सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

सलीम अनारकली की झूठी कहानी

सलीम अनारकली और अकबर या अकबर अनारकली और सलीम?: 20वी शताब्दी की कल्पना या 16वी शताब्दी का कलुषित सत्य?
आज सलीम अनारकली, एक मुगल शहजादे सलीम, जो बाद में बादशाह जहांगीर बना और महल की बांदी अनारकली के मुहब्बत की कहानी को कौन नही जानता है? ये मुहब्बत ऐसी थी की अनारकली के लिये सलीम ने मुगल बादशाह अकबर के विरुद्ध विद्रोह तक कर दिया था और उसकी कीमत अनारकली ने दीवार में चुनवा कर दी थी। यह एक और बात है कि अकबर बड़ा महान और न्यायप्रिय था, उसने अनारकली की माँ को दिये वचन की लाज रखते हुये अनारकली को चोर रास्ते से जिंदा निकलवा दिया था।
आज भारत की कॉकटेल पीढ़ी के लिये यही इतिहास है जो 1962 में के. आसिफ की फ़िल्म 'मुगल-ए-आजम' द्वारा स्थापित किया गया था। यह एक ऐसा इतिहास है, जो खुद इतिहास में नही है। इस अनारकली का जिक्र न अकबर के शासनकाल पर लिखित अबुल फजल की 'अकबरनामा' में है और न जहांगीर की 'ताज़ाक़-ए-जहाँगीरी' में है, जो उसके 1605 से 1622 के शासनकाल का वर्णन करती है।
फिर सवाल यह पैदा होता है कि यह के. आसिफ की अनारकली आयी कहाँ से और क्यों आयी?
इसको जानने और समझने के लिये हमें 1920 के लौहार चलना पड़ेगा जहां एक नाटककार इम्तियाज़ अली 'ताज' थे जो उस वक्त गवर्मेंट कॉलेज लौहार में पढ़ते थे। उन्होंने अपने कॉलेज के पास बने एक पुराने मकबरे को देखा था जिसको अनारकली का मकबरा कहा जाता था। वहां उस कब्र पर यह दोहा लिखा हुआ था।
ता कयामत शुक्र गोयं कर्द गर ख्वाइश रा
आह! गर मन बज बीनाम रुइ यार ख्वाइश रा
- मजनूं सलीम अकबर


इसका अर्थ है कि,
हे खुदा में तुझको कयामत तक याद करूँगा,
एक बार फिर मेरे हाथों में महबूबा का चेहरा आजाये।
यह मजनूं सलीम अकबर, जहांगीर ही था जिसने 1615 में इस कब्र पर मकबरा बनवाया था। इतिहास में यह कहीं दर्ज नही है कि इस कब्र में कौन है लेकिन लाहौर में यही माना जाता है कि यह अनारकली की है। इम्तिहाज़ अली 'ताज' ने इस मकबरे, उस पर जहांगीर की लिखी इश्क में डूबी दो लाइन और लाहौर में बुजुर्गों से सुने मुगलिये किस्सों को पिरो कर आशिकी का, एक नाटक लिखा और दुनिया को सलीम अनारकली की दास्तान ए मुहब्बत पेश कर दी। यहां एक बात महत्वपूर्ण है कि नाटक के शुरू में ही लेखक ने यह लिखा था कि यह कल्पित कथा है, इसका इतिहास से कोई लेना देना नही है। लेकिन एक मुगलिये शहजादे और महल की नाचनेवाली के इश्क का किस्सा कुछ इस तरह चढ़ा की तथ्यों को हटाते हुये, यह नाटकों, नौटंकियों और फिल्मों के सहारे नया इतिहास बन कर लोगो तक पहुंच गया।
इसी इम्तिहाज़ अली 'ताज' की कहानी को, के. आसिफ ने एक राजनैतिक प्रपोगंडे को स्थापित करने के लिये, 'मुगल ए आज़म' के लिये, अलग ढंग से लिखा और दिखाया था। भारत को 1947 में मुसलमानों ने धर्म के आधार पर तोड़ा था इसलिये बहुसंख्यक हिन्दुओ के बीच मुस्लिम इतिहास और खुद मुसलमानों की छवि अच्छी बनाने के लिये अकबर को धर्मनिर्पेक्षिता का आदिपुरुष बना कर परोसा गया था। इसी लिये अकबर को एक ऐसा मुगल शासक दिखाया गया जो न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष है बल्कि हिन्दू पत्नी को हिन्दू ही रहने देता है। जबकि जहाँगीरनामा व तत्कालीन मुगलकालीन दस्तावेज़ बताते है कि अकबर की 36 पत्नियां थी(उपपत्नी और रखैलें की संख्या 200 तक थी)जिसमे 12 राजपुताना की थी और उसमे से एक जोधा बाई थी, जो मरने के बाद दफनाई गयी थीं। 16वी शताब्दी के अकबर को ऐसा शासक दिखाया गया जो 20वी शताब्दी के मुसलमानों की टू नशन थ्योरी को नकारता है।
वैसे तो 1953 में एक फ़िल्म 'अनारकली' भी आई थी लेकिन उसका जिक्र इसलिये नही कर रहा हूँ क्योंकि मुगल ए आज़म ने जो भारत की सायक़ी को प्रभावित किया है वो अनारकली ने नही किया है। अनारकली एक शहजादे और दरबार मे नाचनेवाली की प्रेम कहानी थी लेकिन मुगल ए आज़म एक पोलटिकल प्रपोगंडा को बढ़ाने के लिये, हथियार के रूप में इस्तेमाल की गई थी। इसी फिल्मी इतिहास के घाल मेल में अनारकली की जीवन दान देने वाला अकबर महान हो गया और खुद लाहौर में अनारकली का मकबरा होते हुये भी, अनारकली ही गुम हो गयी।
अब चलते है 19वी शताब्दी में जब पहली बार किसी भारतीय लेखक ने अनारकली का नाम लिया था। नूर अहमद चिश्ती ने 1860 में अपनी किताब 'तहक़ीक़ात-ए-चिश्तिया' में लिखा कि 'अकबर महान की सबसे खूबसूरत और पसंदीदा रखैल अनारकली थी, जिसका असली नाम नादिरा बेगम उर्फ शरफ़-उन-निस्सा था। ऐसा माना जाता है कि उसकी मौत, हरम की दूसरी जलनखोर रखैलों द्वारा जहर देने से हुई थी और उसका मकबरा अकबर के हुक्म से बना था'।
यहां अकबर द्वारा मकबरा बनवाये जाने की बात गलत लगती है क्योंकि कब्र पर सलीम अकबर उर्फ जहांगीर लिखित दोहा खुदा है। अनारकली का फिर जिक्र 1892 में सईद अब्दुल लतीफ की 'तारीख-ए-लाहौर' में आया है, जिसमे लिखा है कि,' अनारकली का नाम नादिरा बेगम उर्फ शरफ़-उन-निस्सा ही था और वो अकबर की रखैल ही थी लेकिन उसको अकबर ने, सलीम के साथ अवैध सम्बन्ध होने के शक में, जिंदा चुनवा दिया था'
इसका मतलब यह है कि लाहौर में अनारकली के अस्तित्व को लेकर कोई शक नही था लेकिन वो अकबर की रखैल के रूप में जानी गयी थी। यहां अकबर द्वारा जिंदा चुनवाये जाने की बात भी कही गयी है और सलीम के साथ उसके सम्बंध होने को भी माना गया है। इसका मतलब यह है कि 20वी शताब्दी की सलीम की मुहब्बत अनारकली, 19वी शताब्दी में अकबर की रखैल और बाप अकबर के साथ बेटे सलीम के साथ भी हमबिस्तर होने वाली थी।
लेकिन 19वी शताब्दी से पहले अनारकली कहाँ छुपी थी? लाहौर में मकबरा और सलीम के इश्क में डूबे दोहे सबूत के तौर पर होने के बाद भी लोग उसको क्यों भुला देना चाहते थे या फिर क्यों तथ्यों को ठीक से नही रख पा रहे थे?
चलिये थोड़ा और पीछे उसी जमाने मे चलते है। इतिहास में अनारकली का पहला जिक्र एक ब्रिटिश घुम्मकड़ व व्यापारी विलियम फिंच के संस्मरणों में मिलता है। फिंच ने 1608 से 1611 तक में नील का व्यापार करने के लिये लाहौर की यात्रा की थी। उस वक्त जहांगीर को बादशाह बने 3 वर्ष हो चुके थे। उसने लिखा है कि,' अनारकली बादशाह अकबर की बीबियों में से एक थी जो जिसकी उम्र करीब 40 साल की थी लेकिन बहुत खूबसूरत थी। वो अकबर के पुत्र दानियाल शाह की मां थी। अकबर को यह शक हो गया था कि उसकी बीबी अनारकली का उसके बेटे सलीम, जो उस वक्त करीब 30 साल का और तीन बच्चों का बाप था, के साथ इन्सेस्टियस(सगे सम्बन्धियो में यौनाचार्य) सम्बंध है। इससे कुपित अकबर ने अनारकली की ज़िंदा चुनाव दिया था। जहांगीर जब 1605 में बादशाह बना तो अपनी मुहब्बत के प्रतीक के तौर पर कब्र पर मकबरा बनवाया था'।
विलियम फिंच के बाद आये एक ब्रिटिश यात्री एडवर्ड टेरी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि,' बादशाह अकबर ने शहजादे सलीम को उत्तराधिकारी से हटा देने की धमकी दी थी क्योंकि अनारकली, जो अकबर की प्रिय बीबी थी उसके साथ सलीम के सम्बंध थे। बाद में अकबर जब अपनी मृत्यु शैय्या पर था, उसने सलीम को इस गुनाह के लिये माफ कर दिया था'।
इसी बात पर अब्राहम रैली ने 2000 में प्रकाशित अपनी किताब 'द लास्ट स्प्रिंग: द लाइव्स एंड टाइम्स ऑफ द ग्रेट मुग़लस' में शंका व्यक्त करते हुए लिखा है कि,' ऐसा लगता है कि अकबर और सलीम के बीच 'ओएडिपालकॉन्फ्लिक्ट'(माँ और पुत्र के बीच सम्भोग को लेकर संघर्ष) था'। उन्होंने यहां अनारकली के शहजादे दानियाल होने की संभावना को भी व्यक्त किया है।
रैली ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिये अब्दुल फजल, जिन्होंने अकबरनामा लिखी थी, द्वारा उल्लेखित एक घटना को आधार बनाया है। वो लिखते है कि एक शाम शाही हरम के पहरेदारों ने हरम में पकड़े जाने पर सलीम को पीटा था। कहानी यह बताई जाती है कि एक पागल शाही हरम में घुस आया था और सलीम उसको पकड़ने के लिए हरम में घुस आया था लेकिन पहरेदारों ने उसी को ही पकड़ लिया था। यह सुनकर की कोई हरम में घुस आया है, बादशाह अकबर गुस्से में खुद ही वहां पहुंच गये और तलवार से कब उसका गला काटने जारहे थे तब ही उन्होंने सलीम का चेहरा देख कर हाथ रोक लिया था। रैली का मानना है कि शाही हरम में सलीम ही घुसा था लेकिन उसको बचाने के लिये एक पागल का जिक्र किया गया है।
16वी शताब्दी में जन्मी और मरी अनारकली, 21वी शताब्दी में अकबर की बीबी/रखैल की यात्रा करते हुये 5 शताब्दियों में अकबर के दरबार की बांदी बन चुकी है। वो शहजादे सलीम की मां से, शहजादे सलीम उर्फ जहांगीर की महबूबा बन चुकी है। वो अपने बेटे से इन्सेस्टस अवैध यौन सम्बंध रखने वाली से, सलीम के प्रेम में गिरफ्त मुगल-ए-आज़म बन चुकी है।
क्या ऐसा तो नही महान अकबर की अनारकली और शहजादे सलीम के 16वी शताब्दी के मुग़लिया सत्य की शर्मिंदगी ने अनारकली के अस्तित्व को आज, अनारकली को कल्पना बना दिया गया है?
मैं समझता हूँ की ऐसा ही है और इसी लिये लाहौर में अनारकली की शानदार मकबरे के होते हुये भी धर्मनिर्पेक्षिता के चश्मे से लिखा वामपंथियों का मुगलकालीन इतिहास उससे आंख चुराता रहा है।