंग्रेजी नववर्ष के 12 महीनों के नामकरण क्यों और कैसे ।


जनवरी :
रोमन देवता 'जेनस' के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं. एक से वह आगे और दूसरे से पीछे देखता है. इसी तरह जनवरी के भी दो चेहरे हैं. एक से वह बीते हुए वर्ष को देखता है और दूसरे से अगले वर्ष को. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया. जेनस जो बाद में जेनुअरी बना जो हिन्दी में जनवरी हो गया.

फरवरी :
इस महीने का संबंध लैटिन के फैबरा से है. इसका अर्थ है 'शुद्धि की दावत' . पहले इसी माह में 15 तारीख को लोग शुद्धि की दावत दिया करते थे. कुछ लोग फरवरी नाम का संबंध रोम की एक देवी फेबरुएरिया से भी मानते हैं. जो संतानोत्पत्ति की देवी मानी गई है इसलिए महिलाएं इस महीने इस देवी की पूजा करती थीं तब यह साल का आखरी महीना था और इसमें ३० दिन होते थे अगस्त का महीना भी ३० दिनों का था लेकिन जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया. एक और विडम्बना इस महीने से जुडी है जब आगस्टस सीजर ने देखा की जुलाई में ३१ दिन है तो उसने इस माह को भी ३१ दिनों का कर दिया इसे ३१ दिनों का करने के लिए साल के आखरी महीने फैबरा से १ दिन छीन लिया .

मार्च :
रोमन देवता 'मार्स' के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ. रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता था. मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. सर्दियों का मौसम खत्म होने पर लोग शत्रु देश पर आक्रमण करते थे इसलिए इस महीने को मार्च रखा गया.

अप्रैल :
इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'एस्पेरायर' से हुई. इसका अर्थ है खुलना. रोम में इसी माह बसंत का आगमन होता था इसलिए शुरू में इस महीने का नाम एप्रिलिस रखा गया. इसके बाद वर्ष के केवल दस माह होने के कारण यह बसंत से काफी दूर होता चला गया. वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के सही भ्रमण की जानकारी से दुनिया को अवगत कराया तब वर्ष में दो महीने और जोड़कर एप्रिलिस का नाम पुनः सार्थक किया गया.

मई :
रोमन देवता मरकरी की माता 'मइया' के नाम पर मई नामकरण हुआ. मई का तात्पर्य 'बड़े-बुजुर्ग रईस' हैं. मई नाम की उत्पत्ति लैटिन के मेजोरेस से भी मानी जाती है.

जून :
इस महीने लोग शादी करके घर बसाते थे. इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ. एक अन्य मान्यता के मुताबिक रोम में सबसे बड़े देवता जीयस की पत्नी जूनो के नाम पर जून का नामकरण हुआ.

जुलाई :
राजा जूलियस सीजर का जन्म एवं मृत्यु दोनों जुलाई में हुई. इसलिए इस महीने का नाम जुलाई कर दिया गया.

अगस्त :
जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया.

सितंबर :
रोम में सितंबर सैप्टेंबर कहा जाता था. सेप्टैंबर में सेप्टै लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है सात और बर का अर्थ है वां यानी सेप्टैंबर का अर्थ सातवां, लेकिन बाद में यह नौवां महीना बन गया.

अक्टूबर :
इसे लैटिन 'आक्ट' (आठ) के आधार पर अक्टूबर या आठवां कहते थे, लेकिन दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्टूबर ही चलता रहा.

नवंबर :
नवंबर को लैटिन में पहले 'नोवेम्बर' यानी नौवां कहा गया. ग्यारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला एवं इसे नोवेम्बर से नवंबर कहा जाने लगा.

दिसंबर :
इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया. वर्ष का बारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला.

सितम्बर अक्तूबर नवम्बर व दिसम्बर महीनो से पता चलता है की वे क्रमशः सातवां ,आठवां ,नौवा व दसवां महीना थे जनवरी ग्यारहवां व फरवरी बारहवां महीना था और मार्च से नववर्ष शुरू होता था और दुनिया के अधिकाँश धर्म मार्च (चैत्र ) में अपना नववर्ष शुरू करते थे लेकिन रोमन कैथोलिक पादरियों द्वारा इसे ईसा मसीह का नामकरण (यीशु की सुन्नत से एक घटना है से जोड़ कर साल का पहला महीना कर दिया . जिसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है .और हम मुर्ख लोग उनका अनुकरण करने लगे . दुनिया के अधिकाँश देशो ने इसे १४वी शताब्दी के बाद इसे अपनाया है .
अब आप ही तय करे की क्या सच है

1 जनवरी को नए साल के रूप में मनाने की शुरुआत निम्नानुसार हैं:
देश प्रारंभ साल [19] [20]
यूक्रेन , लिथुआनिया , बेलारूस 1362
वेनिस 1522
स्वीडन 1529
पवित्र रोमन साम्राज्य (जर्मनी ~) 1544
स्पेन, पुर्तगाल, पोलैंड 1556
Prussia , डेनमार्क [21] और नॉर्वे 1559
फ़्रांस ( रूस्सिल्लॉन के फतवे ) 1564
दक्षिणी नीदरलैंड [22] 1576
लोरेन 1579
डच गणराज्य 1583
स्कॉटलैंड 1600
रूस 1700
Tuscany 1721
ब्रिटेन , आयरलैंड और
ब्रिटिश साम्राज्य
छोड़कर स्कॉटलैंड 1752
ग्रीस 1923
थाईलैंड 1941
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हिंदू (क्षेत्रवार) नववर्ष की कुछ दिलचप्स जानकारी

मित्रो जनवरी से नया साल क्यों शुरू नहीं करना चाहिए इसका मैं आपको ऐतिहासिक तथ्य बताने जा रहा हूँ कृपया पूरा लेख पढ़े फिर तय करे और अपने मित्रो को बताये ॥
"हिन्दू है हिन्दू ही रहेंगे, नव वर्ष की शुभकामनाएं गुढी पडवा को ही देंगे..!!!"

"हिंदू आहे हिंदूच राहणार, नवीन वर्षाच्या शुभेच्छा गुढीपाडव्यालाच देणार !!

विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में एक नहीं दो नहीं, बल्कि अनेक नववर्ष मनाए जाते हैं. यहां के अलग-अलग समुदायों के अपने-अपने नववर्ष हैं. अंग्रेजी कैलेंडर का नववर्ष एक जनवरी को शुरू होता है. इस दिन ईसा मसीह का नामकरण (यीशु की सुन्नत {सुन्नत या खतना से मतलब जननांग या लिंग की उपरी चमड़ी को काटना है लिंगमुंडच्छद } से एक घटना है जीवन के नासरत का यीशु के अनुसार ल्यूक के सुसमाचार, जो कविता में राज्यों 2:21 कि यीशु था खतना के आठ दिन बाद उसके जन्म (पारंपरिक रूप से 1 जनवरी). यह ध्यान में रखते हुए Halakha , यहूदी कानून है जो मानती है कि पुरुषों का खतना आठ दिन जन्म के बाद एक ब्रिट milah समारोह के दौरान, जिस पर वे भी कर रहे हैं उनके नाम दिया है. मसीह का खतना एक बहुत ही आम विषय बन गया ईसाई कला 10 वीं सदी के बाद, एक में कई घटनाओं के से मसीह के जीवन के लिए अक्सर कलाकारों द्वारा चित्रित किया. यह शुरू में बड़े चक्र में एक दृश्य के रूप में ही देखा गया था, लेकिन पुनर्जागरण द्वारा एक चित्रकला के लिए एक व्यक्ति के विषय के रूप में इलाज किया जा सकता है, या एक में मुख्य विषय के रूप में altarpiece.घटना के रूप में मनाया जाता है सुन्नत का पर्व में पूर्वी रूढ़िवादी चर्च 1 जनवरी में जो भी कैलेंडर (पुरानी या नई ) प्रयोग किया जाता है, और भी कई द्वारा एक ही दिन मनाया एंग्लिकन . यह मनाया जाता है रोमन कैथोलिक के रूप में यीशु के पवित्र नाम के पर्व , हाल के वर्षों में 3 जनवरी को एक के रूप में वैकल्पिक स्मारक, हालांकि यह लंबे समय के लिए 1 जनवरी को मनाया था, के रूप में कुछ अन्य चर्चों के अभी भी है. होने का दावा अवशेष का एक संख्या पवित्र लिंगमुंडच्छद ,चमड़ी यीशु के सामने है.) हुआ था. दुनियाभर में इसे धूमधाम से मनाया जाता है.
हिंदुओं का नववर्ष ही नहीं दुनिया के अधिकाँश धर्मो व सम्प्रदायों का भी नववर्ष चैत्र अर्थात मार्च से शुरू होता है .
बेबीलोन नव वर्ष के बाद पहली नई चंद्रमा के साथ शुरू हुआ वसंत विषुव. प्राचीन समारोह ग्यारह दिनों के लिए चली. [14]
नव (नया) वर्षा (वर्ष) भारत में विभिन्न क्षेत्रों में मार्च - अप्रैल में मनाया जाता है.
में नव वर्ष दिवस सिख Nanakshahi कैलेंडर में 14 मार्च को है .

ईरानी नव वर्ष ,
बुलाया Nowruz युक्त दिन का सही समय वसंत विषुव , जो आमतौर पर 20 या 21 मार्च को होता है, वसंत के मौसम के शुरू शुरू . पारसीनव वर्ष के साथ मेल खाता ईरानी नव वर्ष Nowruz है, और द्वारा मनाया पारसी भारत में और दुनिया भर में पारसी और फारसियों द्वारा . बहाई कैलेंडर , नया साल 21 मार्च को वसंत विषुव पर होता है, बहाई धर्म में नया वर्ष ‘नवरोज’ हर वर्ष 21 मार्च को शुरू होता है. बहाई समुदाय के ज्यादातर लोग नव वर्ष के आगमन पर 2 से 20 मार्च अर्थात् एक महीने तक व्रत रखते हैं. और कहा जाता है Naw Rúz . ईरानी परंपरा Kazakhs उज़बेक, और Uighurs सहित मध्य एशियाई देशों के लिए भी किया गया था पर पारित किया है, और वहाँ के रूप में जाना जाता है Nauryz. यह आमतौर पर 22 मार्च को मनाया जाता है.


बाली नया साल, शक कैलेंडर (कैलेंडर बाली - जावानीस) पर आधारित है, कहा जाता है Nyepi, और यह बाली के चंद्र नव वर्ष पर बदल जाता है (मार्च 26 , 2009). यह चुप्पी के एक दिन है, उपवास, और ध्यान: 6 बजे से मनाया जब तक 6 अगली सुबह हूँ, Nyepi एक दिन आत्म प्रतिबिंब के लिए आरक्षित है और जैसे, कुछ भी है कि उस उद्देश्य के साथ हस्तक्षेप कर सकता है  प्रतिबंधित है. हालांकि Nyepi एक मुख्य रूप से हिंदू छुट्टी, बाली की गैर - हिंदू निवासियों चुप्पी के दिन के रूप में अच्छी तरह से अपने साथी नागरिकों के लिए सम्मान के बाहर, निरीक्षण. यहां तक कि पर्यटकों को मुक्त नहीं कर रहे हैं, मुक्त करने के लिए कर के रूप में वे अपने होटल के अंदर इच्छा हालांकि, कोई भी समुद्र तटों या सड़कों पर अनुमति दी है, और बाली में केवल हवाई अड्डे पूरे दिन के लिए बंद रहता है. केवल दी अपवाद आपातकालीन जीवन धमकी स्थितियों और महिलाओं के साथ उन लोगों को ले जाने के बारे में जन्म देने के लिए वाहनों के लिए कर रहे हैं
तेलुगु नव वर्ष आम तौर पर मार्च या अप्रैल के महीने में बदल जाता है. के लोगों को आंध्र प्रदेश , भारत इन महीनों में नव वर्ष दिवस के आगमन का जश्न मनाने. इस दिन पूरे आंध्र प्रदेश भर में उगादि (जिसका अर्थ है एक नए वर्ष के शुरू) के रूप में मनाया जाता है. पहले महीने चैत्र Masam है. Masam महीने का मतलब है.

कश्मीरी कैलेंडर, Navreh (नव वर्ष): 5083 Saptarshi/2064 ई. Vikrami/2007-08, 19 मार्च. कश्मीरी ब्राह्मणों के इस पवित्र दिन कई सदियों के लिए मनाया गया.गुडी Padwa के पहले दिन के रूप में मनाया जाता है हिंदू वर्ष महाराष्ट्र , भारत के लोगों द्वारा. इस दिन मार्च या अप्रैल में बदल जाता है और के साथ मेल खाता है उगादि .उगादि , कन्नड़ नव वर्ष के लोगों द्वारा मनाया जाता है नए साल की शुरुआत के रूप में कर्नाटक, भारत के अनुसार हिंदू कैलेंडर है. नव वर्ष के पहले महीने चैत्र.

सिन्धी का त्योहार चेती चांद एक ही दिन मनाया जाता है के रूप में उगादि / गुड़ी Padwa सिन्धी नव वर्ष के उत्सव के निशान. Thelemic नया साल 20 मार्च को आमतौर पर एक मंगलाचरण के साथ मनाया जाता है रा हूर - Khuit की शुरुआत के उपलक्ष्य में नई कल्प 1904 में. यह भी बाईस दिन Thelemic पवित्र मौसम है, जो के लेखन के तीसरे दिन पर समाप्त होता है है की शुरुआत के निशान कानून की पुस्तक है. इस तिथि को भी सुप्रीम अनुष्ठान के पर्व के रूप में जाना जाता है. कुछ का मानना है कि Thelemic नव वर्ष 19 या तो 20 या 21 मार्च को गिरता है, वसंत विषुव के आधार पर कर रहे हैं, यह परमेश्वर है जो प्रत्येक वर्ष के वसंत विषुव पर आयोजित किया जाता है की स्थापना को मनाने के विषुव के लिए पर्व है 1904 में Thelema.1904 में वसंत विषुव 21 पर था और यह दिन था Aleister Crowley के बाद अपने Horus प्रार्थना है कि नए कल्प और Thelemic नव वर्ष पर लाया समाप्त हो गया नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा में पहले नवरात्र से शुरू होता है. इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी. गुजराती 9 नवंबर को नववर्ष ‘बस्तु वरस’ मनाते हैं.

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

हिन्दू सब्द अरबी लुटेरो का दिया हुआ नहीं है ।


जब भी हिन्दू सब्द की चर्चा होती है तो कथित बुद्धिजीवी यही कहता है की ''सिंधु से हिन्दू'' हुआ ,  अरबी लुटेरे ''स''  हो ''ह'' कहते थे इस लिए सिंधु को हिन्दू कहने लगे । दरअसल अरबी लुटेरे जब सिंधु नदी को पार किया तो इसे ''सिंधुस्तान'' कहा जो उच्चारण में ''हिन्दुस्तान'' हो गया जबकि ये गलत है ।
हिन्दू सब्द का उल्लेख वेद और पुराणो में पहले से ही  मौजूद है ।

1-ऋग्वेद के ब्रहस्पति अग्यम में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार आया है......
"हिमलयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं ।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।
(अर्थात
हिमालय से इंदु सरोवर तक देव निर्मित देश को हिंदुस्तान कहते हैं )

2- सिर्फ वेद ही नहीं......बल्कि..मेरूतंत्र ( शैव ग्रन्थ ) में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया है.....
"हीनं च दूष्यतेव् हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये।"
( अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं )

3- और इससे मिलता जुलता लगभग यही यही श्लोक कल्पद्रुम में भी दोहराया गया है.......
" हीनं दुष्यति इति हिन्दू ।"
( अर्थात जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते है। )

4- पारिजात हरण में हिन्दू को कुछ इस प्रकार कहा गया है....
" हिनस्ति तपसा पापां दैहिकां दुष्टं ।
हेतिभिः श्त्रुवर्गं च स हिन्दुर्भिधियते ।।"
(अर्थात जो अपने तप से शत्रुओं का दुष्टों का और पाप का नाश कर देता है वही हिन्दू है )

5- माधव दिग्विजय में भी हिन्दू शब्द को कुछ इस प्रकार उल्लेखित किया गया है........
"ओंकारमन्त्रमूलाढ्य पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य:।
गौभक्तो भारतगरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः ।।
( अर्थात.... वो जो ओमकार को ईश्वरीय धुन माने कर्मों पर विश्वास करे,
गौपालक रहे तथा बुराईयों को दूर रखे वो हिन्दू है )

6- केवल इतना ही नहीं हमारे ऋगवेद ( ८:२:४१ ) में विवहिन्दू नाम के बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा का वर्णन मिलता है जिन्होंने 46000 गौमाता दान में दी थी...........
और ऋग्वेद मंडल में भी उनका वर्णन मिलता है।

7- ऋग वेद में एक ऋषि का उल्लेख मिलता है जिनका नाम सैन्धव था जो मध्यकाल में आगे चलकर "हैन्दव/हिन्दव" नाम से प्रचलित हुए ... जिसका बाद में अपभ्रंश होकर हिन्दू बन गया।....!!

8- इसके अतिरिक्त भी कई स्थानों में हिन्दू शब्द उल्लेखित है.......।।।

क्या हनुमान जी वाकई में बन्दर थे?




वाल्मीकि रामायण में मर्यादा पुरुषोतम श्री राम चन्द्र जी महाराज  के पश्चात परम बलशाली वीर शिरोमणि हनुमान जी का नाम स्मरण किया जाता हैं। हनुमान जी का जब हम चित्र देखते हैं तो उसमें उन्हें एक बन्दर के रूप में चित्रित किया गया हैं जिनके पूंछ भी हैं। हमारे मन में प्रश्न भी उठते हैं की

क्या वाकई हनुमान जी बन्दर थे?

क्या वाकई में उनकी पूंछ थी ?

इस प्रश्न का उत्तर इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्यूंकि अज्ञानी लोग वीर हनुमान का नाम लेकर परिहास करने का असफल प्रयास करते रहते हैं।

आईये इन प्रश्नों का उत्तर वाल्मीकि रामायण से ही प्राप्त करते हैं सर्वप्रथम “वानर” शब्द पर विचार करते हैं। सामान्य रूप से हम “वानर” शब्द से यह अभिप्रेत कर लेते हैं की वानर का अर्थ होता हैं बन्दर परन्तु अगर इस शब्द का विश्लेषण करे तो वानर शब्द का अर्थ होता हैं वन में उत्पन्न होने वाले अन्न को ग्रहण करने वाला। जैसे पर्वत अर्थात गिरि में रहने वाले और वहाँ का अन्न ग्रहण करने वाले को गिरिजन कहते हैं उसी प्रकार वन में रहने वाले को वानर कहते हैं। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति , प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।

सुग्रीव, बालि आदि का जो चित्र हम देखते हैं उसमें उनकी पूंछ दिखाई देती हैं, परन्तु उनकी स्त्रियों के कोई पूंछ नहीं होती?

नर-मादा का ऐसा भेद संसार में किसी भी वर्ग में देखने को नहीं मिलता। इसलिए यह स्पष्ट होता हैं की हनुमान आदि के पूंछ होना केवल एक चित्रकार की कल्पना मात्र हैं।

किष्किन्धा कांड (3/28-32) में जब श्री रामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान से भेंट हुई तब दोनों में परस्पर बातचीत के पश्चात रामचंद्र जी लक्ष्मण से बोले

न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ यजुर्वेद धारिणः | न अ-साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम् || ४-३-२८

“ऋग्वेद के अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं हैं तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होनें सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया हैं, क्यूंकि इतने समय तक बोलने में इन्होनें किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया हैं। संस्कार संपन्न, शास्त्रीय पद्यति से उच्चारण की हुई इनकी वाणी ह्रदय को हर्षित कर देती हैं”।
 

सुंदर कांड (30/18,20) में जब हनुमान अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच में बैठी हुई सीता जी को अपना परिचय देने से पहले हनुमान जी सोचते हैं

“यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझकर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरंभ कर देगी। इसलिए मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा।”

इस प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की हनुमान जी चारों वेद ,व्याकरण और संस्कृत सहित अनेक भाषायों के ज्ञाता भी थे।

हनुमान जी के अतिरिक्त अन्य वानर जैसे की बालि पुत्र अंगद का भी वर्णन वाल्मीकि रामायण में संसार के श्रेष्ठ महापुरुष के रूप में किष्किन्धा कांड 54/2 में हुआ हैं

हनुमान बालि पुत्र अंगद को अष्टांग बुद्धि से सम्पन्न, चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे।

बुद्धि के यह आठ अंग हैं- सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक ठीक समझना, विज्ञान व तत्वज्ञान।

चार प्रकार के बल हैं- साम , दाम, दंड और भेद

राजनीति के चौदह गुण हैं- देशकाल का ज्ञान, दृढ़ता, कष्टसहिष्णुता, सर्वविज्ञानता, दक्षता, उत्साह, मंत्रगुप्ति, एकवाक्यता, शूरता, भक्तिज्ञान, कृतज्ञता, शरणागत वत्सलता, अधर्म के प्रति क्रोध और गंभीरता।

भला इतने गुणों से सुशोभित अंगद बन्दर कहाँ से हो सकता हैं?

अंगद की माता तारा के विषय में मरते समय किष्किन्धा कांड 16/12 में बालि ने कहा था की

“सुषेन की पुत्री यह तारा सूक्षम विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिन्हों को समझने में सर्वथा निपुण हैं। जिस कार्य को यह अच्छा बताए, उसे नि:संग होकर करना। तारा की किसी सम्मति का परिणाम अन्यथा नहीं होता।”

किष्किन्धा कांड (25/30) में बालि के अंतिम संस्कार के समय सुग्रीव ने आज्ञा दी – मेरे ज्येष्ठ बन्धु आर्य का संस्कार राजकीय नियन के अनुसार शास्त्र अनुकूल किया जाये।

किष्किन्धा कांड (26/10) में सुग्रीव का राजतिलक हवन और मन्त्रादि के साथ विद्वानों ने किया।

जहाँ तक जटायु का प्रश्न हैं वह गिद्ध नामक पक्षी नहीं था। जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षस पति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं सन्दर्भ-अरण्यक 49/38

जटायो पश्य मम आर्य ह्रियमाणम् अनाथ वत् | अनेन राक्षसेद्रेण करुणम् पाप कर्मणा || ४९-३८

कथम् तत् चन्द्र संकाशम् मुखम् आसीत् मनोहरम् | सीतया कानि च उक्तानि तस्मिन् काले द्विजोत्तम || ६८-६

यहाँ जटायु को आर्य और द्विज कहा गया हैं। यह शब्द किसी पशु-पक्षी के सम्बोधन में नहीं कहे जाते। रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा -मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं सन्दर्भ -अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)

यह भी निश्चित हैं की पशु-पक्षी किसी राज्य का राजा नहीं हो सकते। इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की जटायु पक्षी नहीं था अपितु एक मनुष्य था जो अपनी वृद्धावस्था में जंगल में वास कर रहा था।

जहाँ तक जाम्बवान (जामवंत) के रीछ होने का प्रश्न हैं। जब युद्ध में राम-लक्ष्मण मेघनाद के ब्रहमास्त्र से घायल हो गए थे तब

किसी को भी उस संकट से बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा था। तब विभीषण और हनुमान जाम्बवान के पास गये तब जाम्बवान ने हनुमान को हिमालय जाकर ऋषभ नामक पर्वत और कैलाश नामक पर्वत से संजीवनी नामक औषधि लाने को कहा था। सन्दर्भ युद्ध कांड सर्ग 74/31-34

आपत काल में बुद्धिमान और विद्वान जनों से संकट का हल पूछा जाता हैं और युद्ध जैसे काल में ऐसा निर्णय किसी अत्यंत बुद्धिवान और विचारवान व्यक्ति से पूछा जाता हैं। पशु-पक्षी आदि से ऐसे संकट काल में उपाय पूछना सर्वप्रथम तो संभव ही नहीं हैं दूसरे बुद्धि से परे की बात हैं।

इन सब वर्णन और विवरणों को बुद्धि पूर्वक पढने के पश्चात कौन मान सकता हैं की हनुमान, बालि , सुग्रीव आदि विद्वान एवं बुद्धिमान मनुष्य न होकर बन्दर आदि थे।

यह केवल मात्र एक कल्पना हैं और अपने श्रेष्ठ महापुरुषों के विषय में असत्य कथन हैं।

अन्य प्रमाण ==

१- हनुमान जी की माता जी का नाम 'अंजनी' था. और पिता जी का नाम 'पवन' था. ये दोनों मनुष्य थे या बन्दर ? यदि ये दोनों मनुष्य थे. तो क्या मनुष्यों के मनुष्य पैदा होते हैं या बन्दर ? यदि बन्दर पैदा नहीं होते, तो विचार करें, कि जब हनुमान जी के माता पिता मनुष्य थे, तो उनका बेटा श्री हनुमान जी भी तो मनुष्य सिद्ध हुआ.

२- यदि कोई छोटा बच्चा कहीं पर भीड़ में खो जाये, तो एक बन्दर से कहो, कि वह उस बच्चे का फोटो देख कर भीड़ में से उस बच्चे को पहचान कर ले आये. अब सोचिये क्या वह बन्दर भीड़ में से बच्चे को पहचान कर ले आयेगा. यदि नहीं. तो क्या हनुमान जी सीता जी को लंका से ढूंढ कर उनकी खबर ले आये या नहीं. यदि उनकी खबर ढूंढ लाये, तो अब बताइये, बन्दर तो यह काम नहीं कर सकता.

३- आपने रामायण सीरिअल में बाली, सुग्रीव और उनकी पत्नियाँ तो देखी ही होंगी. उस सीरिअल में बाली और सुग्रीव तो बन्दर दिखाए गए.परन्तु उनकी पत्नियाँ मनुष्यों वाली स्त्रियाँ दिखाई गईं या बंदरियां दिखाईं. यदि उनकी पत्नियाँ मनुष्य जाति की थी. तो उनके पति भी मनुष्य होने चाहियें. अर्थात बाली और सुग्रीव भी मनुष्य दिखने चाहिए थे. परन्तु वे दोनों बन्दर दिखाए गए.यदि वे बन्दर थे, तो सोचिये क्या मनुष्यों की स्त्रियों की शादी बंदरों के साथ होती है ? या आजकल भी कोई मनुष्य स्त्रियाँ बंदरों के साथ शादी करने को तैयार हैं ? यदि उनकी पत्नियाँ मनुष्य थीं, तो उनके पति = बाली और सुग्रीव भी मनुष्य ही सिद्ध हुए. और श्री हनुमान जी उनके महामंत्री थे. वे भी उसी जाति के थे. तो श्री हनुमान जी भी मनुष्य सिद्ध हुए.

२- यदि कोई छोटा बच्चा कहीं पर भीड़ में खो जाये, तो एक बन्दर से कहो, कि वह उस बच्चे का फोटो देख कर भीड़ में से उस बच्चे को पहचान कर ले आये. अब सोचिये क्या वह बन्दर भीड़ में से बच्चे को पहचान कर ले आयेगा. यदि नहीं. तो क्या हनुमान जी सीता जी को लंका से ढूंढ कर उनकी खबर ले आये या नहीं. यदि उनकी खबर ढूंढ लाये, तो अब बताइये, बन्दर तो यह काम नहीं कर सकता.

३- आपने रामायण सीरिअल में बाली, सुग्रीव और उनकी पत्नियाँ तो देखी ही होंगी. उस सीरिअल में बाली और सुग्रीव तो बन्दर दिखाए गए.परन्तु उनकी पत्नियाँ मनुष्यों वाली स्त्रियाँ दिखाई गईं या बंदरियां दिखाईं. यदि उनकी पत्नियाँ मनुष्य जाति की थी. तो उनके पति भी मनुष्य होने चाहियें. अर्थात बाली और सुग्रीव भी मनुष्य दिखने चाहिए थे. परन्तु वे दोनों बन्दर दिखाए गए.यदि वे बन्दर थे, तो सोचिये क्या मनुष्यों की स्त्रियों की शादी बंदरों के साथ होती है ? या आजकल भी कोई मनुष्य स्त्रियाँ बंदरों के साथ शादी करने को तैयार हैं ? यदि उनकी पत्नियाँ मनुष्य थीं, तो उनके पति = बाली और सुग्रीव भी मनुष्य ही सिद्ध हुए. और श्री हनुमान जी उनके महामंत्री थे. वे भी उसी जाति के थे. तो श्री हनुमान जी भी मनुष्य सिद्ध हुए.

४- वाल्मीकि रामायण में श्री हनुमान जी की योग्यता लिखी है, कि वे ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विद्वान थे. तथा संस्कृत व्याकरण शास्त्र में बहुत कुशल थे. सोचिये, क्या बन्दर ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तथा संस्कृत व्याकरण पढ़ सकता है ? यदि नहीं, तो बताइये, श्री हनुमान जी बन्दर कैसे हुए ?

५- हनुमान चालीसा के प्रारंभ में चौथे/पांचवें वाक्य में लिखा है, कि " काँधे मूंज जनेऊ साजे, हाथ बज्र और धजा बिराजे " अर्थात श्री हनुमान जी के कंधे पर मूंज की जनेऊ अर्थात यज्ञोपवीत सुशोभित होता था. उनके एक हाथ में वज्र (गदा) और दूसरे हाथ में ध्वज रहता था. अब सोचिये हनुमान चालीसा बहुत लोग पढ़ते हैं. फिर भी इस बात पर ध्यान नहीं देते, कि क्या बन्दर के कंधे पर मूंज की जनेऊ हो सकती है. क्या बन्दर के एक हाथ में गदा और दूसरे हाथ में ध्वज होता है. यदि नहीं, तो श्री हनुमान जी बन्दर कैसे हुए ?

मेरा सभी महानुभावों से विनम्र अनुरोध है, कृपया गुस्सा न करें और ठंडे दिल - दिमाग से सोचें. कि वेदों के महान विद्वान, महाबलवान, ब्रह्मचारी, तपस्वी श्री हनुमान जी को बन्दर बना कर उनका अपमान न करें, और पाप के भागी न बनें.

आदित्य ब्रह्मचारी, परम बलवान, चतुर और बुद्धिमान, श्री रामचंद्र जी के परम मित्र और सहायक , वेदों और व्याकरण के पंडित, अंजनी पुत्र श्री हनुमान ..... बन्दर नहीं थे. वे वेदों के बड़े विद्वान्, बलवान, ब्रह्मचारी और तपस्वी थे.

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

श्री राम जन्मभूमि अभी और कितना बलिदान लेगी ?

जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी।  महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये  । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम  भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने  लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी  महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा।  जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी,  हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर  ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचारकिया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे  धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।
जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस  समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार  क्षेत्र में थी ।   महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास

सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द  मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस  का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने  निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय की और तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के
अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े
हो गए। जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए. जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर की सेना के ४ लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे। रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया ।
मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल
किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ । इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के
66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया.. इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में लिखता है की " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी। "उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया॥ देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से
कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते हैं ..अप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥


देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार ५ दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपने पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया। इसी बीच मीरबाँकी ने छिपकर गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय  को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर गति को प्राप्त हुए..जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। देवीदीन पाण्डेय के वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद हैं॥ पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ मीरबाँकी की विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया । 10 दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा।रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह की पत्नी थी।जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये। १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया। लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी।रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद यद्ध का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव गांव में घूम कररामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी..जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे।उस समय का मुग़ल शासक अकबर था। शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी.. अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया. लगातार युद्ध करते रहने के कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु हो गयी .. इस प्रकार बार-बार के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास की अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा। यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा।फिर औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे
मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला। औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने
जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।


ठाकुर गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय सिर पर पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते, उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे।1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे
चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे । जब जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया । चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी । जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर भेजा और साथ मे ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस आना है ,यह समय सन् 1680 का था । बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के माध्यम संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल अयोध्या आ गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ब्रहमकुंड वही जगह जहां आजकल गुरुगोविंद सिंह की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है। बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एकसाथ रणभूमि में कूद पड़े ।इन वीरों कें सुनियोजित हमलों से मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक उसने अयोध्या पर हमला करने की हिम्मत नहीं की।औरंगजेब ने सन् 1664 मे एक बार फिर श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं की हत्या कर दी नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने उसमे फेककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध है,और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था । औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी.नबाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें अयोध्या में गिरती रहीं।लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की “ लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी। “लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62” नासिरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये। परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी ,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दुओं और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । इस संग्राम मे  ती हंसवर,,मकरही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ मिली और इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये और उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार डाला गया। जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा।नावाब वाजिदअली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा "इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया।मगर हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुचाई। अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था । इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था।
हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस
बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे
पुनः रामलला की स्थापना की गयी। कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी।सन 1857 की क्रांति मे बहादुर
शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर 18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ मे दोनों को एक साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया । जब अंग्रेज़ो ने ये देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़ को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया... इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण रामजन्मभूमि के उद्धार का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया ...


अन्तिम बलिदान ... ३० अक्टूबर १९९० को हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के लालची मुलायम सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया। लेकिन २ नवम्बर १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। सरकार ने मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था। ४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस्तीफा दिया। लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर के सेनापति द्वार बनाए गए अपमान के प्रतीक मस्जिदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया।परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठनहीनता एवं नपुंसकता के कारण आज भी हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे हुए तम्बू में विराजमान हैं। जिस जन्मभूमि के उद्धार के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना रक्त पानी की तरह बहाया। आज वही हिन्दू बेशर्मी से इसे "एक विवादित स्थल" कहता है।सदियों से हिन्दुओं के साथ रहने वाले मुसलमानों ने आज भी जन्मभूमि पर अपना दावा नहीं छोड़ा है। वो यहाँ किसी भी हाल में मन्दिर नहीं बनने देना चाहते हैं ताकि हिन्दू हमेशा कुढ़ता रहे और उन्हें नीचा दिखाया जा सके।
जिस कौम ने अपने ही भाईयों की भावना को नहीं समझा वो सोचते हैं हिन्दू उनकी भावनाओं को समझे। आज तक किसी भी मुस्लिम संगठन ने जन्मभूमि के उद्धार के लिए आवाज नहीं उठायी, प्रदर्शन नहीं किया और सरकार पर दबाव नहीं बनाया आज भी वे बाबरी-विध्वंस की तारीख 6 दिसम्बर को काला दिन मानते हैं। और मूर्ख हिन्दू समझता है कि राम जन्मभूमि राजनीतिज्ञों और मुकदमों के कारण उलझा हुआ है। 


ये लेख पढ़कर जिन हिन्दुओं को शर्म नहीं आयी वो कृपया अपने घरों में राम का नाम ना लें...अपने रिश्तेदारों से कह दें कि उनके मरने के बाद कोई "राम नाम" का नारा भी नहीं लगाएं। विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता एक दिन श्रीराम जन्मभूमि का उद्धार कर वहाँ मन्दिर अवश्य बनाएंगे। चाहे अभी और कितना ही बलिदान क्यों ना देना पड़े। जय श्री राम..जय श्री राम...जय श्री राम...जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम.जय श्री राम...................

''हिन्दुओ सर्म करो चुल्लू भर पानी में डूब मरो'' रामलला टेंट और आप महलो में ?

बुधवार, 26 नवंबर 2014

दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुब मीनार का सच

क्या आप जानते हैं कि  आजकल दिल्ली में हम जिसे  कुतुबमीनार कहते हैं और  उसे लूले कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया समझते हैं  दरअसल वह  महाराजा विक्रमादित्य के राज्यकाल में राजा विक्रमादित्य द्वारा बनवाया गया "हिन्दू नक्षत्र निरीक्षण केंद्र"  है  जिसका असली नाम ''ध्रुव स्तम्भ" है परन्तु   प्राचीन इतिहासकारों द्वारा मूर्खतावश  और, आधुनिक काल में "मुस्लिम तुष्टिकरण हेतु"  कुतुबमीनार को  उस लूले कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया . कहा जाता है.  प्राचीन इतिहासकारों द्वारा . बिना तथ्यों की जानकारी जुटाए ही   कतिपय नामों की समानता के कारण  ऐसा मान लिया गया कि  कुतुबमीनार  कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया है | 

यह बहुत कुछ इसी प्रकार की मूर्खता है  जैसे कि  कोई यह कहना शुरू कर दे कि .. आर्यभट्ट नामक उपग्रह आर्यभट्ट ने ही भेजा था अथवा   सभी शहरों में मौजूद  MG ROAD (महात्मा गाँधी रोड ).  महात्मा गाँधी ने बनवाया था 
जहाँ तक. . उस लूले गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक की बात है तो..... वो लुटेरा और जेहादी गोरी का गुलाम था.... और, वो गोरी के साथ ही भारत में जिहाद चलाने आया था  जिसे बाद में भारत का प्रभारी बना कर ...स्थायी तौर पर भारत में जिहाद चलाने की अनुमति दे दी गयी थी  जिस दौरान उसने  भारत में सिर्फ लूट-पाट मचाई और.. मंदिरों को तोडा हुआ दरअसल ये था कि  जब वो लूला कुतुबुद्दीन  . जिहाद करते करते दिल्ली पहुंचा तो  वहां इतना बड़ा और खुबसूरत स्तम्भ देखकर  उस लूले का मुंह खुला का खुला रह गया.  और, उसने अपने साथियों से पूछा कि  . ये क्या है. ?

इस पर  उस लूले को अरबी में बताया गया ( क्योंकि, उस लूले को निपट मूर्ख होने के कारण हिंदी नहीं आती थी ) कि  हुजुर  ये  "क़ुतुब मीनार"  अर्थात , उत्तरी धुव का निरीक्षण केंद्र है  बस यहीं से  वो लूला और उसके उज्जड साथी इसे   क़ुतुबमीनार- कुतुबमीनार कहने लगे उस पर भी उस लूले कुतुबुद्दीन ऐबक ने ये बात खुद से कहीं भी नहीं कहा है कि  कुतुबमीनार उसने बनवाया है  लेकिन  उसने ये जरुर कबूल किया है कि  उसने इस स्तम्भ के चारों और बनी 27 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया है !

लेकिन  बाद के इतिहासकारों ने नामों में समानता देख कर   बिना कुछ सोचे समझे ही ये नतीजा निकल लिया कि  इस कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक ने ही बनवाया होगा

अब अगर  इतिहासकारों की बातों को छीलना शुरू किया जाए तो . सबसे पहला प्रश्न यही है कि

अगर उस लूले कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई तो कब क्योंकि कुतुबुद्दीन तो मात्र 4 साल ही भारत में जिहाद कर पाया था और क्या कुतुबुद्दीन ने अपने निहायत ही छोटे राज्यकाल (1206 से 1210 ) मेंइतने बड़े मीनार का निर्माण करा सकता था जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करने में बिताये.और, 1210 में भी मरने के पहले भी वह लाहौर में था ?
फिर भी कुछ लोग अपनी थेथारोलोजी का इस्तेमाल करते हुए बोलते हैं कि लूले ने इसे 1193 AD में बनाना शुरू किया और कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं .. जबकि, उसके ऊपर के तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई और  उसके ऊपर की शेष मंजिलें बाद में बनी यदि उनकी ही बातों को माना जाए तो.अगर 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम "बादशाह गोरी " के नाम पर "गोरी मीनार", या "गजनी मीनार " ऐसा ही कुछ होता  या कि  एक "लूले गुलाम कुतुबुद्दीन" के नाम पर .क़ुतुब मीनार....????

अब कुछ लोगों ने ये भी कहना शुरू कर दिया है कि  ऐबक ने नमाज़ समय अजान देने केलिए यह मीनार बनवाई थी  तो क्या उतनी ऊंचाई से किसी की आवाज़ नीचे तक आ भी सकती है ?

असल में सच तो यह है कि  जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है .  उसे मेहरौली कहा जाता है  और यह मेहरौली  .वराहमिहिर के नाम पर बसाया गया था .जो सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक और  एक बहुत बड़े खगोलशास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ थे  उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों के अध्ययन के लिए 27 कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था . और .इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्मकारीगरी के साथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयीं थीं जो नष्ट किये जाने के बाद भी कहीं कहीं दिख ही जाती हैं... ( चित्र संलग्न )

इसका दूसरा सबसे बड़ा प्रमाण  उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ है .जिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख .जिसमे लिखा है कि  यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है  सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं ) द्वारा स्थापित किया गया था  और, यह लौहस्तम्भ आज भी विज्ञान के लिए आश्चर्य की बात है   क्योंकि.  आज तक इसमें जंग नहीं लगा उसी महान सम्राट के दरबार में महान गणितज्ञ आर्य भट्ट .खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ वराह मिहिर .वैद्य राजब्रम्हगुप्त आदि हुए
तो ये बहुत ही सामान्य ज्ञान कि बात है कि ऐसे प्रतापी राजा के राज्य काल  जिसमे लौह स्तम्भ स्थापित हुआ   तो क्या जंगल में बिना कारण के सिर्फ अकेला स्तम्भ बना दिया गया होगा.
सोचो हिन्दुओं आपके साथ क्या खेल खेला जा रहा है.?  कि  विध्वंसक को ही आपका निर्माता बना कर प्रस्तुत किया जा रहा है
क्या . तुष्टिकरण का इस से भी ज्यादा घिनौना खेल  दुनिया के किसी भाग में खेला जा सकता है  ??

जागो हिन्दुओं  और, पहचानो अपने आपको   अन्यथा अभी तक तुम्हारा तो सिर्फ ऐतिहासिक धरोहर ही लूटा गया है . कल तुम्हारे घर को लूटने की तैयारी है  !
विश्वप्रसिद्ध स्तंभ के पीछे भी गढ़ा गया है जिसे संसार में 'कुतुबमीनार' के नाम से जाना जाता है ।
जिस प्रकार तथाकथित 'ताजमहल' के साथ 'शाहजहाँ कि बेसिरपैरवाली झूठी प्रेमगाथा थोपी गयी उसी प्रकार तथाकथित कुतुबमीनार के पीछे भी एक अन्य मुगल शासक 'कुतुबुद्धीन ऐबक' का नाम थोप दिया गया है।

एक अंग्रेज पुरातत्त्व प्रमुख कनिंघम द्वारा फैलायी गयी सरकारी अफवाह को सच मानकर समस्त संसार को यह झूठ सुनाया जा रहा है कि इसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि जिन्होंने इस भारत की भूमि को अपने अथक परिश्रम से सजाया सँवारा है भारत के वे मूल निवासी आज भी विदेशी लुटेरों के मानसिक दबाव में जीवन बसर कर रहे हैं। उन्हें अपने देश में ही अपनी बात कहने का अधिकार नहीं है। इतना ही नहीं सारे प्रतिबंध, बड़े-बड़े नियम-कानून केवल और केवल उन्हीं के लिए बने हैं। तथाकथित कुतुबमीनार मुगल शासक कुतुबुद्दीन ने बनवायी इस बात का तो कोई ठोस प्रमाण नहीं है परन्तु कुतुबुद्दीन ने उस  स्थान पर 27 मंदिरों को नष्ट करने का पाप किया था इस बात का ठोस प्रमाण उपलब्ध है।
उसने एक शिलालेख पर स्वयं लिखवाया है कि तथाकथित कुतुबमीनार के चारों ओर बने 27 मंदिरों को उजाड़ने की दुष्टता उसने की। सच तो यह है कि तथाकथित कुतुबमीनार उस समय भी थी जब दुष्ट कुतुबुद्दीन का परदादा भी पैदा नहीं हुआ था। यह स्तम्भ एक प्राचीन हिन्दू कलाकृति है जिसका उपयोग नक्षत्र विज्ञान की प्रयोगशाला के रूप में किया जाता था।
इस स्तम्भ के पार्श्व में महरौली नगरी है। यह संस्कृत नाम मिहिरवाली का अपभ्रंश है। प्राचीन भारत के महान नक्षत्रविज्ञानी तथा महाराजा विक्रमादित्य के विश्वविख्यात दरबारी ज्योतिषी आचार्य मिहिर अपने सहायक विशेज्ञों के साथ यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम से इसका नाम मिहिरवाली (महरौली) पड़ा।
आचार्य वराह मिहिर इस तथाकथित कुतुबमीनार का उपयोग नक्षत्र विद्याध्ययन के लिए एक वेध स्तम्भ के रूप में किया करते थे। इस वेध स्तम्भ के चारों ओर राशियों के 27 मण्डल बने हुए थे जो कुतुबुद्दीन द्वारा तुड़वा दिये गये। इसकी निर्माणकला में ऐसे कई चिह्न है जिनसे इसके हिन्दू भवन होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। इस स्तम्भ का घेरा 27 मोड़ों, चापों तथा त्रिकोणों का है तथा ये सब क्रमश एक के बाद एक हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि इसके निर्माण में 27 की संख्या का विशेष महत्त्व रहा है। यह संख्या भारतीय ज्योतिष एवं नक्षत्र विज्ञान से संबंधित है।
इसका मुख्य द्वार इस्लामी मान्यता के अनुसार पश्चिम की ओर न होकर उत्तर की ओर है। इसके अनेक खम्भों तथा दीवारों पर संस्कृत में उत्कीर्ण शब्दावली अभी भी देखी जा सकती है। यद्यपि इसे काफी विद्रूप कर दिया गया है तथापि सूक्ष्मतापूर्वक देखने से भित्ति में अनेक देवमूर्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इतना ही नहीं कुतुबमीनार का अर्थ जानकर भी दंग रह जायेंगे कि इस अरबी शब्द का अर्थ नक्षत्रीय स्तम्भ ही है। हिन्दी में जिसे वेध स्तम्भ कहते हैं उसे ही अरबी में कुतुबमीनार कहा जाता है। इस नाम का कुतुबुद्दीन से कोई भी संबंध नहीं है। फिर भी यह कहा जाना कि कुतुबुद्दीन ने इसे बनाया इसलिए इसका नाम कुतुबमीनार पड़ा, कितना बड़ा धोखा है।



नोट : इस्लामिक मान्यता के अनुसार किसी भी स्थान अथवा महल में   मनुष्यों का फोटो बनाना हराम है और उसे बुतपूजा माना जाता है  जबकि, कुतुबमीनार के संलग्न चित्र में . कुछ अप्सराओं की मूर्ति स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है | 

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

सरदार बल्ल्भ भाई पटेल की 139 जयंती है पर विशेष

आज सरदार बल्ल्भ भाई पटेल की 139 जयंती है । सरदार जी  ने देश की 500 से अधिक रियासतो को भारतीय गणराज्य मिलाने का अतुलनीय  कार्य किया था । कई रियासते ऐसी थी जो भारत में विलय के लिए तैयार नहीं थी जैसे, भोपाल,हैदराबाद,जूनागढ़ ,रीवा आदि कई रियासते है । सरदार पटेल जी  जब रीवा (MP) की रियासत के विलय के लिए गए तो   हमारे यहाँ  रीवा के  महाराजा ''गुलाब सिंह जूदेव'' ने सरदार पटेल को जबाब दिया ''आपकी दाल यहाँ नहीं गलेगी'' तब सरदार जी ने जबाब दिया
 '' पानी होगा तो दाल जरूर गलेगी'' मतलब साफ़ इसारा था की इज्जत बचानी है तो भारत में विलय हो जाओ नहीं तो सेना जबरजस्ती विलय कर लेगी । और तत्कालीन (1918-1947 ) महाराजा गुलाब सिंह जूदेव सहर्ष विलय के लिए तैयार हो गए । इसी तरह तरह से जूनागढ़ का नबाब तो पाकिस्तान  में विलय की घोषणा कर दिया 
  हमारा देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ, लेकिन गुजरात के जूनागढ़ में आजादी के बाद भी मातम का माहौल था। यहां के लोग दहशत में थे कि जूनागढ़ कहीं पाकिस्तान का हिस्सा न हो जाए। एक ओर जहां पूरा देश खुशियां मना रहा था, वहीं जूनागढ़ के लोग डरे-सहमे हुए थे।

इसी बीच लौहपुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल ने मोर्चा संभाल लिया और जूनागढ़ को भारत का हिस्सा बनाकर ही दम लिया। सरदार पटेल की जयंती  (31 अक्टूबर) के अवसर पर  आपको पटेल के द्वारा जूनागढ़ रियासत को भारत में मिलाने के प्रयासों के बारे में जानकारी दे रहा है।

जूनागढ़ का नवाब नवाब मोहम्मद महाबत पाकिस्तान भाग निकला और  9 नवंबर 1947 को जूनागढ़, भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया। इसीलिए 9 नवंबर को पाकिस्तान में 'ब्लैक डे' माना जाता है, जबकि इस दिन गुजरात में खुशियां मनाई जाती हैं। इसका पूरा श्रेय भी सरदार पटेल को ही जाता है।
 दरअसल 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, उस समय भी देश की तीन ऐसी रियासतें थीं, जिन्होंने भारत और पाकिस्तान  में शामिल होना स्वीकार नहीं किया था। ये रियासतें थीं जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद और गुजरात का जूनागढ़,मध्यप्रदेश की भोपाल और रीवा रियासत । जूनागढ़ की बात की जाए तो इस समय मुस्लिम लीग के कट्टर समर्थक शहनवाज भुट्टो जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की अंदर ही अंदर पूरी तैयारी कर चुके थे। इस समय जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद महाबत खान थे।
इतिहासकारों की मानें तो शहनावाज भुट्टो ने जूनागढ़ के नवाब मुहम्मद महाबत को अपने झांसे में पूरी तरह ले भी लिया था। इतना ही नहीं, 15 अगस्त 1947 को शहनावाज ने जूनागढ़ का पाकिस्तान के साथ जुड़ने वाला एलान भी करा दिया था। जब अखबारों में यह खबर प्रकाशित हुई तो जूनागढ़ की जनता भड़क उठी। वहीं, सरदार पटेल ने भी जूनागढ़ के लिए कमर कस ली।

प्रारंभिक पहल करते हुए सरदार पटेल और जामनगर (गुजरात) के महाराजा दिग्विजय सिंह ने जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद महाबत से कहा कि वह अपनी रियासत जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने के निर्णय को वापस ले लें। सरदार पटेल ने नवाब से यह भी कहा कि जूनागढ़ को भारत का हिस्सा बनाने में सहयोग करें। इसके एवज में उन्हें यहां सम्माननीय पद भी दिया जाएगा। लेकिन नवाब महाबत अपनी जिद पर अड़ा रहा। 

 
इस समय तक जूनागढ़ की जनता में भी आक्रोश चरम पर पहुंच गया था। जूनागढ़ को पाकिस्तान में शामिल न होने देने के लिए एक बार फिर से स्वतंत्रता सेनानी खड़े हो गए।
वहीं 25 सितंबर 1947 को MUMBAI में स्वतंत्रता सेनानियों के नेताओं की एक बैठक हुई, जिसमें जूनागढ़ की आजादी के लिए आरजी हुकुमत नामक एक जन आंदोलन शुरू करने की योजना बनाई गई। इस आंदोलन की घोषणा होते ही स्वतंत्रता सेनानियों ने जूनागढ़ रियासत के मुख्य गांवों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। इसी का नतीजा यह रहा कि आरजी हुकुमत ने 2 नवंबर तक जूनागढ़ राज्य के 36 गांवों पर कब्जा कर लिया था। इससे जूनागढ़ के नवाबी शासन की नींव हिल गई। अब जूनागढ़ के लोगों को आशा की किरण दिखाई देने लगी थी।

स्वतंत्रता सेनानियों के बढ़ते कदमों को देखकर नवाब मोहम्मद महाबत समझ गया था कि अब उसके हाथों से जूनागढ़ की रियासत निकल चुकी है और अब तो उसे अपनी जान बचाकर भागने का मौका ढूंढना था। सरदार पटेल ने भी नवाब को जूनागढ़ से भाग जाने की सलाह दी। स्वतंत्रता सेनानियों और जूनागढ़ की जनता के आक्रोश को देखते हुए नवाब चुपके से 24 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान भाग निकला।

नवाब को पाकिस्तान जाकर अपनी गलती का अहसास हुआ था। इतना ही नहीं, नवाब ने पाकिस्तान के तत्कालीन उच्चचुक्त श्रीप्रकाश से मुलाकात कर उन्हें बताया था कि वह वापस जूनागढ़ जाना चाहता है। हालांकि नवाब के लिए अब काफी देर हो चुकी थी। अगर उसने आजादी के ही दिन जूनागढ़ रियासत को भारत का हिस्सा घोषित कर दिया होता तो ताउम्र उसके नाम का डंका जूनागढ़ रियासत में बजता। 

अगर सरदार पटेल ने समय रहते जूनागढ़ के लिए अथक प्रयास नहीं किए होते तो शायद गुजरात का यह खूबसूरत  और ऐतिहासिक शहर पाकिस्तान का हिस्सा होता । सरदार पटेल जी की 139 वी जन्म तिथि पर सत सत नमन ।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

1971 के युद्ध में पाकिस्तानी सैनिको के आत्मसमर्पण की पूरी दास्तान

पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया ख़ाँ ने जब 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया और शेख़ मुजीब गिरफ़्तार कर लिए गए, वहाँ से शरणार्थियों के भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया.जैसे-जैसे पाकिस्तानी सेना के दुर्व्यवहार की ख़बरें फैलने लगीं, भारत पर दबाव पड़ने लगा कि वह वहाँ पर सैनिक हस्तक्षेप करे

इंदिरा गांधी  चाहती थीं कि अप्रैल में हमला हो

इंदिरा गांधी ने इस बारे में थलसेनाअध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय माँगी.उस समय पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट जनरल जेएफ़आर जैकब याद करते हैं, "जनरल मानेकशॉ ने एक अप्रैल को मुझे फ़ोन कर कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है. मैंने उनसे कहा कि ऐसा तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन है जिसके पास पुल बनाने की क्षमता नहीं है. कुछ नदियाँ पाँच पाँच मील चौड़ी हैं. हमारे पास युद्ध के लिए साज़ोसामान भी नहीं है और तुर्रा यह कि मॉनसून शुरू होने वाला है. अगर हम इस समय पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं फँस कर रह जाएंगे."मानेकशॉ राजनीतिक दबाव में नहीं झुके और उन्होंने इंदिरा गांधी से साफ़ कहा कि वह पूरी तैयारी के साथ ही लड़ाई में उतरना चाहेंगे.।

               तीन दिसंबर 1971...इंदिरा गांधी कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं. शाम के धुँधलके में ठीक पाँच बजकर चालीस मिनट पर पाकिस्तानी वायुसेना के सैबर जेट्स और स्टार फ़ाइटर्स विमानों ने भारतीय वायु सीमा पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू कर दिए. इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटने का फ़ैसला किया. दिल्ली में ब्लैक आउट होने के कारण पहले उनके विमान को लखनऊ मोड़ा गया. ग्यारह बजे के आसपास वह दिल्ली पहुँचीं. मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद लगभग काँपती हुई आवाज़ में अटक-अटक कर उन्होंने देश को संबोधित किया. पूर्व में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेनाओं ने जेसोर और खुलना पर कब्ज़ा कर लिया. भारतीय सेना की रणनीति थी महत्वपूर्ण ठिकानों को बाई पास करते हुए आगे बढ़ते रहना

ढाका पर कब्ज़ा भारतीय सेना का लक्ष्य नहीं

आश्चर्य की बात है कि पूरे युद्ध में मानेकशॉ खुलना और चटगाँव पर ही कब्ज़ा करने पर ज़ोर देते रहे और ढ़ाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने रखा ही नहीं गया. इसकी पुष्टि करते हुए जनरल जैकब कहते हैं, "वास्तव में 13 दिसंबर को जब हमारे सैनिक ढाका के बाहर थे, हमारे पास कमान मुख्यालय पर संदेश आया कि अमुक-अमुक समय तक पहले वह उन सभी नगरों पर कब्ज़ा करे जिन्हें वह बाईपास कर आए थे. अभी भी ढाका का कोई ज़िक्र नहीं था. यह आदेश हमें उस समय मिला जब हमें ढाका की इमारतें साफ़ नज़र आ रही थीं."

भारतीय सैनिक
पाकिस्तानी टैंक पर बैठे भारतीय सैनिक
पूरे युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी को कभी विचलित नहीं देखा गया. वह पौ फटने तक काम करतीं और जब दूसरे दिन दफ़्तर पहुँचतीं, तो कह नहीं सकता था कि वह सिर्फ़ दो घंटे की नींद लेकर आ रही हैं. जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा याद करते हैं, "आधी रात के समय जब रेडियो पर उन्होंने देश को संबोधित किया था तो उस समय उनकी आवाज़ में तनाव था और ऐसा लगा कि वह थोड़ी सी परेशान सी हैं. लेकिन उसके अगले रोज़ जब मैं उनसे मिलने गया तो ऐसा लगा कि उन्हें दुनिया में कोई फ़िक्र है ही नहीं. जब मैंने जंग के बारे में पूछा तो बोलीं अच्छी चल रही है. लेकिन यह देखो मैं नार्थ ईस्ट से यह बेड कवर लाई हूँ जिसे मैंने अपने सिटिंग रूम की सेटी पर बिछाया है. कैसा लग रहा है? मैंने कहा बहुत ही ख़ूबसूरत है. ऐसा लगा कि उनके दिमाग़ में कोई चिंता है ही नहीं."

गवर्नमेंट हाउस पर बमबारी

14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि दोपहर ग्यारह बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के चोटी के अधिकारी भाग लेने वाले हैं. भारतीय सेना ने तय किया कि इसी समय उस भवन पर बम गिराए जाएं. बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी. गवर्नर मलिक ने एयर रेड शेल्टर में शरण ली और नमाज़ पढ़ने लगे. वहीं पर काँपते हाथों से उन्होंने अपना इस्तीफ़ा लिखा ।

        दो दिन बाद ढाका के बाहर मीरपुर ब्रिज पर मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने अपनी जोंगा के बोनेट पर अपने स्टाफ़ ऑफ़िसर के नोट पैड पर पूर्वी पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल नियाज़ी के लिए एक नोट लिखा- प्रिय अब्दुल्लाह, मैं यहीँ पर हूँ. खेल ख़त्म हो चुका है. मैं सलाह देता हूँ कि तुम मुझे अपने आप को सौंप दो और मैं तुम्हारा ख़्याल रखूँगा.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा अब इस दुनिया में नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने बीबीसी को बताया था, "जब यह संदेश लेकर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता नियाज़ी के पास गए तो उन्होंने उनके साथ जनरल जमशेद को भेजा, जो ढाका गैरिसन के जीओसी थे. मैंने जनरल जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2-माउंटेन डिव का झंडा लगा दिया. जब मैं नियाज़ी के पास पहुँचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव किया."
16 दिसंबर की सुबह सवा नौ बजे जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुँचें. नियाज़ी ने जैकब को रिसीव करने के लिए एक कार ढाका हवाई अड्डे पर भेजी हुई थी.जैकब कार से छोड़ी दूर ही आगे बढ़े थे कि मुक्ति बाहिनी के लोगों ने उन पर फ़ायरिंग शुरू कर दी. जैकब दोनों हाथ ऊपर उठा कर कार से नीचे कूदे और उन्हें बताया कि वह भारतीय सेना से हैं. बाहिनी के लोगों ने उन्हें आगे जाने दिया ।

आँसू और चुटकुले

जब जैकब पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचें. तो उन्होंने देखा जनरल नागरा नियाज़ी के गले में बाँहें डाले हुए एक सोफ़े पर बैठे हुए हैं और पंजाबी में उन्हें चुटकुले सुना रहे हैं. जैकब ने नियाज़ी को आत्मसमर्पण की शर्तें पढ़ कर सुनाई. नियाज़ी की आँखों से आँसू बह निकले. उन्होंने कहा, "कौन कह रहा है कि मैं हथियार डाल रहा हूँ." जनरल राव फ़रमान अली ने इस बात पर ऐतराज़ किया कि पाकिस्तानी सेनाएं भारत और बांग्लादेश की संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण करें. समय बीतता जा रहा था. जैकब नियाज़ी को कोने में ले गए. उन्होंने उनसे कहा कि अगर उन्होंने हथियार नहीं डाले तो वह उनके परिवारों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकते. लेकिन अगर वह समर्पण कर देते हैं, तो उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी होगी. जैकब ने कहा- मैं आपको फ़ैसला लेने के लिए तीस मिनट का समय देता हूँ. अगर आप समर्पण नहीं करते तो मैं ढाका पर बमबारी दोबारा शुरू करने का आदेश दे दूँगा.

नागरा

            ढाका के बाहरी इलाक़े में खड़े मेजर जनरल नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर
अंदर ही अंदर जैकब की हालत ख़राब हो रही थी. नियाज़ी के पास ढाका में 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक और वह भी ढाका से तीस किलोमीटर दूर । 

अरोड़ा अपने दलबदल समेत एक दो घंटे में ढाका लैंड करने वाले थे और युद्ध विराम भी जल्द ख़त्म होने वाला था. जैकब के हाथ में कुछ भी नहीं था. 30 मिनट बाद जैकब जब नियाज़ी के कमरे में घुसे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था. आत्म समर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था.

जैकब ने नियाज़ी से पूछा क्या वह समर्पण स्वीकार करते हैं? नियाज़ी ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने यह सवाल तीन बार दोहराया. नियाज़ी फिर भी चुप रहे. जैकब ने दस्तावेज़ को उठाया और हवा में हिला कर कहा, ‘आई टेक इट एज़ एक्सेप्टेड.’ नियाज़ी फिर रोने लगे. जैकब नियाज़ी को फिर कोने में ले गए और उन्हें बताया कि समर्पण रेस कोर्स मैदान में होगा. नियाज़ी ने इसका सख़्त विरोध किया. इस बात पर भी असमंजस था कि नियाज़ी समर्पण किस चीज़ का करेंगे.
भारतीय सेना के सामने सेना के ऑफीसर पिस्टल जमीन में रखकर आत्म समर्पण किया

मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने बताया था, "जैकब मुझसे कहने लगे कि इसको मनाओ कि यह कुछ तो सरेंडर करें. तो फिर मैंने नियाज़ी को एक साइड में ले जा कर कहा कि अब्दुल्ला तुम एक तलवार सरेंडर करो, तो वह कहने लगे पाकिस्तानी सेना में तलवार रखने का रिवाज नहीं है. तो फिर मैंने कहा कि तुम सरेंडर क्या करोगे? तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है. लगता है तुम्हारी पेटी उतारनी पड़ेगी... या टोपी उतारनी पड़ेगी, जो ठीक नहीं लगेगा. फिर मैंने ही सलाह दी कि तुम एक पिस्टल लगाओ ओर पिस्टल उतार कर सरेंडर कर देना."

सरेंडर लंच

इसके बाद सब लोग खाने के लिए मेस की तरफ़ बढ़े. ऑब्ज़र्वर अख़बार के गाविन यंग बाहर खड़े हुए थे. उन्होंने जैकब से अनुरोध किया क्या वह भी खाना खा सकते हैं. जैकब ने उन्हें अंदर बुला लिया. वहाँ पर करीने से टेबुल लगी हुई थी... काँटे और छुरी और पूरे ताम-झाम के साथ. जैकब का कुछ भी खाने का मन नहीं हुआ. वह मेज़ के एक कोने में अपने एडीसी के साथ खड़े हो गए. बाद में गाविन ने अपने अख़बार ऑब्ज़र्वर के लिए दो पन्ने का लेख लिखा ’सरेंडर लंच.’ चार बजे नियाज़ी और जैकब जनरल अरोड़ा को लेने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे. रास्ते में जैकब को दो भारतीय पैराट्रूपर दिखाई दिए. उन्होंने कार रोक कर उन्हें अपने पीछे आने के लिए कहा. जैतूनी हरे रंग की मेजर जनरल की वर्दी पहने हुए एक व्यक्ति उनका तरफ़ बढ़ा. जैकब समझ गए कि वह मुक्ति बाहिनी के टाइगर सिद्दीकी हैं. उन्हें कुछ ख़तरे की बू आई. उन्होंने वहाँ मौजूद पेराट्रूपर्स से कहा कि वह नियाज़ी को कवर करें और सिद्दीकी की तरफ़ अपनी राइफ़लें तान दें. जैकब ने विनम्रता पूर्वक सिद्दीकी से कहा कि वह हवाई अड्डे से चले जाएं. टाइगर टस से मस नहीं हुए. जैकब ने अपना अनुरोध दोहराया. टाइगर ने तब भी कोई जवाब नहीं दिया. जैकब ने तब चिल्ला कर कहा कि वह फ़ौरन अपने समर्थकों के साथ हवाई अड्डा छोड़ कर चले जाएं. इस बार जैकब की डाँट का असर हुआ.।  साढ़े चार बजे अरोड़ा अपने दल बल के साथ पाँच एम क्यू हेलिकॉप्टर्स से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे. रेसकोर्स मैदान पर पहले अरोड़ा ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया । अरोडा और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म समर्पण के दस्तवेज़ पर हस्ताक्षर किए. नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया. नियाज़ी की आँखें एक बार फिर नम हो आईं । 
अँधेरा हो रहा था. वहाँ पर मौजूद भीड़ चिल्लाने लगी. वह लोग नियाज़ी के ख़ून के प्यासे हो रहे थे. भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सरों ने नियाज़ी के चारों तरफ़ घेरा बना दिया और उनको एक जीप में बैठा कर एक सुरक्षित जगह ले गए.

ढाका स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है

ठीक उसी समय इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने दफ़्तर में स्वीडिश टेलीविज़न को एक इंटरव्यू दे रही थीं. तभी उनकी मेज़ पर रखा लाल टेलीफ़ोन बजा. रिसीवर पर उन्होंने सिर्फ़ चार शब्द कहे....यस...यस और थैंक यू. दूसरे छोर पर जनरल मानेक शॉ थे जो उन्हें बांग्लादेश में जीत की ख़बर दे रहे थे.श्रीमती गांधी ने टेलीविज़न प्रोड्यूसर से माफ़ी माँगी और तेज़ क़दमों से लोक सभा की तरफ़ बढ़ीं. अभूतपूर्व शोर शराबे के बीच उन्होंने ऐलान किया- ढाका अब एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है. बाक़ी का उनका वक्तव्य तालियों की गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी में डूब कर रह गया । 
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पूरी घटना पढ़ने के बाद मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए और अपनी भारतीय पर गर्व से मस्तक ऊचा हो गया और छाती 56 इंच की हो गई ।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर विशेष



सुबह सुबह चामुण्डा माता जी के टेकरी में जाने का अवसर मिला । पूरा देवास शहर इस समय पर चामुण्डा मइया की भक्ति में लीन है । (क्या पता माता की भक्ति के लिए जाते है या नयन सुख लेने जाते है) अच्छा लगता है युवाओ में धर्म के प्रति यह झुकाव । पर मन उस समय खिन्न हो जाता है जब बुजुर्गो को रोड के किनारे हाथ फैलाते हुए देखता हु असहाय शरीर, काँपते हुए हाथ,लरजती हु आँखे में याचना के भाव । सच में ये सब देखने के बाद मन इतना दुखी हो जाता है की मेरा मन ही ''माँ'' की भक्ति से कोसो दूर इन बुजर्गो पर केंद्रित हो जाती है ।
एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है. यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है जिसे आज की तथाकथित ''युवा और एजुकेटेड'' पीढ़ी ''बूढ़ा'' कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है. वे लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं । फिर भी हम उस अनुभव से लाभ नहीं उठाते और ठोकर खाने के बाद ''ठाकुर'' कहलाते ।
वृद्ध होने के बाद इंसान को कई रोगों का सामना करना पड़ता है. चलने फिरने में भी दिक्कत होती है. लेकिन यह इस समाज का एक सच है कि जो आज जवान है उसे कल बुढ़ा भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता. लेकिन इस सच को जानने के बाद भी जब हम बूढ़े लोगों पर अत्याचार करते हैं तो हमें अपने मनुष्य कहलाने पर शर्म महसूस होती है ।
हमें समझना चाहिए कि वरिष्‍ठ नागरिक समाज की अमूल्‍य विरासत होते हैं.उन्होंने देश और समाज को बहुत कुछ दिया होता है. उन्‍हें जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों का व्‍यापक अनुभव होता है. आज का युवा वर्ग राष्‍ट्र को उंचाइयों पर ले जाने के लिए वरिष्‍ठ नागरिकों के अनुभव से लाभ उठा सकता है. अपने जीवन की इस अवस्‍था में उन्‍हें देखभाल और यह अहसास कराए जाने की जरुरत होती है कि वे हमारे लिए खास महत्‍व रखते हैं. हमारे शास्त्रों में भी बुजुर्गों का सम्मान करने की राह दिखलायी गई है । यजुर्वेद का निम्न मंत्र संतान को अपने माता-पिता की सेवा और उनका सम्मान करने की शिक्षा देता है.
यदापि पोष मातरं पुत्र: प्रभुदितो धयान् .
इतदगे अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ ममां ॥

अर्थात जिन माता-पिता ने अपने अनथक प्रयत्नों से पाल पोसकर मुझे बड़ा किया है, अब मेरे बड़े होने पर जब वे अशक्त हो गये है तो वे जनक-जननी किसी प्रकार से भी पीड़ित न हो, इस हेतु मैं उसी की सेवा सत्कार से उन्हें संतुष्ट कर अपा आनृश्य (ऋण के भार से मुक्ति) कर रहा हूं ।
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मित्रो आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस है । चलिए संकल्प लेते है की कही भी,कभी भी कोई भी असहाय बुजुर्ग मिलते है तो उनकी सहायता करगे । अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर सभी बुजुर्गो को सादर नमन ।
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नोट ---: फोटो में समाज की कड़वी सच्चाई छिप हुई है ।







गुरुवार, 25 सितंबर 2014

मुस्लिम महिलाओ को कॉमन सिविल कोड के लाभ


1. मुस्लिम महिलाओ का  पति घर बैठे तीन बार ''तलाक ! तलाक !! तलाक''  कहकर पत्नी को घर से नही निकल सकेगा ।
2. यदि निकाला तो हिन्दू तलाकशुदा महिलाओ कि भांति उसे एक निश्चित राशि पत्नी कि देना होगी, जो तलाकशुदा मुश्लिम महिलाओ को नही मिलती । 
3. तलाकशुदा मुस्लिम महिला  को मात्र मेहर मिलता है जो जीवन यापन के लिए एक दो वर्ष भी नही चलता
4. कॉमन-सिविल कोड लागू हो गया तो पत्नी कि तलाक देने के लिए कोर्ट के चक्कर लगाते मुसलमानो के जूते घिस जायेंगे ।
5. मुस्लिम महिला को आज तलाक देने का अधिकार नही है ।  वह उसे मिल जाएगा । घुट- घुट कर मरना नही पड़ेगा ।
6. मुसलमान लड़की को आज पिता कि संपत्ति में मात्र एक तिहाई का   अधिकार है वह बराबरी का हो जायेगा ।
7.मुस्लिम महिला के पति द्वारा तलाक दिए जाने पर तीन माह तक इद्दत कि मुद्दत पूरी होने के बाद ही दूसरी शादी कर सकती है ।  कॉमन सिविल कोड लागू होते ही पति द्वारा तलाक दिए जाने पर तुरंत विवाह कर सकेगी ।
8. भूल-चुक हो जाने पर या गलती से क्रोध में पति के मुंह से तीन बार तलाक निकल जाने पर निरपराध मुस्लिम महिला पुनः अपने पति के साथ नही रह सकती ।  उसे तीन माह बाद किसी दूसरे से निकाह करना पड़ता है, उससे तलाक दिए जाने पर फिर तीन माह बाद अपने पूर्व पति से विवाह कर सकती है ।  इस झंझट से मुक्ति मिलेगी  बिना कोर्ट में गये तलाक मान्य नही होगा और बीच में किसी दूसरे कि पत्नी बननें और शरीर अपवित्र करने कि बाध्यता भी नही होगी और नए पति ने यदि तलाक नही दिया तो आजीवन न चाहते हुए भी उसकी पत्नी बन रहना होगा। 
9. निकाह हराम हो जाने कि स्थित  में स्त्री अपने विवाहित पति के पास नही रह सकती उसे किसी दूसरे से निकाह कि रश्म अदायगी नही करनी पड़ती है। 

10. बैंगलोर में ७००० और मुम्बई ५००० मुस्लिम लड़किओं ने अपने क्लब बना आजीवन विवाह न करने का निश्चय कर लिया है  सारे संसार कि पड़ी लिखी मुस्लिम महिलाये कुंवारी रहना पसंद कर रही है  उन्हें सरियत से निकाह कर जीवनभर पति कि गुलामी पसंद नही   कॉमन सिविल कोड से उन्हें पुरुष कि गुलामी से मुक्ति मिल जायेगी । 

11. ससुर द्वारा बलात्कार किये जाने पर पति के लिए अपनी पत्नी हराम हो जाती है, वह माँ मान ली जाती है । ससुर को कोई दंड नही मिलता ।  कॉमन सिविल कोड से इस मानवताहीन प्रथा से मु.महिला मुक्त हो जायेगी । 

12. पति के कहीं खो जाने पर भी मुस्लिम महिला कहीं दूसरा विवाह नही कर सकती  उसे अपने पति कि ६३ वर्ष कि आयु हो जाने पर ही दूसरे निकाह कि अनुमति मिलती है  तब तक बेचारी स्वयं बूढी हो जाती है, विवाह व्यर्थ सा हो जाता है । 

13. आज मुसलमान अपनी अच्छी भली, सुंदर, पढ़ी-लिखी, कामकाज में चतुर, आज्ञाकारी, इनकी पीढ़ी चलाने वाली पत्नी होते हुए  भी, दूसरी, तीसरी, चौथी पत्नी ले आते  है ।  न पत्नी उसे रोक सकती है न न्याय व्यवस्था यह सरियत कि मुसलमान पुरुषो को दी गयी सहूलियत है  जब कॉमन-सिविल कोड बन जाएगा तो मु. महिला सोतन कि कुंठा से मुक्त होंगी उसका पति दूसरी पत्नी ला नही सकेगा । 

जरा कॉमन सिविल कोड के लाभ मुस्लिम महिलाओ तक पहुंचा कर तो देखिये| 

शनिवार, 20 सितंबर 2014

अकबरनामा में जोधा का कहीं कोई उल्लेख या प्रचलन नही है


 1 - अकबरनामा(Akbarnama) में जोधा का कहीं कोई उल्लेख या प्रचलन नही है।।(There is no any name of Jodha found in the book "Akbarnama" written by Abul Fazal )
 2- तुजुक-ए-जहांगिरी /Tuzuk-E-Jahangiri(जहांगीर की आत्मकथा /BIOGRAPHY of Jahangir) में भी जोधा का कहीं कोई उल्लेख नही है(There is no any name of "JODHA Bai"Found in Tujuk -E- Jahangiri ) जब की एतिहासिक दावे और झूठे सीरियल यह कहते हैं की जोधा बाई अकबर की पत्नि व जहांगीर की माँ थी जब की हकीकत यह है की "जोधा बाई" कापूरे इतिहास में कहीं कोइ नाम नहीं है, जोधा का असली नाम {मरियम- उल-जमानी}( Mariam uz-Zamani ) था जो कि आमेर के राजा भारमल के विवाह के दहेज में आई परसीयन दासी की पुत्री थी उसका लालन पालन राजपुताना में हुआ था इसलिए वह राजपूती रीती रिवाजों को भली भाँती जान्ती थी और राजपूतों में उसे हीरा कुँवरनी (हरका) कहते थे, यह राजा भारमल की कूटनीतिक चाल थी, राजा भारमल जान्ते थे की अकबर की सेना जंसंख्या में उनकी सेना से बड़ी है तो राजा भारमल ने हवसी अकबर बेवकूफ बनाकर उस्से संधी करना ठीक समझा , इससे पूर्व में अकबर ने एक बार राजा भारमल की पुत्री से विवाह करने का प्रस्ताव रखा था जिस पर भारमल ने कड़े शब्दों में क्रोधित होकर प्रस्ताव ठुकरा दिया था , परंतु बाद में राजा के दिमाग में युक्ती सूझी , उन्होने अकबर के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और परसियन दासी को हरका बाइ बनाकर उसका विवाह रचा दिया , क्योकी राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये वह राजा भारमल की धर्म पुत्री थी लेकिन वह कचछ्वाहा राजकुमारी नही थी ।। उन्होंने यह प्रस्ताव को एक AGREEMENT की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था ।।
 3- अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है written in parsi ( “ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह है ।।
 4- ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में इन्डियन मुघलों का विवाह एक परसियन दासी से करवाए जाने की बात लिखी है ।।
 5- अकबर-ए-महुरियत में यह साफ-साफ लिखा है कि (written in persian “ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں” (we dont have trust in this Rajput marriage because at the time of mariage there was not even a single tear in any one's eye even then the Hindu's God Bharai Rasam was also not Happened ) "हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्यौकी निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी ।।
 6- सिक्ख धर्म के गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के समय यह बात स्वीकारी थी कि (written in Punjabi font - “ਰਾਜਪੁਤਾਨਾ ਆਬ ਤਲਵਾਰੋ ਓਰ ਦਿਮਾਗ ਦੋਨੋ ਸੇ ਕਾਮ ਲੇਨੇ ਲਾਗਹ ਗਯਾ ਹੈ “ ) कि क्षत्रीय , ने अब तलवारों और बुद्धी दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है , मत्लब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धी का भी काम लेने लगा है ।।( At the time of this fake mariage the Guru of Sikh Religion " Arjun Dev and Guru Govind Singh" also admited that now Kshatriya Rajputs have learned to use the swords with brain also !! )ैै
7- 17वी सदी में जब परसि भारत भ्रमन के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना (Book) " परसी तित्ता/PersiTitta " में यह लिखा है की "यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है , अत: हमारे देव (अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें " ( In 17 th centuary when the Persian came to India So they wrote in there book (Persi Titta)that " This Indian King is sending a Persian prostitude to her right And deservable place and May our God (Ahura Mazda) give Heaven to this Indian King .ं
8- हमारे इतिहास में राव और भट्ट होते हैं , जो हमारा ईतिहास लिखते हैं !! उन्होंने साफ साफ लिखा है की " गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ,ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता लेली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत (1563 AD )।"मत्लब आमेर किले में मुघल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है, हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD (In our Rajputana History our History writers were "Raos and Bhatts " They clearly wrote "Garh Amer ayi Turkaan Fauj Le gyali Paswaan Kumari , Ran Rajya Rajputa leli itihasa Pehlibar le bin ladiya jeet !! This means that when Mughal army came at Amer fort their Emperor got married with persian female servant of RajputsThe Rajputs who born for war And in history this was the first time that the Rajput has got a victory without any violence
9-यह वो अकबर महान था जिसके समय मे लाखों राजपुतानी अपनी इज्जत बचाने के लिये जोहर की आग में कूद गई ( अगनी कुन्ड में )कूद गई ताकी मुघल सेना उन्हे छू भी ना सके , क्या उनका बलिदान व्यर्थ हे जो हम उस जलाल उद्दीन मोहोम्मद अकबर को अकबर महान कहते हे सिर्फ महसूर कर माफ कर देने के कारण भारतीय व्यापारीयों ने उसे अकबर महान का दर्जा दिया !!अब ये बात बताईये की क्या हिन्दूस्तान में हिन्दूओं पर तीर्थ यात्रा पर से कोई टेक्स हटा देना कौन सी बड़ी महानता है , यह तो वैसे भी हमारा हक था और बेवकूफ व्यापारीयों ने एक कायर को अकबर महान का दर्जा दि (हिन्दूस्तान पर राज करने के लिये अकबर ने अपने दरबार में नौ लोगों को नवरत्न बनाया जिसमे 4 हिन्दू थे । राजा मान सिंह जो कि अकबर के समकालीन थे और अकबर के नवरत्नो में से एक थे उन्होंने अकबर से हिन्दूओं पर से तीर्थ यात्रा(महसूर)कर माफ करने की मांग उठाई सत्ता के लालची अकबर को डर था क्यौ कि उसके 4 रत्न हिन्दू थे और अगर वह मान सिंह की मांग को खारिज कर देता तो बाकी के हिन्दू रत्न उसके लिये काम छोड़ सक्ते थे क्यों की अकबर की झूटी सेक्यूलर छवी का असली चहरा सामने आजाता (और सच्चाई भी यही थी की वह एक कट्टरवादी और डरपोक(फट्टू) किस्म का शासक था उसको यह बात पता थी कि हिन्द पर कट्टर छवी के बदोलत राज नही किया जा सक्ता यही वजह थी की उसके पूर्वज हिन्द पर राज ना कर सके थे इस बात को समझते हुए अकबर ने हिन्दू राजाओं में फूट डालने का राजनितिक तरीका अपनाया ) और उसका हिन्दुस्थान पर शासन का सपना अधूरा रह सक्ता था इस बात के भय से उसने तीर्थ यात्रा कर(टेक्स) हटा दिया ।।यह वो समय था जब राणा प्रताप, राणा उदय सिंह,दुर्गा दास, जयमल और फत्ता(फतेह सिंह) जैसे वीर सपूत हुए , यह वही समय था जब रानी दुर्गावती रानी भानूमती रानी रूप मती जैसी वीर राजपुतानीयो ने अकबर से युद्घ लड़ा !!
10- मुघलों ने जब चित्तौड़ किले पर आक्रमण किया तब मात्र 5,000 से 10,000 राजपूत किले पर मैजूद थे जिन से अकबर ने 50,000 से 80,000 मुघलों को लड़वाया , मत्लब साफ है की अकबर राजपुताना से बराबरी से लड़ने की दम नहीं रखता था , इस युद्ध में जयमल सिंह राठौढ़ मेड़तिया और फतेह सिंह सिसौदिया ने अकबर के दांत खट्टे कर दिये थे । उस युद्ध में अकबर की आधी से ज्यादा सेना को राजपूतों ने मौत के घाट उतार दिया था और भारी मात्रा में नुकसान पहुंचाया था इस नुकसान को देखकर खिस्याए अकबर ने चित्तौड़ के लगभग 25,000 गैर इस्लामिक परिवारों को मौत के घाट उतरवा दिया था ।। लाखों मासूमों के सर कटवा दिये , लाखों औरतोको अपने हरम का शिकार बनाया इस युद्ध के दौराम 8,000 राजपुतानीयाँ जैहर कुण्ड में प्राण त्याग जिन्दा जल गईं ।।नोट- अकबर ने राजपूतों के आपसी मन मुटाव का फाएदा उठाया क्यो की वह जान्ता था कि आपसी फूट डालकर ही क्षत्रीय से लड़ा जा सक्ता हे।।
11 .- 1947 की आजादी के बाद पं नेहरू को यह डर था कि जम्म् -कश्मीर के राजा हरी सींह ने जिस तरह अपने क्षेत्र पर अपना अधिपथ्य और राज पाठ त्यागने से मना कर दिया था उसी तरह कहीं बाकी की क्षत्रीय रियासतें फिरसे अपना रूतबा कायम कर देश पर अपना अधिपथ्य स्थापित ना कर लें इसलिए भारतीय इतिहास में से राजपूताना , मराठा , जाट व अन्य हिन्दू जातीयों के गौरवशाली इतिहास को हटा कर मुघलों का झूटा इतिहास ठूस(भर) दिया ताकी क्षत्रीय जातीयों का मनोबल हमेशा इस झूटे इतिहास को पड़ के गिरता रहे , लेकिन कुछ बहादुर वीरों के कारनामे छुपाए भी नही छुप सके जैसै राणा प्रताप , क्षत्रपती शिवाजी व जाट् सामराज्य।अगर मुघल कभी राजपूतों से जीत पाए थे तो सिर्फ मेवाड़ के राणा प्रताप से हल्दी घाटी युद्घ में अकबर की इतनी बड़ी सेना क्यों नही जीत पाई जब की उस वक्त राणा जी मेवाड़ भी खो चुके थे अत: उनकी आधी सेना मुघलों के चितौड़ आक्रमण में ही समाप्त हो चुकी थी बावजूद इसके नपुंसक व हवसी अकबर क्यों नही जीत पाया ।। अत: क्यों अकबर ने कभी राणा प्रताप का सामना नही किया !! क्योकी जो राणा का मात्र भाला ही 75 किलो का हो जो राणा रणभूमी में 250 किलो से अधिक वजन के अश्त्र शश्त्र लेके पूरा दिन रणभूमी में एसे लड़ता हो जैसे खेल रहा हो उसका सामना करना मौत का सामना करने के बराबर हे और यह बात अकबर को तब पता चली जब राणा प्रताप ने अकबर के सबसे ताकतवर सेनापती व सेना नायक बहलोल खाँ को अपने भाले के प्रथम प्रहार में नाभी से गरदन तक के धड़ को सीध में फाड़ दिया था ।। इस घटना की खबर सुनकर अकबर इतना डर गया की वह स्वयम कभी राणा प्रताप से नही लड़ा अब जरा यह सोचिए की सिर्फ कुछ वीरों ने अकबर की सेना को इस तरह नुकसान पहुचाया तो क्या किसी भी तुर्क मुघलिया, अफगानी या कोइ अन्य नपुंसक किन्नर फौज में इतना दम था कि पूरे राजपूताना , पूरा मराठा व सम्पूर्ण जाटों से लड़ पाते !! ना तो इनमें इतना साहस था ना ही शौर्य इन्का साहस तो गंदे राजनितिक कीड़ो ने झूटी किताबों में लिखवाया है !!
12 - प्रथवीराज रासो जो कि चंद्रबरदाई (प्रथवी राज के दरबार में मंत्री) द्वार की गई रचनात्मक किताब को राजनितिक तरिके से पहले उसके साक्षों को नष्ट करवा दिया गया बाद में एतिहासिक दर्जे से हटा कर मात्र पौराणिक कहानी सिद्ध करवा दिया ।नोट - भारतीय इतिहास मे लिखित तौर पर सिर्फ उन वंशों का भारी जिक्र हे जिनके वंश और रियासत पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकीं है मत्लब इनके गौरवशाली इतिहास से पंडित नेहरू की सत्ता को कोइ भी क्षती नही पहुचनी थी क्यों की राजपूत , मराठा और जाट इत्यादी यह वो ताकतवर रियासतें हें जिनका अस्तित्व आज भी जीवित है ।। े
13 - मात्र बुंदेला राजपूतों ने मराठों के साथ मिलकर अपने सामराज्य से अकबर के पुत्र एवं उत्तराधिकारी जहांगीर ( कच्छवाहा राजपूतों की परसियन दासी मरियम-उज्-जवानी का पुत्र था ) को अपने राज्य क्षेत्र से खदेढ़ दिया था ।।
14- जहांगीर की माँ व अकबर की बेगम मरियम उज्जवानी(जोधा) अगर राजपूत होती तो अपने पुत्र जहांगीर को बुंदेला राजपूत व मराठों से कभी लड़ने ना देती !! और वैसे भी किसी तुर्की का विवाह किसी असली राजपूत से कर दिया जाए तो वह या तो क्रोध से मर जाएगा या फिर अपने रहते उस तुर्क को जिंन्दा नहीं रहने देगा ।।
15 - अब सवाल यह उठता है की अजकल के यह मन घड़ित नाटक(सीरियल) क्यों चलाए जाते है यह इसलिए क्यों की यह इतिहास के किसी भी पन्ने में दर्ज नही है कि मरियम जिसे हम जोधा बोलते हैं वह राजपूत थी दूसरी बात ये की यह एक विवादित मुद्दा है जिसका राजपूत समुदाय कड़ा विरोध करता है इसलिये यह विवादों में आ जाता है और इस झूटे सीरियल को फ्री की प्बलिसिटी मिल जाती है जिसका लाभ प्रोड्यूसर(एकता कपूर) को मिल जाता है !! और कुछ मासूस हिन्दू लड़कियाँ इस झूठी लव स्टोरी वाले सीरियल को देखकर अकबर के प्रती इम्प्रेस हो जाती है जो की एक कायर और एक अत्याचारी व क्रूर शासक था जिसने लाखों औरतों को अपने हरम का जबरन शिकार बनाया उनकी मजबूरियों का फाएदा उठाकर ।।और आजकल की मोर्डन लड़कियाँ बड़े आसानी से लव जिहाद ( इसका मत्लब धर्म को बड़ाना ज्यादा से ज्यादा लोगों को मुसलमान बनाना मार के जबरन या प्यार से भी ) का शिकार बन जातीं है और किसी बी मुसलमान लड़के के झूटे प्यार में फस जातीं है , बाद में जों होता है उसे में यहाँ लिख नही सक्ता लेकिन इन सब के पीछे इस्लामिक कट्टरता और धार्मिक राजनीति होति है जिसमें वर्षो से कान्ग्रेस का हाथ रहा है लिकिन हकीकत तो यही ह मित्रों की अकबर एक क्रूर व अत्याचारी शासक था !! जिसने अपना झूटा इतिहास लिखवाया और मरियम(जोधा) जो कि खुद एक दासी होकर भी अकबर की बेगम नहीं बनना नही चाहती थी ।।ँ
16- अकबर की अकबरनामा जिसे कुछ मूर्ख अकबर की आत्मकथा कहते है वह उसकी आत्मकथा नहीं कहला सक्ती क्योकी आत्म कथा एक मनुष्य खुद लिखता है और अकबर एक अनपढ़ शाषक था अकबर नामा के रचनाकार मोहोम्मद अबुल फजल थे जो की अकबर के उत्तीर्ण दर्जे ( उच्च कोटी ) के चाटुकार थे अब अगर वो उसमें ये भी लिख देते की अकबर आसमान के तारे गिनने की क्षमता रखता था तो आप आज एक्झाम में इस प्रश्न को भी पढ़ रहे होते ।।
17 क्षत्रपती शिवाजी ने ओरंगजेब के कई बार दांत खट्टे किये और उससे कई महत्वपूर्ण राज्य छीन लिए और अपने राज्य को स्वतंत्र राज्य बनाया ।। मालुम हो कि शिवाजी ने अपना सामराज्य का जमीनी स्तर से विस्तार किया था जब की औरंगजेब को सत्ता विरासत में मिली थी और शिवाजी ने अपने सामराज्य को इस कदर ताकतवर बनाया कि मुघल आँख उठाकर देखने की भी चेष्ठा ना करें बाद में ओरंगजेब ने संधी करने के लिए शिवाजी को आगरा बुलाया और छल पूर्वक शिवाजी को बंधी बना लिया और आगरा किले में कैद कर लिया और शिवाजी के सभी राज्यों को हड़प लिया अंत: शिवाजी काराग्रह से भाग गए और अपने सभी राज्य ओरंगजेब से छीन लिए ।।

18- औरंगजेब को जब अकबर का विवाह दासी की पुत्री से होने वाली बात पता चली तो उसने अकबर के द्वारा हटाए गए जिजया कर(tax for non muslims) और महसूर कर(tax for hindus for doing tirath तीर्थ) को दोबारा चलवाया इसके साथ - साथ उसने इस्लामिक कट्टरवाद को बड़ावा दिया जो कि मुघलिया सल्तनत के पतन का कारण बनी अंत: राजपूतों , मराठों , जाटों ने मिलकर मुघलों को खत्म कर डाला और यह थी इतिहास की पहली क्रांती इसके बाद अंग्रेजों का विस्तार हुआ जिन्हें मुघलों ने ही निमंत्रण दिया था ।।
19- नेशनल जियोग्रेफिक(National Geographic Channel) चैनल पर (डेड्लीलीएस्ट वारीयर/Deadliest warrior) नाम के कार्यक्रम में बहुत से विदेशी इतिहासकारों ने दावा किया है की हल्दीघाटी त्रतीय युद्घ में राणा प्रताप की 20,000 की जन संख्या वाली सेना जिसमे ब्राहमण वैश्य शूद्र व सभी जाती के लोग अकबर की 60,000 की आबादी वाली सेना से लड़े थे जिसमें युद्ध का कोई परिणाम नही निकला या ये कह लो की अकबर की सेना को रण भूमी छोड़ भागना पड़ गया ।।ेयाद रहे विक्कीपेडिया पर लिखी हर बात सच नहीं होती आप खुद भी उसमे मेनिपुलेशन (Manipulation)कर सक्ते हैं !! क्षत्रीयों का इतिहास क्षत्रीय बता सक्ते है और मुघलों का इतिहास कोन्ग्रेस ।। 

कुछ लोग हार के भी जीत जातेहैं, कुछ लोग जीत के भी हार जाते है नहीं दिखते अकबर के बुत कहीं ,राणा के घोड़े हर चौराहे पे नजर आते हैं..||

साभार --आर्यावर्त भारत 


वैसे तो कई कोशिशें की दुनिया ने हमें बदनाम करने के लिये लेकिन एक सच ये भी है ।।