सिंध भारत का सीमावर्ती प्रदेश था। ६४४ में सिंध पर अरबो का प्रथम सागरी आक्रमण हुआ। हालांकि यह भारत पर प्रथम सागरी आक्रमण नही था। इससे पहले खलीफा उमर (६३४-६४४) के काल में आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। ६३६ में महाराष्ट्र के ठाणे नामक बंदरगाह पर अरबी नौ सेना पहुँची थी, इसके पश्चात बर्वास (भड़ूच प्राचीन भृगुकच्छ) पर दूसरा हमला हुआ, लेकिन दोनों ही आक्रमणों में अरबो को मुँह की खानी पड़ी। इस समय चचराय की सत्ता कश्मीर की सीमा से लेकर दक्षिण में अरब सागर तक थी। मकरान (बलूचिस्तान) भी चचराय के शासन में था। उत्तर में कुर्दन और किकान की पहाड़ियों तक चचराय का राज्य फैला हुआ था। देबल एक बंदरगाह था। अरब सेनानी अल मुंधेरा ने देबल पर आक्रमण कर दिया। चचराय का एक शूर सेनानी देवाजी पुत्र सामह (शाम) वँहा का शासक था। सामह देबल के दुर्ग से सेना लेकर बाहर निकला और अरब सेना पर टूट पड़ा। अल्पावधि में ही अरब सेना के पांव उखड़ गए, सेनापति मुंधेरा मारा गया।
उमर के बाद उस्मान खलीफा बना लेकिन सिंध की ओर किसी की आँख नही उठी। ६६० में खलीफा अली ने पूरी तैयारी के साथ सेनापति हारस के नेतृत्व में अरब सेना भेजी। स्थल मार्ग से भारत पर यह प्रथम आक्रमण था। किकान के मार्ग से सिंध में घुसना आसान था। बोलन घाटी का यह पहाड़ी राज्य चचराय के अधीन था। इस बार भी अरबो को मुँह की खानी पड़ी, हारस मारा गया। अगले खलीफा मुआविया के आदेश पर सेनापति अब्दुल और राशिद इब्न के नेतृत्व में ६६१ से ६७० तक मकरान पर लगातार छ: हमले किये। हर बार अरबो को पराजित होकर भागना पड़ा, अब्दुल और राशिद इब्न युद्धभूमि में फौत आये।
६८० में इराक का राज्यपाल जियाद था। उसने एक बड़ी विशाल सेना को अल बहिल्ली इब्न अल हर्रि के साथ भेजा। मकरान पर हुए लगातार हमलों के कारण पहाड़ी जनजातियां उनके संपर्क में आ गई थीं, कई कबीलों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया था। इस स्थिति का लाभ अल बहिल्ली को मिला और मकरान खलीफा के कब्जे में चला गया। फिर भी २८ वर्षो तक अरबो ने सिंध पर आक्रमण नही किया।
६९५ में जियाद के स्थान पर अल हज्जाज इराक का शासक बना। हज्जाज ने उबैदुल्लाह को भारी फौज के साथ रवाना किया, परंतु इस बार भी अरब हार गए, उबैदुल्लाह मारा गया। ओमान में इस समय खलीफा का नौ सेना का बेड़ा था, वँहा का शासक बुदैल था। हज्जाज ने तुरंत बुदैल को जलमार्ग से देबल पहुँचने को कहा । वँहा उसे मुहम्मद हारून अपनी सेना के साथ मिला। मकरान के सेनापति ने भी अपना एक सेनादल रवाना किया। अब जिहाद के नारे लगाती हुई अरब सेना देबल की दिशा में बढ़ी। दाहिर के आदेश पर उसका पुत्र जयसिंह (जैसिया) अपनी सेना लेकर देबल की ओर शीघ्रता से चल पड़ा। अरब सेना ने आजतक जिहाद के नाम पर मिस्र और सीरिया से लेकर ईरान तक के विशाल भूभाग में अनेक युद्ध जीते थे, उसी जोश में खड़ी अरब सेना पर भारतीय सेना टूट पड़ी। सूर्योदय से रणकंदन शुरू हुआ, दोपहर तक निरंतर भारतीय सेना ने ऐसी मारकाट मचाई कि अरब सेना के जिहाद के नारे ठंडे पड़ गए। सेनापति बुदैल मारा गया, हजारों अरबों के शव रणभूमि पर पड़े थे। जयसिंह के नेतृत्व में भारतीय योद्धाओं ने भारत के विजय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ लिखा।
इस हार से लज्जित होकर हज्जाज ने मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में ७११ में पहले से बड़ी सेना को देबल फतह के लिए रवाना किया। बिन कासिम ने देबल पर घेरा डाल दिया। सात दिन तक यह घेरा चलता रहा। नगरवासियों को विश्वास था कि जब तक नगर के भीतर मंदिर पर ध्वज पताका लहराती रहेगी, उनकी पराजय असंभव है। इसी बीच मंदिर के पुजारी ने इस रहस्य से बिन कासिम को अवगत करा दिया। मुस्लिम सेना ने पत्थर बरसाकर ध्वज पताका को नीचे गिरा दिया। सैनिको पर इसका मनोवैज्ञानिक असर हुआ। तीन दिन तक भयंकर नरसंहार चलता रहा। भारत ने पहली बार शत्रुओं द्वारा इस प्रकार निरपराध स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े सभी का नृशंसता से कत्ले आम होते देखा। बिन कासिम ने चार हजार मुस्लिमों को वँहा बसाकर मस्जिद का निर्माण किया। इतिहासकारों का मानना है कि यह भारतीय सैनिकों की कायरता नही बल्कि अरब सेना का सही मूल्यांकन न होना, यह प्रारम्भिक पराजय अन्ततः हिन्दुओं के लिए महंगी पड़ी।
देबल के बाद बिन कासिम नेरून दुर्ग की ओर बढ़ा। भारत के दुर्भाग्य से वँहा का शासक समनी (बौद्ध अनुयायी) एवं बौद्ध भिक्षु मुस्लिमों के पक्षपाती थे। हज्जाज के साथ उनका पहले ही पत्र व्यवहार हो चुका था। बिन कासिम ने भी उन्हें सुरक्षा का आश्वासन दिया था, लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। हजारों बौद्ध भिक्षुओं का बलात धर्मांतरण व उनकी स्त्रियों का बलात्कार किया गया। अविचारी कल्पना से हुई उनकी भूल भारत के लिए घातक थी। भविष्यकाल में भी सैकड़ो वर्ष मुस्लिमों ने बौद्धों का भी इसी प्रकार संहार किया, बामियान व स्वात घाटी में बौद्ध प्रतिमाओं को ध्वस्त करने के रूप में यह अभियान अद्यतन जारी है। ऐसा नही है कि सभी बौद्ध धर्मियों ने सर्वकाल शत्रु का साथ दिया। वँहा से आगे सिविस्तान तक उसका कोई प्रतिरोध नही हुआ।
सिविस्तान के शासक ने प्रतिकर तो किया लेकिन पराजित होकर उसे पीछे हटना पड़ा। सिंधु के पश्चिमी तट बिन कासिम आगे बढ़ रहा था। दाहिर का शासक "मोका" भी देशद्रोही था। उसने नदी पार करने के लिए बिन कासिम को नौकाएँ उपलब्ध कराई। बिन कासिम नदी पार कर पूर्वी तट पर आया जँहा मोका का भाई भी उसके स्वागत के लिए खड़ा था। इसके बाद बिन कासिम ने बैत दुर्ग पर हमला बोला लेकिन दुर्ग के शासक रासिल ने कासिम से मित्रता कर ली। बिन कासिम तेजी से रावर दुर्ग (राओर) की ओर बढ़ता चला आ रहा था। मंत्री सियाकर एवं मोहम्मद वारिस अल्लाफी को रावर दुर्ग की रक्षा का भार सौंपकर दाहिर ने रावर दुर्ग से पहले जीतूर नामक जगह पर मोर्चा संभाला। बिन कासिम और राजा दाहिर के बीच युद्ध शुरू हो चुका था। संघर्ष प्रारंभ होने पर कभी एक पक्ष का पलड़ा भारी होता तो कभी दूसरे पक्ष का। युद्ध के पाँचवे और निर्णायक दिन दोपहर पश्चात ऐसा प्रतीत होने लगा था कि हिन्दू सेना की जीत होने वाली है और अरब सेना रणस्थल से पलायित होने लगी। युद्ध के अंतिम समय में नफथा की चोट से घायल होकर दाहिर का हाथी तालाब में घुस गया और अरबो ने वँहा पहुँच कर घातक बाण से दाहिर का अंत कर दिया। दाहिर का जीवन सूर्य भी अपनी अंतिम किरणे बिखेर कर अंधेरे में विलीन हो गया। हिन्दू सेना अरब सेना से पराजित हो चुकी थी। सूर्य के तेजोद्रपति प्रकाश के क्षय के बाद चंद्रमा आकाश पर उग आया था।
बिन कासिम रावर दुर्ग पर चढ़ आया। मोहम्मद वारिस अल्लाफी कौम की खातिर बिन कासिम से मिल गया, यह वही हज्जाज का विद्रोही शत्रु था, जिसे कभी राजा दाहिर ने धर्माचरण के चलते अपने संरक्षण में लिया था। मंत्री सियाकर भी दुर्ग छोड़ कर बिन कासिम से जा मिला जिसे बाद में बिन कासिम ने पुनः वजीर बना दिया था। दाहिर की रानी बाई ने मोर्चा संभाला, कोई उपाय न देखकर बाई ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर किया। शायद भारतवर्ष के इतिहास का यह पहला जौहर था। रावर में तबाही मचाकर बिन कासिम ब्रह्मनाबाद की ओर मुड़ा। जयसिंह ने कश्मीर के राजा व आलेर के राजा (भाई) से मदद के लिए गुहार लगाई, किंतु समय रहते ऐसा संभव न हो सका। उधर बिन कासिम को हज्जाज की ओर से लगातार सैन्य सहायता व भारत के गद्दारों का साथ मिल रहा था। छ: मास तक ब्रह्मनाबाद में युद्ध चलता रहा, लेकिन बिन कासिम को कोई सफलता नही मिली। दुर्ग में दाहिर की दूसरी रानी लाडी सैनिको को प्रेरणा दे रही थी। भारत का दुर्भाग्य दुर्ग का पतन हुआ और दाहिर की रानी लाडी अपनी दोनो पुत्रीयों सहित बंदी बना ली गईं। जयसिंह ने भागकर कश्मीर के राजा के यँहा शरण ली।
बहरूर और घलीला दोनो दुर्ग अरबो के प्रलोभनों के वशीभूत बिक गये थे। मुल्तान जीतने में बिन कासिम को दो माह लगे और अन्ततः आलेर को भी कब्जा लिया। सिंध में हिन्दू प्रमुखता से देशद्रोही तत्वों के कारण हारे, रणकौशल, योजना और वीरता में कमी होने के कारण नही। ७१४ में इराक के हज्जाज की मौत हो गई। नये बने खलीफा वालिद की भी मृत्यु जल्द ही हो गई। उसके पश्चात बने खलीफा सुलेमान जोकि हज्जाज के रिश्तेदारों से द्वेष रखता था, ने बिन कासिम को वापस बुला लिया और सिंध विजय के पारिश्रमिक के बदले मृत्युदंड सुना दिया। बिन कासिम के वापिस जाते ही दो वर्ष के भीतर भीतर जयसिंह ने ब्रह्मनाबाद, आलेर, रावर और देबल आदि स्थानों से अरब सेनाओं को भगा दिया। सागर तट से देबल तक की भूमि छोड़कर सारा सिंध स्वतंत्र हो गया था।
मेवाड़ की गाथाएँ बप्पा रावल को ईरान जीतने वाले प्रथम हिन्दू नरेश के रूप में वर्णित करती हैं। दाहिर सेन की दूसरी पत्नी अपने ५ वर्ष के पुत्र को लेकर चित्तौड़ में बप्पा रावल के पास आई। बप्पा रावल ने उन्हें सरंक्षण प्रदान किया तथा काबुल-कंधार तक आक्रमण कर गजनी के सुल्तान सलीम को हराकर उसकी पुत्री से विवाह किया।
संदर्भ श्रोत : चचनामा (हरीश कुमार तलरेजा)
: मुस्लिम आक्रमण का हिन्दू प्रतिरोध
(शरद हेबालकर)
: सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध
(अशोक कुमार सिंह)