खाद्य
सुरक्षा अध्यादेश के दायरे में देश की 67 फीसदी आबादी है। इसमें 75 फीसदी
ग्रामीण और करीब 50 फीसदी लोग शहरों में रहने वाले हैं। कानून के तहत गरीब
परिवारों को 35 किलोग्राम अनाज अंत्योदय अन्न योजना के तहत मिलना जारी
रहेगा। तीन रुपये किलो चावल, दो रुपये
किलो गेहूं और एक रुपये किलो मोटा अनाज मिलेगा। जबकि उत्तराखंड में
पीड़ितों से हुआ मजाक, 280 परिवारों के लिए 150 किलो राशन दिया क्यों ?
क्या यह क्रूर मजाक नहीं है उत्तराखंड के निवासियों के साथ !
लेकिन अहम सवाल यह है कि बदलते दौर में लोग खाने-पीने खासकर राशन पर
कपड़ों, फुटवियर और घरेलू गैजेट्स की तुलना में बहुत कम खर्च कर रहे हैं।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के वर्ष 2011-12 के शहरी भारतीय
के औसत खर्च के आंकड़े ऐसी ही तस्वीर पेश करते हैं। ऐसे में अनाज वह भी
सिर्फ चावल, गेहूं और मोटा अनाज देने से सरकार किसका कितना भला कर पाएगी ?
खाद्य सुरक्षा अध्यादेश को कई आर्थिक जानकार देश के खजाने और वित्तीय सेहत के लिए खतरनाक मान रहे हैं। कई लोग इसे किसानों के हितों के खिलाफ भी बता रहे हैं तो कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस अध्यादेश के चलते कुछ समय बाद देश को खाद्यान्न विदेशों से आयात करना पड़ेगा, जो हमें 50-60 के दशक की याद दिलाएगा। हालांकि, केंद्रीय खाद्य आपूर्ति मंत्री केवी थॉमस ने शुक्रवार को दावा किया कि खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लागू होने से सरकार का घाटा नहीं बढ़ेगा। घाटा कैसे नहीं बढेगा इसका जबाब नहीं है मंत्री जी के पास इसका जबाब तो हमारे गुगे PM जी देगे क्या ?1 लाख 24 हजार करोड़ खर्च होंगे तो खजाना हो जाएगा खाली?
खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के तहत बांटने के लिए 612.3 लाख टन अनाज की जरूरत होगी, जिस पर करीब एक लाख 24 हजार 724 करोड़ खर्च का अनुमान लगाया गया है। जाने माने अर्थशास्त्री और कॉरपोरेट हस्ती गुरचरन दास के मुताबिक, 'आम लोगों को करीब-करीब मुफ्त भोजन उन्हें माई-बाप पार्टी पर निर्भर बनाकर छोड़ देगा और वे एक स्थायी वोट बैंक में तब्दील हो जाएंगे। केंद्र में सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी की यह बेजोड़ रणनीति है- आम मतदाता और पार्टी लोगों को गरीब और दूसरे पर निर्भर बनाए रखने के लिए प्रेरित होगी।
खाद्य सुरक्षा अध्यादेश को कई आर्थिक जानकार देश के खजाने और वित्तीय सेहत के लिए खतरनाक मान रहे हैं। कई लोग इसे किसानों के हितों के खिलाफ भी बता रहे हैं तो कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस अध्यादेश के चलते कुछ समय बाद देश को खाद्यान्न विदेशों से आयात करना पड़ेगा, जो हमें 50-60 के दशक की याद दिलाएगा। हालांकि, केंद्रीय खाद्य आपूर्ति मंत्री केवी थॉमस ने शुक्रवार को दावा किया कि खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लागू होने से सरकार का घाटा नहीं बढ़ेगा। घाटा कैसे नहीं बढेगा इसका जबाब नहीं है मंत्री जी के पास इसका जबाब तो हमारे गुगे PM जी देगे क्या ?1 लाख 24 हजार करोड़ खर्च होंगे तो खजाना हो जाएगा खाली?
खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के तहत बांटने के लिए 612.3 लाख टन अनाज की जरूरत होगी, जिस पर करीब एक लाख 24 हजार 724 करोड़ खर्च का अनुमान लगाया गया है। जाने माने अर्थशास्त्री और कॉरपोरेट हस्ती गुरचरन दास के मुताबिक, 'आम लोगों को करीब-करीब मुफ्त भोजन उन्हें माई-बाप पार्टी पर निर्भर बनाकर छोड़ देगा और वे एक स्थायी वोट बैंक में तब्दील हो जाएंगे। केंद्र में सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी की यह बेजोड़ रणनीति है- आम मतदाता और पार्टी लोगों को गरीब और दूसरे पर निर्भर बनाए रखने के लिए प्रेरित होगी।
सड़ता हुआ अनाज कैसे होगा भारत निर्माण ? |
'खाद्य सुरक्षा बिल के साथ कई दूसरे खतरे भी जुड़े हैं। एक सच तो यह है कि देश इतना बड़ा खर्च उठाने की हालत में नहीं है। केंद्र सरकार का ताजा बजट इसकी कहानी बयां करता है कि देश की आर्थिक हालत कितनी खराब है। इस नए खर्च से सरकार का राजकोषीय घाटा और बढ़ेगा और इसकी रेटिंग भी कम होगी। रेटिंग कम होने का मतलब यह है कि वैश्विक बाजार से भारत को मिलने वाला धन और महंगा हो जाएगा। साथ ही, इससे विदेशी निवेशक हतोत्साहित होंगे जबकि फिलहाल उनकी सख्त जरूरत है। इतना ही नहीं, पुराने अनुभव बताते हैं कि ऐसी योजनाओं में गरीबों के पास पहुंचने वाले अनाज का आधे से कम हिस्सा ही वास्तव में उन तक पहुंच पाता है। मतलब यह कि इस बिल के जरिये करीब ढाई करोड़ टन खाद्यान्न ब्लैक मार्केट में पहुंच जाएगा, जो एक नए घोटाले को जन्म देगा और पहले ही घोटालों से घिरी सरकार यह खतरा मोल नहीं ले सकती। इससे भी बड़ी खतरे की घंटी यह है कि लोग बिल के प्रावधानों का फायदा उठाने के लिए अपनी माली हालत की झूठी जानकारी देने को प्रेरित होंगे और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता का स्तर और कमजोर होगा। उदाहरण के लिए कर्नाटक की 83 प्रतिशत आबादी बीपीएल कार्ड के आधार पर खुद के गरीब होने का दावा करती है, जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक राज्य की एक चौथाई से भी कम आबादी वास्तव में गरीब है। इसी तरह, पिछले साल हुई जांच के बाद पश्चिम बंगाल सरकार को पता चला कि राज्य के 40 फीसदी बीपीएल कार्ड फर्जी हैं। उत्तर प्रदेश में हालात इससे भी बदतर हैं। आम लोगों को झूठा बनाने वाला कानून हमारे संविधान निर्माताओं को कभी रास नहीं आता। उनके मन में भारतीय गणतंत्र की जो अवधारणा थी, वह नैतिकता पर आधारित थी- इतनी ज्यादा कि उन्होंने राष्ट्रीय झंडे में धर्म का पहिया माने जाने वाले अशोक चक्र को जगह दी।'
, 'जब हम छोटे थे तो हमारे माता-पिता ने हमें ईमानदारी और कड़ी मेहनत का महत्व बताया था। हमने सीखा था कि जो मेहनत नहीं करते, उन्हें खाना नहीं मिलता। लेकिन जब सरकार लोगों को मुफ्त में चीजें देने लगती है तो इससे उनकी कार्य-संस्कृति कमजोर होती है। यह जिम्मेदारी और धर्म के प्रति हमारी उस भावना को कमजोर करता है, जिसकी शिक्षा हमारे माता-पिता ने हमें दी थी। जब सरकार लोगों को सब्सिडाइज्ड खाद्यान्न, डीजल, रसोई गैस, मनरेगा के तहत रोजगार जैसी चीजें मुफ्त में देना शुरू करती है तो इससे गलत संदेश जाता है। लोगों को लगने लगता है कि बिना मेहनत किए ही उन्हें चीजें मिल सकती हैं। यह भी अधर्म का ही एक रूप है। 1991 के आर्थिक सुधार एक नए अलिखित सामाजिक करार पर आधारित थे जिसने विश्वास का एक नया आधार तैयार किया था। करार यह था कि सरकार व्यावसायिक गतिविधियों से दूर हो जाएगी और सारा ध्यान शासन तथा सार्वजनिक हित के मुद्दों पर केंद्रित करेगी।'
नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 7.4 फीसदी अनाज (गेहूं, चावल) और उसके विकल्पों पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 9.4 फीसदी रुपये खर्च कर रहा था। पिछले पांच साल के आंकड़ों पर गौर करने पर पता चलता है कि औसत शहरी भारतीय अनाज पर सबसे कम खर्च कर रहा है। जबकि यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जरिए गेहूं, चावल और मोटा अनाज ही देने का फैसला किया है। साफ है कि सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना का एक आम भारतीय के जीवन पर बहुत क्रांतिकारी फर्क आने को लेकर कई शंकाएं हैं।
दाल पर एक औसत शहरी भारतीय का खर्च पिछले ६ सालों में न घटा है और न ही
बढ़ा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय
अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 2.3 फीसदी दाल खरीदने पर खर्च कर
रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 2.3 फीसदी रुपये ही
खर्च कर रहा था। गौरतलब है कि यूपीए की महत्वाकांक्षी योजना यानी खाद्य
सुरक्षा अध्यादेश के तहत पात्रों को दाल नहीं दी जाएगी।
खाद्य तेल के मामले में औसत शहरी भारतीय का खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष
2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च
2399 रुपये का 2.7 फीसदी चीनी, नमक और मसाले पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष
2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 3 फीसदी रकम खर्च कर रहा था इसी प्रकार दूध और उससे जुड़े प्रॉडक्ट पर औसत शहरी भारतीय का खर्च बढ़ा है। एनएसएसओ
के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन
खर्च 2399 रुपये का 7.8 फीसदी दूध और उससे जुड़े प्रॉडक्ट पर खर्च कर रहा
है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 7.3 फीसदी रकम ही खर्च कर
रहा था। आज भी शहरी औसत भारतीय अंडा, मछली और मीट पर अपनी आमदनी का उतना ही हिस्सा
खर्च कर रहा है, जितना पांच साल पहले करता था। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के
आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का
2.8 फीसदी हिस्सा अंडा, मछली और मीट पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06
में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 2.8 फीसदी हिस्सा ही खर्च
कर रहा था।
जबकि चीनी ,नमक और मसाले के मद में पिछले पांच-छह सालों में खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष
2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च
2399 रुपये का 2.8 फीसदी चीनी, नमक और मसाले पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष
2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 3 फीसदी रकम खर्च कर रहा था।
जबकि सिक्षा ओए सेहत के मद में भी औसत शहरी भारतीय का खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष
2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च
2399 रुपये का 11.2 फीसदी हिस्सा शिक्षा और सेहत पर खर्च कर रहा है। जबकि
वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 12.3 फीसदी
हिस्सा खर्च कर रहा था।
ईधन और रशोई में एक औसत शहरी भारतीय का ईंधन और रोशनी पर खर्च पिछले पांच सालों में
काफी घट गया है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी
भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 7.6 फीसदी हिस्सा पेय
पदार्थ, पान मसाला, तंबाकू पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत
शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 9.4 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था।
इसी तरह से कंज्यूमर ड्यूरेबल्स जैसे वॉशिंग मशीन, फर्नीचर, फ्रिज जैसे हैवी घरेलू आइटमों पर औसत शहरी
भारतीय का खर्च पिछले पांच-छह सालों में बढ़ा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12
के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये
का 6.7 फीसदी हिस्सा शिक्षा और सेहत पर खर्च कर रहा है। इस मद में औसत शहरी
भारतीय का खर्च सबसे ज्यादा बढ़ा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी
भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 4 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था।
शहरों में रह रहे लोगों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इनदिनों कपड़ा,
फुटवियर, बिस्तर और टॉयलेट से जुड़े प्रॉडक्ट पर खर्च हो रहा है। जो यह
संकेत देता है कि औसत भारतीय का खर्च अब उन प्रॉडक्ट्स में बढ़ रहा है,
जिन्हें आम तौर पर 'लग्जरी' आइटम माने जाते हैं। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12
के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये
का 8.9 फीसदी हिस्सा कपड़ा, फुटवियर, बिस्तर और टॉयलेट से जुड़े प्रॉडक्ट
पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने
औसत खर्च का 6.5 फीसदी हिस्सा ही खर्च कर रहा था।
इसी तरह से बिभिन्न प्रोदोक्ट और सेवाओं के इस मद में औसत शहरी भारतीय अपनी कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च करता है।
एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने
के औसतन खर्च 2399 रुपये का 17.7 फीसदी हिस्सा विभिन्न प्रॉडक्ट और सेवाओं
पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने
औसत खर्च का 20 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था।
एक औसत शहरी भारतीय का पेय पदार्थों, पान मसाला और तंबाकू पर खर्च पिछले
पांच सालों में बढ़ा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक
शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 8.5 फीसदी हिस्सा पेय
पदार्थ, पान मसाला, तंबाकू पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत
शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 7.3 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था।
सब्जियों और फल पर एक औसत शहरी भारतीय का खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष
2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च
2399 रुपये का 5.7 फीसदी हिस्सा सब्जी और फल पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष
2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 6.4 फीसदी हिस्सा
खर्च कर रहा था ।
इस तरह सभी आकड़ो को देखने के बाद लगता है की खाद्य सुरक्षा के नाम पर सरकार 2014 की राजनीतिक गोटी फिट करने का नाकामयाब तरीका अपनाया है पर इस तरीके से कांग्रेश की नैया पार होगी या नहीं ये तो इस देश की जनता ही जाने । पर खाद्य सुरक्षा बिल में कुछ नहीं बहुत कुछ संसोधन की जरुरत है यदि ओ संसोधन कर दिया जाए तो सायद इस देश की 65 % आबादी की भूख मिटाई जा सके यदि भ्रस्ताचार मुक्त प्रसाशन मिला तो ।
नोट -- सभी तरह के आकडे नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) से लिया गया है किसी भी तरह की गलत जानकारी के लिए ब्लॉगर जिम्मेदार नहीं होगा।