मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

स्वार्थो के लिए अलापते है मनुवाद का राग


जो लोग मनुस्मृत की आलोचना करते है उन्होंने इसे पढ़ा ही नहीं और यदि पढ़ा है तो समझा ही नहीं । बाबा साहेब ने बिरोध किया बस उन्ही के बिरोध को आधार मनाकर बिरोध करना क्या तर्कसंगत है ?
मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है।
क्या है मनुवाद : जब हम बार-बार मनुवाद शब्द सुनते हैं तो हमारे मन में भी सवाल कौंधता है कि आखिर यह मनुवाद है क्या? महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृ‍ति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।

मनुस्मृति : समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है- धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।
जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्‍यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।
मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।
मनुस्मृति में दलित विरोध : मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।
मनु कहते हैं- ‘जन्मना जायते शूद्र:’ अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं, जिनसे इन आरोपों का स्वत: ही खंडन होता है कि मनु दलित विरोधी थे।
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद्‍ बाहु राजन्य कृत:।
उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद)
अर्थात ब्राह्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। दरअसल, कुछ अंग्रेजों या अन्य लोगों के गलत भाष्य के कारण शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बताने के कारण निकृष्ट मान लिया गया, जबकि हकीकत में पांव श्रम का प्रतीक हैं। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन और अध्यापन। आज के बुद्धिजीवी वर्ग को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात आज का रक्षक वर्ग या सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग। अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ग।
यहां यह देखने और समझने की जरूरत है कि पांवों से उत्पन्न होने के कारण इस वर्ग को अपवित्र या निकृष्ट बताने की साजिश की गई है, जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो।
वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट। क्योंकि शरीर का हर अंग एक दूसरे पर आश्रित है। पैरों को शरीर से अलग कर क्या एक स्वस्थ शरीर की कल्पना की जा सकती है? इसी तरह चतुर्वण के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
ब्राह्मणवाद की हकीकत : ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में व्यापम घोटाला इसका सटीक उदाहरण हो सकता है। क्योंकि कुछ लोगों ने भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी अयोग्य संतानों को भी डॉक्टर बना दिया। हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपनाकर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं। इसके लिए तत्कालीन समाज या फिर व्यक्ति ही दोषी हैं। उदाहरण के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए की थी, लेकिन बाद में राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसे आगे बढ़ाया जाता रहा। ऐसे में बाबा साहेब का क्या दोष?
मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।
मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी। दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है।
पंडित, पुजारी बनने के ब्राह्मण होना जरूरी है : पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति से न कि जातिगत। आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। ऋषि दयानंद की संस्था आर्यसमाज में हजारों विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित जन्म से दलित वर्ग से आते हैं।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।

क्या हम सकारत्मक है ?

by Nageshwar Singh Baghela on Tuesday, December 13, 2011 at 8:43am FB नोट्स
व्यक्ति का जीवन भावों के आधार पर चलता है। भाव ही जीवन का स्वरूप तय करते हैं, जीवन को गति प्रदान करते हैं और विश्व में व्यक्ति की प्रतिष्ठा भी करते हैं। भाव मन की इच्छा के साथ चलते हैं, इन पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता। व्यक्ति चाहे कि वह किसी इच्छा को पैदा ही न होने दे अथवा किसी विशेष प्रकार की इच्छा ही पैदा हो, यह सम्भव नहीं है। इच्छा को मन का “रेत” कहते हैं। “रेत” शब्द यहां बीज रूप में प्रयोग किया गया है। इच्छा मन की स्वाभाविक गति है। व्यक्ति के हाथ में है इच्छा का आकलन करके निर्णय करना कि इच्छा को पूरी करे अथवा न करे। कब पूरी करे, कैसे पूरी करे, यह निर्णय व्यक्ति के भावों पर आधारित होता है।
जब व्यक्ति अपने जीवन का उद्देश्य तय कर लेता है तथा जब वह एक लक्ष्य बनाकर कार्य करता है तो उसके भाव भी उसी के अनुरूप ढलने लगते हैं। व्यक्ति उसी प्रकार के भावों का अभ्यस्त होने लग जाता है। मन में उठने वाली इच्छा को वह अपने भावों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है।
जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य नहीं बन पाता, उसके लिए इच्छा का महžव ही नहीं होता। वह इच्छा का जीवन-विकास में सदुपयोग नहीं कर सकता। प्रतिबिम्बित मन च†चल होता है। वह दिन में अनेक बार बदलता है, मरता है, नया पैदा होता है, हर इच्छा के साथ। वातावरण मन को बदलने में सहायक होता है। वातावरण के अनुरूप ही इच्छा का स्वरूप बन जाता है। व्यक्ति हवा के झोंके के साथ इधर-उधर डोलता है। एक दिशा में नहीं चल सकता। इसके अलावा, जीवन परिवर्तनशील भी होता है। परिवर्तन सृष्टि का अंग है। सृष्टि स्वयं परिवर्तनशील है। इसी के साथ उसके मन में परिवर्तन आते हैं। जीवनचर्या में परिवर्तन आते हैं। कामकाज के ढंग में परिवर्तन आते हैं। आज तो परिवर्तन की गति इतनी बढ़ गई है कि व्यक्ति स्वयं को इस गति से बदलने में असहाय पाता है। इस बात का भय हो गया है कि यदि समय के साथ नहीं बदल पाया तो क्या होगा।
हर परिस्थिति में व्यक्ति की भावभूमि ही निर्णायक सिद्ध होती है। उसी के अनुरूप बुद्धि कार्य करती है, शरीर चलता है और कार्यो का निष्पादन होता है। भावभूमि के दो मुख्य पहलू हैं सकारात्मक और नकारात्मक। भाव हमारे चिन्तन का आधार है। हमें अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त हो और अप्रिय वस्तु से छुटकारा प्राप्त कर सकें, इसी ऊहापोह में व्यक्ति लगा रहता है। उसके चिन्तन का भी यही आधार होता है। प्रिय वस्तु हाथ से छूटे नहीं, यह भी चिन्ता रहती है। व्यवहार में सब कुछ असम्भव है। प्रिय हो अथवा अप्रिय, सदा उसका योग बना ही रहे, यह सम्भव नहीं है। सब संयोग से चलता है। हम प्रिय के जाने से भी दु:खी होते हैं और अप्रिय के आने से भी।
इसी प्रकार, अनेक स्थितियां हमारे चिन्तन एवं कर्म को प्रभावित करती रहती हैं। इन स्थितियों में यदि हम सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं तो अलग चित्र बनता है और नकारात्मक दृष्टिकोण से अलग बनता है। सकारात्मक भाव कल्याण-सूचक होते हैं, मैत्री, करूणा, दया, आनन्द आदि भावों से युक्त होते हैं। आशावाद से जुड़े होते हैं। नकारात्मक भावों में राग, द्वेष, ईष्र्या, लोभ, अहंकार आदि का प्रभाव विशेष होता है। निराशा का भाव बलशाली होता है। मन अनेक आशंकाओं से घिरा रहता है।
प्रकृति, आकृति और अहंकृति एक साथ ही उत्पन्न होती हैं। एक-दूसरी के अनुरूप होती हैं। व्यक्ति की शिक्षा का उद्देश्य होता है इनको समझना और उसी के अनुरूप चिन्तन करना। इनमें जो ग्राह्य हो, उन्हें विकसित करना और जो अवांछनीय हों, उन्हें त्याग देना। जीवन को दिशा देने का कार्य यहीं से शुरू हो जाता है। एक बार भाव-क्रिया समझ में आ जाए और एक दिशा तय हो जाए तो बुद्धि और शरीर वैसे ही कार्य करने लगते हैं। शुद्ध सकारात्मक भाव वाले व्यक्ति का चेहरा चमकता हुआ दिखाई पड़ता है। तेजस्वी लगता है। उसका सान्निध्य सुख देता है। नकारात्मक भावभूमि से चेहरे पर कालिमा छा जाती है, आकृति क्रूर दिखाई पड़ती है। भय प्रतीत होता है।
हम कार्य कुछ भी करें, किसी भी स्तर का जीवनयापन करें, भावों की सकारात्मकता से ही हमें सुख की अनुभूति हो सकती है। सकारात्मकता की एक विशेषता यह भी है कि इसमें व्यापकता का भाव होता है। संकुचन भाव नहीं होता, स्वार्थ भाव भी नगण्य होता है। विश्व-मैत्री अथवा प्राणि-मात्र के प्रति करूणा का भाव विकसित हो जाता है। इसका लाभ यह होता है कि व्यक्ति प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाता है। प्रतिक्रिया अनेक तनावों को जन्म देती है। व्यक्ति अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प में उलझा रहता है। वास्तविकता से दूर भी हो जाता है। क्रिया हो और प्रतिक्रिया न हो तो यह तनाव से मुक्ति ही है। मैत्रीपूर्ण भाव व्यक्ति को सृष्टि के साथ जोड़े रखता है। वह स्वयं को कभी अकेला महसूस नहीं करता। सदा अप्रमत्त रहता है। प्रतिक्रिया न होने से शान्त होने लगता है। वह धीरे-धीरे मितभाषी और मिताहारी बन जाता है। शक्ति-संचय करता है। शक्ति का उपयोग जनकल्याण में करता है। उसके उत्थान का मार्ग सदा प्रशस्त रहता है।
सकारात्मक भाव का एक लाभ यह भी है कि व्यक्ति वर्तमान में जीना सीख लेता है। न उसे स्मृति के जाल में अटकना पड़ता है और न ही कल्पना लोक के स्वप्न आते हैं। हर कठिन कार्य सरलता से हो जाता है। नकारात्मक भाव अहितकारी भी होते हैं और हिंसकवृत्ति वाले भी। व्यक्ति करने से पूर्व भी चिन्तित रहता है, करते समय भी चिन्तित रहता है और करने के बाद भी चिन्ता-मुक्त नहीं हो पाता। नकारात्मक भाव व्यक्ति को आशंकाओं से इतने ग्रस्त रखते हैं कि वह कुछ शुरू करने से पहले ही ठिठक जाता है। न सफलता, न सुख। अत: यदि नकारात्मक भाव आ भी जाएं तो उन पर विचार किए बिना दूसरे विषय को पकड़ लेना चाहिए। नकारात्मक भावों का कभी पोषण नहीं करना चाहिए। कोई भी कार्य, जिसमें ऎसे भावों का पोषण हो, त्याग देना चाहिए। आज टेलीविजन पर आने वाले अपराध भाव तथा सिनेमा से प्रसारित नकारात्मक भावों से समाज त्रस्त है। निरन्तर इनका पोषण हो रहा है। अखबार भी धीरे-धीरे इस ओर अग्रसर हैं। किसी को इसका आभास ही नहीं है कि धीमे जहर की तरह इस नकारात्मकता का प्रभाव मानवता पर कितना पड़ेगा! ये नकारात्मक भाव ही तो हैं, जो आगे चलकर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियों को जन्म देते हैं।

भारत महाशक्ति बन सकता है क्या ??

हमारे देश भारत वर्ष के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए. पी. जी. अब्दुल कलाम का सपना सन २०२० तक भारत को एक महाशक्ति के रूप में देखने का है| राजनैतिक स्तर पर कलाम की चाहत है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका का विस्तार हो और भारत ज्यादा से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाये। भारत को महाशक्ति बनने की दिशा में कदम बढाते देखना उनकी दिली चाहत है। वे तकनीक को भारत के जनसाधारण तक पहुँचाने की हमेशा वक़ालत करते रहे हैं। और यही सपना समस्त भारतवासियों का है| कि एक दिन हमारा देश सभी तरह के झगड़े-फसादों, जाती-सम्प्रदाय गत विद्वेषों आदि अनेक बुराइयों को छोड़कर विश्व में अग्रणी राष्ट्र बने| लेकिन हमारे समाज में इतनी सारी बुराइयां हैं नाम लेते ही थूकने का मन करता है| अब इन सब अनगिनत बुराइयों का बोझ पीठ पर लादे-लादे तो देश का विकास होने से रहा| होगा भी तो दस-बारह दशक तो लग ही जायेंगे|
तो माननीय सदस्यों! हम इसी विषय पर इस सूत्र में चर्चा करेंगे कि आखिर कैसे भारत एक महाशक्ति बन पायेगा? बन भी पायेगा या नहीं! बनेगा, तो कब तक बन पायेगा?
इन सब बातो पर बिचार बिमर्ष करने के बाद मैं निम्नलिखित बातो पर पहुचता हु ,मेरी राय में महाशक्ति बनने के लिए हमें कुछ अति महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर गौर करना होगा|जिसमें पहला है-तकनिकी| |अब दूसरे बिंदु पर आते हैं-श्रम का मूल्य|महाशक्ति बनने के लिये श्रम का मूल्य कम रहना चाहिये। तब ही देश माल का सस्ता उत्पादन कर पाता है और दूसरे देशों में उसका माल प्रवेश पाता है। चीन और भारत इस कसौटी पर अव्वल बैठते हैं जबकि अमरीका पिछड़ रहा है। विनिर्माण उद्योग लगभग पूर्णतया अमरीका से गायब हो चुका है, सेवा उद्योग भी भारत की ओर तेजी से रुख कर रहा है।हालांकि मुझसे ज्यादा इसके बारे में अर्थशास्त्री ज्यादा जानते होंगे, पर मैंने कहीं पर पढ़ा था कि "वह देश आगे बढ़ता है जिसके नागरिक खुले वातावरण में उद्यम से जुड़े नये उपाय क्रियान्वित करने के लिए आजाद होते हैं।" इसका मतलब शासन की कटु नज़र में शोध, व्यापार, अध्ययन, तकनीक, विचार, रचनात्मकता आदि सब कुंठित होकर रह जाती हैं, और ठीक से नहीं पनप पाती| अमेरिका में यह खुलापन उपलब्ध है| लेकिन हमारे यहां इसकी अपेक्षाकृत कमी दिखाई पड़ती है| ठीक से साधन और प्रोत्साहन उपलब्ध न होने के कारण भी आशाएं दम तोड़ देती हैं और जिससे प्रतिभाये पलायन कर जाती है और हम विकास के एक जरूरी अध्याय से वंचित रह जाते हैं,चीन में तो नागरिकों की उर्जा पर कम्युनिष्टों का नियंत्रण है,पर यदि हम आशावादी दृष्टी कोण से देखे तो |भारत महाशक्ति बनने के करीब है लेकिन हम भ्रष्टाचार की वजह से इस से दूर होते जा रहे है।हमारे नेताओ को जब अपने फालतू के कामो से फुरसत मिले तब ही तो वो इस सम्बन्ध मे सोच सकते है उन लोगो को तो फ्री का पैसा मिलता रहे देश जाये भाड मे। भारत को महाशक्ति बनने मे जो रोडा है वो है नेता। युवाओ को इस के लिये इनके खिलाफ लडना पडेगा, आज देश को महाशक्ति बनाने के लिये एक महाक्रान्ति की जरुरत है, क्योकि बदलाव के लिये क्रान्ति की ही आवश्यकता होती है लेकिन इस बात का ध्यान रखना पडेगा की भारत के रशिया जैसे महाशक्तिशाली देश की तरह टुकडे न हो जाये, अपने को बचाने के लिये ये नेता कभी भी रुप बदल सकते है।जिस प्रकार से आज छोटे छोटे प्रान्त बन रहे है राजनैतिक स्वार्थ के लिए उसी तरह से कल से कही अलगाव वादी ताकते सर नहीं उठाये इसके लिए हम सभी को सचेत रहना होगा !! ... यदि देश की सरकार भ्रष्ट होगी तो नागरिकों की उर्जा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है| देश की पूंजी गलत हाथों में पहुंचकर बर्बाद हो जाती है और देश गरीबी का शिकार हो जाता है| हमारे यहां माननीय नेतागण धन को स्विट्जरलैंड भेज देते हैं| धन के रिसाव के मामले में भारत बहुत तरक्की किये हुए है,आज हमारे भारतीय समाज में असमानता बहुत बढ़ रही है जिसका परिणाम गरीब और अमीर के अन्तर के बढ़ने से समाज में वैमनस्य पैदा होता है। गरीब की ऊर्जा अमीर के साथ मिलकर देश के निर्माण में लगने के स्थान पर अमीर के विरोध में लगती है। और समस्याएं खड़ी होकर सामने आती हैं,तो इन्ही बातो के साथ बंद करता हु यह लेख इन भावनाओं के साथ --मुझे तोड़ लेना वन-माली, उस पथ पर तुम देना फेंक !
                             मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक !!
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वैराग्य क्या है ?

वैराग्य जीवन के किसी भी चरण में उत्पन्न हो सकता है और यह उस परम पिता परमेश्वर की कृपा से ही होता है क्योंकि वैराग्य ही उस परम पिता परमेश्वर के निकट जाने का रास्ता है ...
जीवन के मुख्य मार्गो में वैराग्य भी एक राजमार्ग है। मोक्ष चाहने वाले हर एक पुरूषार्थी को इस मार्ग से गुजरना ही पड़ता है। जीवन की शुरूआत कामना एवं कर्म से होती है। कर्म तो अन्त समय तक साथ रहता है, किन्तु कामना को संकल्प एवं ज्ञान के सहारे छोड़ा जा सकता है। निष्काम कर्म को ही वैराग्य कहा जाता है। जो जीवन अर्थ और काम पर टिका हो, जो शिक्षा शुद्ध ज्ञान पर टिकी हो, वहां न वैराग्य है और न ही मोक्ष की अवधारणा। विद्या और पुरूषार्थ दोनों ही धर्म पर टिके हैं। विद्या में धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य है। पुरूषार्थ में-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष है। विद्या का लक्ष्य आनन्द है। ब्रह्म है।
पुरूषार्थ का लक्ष्य कर्म है। वैराग्य का अर्थ है कर्म को ब्रह्म (अकर्म) में बदलना। इसके लिए संन्यास लेने की आवश्यकता नहीं है। विवेक की जरूरत है। प्रज्ञा के जागरण की जरूरत है। भीतर के संसार से निरन्तर जुड़े रहने की जरूरत है। जो कुछ घट रहा है, उसका ‘क्या’ न देखकर ‘क्यों’ घट रहा है, देखने की जरूरत है। अर्थात जिस मार्ग पर चलते-चलते व्यक्ति रागी बनता है, उसी मार्ग से लौटकर बेरागी बनना होता है। होश आने के साथ ही कामनाओ का घेरा बढ़ता जाता है। मृग तृष्णा की तरह व्यक्ति कामना पूर्ति के लिए भागता रहता है।
शिक्षा ने अर्थ को कामना के शीर्ष पर रख दिया। धर्म के बिना अर्थ भी जीवन को प्रवाहमान ही बनाता है। नियंत्रण, मर्यादा, निषेध आदि शब्द अर्थ के आगे ठहर नहीं पाते। अनर्थ रह जाता है। कामनाओं में राग-द्वेष का प्रवेश हो जाता है। लोभ अनाचार में उलझा देता है। व्यसन घेर लेते हैं। कामना पर्याय है माया का। अर्थ को भी लक्ष्मी/ माया ही कहा जाता है। व्यक्ति की आंखों पर मोह का चश्मा चढ़ता जाता है। व्यक्ति स्वयं से दूर होता चला जाता है। वैराग्य में तो माया भाव से कदम-कदम पर संघर्ष करना पड़ता है। जीवन माया भाव के बीच से गुजरने का ही नाम है। अर्थ-काम के सागर में गोते लगाते हुए पार निकल जाने का नाम है। धर्म के कंधों पर सवार होने पर यह कार्य निश्चित होता है, किन्तु संघर्ष एवं दृढ़ संकल्प मांगता है।
जिस जीवन की शुरूआत ही भोग को लक्ष्य बनाकर होती है, वहां वैराग्य का प्रवेश वर्जित होता है। ईश्वर का ‘एकोहं बहुस्याम’ हमारे जीवन में विवाह बन कर उतरता है। तब इस बहुस्याम के भाव को वैराग्य में रूपान्तरित कर देना आज की आवश्यकता तो नहीं है। सहज साध्य भी नहीं है। तुष्टिकरण के साथ तृष्णा भी रहती है। छाया भी रहती है। आसुरी रूप भी (तमस) रहता है। मन की कमजोरी, विकल्पों की भरमार, सभी तो वैराग्य के शत्रु हैं। कौरव सेना की तरह अनन्त दिखाई पड़ते हैं। कुछ आकर्षित भी करते हैं, तो कुछ भयभीत भी करते हैं। इस मार्ग से व्यक्ति नींद में कैसे गुजर सकता है। सदा जाग्रत रहना पड़ेगा ही।
हठ योग का नाम भी वैराग्य नहीं है। दमन का मार्ग भी वैराग्य का शत्रु ही होता है। आज जब अघिकांश धर्म निषेधात्मक बनते जा रहे हैं, तब व्यक्ति के लिए जीना कठिन हो जाता है। निषेध स्वयं एक जिज्ञासा पैदा कर देता है मन में। किसी बच्चे को निषेध करके देख लीजिए, अवसर मिलते ही पहले निषेध भंग करेगा। निषेध शान्त व्यक्ति को अशान्त कर देता है।
इस निषेध का घातक प्रभाव वहां देखिए, जहां बच्चों को छोटी उम्र में संन्यासी बना देते हैं। जो जीवन को देख नहीं पाया, समझ नहीं पाया, भोग नहीं पाया, उस पर निषेध का क्या प्रभाव होगा? क्या यह निषेध ईश्वर के नियमों के पार जा सकता है? क्या सात जन्मों के बन्धन इस निषेध से टूट सकते हैं? क्या प्रारब्ध बदला जा सकता है- दो व्यक्तियों का प्रारब्ध एक व्यक्ति के संकल्प से बदल सकता है? दमन का यह मार्ग जीवन को आनन्दित कर सकता है?
दमन एक विस्फोटक प्रक्रिया का नाम है। हर व्यक्ति अज्ञान के कारण इस मार्ग पर चला जाता है। परम्पराएं, धर्म, सम्प्रदायों के नियम भी दमन को हवा देते हैं। घूंघट निकालना क्या है। क्या हर स्त्री प्रसन्न है घूंघट निकालकर? पीहर जाकर हो सकता है वह स्त्री सिर भी नहीं ढके। प्रतिक्रिया का ही स्वरूप है यह। हर प्रकार के दमन की प्रतिक्रिया होती है। दुनिया के सारे व्यभिचार प्रतिक्रिया स्वरूप पैदा होते हैं। किसी भी भाव को दबाना शत्रुता है। वैराग्य तो मित्रता का मार्ग है।
मित्रता के लिए प्रेम चाहिए, शत्रुता का आधार अहंकार है। क्रोध है। हर समाज में प्रेम के मार्ग में भी अनेक निषेध हंै। जो व्यभिचार का मार्ग प्रशस्त करते हैं। समाज के निषेध प्रकृति के आगे घुटने टेक देते हैं। क्रोध- अहंकार तो आसुरी भाव ही है। जिस समाज में आसुरी भाव के साथ-साथ दैविक भाव पर भी निषेध हो, वहां समृद्धि खत्म ही समझो। वहां सारे व्यक्तित्व कुण्ठित अथवा आपराघिक ही नजर आएंगे। अधूरी कामना व्यक्ति को अघिक भटकाती है। उसे भूल पाना व्यक्ति के लिए कठिन होता है। भगवान चाहे याद आए या न आए, शत्रु का चेहरा सदा आंखों में रहता है। तब कैसे व्यक्ति कामना पार होकर वैराग्य में प्रवेश कर सकता है। वह तो उम्र भर निषेध तोड़कर कामना पूर्ति के लिए संघर्ष ही करेगा/करेगी।
 वैराग्य का मार्ग संघर्ष का नहीं हो सकता। शत्रुता का नहीं हो सकता। वह तो प्रेम का मार्ग ही है। धर्म आधारित मार्ग है। धर्म भी प्रकृति से बाहर नहीं जा सकता। प्रकृति ही माया है। माया को समझना ही धर्म का मार्ग प्रशस्त करता है। माया के भाव को, इसके प्रभाव को, इसकी नश्वरता को समझ लेना ही स्वयं को मुक्त करना है। यह समझ लेना ही तो मित्रता का रूप है। दबाना शत्रुता है। क्योंकि दबा हुआ भाव अवसर पाकर कब फट पड़ेगा, पता भी नहीं चल पाएगा। कोई शक्ति उसे रोक नहीं पाएगी। जीवन में बड़ा अनर्थ कर जाता है। मित्रता में अनर्थ नहीं है। यदि क्रोध, लोभ, ईष्र्या, अर्थ, काम आदि का यथार्थ स्वरूप समझ में आ जाए तो जीवन में इनका प्रभाव स्वत: समाप्त हो जाता है।
मन में उठने वाली इच्छाओं को कभी-कभी अन्य प्राणियों की इच्छाओं के साथ भी मिलाकर देख लेना चाहिए। उनका अर्थ जल्दी समझ में आ जाता है। पशु के मन की इच्छाएं केवल भोग योनि की होती है। मनुष्य पशु की तरह जीना नहीं चाहता। वह अनेक इच्छाओं को तो इसीलिए छोड़ देगा कि वह पशुता का पर्याय नहीं दिखना चाहता। कई इच्छाओं की पूर्ति अन्त में घातक भी सिद्ध होती है। कुछ इच्छाएं जीवन में मिठास घोलती हुई भी जान पड़ती हैं। तब एक बात स्पष्ट हो जाती है कि वैराग्य का अर्थ भागना नहीं है। कामना से मित्रता करना है। धर्म के चश्मे से, ज्ञान की पुस्तकों में अर्थ और काम को जीना भी है और उनके प्रभाव को भी निष्प्रभावी करते जाना है। ताकि उनसे प्राप्त होने वाले फलों से कर्मो को दूर कर लिया जाए। कर्म अकर्म हो जाए।त्याग  क्या है?
त्याग है – अनावश्यकता का विसर्जन. जैसे अभी सर्दी है, तो हम इस कम्बल को ओढ़े हैं. सर्दी लगनी बंद हो गयी तो यह कम्बल अनावश्यक हो गया, और उसको हमने छोड़ दिया. यही त्याग का सही स्वरूप है. जो हमारे लिए अनावश्यक है उसको हमने छोड़ दिया – इससे अधिक त्याग कुछ नहीं है.
राग का मतलब है – संग्रह. वैराग्य या विराग का मतलब है – असंग्रह या समृद्धि. यही वैराग्य का सही स्वरूप है. मानव को समृद्धि चाहिए या विरक्ति चाहिए? पूछने पर यही निकलता है – समृद्धि चाहिए.

जो राजा (सत्ताधारी) बनाता है ओ रंक हो रहा है क्यों ?

जनता सत्ता को देखती है। सत्ता जनता को नहीं देखती। जनता सत्ता परोसती है। सत्ता जनता को ही कोसती है। सत्ता में बैठा व्यक्ति झूठ के सहारे ही स्वयं की श्रेष्ठता साबित करता है। उसके लिए इससे अच्छा व्यक्तित्व होता ही नहीं। सम्पूर्ण सत्ता का उपयोग स्वयं को सुरक्षित करने में तो करता है, किन्तु दूसरा उसे हर हाल में ही सुरक्षित लगता है। संवदेना सत्ता की शत्रु है। लोकतंत्र भी है तो सत्ता का ही एक स्वरूप।
भोपाल का गैस काण्ड इसका जीता-जागता उदाहरण है। यूनियन कार्बाइड ने तो इसे डाऊ केमिकल्स को बेच दिया और स्वयं चल बसी। पीडितों को छोड़ गई डाऊ के भरोसे। व्यापारी कम्पनी थी। किन्तु हमारी सरकार भी क्या व्यापारी हो गई?
सारे सत्ताधीश मगरमच्छी आंसू बहाते रहते हैं। पीड़ा वहीं की वहीं है। किसी ने कोई संकल्प किया हो, बीड़ा उठाया हो, सहायता करने का, दिखाई नहीं देता। हां, आश्वासनों के आसव सब पिलाते ही रहते हैं। करोड़ों के सब्जबाग दिखाते आ रहे हैं। करोड़ों खर्च भी बता रहे हैं। खूब खा भी रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप भी चलते रहते हैं। ऊपर से वोटों की राजनीति कोढ़ में खाज का काम कर रही है। घर उजड़ गए। कोई बात नहीं। उनको तो नाम भी याद नहीं। आपका वोट किसी और से डलवा लेंगे, किन्तु कष्ट के समय साथ देने के लिए उनके पास समय नहीं होता। फिर सरकार का अर्थ क्या? सरकारें तो आती-जाती रहेंगी पर करेंगी कुछ नहीं। गैस पीडित परिवारों को उनका हक देने की बजाय उनके साथ भिखारियों की तरह बर्ताव क्यों किया जाता है? ये परिवार सरकारी मदद के मोहताज क्यों रहें? क्यों नहीं समाज के लोग ही एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आएं। सक्षम लोग पीडित परिवारों के बच्चों को गोद लें और उनकी शिक्षा व स्वास्थ्य का खर्चा उठाएं। तब ही भोपालवासियों में आत्मसम्मान से जीने का भाव पैदा हो सकेगा। गैस त्रासदी के पीडितों को भी लगेगा कि उनकी मदद अपने ही कर रहे हैं।
कोई आए, लोगों को लूटकर ले जाए, जनता को मारकर चला जाए, संसद पर हमला कर जाए, सीमा में प्रवेश कर जाए, और सरकार? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यदि सरकार फैसले को लागू नहीं करा पाए तो सरकार पंगु ही कही जाएगी। या सम्बंधित सरकारी प्रतिनिधि डाऊ के दलालों की तरह मौन बैठे हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम इन भागीदारों को पकड़वा नहीं सकते? उनकी गतिविधियों को देखें। सन् 2012 का ओलम्पिक आयोजन डाऊ के साçन्नध्य में हो रहा है। वही मुख्य प्रायोजक है। कितने अरबों डालर खर्च रहा है। भारत सरकार चुप बैठी है। यह सही समय है उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का।
उसके बारे में प्रचार भी ढंग से किया जाए। शर्म आती हो तो, इस बार भारत को ओलम्पिक खेलों के बहिष्कार करने की भी घोषणा कर देनी चाहिए। यह मुद्दा भी उतना ही भावनात्मक है, जितना कि खिलाडियों का भाग लेना। इण्टरपोल, अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय आदि के जरिए भी कार्रवाई होनी चाहिए।
इनके साथ-साथ राज्य तथा केन्द्र को मिलकर इनकी पूर्ण व्यवस्था करनी चाहिए। आज
लाखों-करोड़ के तो घपले हो ही जाते हैं। पीडितों के लिए कुछ सैकड़ों करोड़ भी हम मांगकर खर्चना चाहते हैं। भोपाल गैस हादसा हुआ तब से अब तक करीब सैंतीस सौ करोड़ रूपए मुआवजे के नाम बांटे गए। लेकिन पीडितों की हालत जस की तस है। यही मेरा भोपाल है, जहां के भूखे बालगोपाल हैं।

!! वेदों में जाति-व्यवस्था नहीं !!



इस श्रृंखला में प्रकाशित अब तक के लेखों में हम आक्रमणकारी आर्यों के भारतवर्ष में आकर यहाँ के आदि निवासियों को पराजित कर दास बना उनसे नीचा काम करवाने की मनघडंत कहानियों द्वारा गुमराह करने का षड़यंत्र देख चुके हैं | इसके विपरीत हम वेदों में श्रम का सर्वोच्च महत्त्व पाते हैं | हमने देखा कि आर्यों के चाकर या आदि निवासी समझे गए दास \ दस्यु या राक्षस वस्तुतः अपराधियों के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले पर्यायवाची शब्द हैं | प्रत्येक सभ्य समाज ऐसे अपराधियों पर अंकुश लगाता है |
हम यह भी देख चुके हैं कि वेदों में सभी चार वर्णों को जिनमें शूद्र भी शामिल हैं, आर्य माना गया है और अत्यंत सम्मान दिया गया है | यह हमारा दुर्भाग्य है कि वेदों की इन मौलिक शिक्षाओं को हमने विस्मृत कर दिया है, जो कि हमारी संस्कृति की आधारशिला हैं | और जन्म-आधारित जाति व्यवस्था को मानने तथा कतिपय शूद्र समझी जाने वाली जातियों में जन्में व्यक्तियों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार आदि करने की गलत अवधारणाओं में हम फँस गए हैं |
कम्युनिस्ट और पूर्वाग्रह ग्रस्त भारतीय चिंतकों की भ्रामक कपोल कल्पनाओं ने पहले ही समाज में अलगाव के बीज बो कर अत्यंत क्षति पहुंचाई है | अभाग्यवश दलित कहे जाने वाले लोग खुद को समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करते हैं, फलतः हम समृद्ध और सुरक्षित सामाजिक संगठन में नाकाम रहे हैं | इस का केवल मात्र समाधान यही है कि हमें अपने मूल, वेदों की ओर लौटना होगा और हमारी पारस्परिक (एक-दूसरे के प्रति) समझ को पुनः स्थापित करना होगा | इस लेख में हम वेदों में जाति व्यवस्था की वास्तविकता और शूद्र के यथार्थ अर्थ का आकलन करेंगे |
१. जैसे कि हम पहले लेख “vedas and shudra” में चर्चा कर चुके हैं कि वेदों में मूलतः ब्राहमण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र पुरुष या स्त्री के लिए कहीं कोई बैरभाव या भेदभाव का स्थान नहीं है |
२. जाति (caste) की अवधारणा यदि देखा जाए तो काफ़ी नई है | जाति (caste) के पर्याय के रूप में स्वीकार किया जा सके या अपनाया जा सके ऐसा एक भी शब्द वेदों में नहीं है | जाति (caste) के नाम पर साधारणतया स्वीकृत दो शब्द हैं — जाति और वर्ण | किन्तु सच यह है कि तीनों ही पूर्णतया भिन्न अर्थ रखते हैं |
... जाति (caste) की अवधारणा यूरोपियन दिमाग की उपज है जिसका तनिक अंश भी वैदिक संस्कृति में नहीं मिलता |
जाति – जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण | न्याय सूत्र यही कहता है “समानप्रसवात्मिका जाति:” अथवा जिनके जन्म का मूल स्त्रोत सामान हो (उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो) वह एक जाति बनाते हैं | ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है – उद्भिज(धरती में से उगने वाले जैसे पेड़, पौधे,लता आदि), अंडज(अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी, सरीसृप आदि), पिंडज (स्तनधारी- मनुष्य और पशु आदि), उष्मज (तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से उत्त्पन्न होने वाले – जैसे सूक्ष्म जिवाणू वायरस, बैक्टेरिया आदि) |
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है | एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं | अतः जाति ईश्वर निर्मित है |
जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं | इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है |
बहुत समय बाद जाति शब्द का प्रयोग किसी भी प्रकार के वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त होने लगा | और इसीलिए हम सामान्यतया विभिन्न समुदायों को ही अलग जाति कहने लगे | जबकि यह मात्र व्यवहार में सहूलियत के लिए हो सकता है | सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया सही शब्द – वर्ण है – जाति नहीं | सिर्फ यह चारों ही नहीं बल्कि आर्य और दस्यु भी वर्ण कहे गए हैं | वर्ण का मतलब है जिसे वरण किया जाए (चुना जाए) | अतः जाति ईश्वर प्रदत्त है जबकि वर्ण अपनी रूचि से अपनाया जाता है | जिन्होंने आर्यत्व को अपनाया वे आर्य वर्ण कहलाए और जिन लोगों ने दस्यु कर्म को स्वीकारा वे दस्यु वर्ण कहलाए | इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कहे जाते हैं | इसी कारण वैदिक धर्म ’वर्णाश्रम धर्म’ कहलाता है | वर्ण शब्द का तात्पर्य ही यह है कि वह चयन की पूर्ण स्वतंत्रता व गुणवत्ता पर आधारित है |
३. बौद्धिक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों ने ब्राहमण वर्ण को अपनाया है | समाज में रक्षा कार्य व युद्धशास्त्र में रूचि योग्यता रखने वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं | व्यापार-वाणिज्य और पशु-पालन आदि का कार्य करने वाले वैश्य तथा जिन्होंने इतर सहयोगात्मक कार्यों का चयन किया है वे शूद्र वर्ण कहलाते हैं | ये मात्र आजीविका के लिए अपनाये जाने वाले व्यवसायों को दर्शाते हैं, इनका जाति या जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है |
४. वर्णों को जन्म आधारित बताने के लिए ब्राह्मण का जन्म ईश्वर के मुख से हुआ, क्षत्रिय ईश्वर की भुजाओं से जन्में, वैश्य जंघा से तथा शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए यह सिद्ध करने के लिए पुरुष सूक्त के मंत्र प्रस्तुत किये जाते हैं | इस से बड़ा छल नहीं हो सकता, क्योंकि -
(a) वेद ईश्वर को निराकार और अपरिवर्तनीय वर्णित करते हैं | जब परमात्मा निराकार है तो इतने महाकाय व्यक्ति का आकार कैसे ले सकता है ? (देखें यजुर्वेद ४०.८)
(b) यदि इसे सच मान भी लें तो इससे वेदों के कर्म सिद्धांत की अवमानना होती है | जिसके अनुसार शूद्र परिवार का व्यक्ति भी अपने कर्मों से अगला जन्म किसी राजपरिवार में पा सकता है | परन्तु यदि शूद्रों को पैरों से जन्मा माना जाए तो वही शूद्र पुनः ईश्वर के हाथों से कैसे उत्त्पन्न होगा?
(c) आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता | यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है | तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है? आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया? किन्तु वेदों की साक्षी से प्रकृति भी शाश्वत है और कुछ अणु पुनः विभिन्न मानव शरीरों में प्रवाहित होते हैं | अतः यदि परमात्मा सशरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले |
(d) जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है | यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है | इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
उदाहरणतः यह पूछा जाए, “दशरथ कौन हैं?” और जवाब मिले “राम ने दशरथ से जन्म लिया”, तो यह निरर्थक जवाब है |
इसका सत्य अर्थ है – समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी लोग समाज का मस्तिष्क, सिर या मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे | बाहुओं के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय हैं, वैश्य या उत्पादक और व्यापारीगण जंघा के सामान हैं जो समाज में सहयोग और पोषण प्रदान करते हैं (ध्यान दें ऊरू अस्थि या फिमर हड्डी शरीर में रक्तकोशिकाओं का निर्माण करती हैं और सबसे सुदृढ़ हड्डी होती है ) | अथर्ववेद में ऊरू या जंघा के स्थान पर ‘मध्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है | जो शरीर के मध्य भाग और उदर का द्योतक है | जिस तरह पैर शरीर के आधार हैं जिन पर शरीर टिक सके और दौड़ सके उसी तरह शूद्र या श्रमिक बल समाज को आधार देकर गति प्रदान करते हैं |

इससे अगले मंत्र इस शरीर के अन्य भागों जैसे मन, आंखें इत्यादि का वर्णन करते हैं | पुरुष सूक्त में मानव समाज की उत्पत्ति और संतुलित समाज के लिए आवश्यक मूल तत्वों का वर्णन है |
यह अत्यंत खेदजनक है कि सामाजिक रचना के इतने अप्रतिम अलंकारिक वर्णन का गलत अर्थ लगाकर वैदिक परिपाटी से सर्वथा विरुद्ध विकृत स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है |
ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति, महाभारत, रामायण और भागवत में भी कहीं परमात्मा ने ब्राह्मणों को अपने मुख से मांस नोंचकर पैदा किया और क्षत्रियों को हाथ के मांस से इत्यादि ऊलजूलूल कल्पना नहीं पाई जाती है |
५. जैसा कि आधुनिक युग में विद्वान और विशेषज्ञ सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक होने के कारण हम से सम्मान पाते हैं इसीलिए यह सीधी सी बात है कि क्यों ब्राह्मणों को वेदों में उच्च सम्मान दिया गया है | अपने पूर्व लेखों में हम देख चुके हैं कि वेदों में श्रम का भी समान रूप से महत्वपूर्ण स्थान है | अतः किसी प्रकार के (वर्ण व्यवस्था में) भेदभाव के तत्वों की गुंजाइश नहीं है |
६. वैदिक संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः शूद्र ही माना जाता है | उसके द्वारा प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण निर्धारित किया जाता है | शिक्षा पूर्ण करके योग्य बनने को दूसरा जन्म माना जाता है | ये तीनों वर्ण ‘द्विज’ कहलाते हैं क्योंकि इनका दूसरा जन्म (विद्या जन्म) होता है | किसी भी कारणवश अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों के सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं |
७. यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है | इसी तरह शूद्र या दस्यु का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है |यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है | जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती हैं उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था | प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था |
८. वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे -
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |

(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
९. वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है | कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है | और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है |
१०. वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है (“तपसे शूद्रम”-यजु .३०.५), और इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को सम्पूर्ण मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है |
११. चार वर्णों से अभिप्राय यही है कि मनुष्य द्वारा चार प्रकार के कर्मों को रूचि पूर्वक अपनाया जाना | वेदों के अनुसार एक ही व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करता है | अतः प्रत्येक व्यक्ति चारों वर्णों से युक्त है | तथापि हमने अपनी सुविधा के लिए मनुष्य के प्रधान व्यवसाय को वर्ण शब्द से सूचित किया है |
अतः वैदिक ज्ञान के अनुसार सभी मनुष्यों को चारों वर्णों के गुणों को धारण करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए | यही पुरुष सूक्त का मूल तत्व है | वेद के वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगीरा, गौतम, वामदेव और कण्व आदि ऋषि चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करते हैं | यह सभी ऋषि वेद मंत्रों के द्रष्टा थे (वेद मंत्रों के अर्थ का प्रकाश किया) दस्युओं के संहारक थे | इन्होंने शारीरिक श्रम भी किया तथा हम इन्हें समाज के हितार्थ अर्थ व्यवस्था का प्रबंधन करते हुए भी पाते हैं | हमें भी इनका अनुकरण करना चाहिए |
सार रूप में, वैदिक समाज मानव मात्र को एक ही जाति, एक ही नस्ल मानता है | वैदिक समाज में श्रम का गौरव पूर्ण स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है | किसी भी किस्म के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते |
अतः हम भी समाज में व्याप्त जन्म आधारित भेदभाव को ठुकरा कर, एक दूसरे को भाई-बहन के रूप में स्वीकारें और अखंड समाज की रचना करें |
हमें गुमराह करने के लिए वेदों में जातिवाद के आधारहीन दावे करनेवालों की मंशा को हम सफल न होने दें और समाज के अपराधी बनाम दस्यु\दास\राक्षसों का भी सफ़ाया कर दें |
हम सभी वेदों की छत्र-छाया में एक परिवार की तरह आएं और मानवता को बल प्रदान करें |
वेदों में कोई जाति व्यवस्था नहीं है |

मैकाले की कुटिल शिक्षा नीति के कारण ही अनेक भारतीय विद्वान भी यह मानते हैं कि वेद में कथित आर्यों और दस्युओं के संघर्ष का वर्णन है | आर्य लोग मध्य एशिया से आए हैं | भारत के मूल निवासी दास या दस्यु थे, जिन्हें आर्यों ने आकर लूटा, खदेडा, पराजित कर दास बनाया, कठोर व्यवहार कर उनसे नीचा काम करवाया और सदा के लिए भारतवर्ष पर आधिपत्य स्थापित कर लिया |
वेदों के बारे में पाश्चात्य विद्वानों ने यह लाल बुझक्कड़ वाली कल्पना इस देश की वैदिक विचारधारा, सभ्यता, संस्कृति को नष्ट कर पाश्चात्य पद्धतियों के प्रचार – प्रसार तथा यहां साम्राज्य स्थापित करने के लिए ही गढ़ी थी | और इस देश का सत्यानाश करने के षड्यंत्र में शामिल उनके पुछल्ले साम्यवादी भी यही राग अलापते रहते हैं कि आर्यों ने अपनी महत्ता को जन्मगत भेदभाव के आधार पर प्रस्थापित किया |

भारतवर्ष को विभाजित करनेवाले इन्हीं विचारों के कारण आज स्वयं को द्रविड़ तथा दलित कहलानेवाले भाई – बहन जो अपने आप को अनार्य मानते हैं – उनके मन में वेदों के प्रति तथा उन्हें मानने वालों के प्रति घृणा और द्वेष का ज़हर भर गया है, परिणाम देश भुगत ही रहा है |
उनकी इस निराधार कल्पना का खंडन कई विद्वान कर चुके हैं | यहां तक कि डा. अम्बेडकर भी उनके इन विचारों से सहमत नहीं थे | क्योंकि  इस मिथ्या विवाद का आधार वेदों को बताया जा रहा है तो अब हम वेदों से ही आर्य और दस्यु के वास्तविक अर्थ जानेंगे | यही इस लेख का मूल उद्देश्य है |

आरोप :   वेदों में कई स्थानों पर आर्य और दस्यु का वर्णन आया है | कई मंत्र दस्यु के विनाश तथा आर्यों के रक्षा की प्रार्थना करते हैं | कुछ मंत्र तो यह भी कहते हैं कि जो स्त्रियां भी दस्यु पाई जाएं तो उन्हें भी नहीं बख्शना चाहिए |  इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वेद में दस्युओं पर आर्यों के अत्यंत घातक आक्रमण का वर्णन है |

समाधान :  ऋग्वेद में दस्यु से संबंधित ८५ मंत्र हैं | जिन में से कई दास के संदर्भ में भी हैं, जो दस्यु का ही पर्यायवाची है | आइए उन में से कुछ के अर्थ देखें -

  • ऋग्वेद १|३३|४
हे शूरवीर राजन्  ! विविध शक्तियों से युक्त आप एकाकी विचरण करते हुए अपने शक्तिशाली अस्त्र से धनिक दस्यु (अपराधी) और सनक(अधर्म से दूसरों के पदार्थ छीनने वाले ) का वध कीजिये | आपके अस्त्र से वे मृत्यु को प्राप्त हों | यह सनक: शुभ कर्मों से रहित हैं |
यहां  दस्यु  के  लिए  ’अयज्व’  विशेषण आया है अर्थात् जो शुभ कर्मों और संकल्पों से रहित हो और ऐसा व्यक्ति पाप कर्म करने वाला अपराधी ही होता है |  अतः यहां राजा को प्रजा की रक्षा के लिए ऐसे लोगों का वध करने के लिए कहा गया है | सायण ने इस में दस्यु का अर्थ चोर किया है | दस्यु का मूल ‘ दस ‘ धातु है जिसका अर्थ होता है – ‘ उपक्क्षया ‘ – जो नाश करे  | अतः दस्यु कोई अलग जाति या नस्ल नहीं है, बल्कि दस्यु का अर्थ विनाशकारी और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से है |

  • ऋग्वेद १|३३|५
जो दस्यु (दुष्ट जन ) शुभ कर्मों से रहित हैं परंतु शुभ करने वालों के साथ द्वेष रखने वाले हैं,  आपकी रक्षा के प्रताप से वे भाग जाते हैं | हे पराक्रमी राजेन्द्र !  आपने सभी स्थानों से ‘ अव्रत ‘  (शुभ कर्म रहित ) जनों को निकाल बाहर किया है |  इस मंत्र में दस्यु के दो विशेषण आए हैं – ‘ अयज्व ‘ = शुभ कर्म और संकल्पों से रहित , ‘ अव्रत ‘ = नियम न पलनेवाला तथा अनाचारी | साफ़ है, दस्यु शब्द अपराधियों के लिए ही आया है | और सभ्य समाज में ऐसे लोगों को दिए जानेवाले दंड का ही विधान वेद करते हैं |

  • ऋग्वेद १|३३|७
हे वीर राजन् !  इन रोते हुए या हँसते हुए दस्युओं को इस लोक से बहुत दूर भगा दीजिये और उन्हें नष्ट कर दीजिये तथा  जो शुभ कर्मों से युक्त तथा ईश्वर का गुण गाने वाले मनुष्य हैं उनकी रक्षा कीजिये |

  • ऋग्वेद १|५१|५
हे राजेन्द्र ! आप अपनी दक्षता से छल कपट से युक्त ‘ अयज्वा’  ’ अव्रती’ दस्युयों को कम्पायमान करें, जो प्रत्येक वस्तु का उपभोग केवल स्वयं के लिए ही करते हैं, उन दुष्टों को दूर करें | हे मनुष्यों के रक्षक ! आप उपद्रव, अशांति फैलानेवाले दस्युओं के नगर को नष्ट करें और सत्यवादी सरल प्रकृति जनों की रक्षा करें |
इस मंत्र में दान- परोपकार से रहित, सब कुछ स्वयं पर ही व्यय करने वाले को दस्यु कहा है |
कौषीतकी ब्राह्मण में ऐसे लोगों को असुर कहा गया है | जो दान न करे वह असुर है,  अतः  असुर और दास दोनों का तात्पर्य दुष्ट अपराधी जनों से है |

  • ऋग्वेद १|५१|६
हे वीर राजन्  !  आप प्रजाओं का शोषण करने वालों की हत्या और ऋषियों की रक्षा करते हैं |  और दुसरों  की सहायता करने वालों के कल्याण के लिए आप महादुष्ट जनों को भी कुचल देते हैं | सदा से ही आप दस्यु ( दुष्ट जनों )  के हनन के लिए ही उत्पन्न होते हैं |
यहां दस्यु के लिए ‘ शुष्ण ‘ का प्रयोग है – जिसका अर्थ है शोषण – दु:ख  देना |

  • ऋग्वेद १|५१|७
हे परमेश्वर ! आप आर्य और दस्यु को अच्छे प्रकार जानते हैं | शुभ कर्म करने वालों के लिए आप ‘ अव्रती’  (शुभ कर्म के विरोधी ) दस्युओं को नष्ट करो | हे भगवन् !  मैं सभी उत्तम कर्मों के प्रति पालन में आपकी प्रेरणा सदा चाहता हूं |

  • ऋग्वेद १|५१|९
हे राजेन्द्र ! आप नियमों का पालन करने वाले तथा शुभ कर्म करने वाले के कल्याण हेतु व्रत रहित दस्यु का संहार करते हो | स्तुति करने वालों के साथ द्वेष रखने वाले, अनाचारी, ईश्वर गुण गान रहित लोगों को वश में रखते हो |

  • ऋग्वेद १|११७|२१
हे शूरवीर सेनाधीशों !  आप उत्तम जनों की रक्षा तथा दस्यु का संहार करो |
इस मंत्र में रचनात्मक कार्यों में संलग्न मनुष्यों को आर्य कहा गया है |

  • ऋग्वेद १|१३०|८
हे परम ऐश्वर्यवान् राजा ! आप तीन प्रकार के – साधारण, स्पर्धा के लिए और सुख की वृद्धि के लिए किए जाने वाले संग्रामों में यजमानम् आर्यम् ( उत्तम गुण, कर्म स्वभाव के लोग ) का रक्षण करें | और अव्रतान् ( नियन के न् पलनेवाले, दुष्ट आचरण वाले ), जिनका अंतकरण काला हो गया है, हिंसा में रत या हिंसा की इच्छा करने वाले को नष्ट कर दें |
यहां ‘ कृष्ण त्वक् ‘  शब्द से कलि त्वचा वाले लोगों की कल्पना कर ली गई है | जब की यहाँ ‘ कृष्ण त्वक् ‘ का अर्थ अंतकरण का दुष्ट भाव है | साथ ही यहां ‘ ततृषाणाम् ‘ और  ’अर्शसानम्’  भी आए हैं,  जिनका अर्थ है – हिंसा करना चाहना और हिंसा में रत | इस के विरुद्ध आर्य यहां श्रेष्ठ और परोपकारी मनुष्यों के लिए आया है |
इस से स्पष्ट होता है  कि आर्य और दस्यु शब्द गुण वाचक हैं, जाति वाचक नहीं हैं |

  • ऋग्वेद ३|३४|९
यह मंत्र भी दस्यु का नाश और आर्य की रक्षा का अर्थ रखता है | यहां आर्य के लिए वर्ण शब्द आया है, वर्ण अर्थात्  स्वीकार किए जाने योग्य इसलिए आर्य वर्ण = स्वीकार करने योग्य उत्तम व्यक्ति |

  • ऋग्वेद ४|२६|२
मैं आर्य को भूमि देता हूं, दानशील मनुष्य को वर्षा देता हूं और सब मनुष्यों के लिए अन्य संपदा देता हूं |
यहां आर्य दान शील मनुष्यों के विशेषण रूप में आया है |

ऋग्वेद के अन्य मंत्र हैं -

  1. ऋग्वेद ४|३०|१८
  2. ऋग्वेद ५|३४|६
  3. ऋग्वेद ६|१८|३
  4. ऋग्वेद ६|२२|१०
  5. ऋग्वेद ६|२२|१०
  6. ऋग्वेद ६|२५|२
  7. ऋग्वेद ६|३३|३
  8. ऋग्वेद ६|६०|६
  9. ऋग्वेद ७|५|७
  10. ऋग्वेद ७|१८|७
  11. ऋग्वेद ८|२४|२७
  12. ऋग्वेद ८|१०३|१
  13. ऋग्वेद १०|४३|४
  14. ऋग्वेद १०|४०|३
  15. ऋग्वेद १०|६९|६
इन मंत्रों में भी आर्य और दस्यु \ दास शब्दों के विशेषणों से पता चलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही मनुष्य आर्य और दस्यु नाम से पुकारे जाते हैं अतः उत्तम स्वभाव वाले, शांतिप्रिय, परोपकारी गुणों को अपनाने वाले आर्य तथा अनाचारी और अपराधी प्रवृत्ति वाले दस्यु हैं |

ऋग्वेद ६|२२|१० दास को भी आर्य बनाने की शिक्षा देता है | साफ़ है कि आर्य और दस्यु का अंतर कर्मों के कारण है जाति के कारण नहीं |

ऋग्वेद ६|६०|६ में कहा गया है – यदि आर्य ( विद्वान श्रेष्ठ लोग ) भी अपराधी प्रवृत्ति के हो जाएं तो उनका भी संहार करो | यही भावना ऋग्वेद १०|६९|६ और १०|८३|१ में व्यक्त की गई है |

अतः आर्य कोई सदैव बने रहने वाला विशेषण नहीं है | आर्य गुणवाचक शब्द है | श्रेष्ठ गुणों को धारण करनेवाले आर्य कहलाते हैं | अगर वह अपने गुणों से विमुख हो जाएं – अपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्त हो जाएं – तो वह भी दस्यु की तरह ही दंड के पात्र हैं |

अथर्ववेद  ५ | ११ |३ वर्णन करता है कि ईश्वर के नियमों को आर्य या दास कोई भंग नहीं कर सकता |

शंका : इस मंत्र में आर्य और दास शब्दों से दो अलग जातियां होने का संदेह होता है | यदि दास का अर्थ अपराधी है तो ईश्वर अपराधियों को अपराध करने ही क्यों देता है ? जबकि वो स्वयं कह रहा है कि मेरे नियम कोई नहीं तोड़ सकता ? 

समाधान :
ईश्वर के नियमानुसार मनुष्य का आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र है | वह अपने लिए भले या बुरे दोनों प्रकार के कर्मों में से चुनाव कर सकता है | लेकिन, कर्म का फ़ल उसके हाथ में नहीं है | कर्मफल प्राप्त करने में जीवात्मा ईश्वर के अधीन है |  यही इस मंत्र में दर्शाया गया है |

इसी सूक्त के अगले दो मंत्रों अथर्ववेद ५|११|४ और ५|११|६ में कहा गया है कि बुरे लोग भी ईश्वर के अपरिवर्तनीय नियमों से डरते हैं, परंतु वे मनुष्यों से भयभीत नहीं होते और उपद्रव करते रहते हैं |  इसलिए यहां ईश्वर से प्रार्थना है कि बदमाश और अपराधियों की नहीं चले, वे दबे रहें और विद्वानों को बढ़ावा मिले |

यहां बदमाश अपराधियों के लिए दास या दस्यु ही नहीं आए बल्कि कई मंत्रों में ज्ञान, तपस्या और शुभ कर्मों से द्वेष करने वालों के लिए ‘ ब्रह्म द्वेषी ‘ शब्द भी आया है |

ऋग्वेद के ३|३०|१७ तथा ७|१०४|२ मंत्र  ब्रह्म द्वेषी, नरभक्षक, भयंकर और कुटिल लोगों को युद्ध के द्वारा वश में रखने को कहते हैं | अब जैसे ब्रह्म द्वेषी, नरभक्षक, भयंकर और कुटिल कोई अलग जाति नहीं है, मनुष्यों में ही इन अवगुणों को अपनानेवालों को कहते हैं | उसी तरह, अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को दास, दस्यु और ब्रह्म द्वेषी कहते हैं – यह अलग कोई जाति या नस्ल नहीं है |

ऋग्वेद ७|८३|७ इसे और स्पष्ट करता हुआ कहता है कि दस अपराधी प्रवृत्ति के राजा मिलकर भी एक सदाचारी राजा को नहीं हरा सकते | क्योंकि उत्तम मनुष्यों की प्रार्थनाएं हमेशा पूर्ण होती हैं और उन्हें बहुत से बलवान जनों का सहयोग और साधन भी मिलते हैं | यहां अपराधी प्रवृत्ति के लिए ‘ अयज्व ‘ आया है जो कि ऊपर के कुछ मंत्रों में दस्यु के लिए भी आ चुका है | और कथित बुद्धिवादी पाश्चात्यों ने इस में दस राजाओं का युद्ध दिखाने का प्रयास किया है !

अंत में ऋग्वेद के मंत्र ७|१०४|१२ से हम आर्य और दास \ दस्यु \ अव्रत \ अयज्व के संघर्ष को सार रूप में समझें -
” विद्वान यह जानें कि सत् ( सत्य) और असत् ( असत्य) परस्पर संघर्ष करते रहते हैं | सत् – असत् को और असत् – सत् को दबाना चाहता है | परंतु इन दोनों में जो सत् है और ऋत ( शाश्वत सत्य ) है उसी को ईश्वर सदा रक्षा करता है और असत् का हनन करता है | ”

आइए, हम भी झूठा अभिमान त्याग कर, सत् और ऋत के मार्ग पर चलें |

हिंदुत्व को जानिए

हिन्दुत्व को प्राचीन काल में सनातन धर्म कहा जाता था। हिन्दुओं के धर्म के मूल तत्त्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान आदि हैं जिनका शाश्वत महत्त्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था। इस प्रकार हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था। मान्य ज्ञान जिसे विज्ञान कहा जाता है प्रत्येक वस्तु या विचार का गहन मूल्यांकन कर रहा है और इस प्रक्रिया में अनेक विश्वास, मत, आस्था और सिद्धान्त धराशायी हो रहे हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आघातों से हिन्दुत्व को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसके मौलिक सिद्धान्तों का तार्किक आधार तथा शाश्वत प्रभाव है।
आर्य समाज जैसे कुछ संगठनों ने हिन्दुत्व को आर्य धर्म कहा है और वे चाहते हैं कि हिन्दुओं को आर्य कहा जाय। वस्तुत: 'आर्य' शब्द किसी प्रजाति का द्योतक नहीं है। इसका अर्थ केवल श्रेष्ठ है और बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य की व्याख्या करते समय भी यही अर्थ ग्रहण किया गया है। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ उदात्त अथवा श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था। वस्तुत: प्राचीन संस्कृत और पालि ग्रन्थों में हिन्दू नाम कहीं भी नहीं मिलता। यह माना जाता है कि परस्य (ईरान) देश के निवासी 'सिन्धु' नदी को 'हिन्दु' कहते थे क्योंकि वे 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। धीरे-धीरे वे सिन्धु पार के निवासियों को हिन्दू कहने लगे। भारत से बाहर 'हिन्दू' शब्द का उल्लेख 'अवेस्ता' में मिलता है। विनोबा जी के अनुसार हिन्दू का मुख्य लक्षण उसकी अहिंसा-प्रियता है
हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।
एक अन्य श्लोक में कहा गया है
ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:
गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।
ॐकार जिसका मूलमंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है, तथा हिंसा की जो निन्दा करता है, वह हिन्दू है।
चीनी यात्री हुएनसाग् के समय में हिन्दू शब्द प्रचलित था। यह माना जा सकता है कि हिन्दू' शब्द इन्दु' जो चन्द्रमा का पर्यायवाची है से बना है। चीन में भी इन्दु' को इन्तु' कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष में चन्द्रमा को बहुत महत्त्व देते हैं। राशि का निर्धारण चन्द्रमा के आधार पर ही होता है। चन्द्रमास के आधार पर तिथियों और पर्वों की गणना होती है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिन्दु' कहने लगे। मुस्लिम आक्रमण के पूर्व ही 'हिन्दू' शब्द के प्रचलित होने से यह स्पष्ट है कि यह नाम मुसलमानों की देन नहीं है।
भारत भूमि में अनेक ऋषि, सन्त और द्रष्टा उत्पन्न हुए हैं। उनके द्वारा प्रकट किये गये विचार जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। कभी उनके विचार एक दूसरे के पूरक होते हैं और कभी परस्पर विरोधी। हिन्दुत्व एक उद्विकासी व्यवस्था है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रही है। इसे समझने के लिए हम किसी एक ऋषि या द्रष्टा अथवा किसी एक पुस्तक पर निर्भर नहीं रह सकते। यहाँ विचारों, दृष्टिकोणों और मार्गों में विविधता है किन्तु नदियों की गति की तरह इनमें निरन्तरता है तथा समुद्र में मिलने की उत्कण्ठा की तरह आनन्द और मोक्ष का परम लक्ष्य है।
हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति अथवा जीवन दर्शन है जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को परम लक्ष्य मानकर व्यक्ति या समाज को नैतिक, भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के अवसर प्रदान करता है। हिन्दू समाज किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं हैं, किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित या किसी एक पुस्तक में संकलित विचारों या मान्यताओं से बँधा हुआ नहीं है। वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति-रिवाज को नहीं मानता। वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की परम्पराओं की संतुष्टि नहीं करता है। आज हम जिस संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय या भारतीय मूल के लोग सनातन धर्म या शाश्वत नियम कहते हैं वह उस मजहब से बड़ा सिद्धान्त है जिसे पश्चिम के लोग समझते हैं । कोई किसी भगवान में विश्वास करे या किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करे फिर भी वह हिन्दू है। यह एक जीवन पद्धति है; यह मस्तिष्क की एक दशा है। हिन्दुत्व एक दर्शन है जो मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त उसकी मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकता की भी पूर्ति करता है।

आज भी भारत बिरोध क़ा ही महिमामंडन क्यों ?

by Nageshwar Singh Baghela on Monday, October 24, 2011 at 1:15pm इन FB नोट्स से
लाखो करोनो वर्षो से सतत राष्ट्रीय प्रवाह से सिंचित मानवता के रूप में सर्वे भवन्तु सुखिनः क़ा उद्देश्य लिए हुए जिसका निर्माण भारत राष्ट्र के रूप में किया जिसकी हजारो लाखो वर्षो से मनीषियों ने भारत माता की साधना भगवती,दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती के रूप में किया ,जिसकी उपासना भवन राम,कृष्ण,शंकराचार्य से लेकर महर्षि दयानंद,डा.हेडगेवार तक ने किया आज उसी परंपरा के मानाने वाले उसी रूप में भारत माता की उपासना कर रहे है.लेकिन दुर्भाग्य यह है की।-कोई कहता है की ये भारत माता नहीं यह तो डायन है डायन.ये सेकुलर चुप रहते है।-कोई भारत माता क़ा नंगा चित्र बनता है,उसको महिमा मंडित किया जाता है।-कोई अपने को आई.एस.आई। क़ा एजेंट घोषित करता है, सेकुलर सरकार चुप रहती है।-कोई हमारे लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर को उड़ने आता है सुरक्षा कर्मी मारे जाते है,फासी की सजा होने पर भी वोट के खातिर उसकी फासी नहीं होती,जिससे आतंक बादियो क़ा मनोबल बढ़ने में सहायक होता है।-कोई मुंबई में ब्लास्ट करता है वह दामाद की तरह सुख सुबिधा पाता है.न्याय के नाम पर यही होता है।-कश्मीरी पंडितो,हिन्दुओ को कश्मीर में रहने क़ा अधिकार नहीं,पाकिस्तानी आतंक्बदियो को लाकर बसाने क़ा शानायंत्र।यह सब हमारे सामने होता है,हो भी क्यों न आखिर सेकुलर तो भारत बिरोध,हिन्दू बिरोध पर आधारित है, मिडिया क़ा कहना ही क्या वह तो लोकतंत्र क़ा चौथा खम्भा है,बिदेशी लगानी के कारण वह भी भारत व हिन्दू बिरोध ही लक्ष्य है.मिडिया बिदेशी,कांग्रेस की मुखिया बिदेशी फिर क्या चिंता । केवल एक ही चिंता है मोदी के बहाने हिन्दू और देशभक्तों पर हमला। गोधरा पर मिडिया चुप,कांग्रेस चुप,सेकुलर चुप लेकिन आफ्टर गोधरा पर गाहे बगाहे हायतोबा मचाते रहना उस भुत को जिन्दा रखना.गुजरात पर पाकिस्तानी अख़बार व पाकिस्तानी दृष्टिकोण में, सोनिया के दृष्टिकोण में कोई अंतर नहीं है।
आखिर ललितादित,राणाप्रताप,शिवा जी,चन्द्रगुप्त,यशोधर्मा,की संतानों को लकवा मार गया है क्या जो छह रहा है वही हमारी आराध्य को गाली दे रहा है बलात्कार कर रहा है ,ऐ बीर पुरुषो की संतानों अब तो उठो और इन बिदेशी बिधर्मी भारत माता के शत्रुओ को जबाब दो । बहुत देर हो चुकी है मानवता क़ा ह्रास हो रहा है।पर हम ऐसा नहीं करेगे

!!छोटे निवेसको के लिए सलाह!!

by Nageshwar Singh Baghela on Friday, October 21, 2011 at 11:50am इन FB नोट्स
मैंने शेयर बाजार में बहुत घटा उठाया है ,क्योकि तब समझ नहीं थी ,,जब प्रमोद महाजन की ह्त्या हुई थी उस समय पर शेयर बाजार बहुत नीची आ गया था ,और मैंने उस बात को समझ नहीं पाया और उस समय पर लाखो का नुकशान उठाया ,,तो मेरा जो अनुभव है ,उसके आधार पर मैं नहीं चाहता हु की और किसी को घाटा (नुक्सान) हो .... यदि शेयर लेने के बाद शेयर गिरता ही चला जा रहा है तो देखना चाहिए कि कंपनी... के साथ कोई लोचा तो नहीं है। अगर हां, तो घाटा उठाकर भी उसे सलाम बोल दें। अगर नहीं तो थोड़ा और खरीद कर औसत लागत कम कर लें। हां, जिन शेयरों को आपने लंबे समय यानी पांच-दस साल के लिए खरीदा है, उनकी तरफ से आनेवाली सालाना रिपोर्टों वगैरह को पढ़ते रहना चाहिए ताकि पता चला कि जैसा सोचा था, कंपनी वैसी चल रही है या नहीं। इन शेयरों को निजी लक्ष्य पूरा होने पर ही बेचना चाहिए। जैसे, आपने कोई शेयर पूरी तरह से देखभाल कर अपनी बेटी की शादी या रिटायरमेंट के लिए खरीदा है तो उसे उसी समय छेड़ना चाहिए। मोटे तौर पर ए ग्रुप के शेयरों या इंडेक्स फंड वगैरह को ही लांग टर्म या लंबे निवेश के लिए रखना चाहिए। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि आज के अनिश्चित हालात में लांग टर्म एक छलावा है। यह अपने निवेश को वाजिब ध्यान व समय न देने पाने का एक बहाना है। इसलिए लांग टर्म को छोड़कर लक्ष्य पूरा होते ही निकल लेना चाहिए। जैसे, मान लीजिए कि मैंने 10,000-10,000 रुपए करके शेयरों में इसलिए निवेश किया ताकि आगे मकान की 16,000 रुपए की किश्तें दे सकूं तो मेरे जो भी 10,000 रुपए जब भी 16,000 के आसपास पहुंचे, मुझे उसे बेचकर पैसे निकाल लेने चाहिए, भले वह शेयर कितना भी तोप-तमंचा क्यों न हो। हां, जल्दी-जल्दी बेचने में दिक्कत यह होती है कि साल भर के भीतर शेयर को बेच देने पर कैपिटल गेन्स टैक्स लगता है। वैसे तो प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) लागू होने के बाद यह स्थिति बदल सकती है। लेकिन सरकार को फिलहाल यह करना चाहिए कि शेयरों में दो लाख रुपए तक के निवेश को शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स से मुक्त कर देना चाहिए। इससे हम-आप जैसे रिटेल निवेशकों को बाजार का मीठा स्वाद चखने का मौका मिलेगा और हम ज्यादा उत्साह से पूंजी बाजार में वापसी कर सकते हैं। सरकार व बाजार के लोग भी यही चाहते हैं !

आस्तिक, नास्तिक और स्वास्तिक- (हास्य व्यंग्य)

by Nageshwar Singh Baghela on Thursday, October 13, 2011 at 6:41pm इन FB नोट्स 
 
सच बात तो यह है कि दुनियां विश्वास के आधार पर तीन भागों में बंटी हुई हैं-आस्तिक,नास्तिक और स्वास्तिक। आस्तिक और नास्तिकों में बीच बरसों से संघर्ष चलता रहा है। एक कहता है कि इस दुनियां का संचालन करने वाला कोई सर्वशक्तिमान है-उसका नाम हर धर्म,भाषा,जाति और क्षेत्र में अलग है। दूसरा कहता है कि ऐसा कोई सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि यह दुनियां तो अपने आप चल रही है। इनसे परे होते हैं ‘स्वास्तिक’। हम भारत के अधिकतर लोग इसी श्रेणी में हैं और सर्वशक्तिमान के होने या न होने की बहस में समय जाया करना बेकार समझते हैं। इस मान्यता में वह लोग हैं जो मानते हैं कि वह तो अपने अंदर ही है और हम उस सर्वशक्तिमान को धारण करना हैं-बाहर उसका अस्तित्व ढूंढना समय जाया करना है। इसी श्रेणी में दो वर्ग हैं एक तो वह जो ज्ञानी हैं जो हमेशा इस बात को याद करते हैं और दूसरे सामान्य लोग हैं जो यह बात मानते तो हैं पर फिर भूले रहते हैं। ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक हैं और आस्तिक और नास्तिक अपनी बहसों से उन्हेें बरगलाते रहते है।
अधिक संख्या होने के कारण एक स्वास्तिक दूसरे स्वास्तिक की इज्जत नहीं करता-यहां यह भी कह सकते हैं कि जिस वस्तु की मात्रा बाजार में अधिक होती है उसकी कीमत कम होती है। फिर अब तो विश्व में बाजार का बोलबाला है इसलिये समाज में चमकते हैं तो बस आस्तिक और नास्तिक। स्वास्तिक का किसी से कोई द्वंद्व नहीं होता इसलिये बाजार में नहीं बिकता। बाजार में केवल केवल विवाद बिकता है और आस्तिक और नास्तिक ही उसका निर्माण करते हैं।

आस्तिक चिल्ला चिल्ला कर कहते हैं कि ‘सर्वशक्तिमान है’ तो नास्तिक भी खड़ा होता है कि ‘सर्वशक्तिमान नहीं है’। भीड़ उनकी तरफ देखने लगती है। आस्तिक अपने हाथ में धार्मिक प्रतीक चिन्ह रख लेेते हैं। कपड़ों के रंग अपने धर्म के अनुसार
तय कर पहनते हैं। नास्तिक भी कम नहीं है और वह सर्वशक्तिमान का अस्तित्व नकार कर समाज-जिसका अस्तित्व केवल संज्ञा के रूप में ही है-को अपना कल्याण करने के लिये नारे लगाते हैं।

कहते हैं कि मनुष्य अपने मन, बुद्धि और अहंकार के वशीभूत होकर चलता है। चलने की यही मजबूरी नास्तिकों को किसी न किसी नास्तिक विचाराधारा से जुड़ने को विवश करती है।
आस्तिक धार्मिक कर्मकंाड करते हुए पूरे विश्व में कल्याण करने के लिये निकल पड़ते है। कोई पुस्तक और उसमें लिखे शब्दों को सीधे सर्वशक्तिमान के मुखारबिंद से निकला हुआ बताते हुए उसके अनुसार धार्मिक क्रियाओं के लिये सामान्य जन-स्वास्तिक श्रेणी के लोग- को प्रेरित करते हैं। जो ज्ञानी स्वास्तिक हैं वह तो बचे रहते हैं पर भुल्लकड़ उनके जाल में फंस जाते हैं। नास्तिक लोग उन्हीं पुस्तकों का मखौल उड़ाते हुए महिलाओं,बालकों,श्रमिकों,शोषितों और बूढ़े लोगों के वर्ग करते हुए उनके कल्याण के नारे लगाते हैं। कहीं कोई घटना हो उसका ठीकरा किसी विचाराधारा की पुस्तक पर फोड़ते है-खासतौर से जिनका उद्गम स्थल भारत ही है। वह क्ल्याण के लिये चिल्लाते हैं पर जब इसके लिये कोई काम करने की बात आती है तो कहते हैं कि यह हमारा काम नहीं बल्कि समाज और सरकार को करना चाहिए।
आस्तिक अपने धार्मिक कर्मकांड करते हुए नास्तिकों को कोसना नहीं भूलते। बरसों से चल रहा यह द्वंद्व कभी खत्म नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि स्वास्तिक लोग अगर सामान्य हैं तो उनको इस बहस में पड़ने में डर लगता है कि कहींे दोनों ही उससे नाराज न हो जायें। जहां तक ज्ञानियों का सवाल है तो उनकी यह दोनों ही क्या सुनेंगे अपने ही वर्ग के सामान्य लोग ही सुनते। हां, आस्तिकों और नास्तिकों के द्वंद्व से मनोरंजन मिलने के कारण वह उनकी तरफ देखते हैं और यहीं से शुरु होता हो बाजार का खेल।
नास्तिकों का पंसदीदा नारा है-नारी कल्याण। दरअसल हमारे देश में लोकतंत्र हैं और प्रचार माध्यमों-टीवी चैनल और अखबार-में स्थान पाने के लिये यह जरूरी है कि नारी कल्याण की बात जोर से की जाये। जब से प्रचार माध्मों का आधुनिकीकरण हुआ यह नारा और बढ़ गया है। वजह अधिकतर पुरुष काम के सिलसिले में घर से बाहर रहते हैं और स्त्रियों घर में अखबार पढ़ती हैं या टीवी देखती हैं। कभी कभी बाल कल्याण की बात भी जोड़ दी जाती है कि इससे नारियों पर दोहरा प्रभाव तो पड़ेगा ही बच्चे भी प्रभावित होकर भाषण, वार्ता और प्रवचन करने वाले का गुणगान करेंगे।
आस्तिकों और नास्तिकों की सोच का कोई ओरछोर नहीं होता। आस्तिक कहते हैं कि सर्वशक्तिमान इस दुनियां में हैं और एक ही है। मगर हैं कहां? यह वह नहीं बताते? सर्वशक्तिमान आकाश में रहता है या पाताल में? कह देंगे सभी जगह है। कोई मूर्तिै बना लेगा तो कोई मूर्ति विरोधी आस्तिक भी होगा। मगर वह भी कोई ठीया ऐसा जरूर बनायेगा जो भले ही पत्थर का बना होग पर उसमें मूर्ति नहीं होगी। मजे की बात यह है कि दोनों ही एक दूसरे पर नास्तिक होने का आरोप लगाते हैं।
नास्तिक कहते हैं कि इस संसार में कोई सर्वशक्तिमान नहीं है। फिर आखिर यह दुनियां चल कैसे रही है? वह बतायेंगे इंसानों की वजह से! मतलब पशु,पक्षी तथा अन्य जीव जंतुओं की सक्रियता का कोई मतलब नहीं है इसलिये उनकी रक्षा की बात भी वह नहीं करते। बस इंसानों का भला होना चाहिये। उनके अनुसार नारी को आजादी, बालकों के बालपन की रक्षा, बूढ़ापे में संतान का सहारा, और शोषित के अधिकार और सम्मान की रक्षा होना चाहिये और वह डंडे के जोर से। सभी जानते हैं कि अभी तक विश्व में कर्मशील पुरुषों का वर्चस्व इसलिये है क्योंकि वह इन इन सभी कर्तव्यों की पूर्ति के लिये श्रम करते हैं और उनके लिये यह नारे सुनने का समय नहीं होता। वह टीवी और अखबारों के साथ उतना समय नहीं बिता पाते इसलिये उनको प्रभावित करने का लाभ नहीं होता। नास्तिक लोग इसलिये केवल उन्हीं वर्गों को लक्ष्य कर अपनी बात रखते हैं जिनको प्रभावित कर अपनी वैचारिक दुकान चलायी जा सकती है।।
आजकल नारी स्वातंत्रय को लेकर अपने देश में बहुत जोरदार बहस चल रही है। इस बहस में आस्तिक अपने संस्कारों और आस्थाओं का झंडा बुलंद कर यह बताते हैं कि हमारे देश में नारियां तो देवी की तरह पूजी जाती हैं। नास्तिक को तो हर कर्मशील पुरुष राक्षस नजर आता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि नास्तिक भले ही सर्वशक्तिमान का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते पर अपने प्रचार के लिये उनको कोई काल्पनिक बुत तो चाहिये इसलिये उन्होंने अन्याय,अत्याचार,शोषण,गरीबी, और बेरोजगारी को खड़ा कर लिया। यह कहना गलत है कि वह किसी में यकीन नहीं करते बस अंतर यह है कि वह उन बुत बने राक्षसों को दिखाकर उनसे मुक्ति के लिये स्वयं सर्वशक्तिमान बनना चाहते हैं।
नास्तिक सर्वशक्तिमान का अस्तित्व को तो खारिज करते हैं पर अपनी देह को तो वह नकार नहीं सकते। पंच तत्वों से बनी इस देह में अहंकार,बुद्धि और मन तीन ऐसी प्रकृतियां हैं जिनसे हर जीव संचालित होता है। फिर यहां अमीर गरीब, शोषक शोषित, और उच्च निम्न वर्ग कैसे बन गये? नास्तिक कहेंगे कि वही मिटाने के लिये तो हम जूझ रहे हैं। मगर अमीर ने गरीब को गरीब, शोषक ने शोषित का शोषण और उच्च वर्ग के व्यक्ति ने निम्म वर्ग के लोगों का अपमान कब और कैसे शुरु किया? इस पर नास्तिक तमाम तरह की इतिहास की पुस्तकें उठा लायेंगे-जिनके बारे में स्वास्तिक ज्ञानी कहते हैं कि उनके सिवाय झूठ के कुछ और नहीं होता। अलबत्ता आस्तिक प्रचार पाने के लिये उन्हीं पुस्तकों में अपने लिये तर्क ढूंढने लगते हैं।
वैसे यह आस्तिक और नास्तिक का संघर्ष भारत के बाहर खूब हुआ है। भारत में लोग स्वास्तिक वर्ग के हैं और यह मानते हैं कि सर्वशक्तिमान का अस्तित्व आदमी के अंदर ही है बशर्ते उसे समझा जाये। मगर विदेशी शिक्षा, रहन सहन और विचारों के साथ यह संघर्ष भी इस देश में आ गया है। यह कारण है कि आस्तिक महिला पुरुष बुद्धिजीवी देश का कल्याण कर्मकांडों में तो नास्तिक केवल नास्तिकता में ढूंढते हैं। हम ठहरे स्वास्तिक तो यही कहते हैं कि स्वास्तिक हो जाओ कल्याण स्वतः‘ होगा। कैसै हो जायें? बहुत संक्षिप्त उत्तर है। जब भी अवसर मिले भृकुटि पर दृष्टि रखकर ध्यान लगाओ। इससे देह के विकार तो निकलते ही हैं उसमें ऐसे तत्व भी निर्मित होते हैं जिसके प्रभाव से शत्रु मित्र बन जाते हैं और विकास के पथ पर अपने कदम स्वतः चल पडते हैं उसके लिये किसी कर्मकांड में पड़ने या कल्याण के नारे में बहने की आवश्कता नहीं है।