कई बार अतीत हमारे वर्तमान की कसौटी बन जाता है। जब वर्तमान विफल साबित होता है, तो अतीत हम पर हंसने लगता है। आज महात्मा ज्योतिबा फुले के जन्म दिवस पर वर्तमान दलित राजनीति पर सोच-विचार करते हुए मुझे ऐसा ही महसूस हो रहा है। महात्मा फुले भारत के पहले विचारक और अभियानी थे जिन्होंने शूद्रों और अतिशूद्रों के मुद्दे को गंभीरता से उठाया और इस शोषित-अवहेलित-अपमानित वर्ग का जीवन कुछ कम कठिन बनाने के लिए सतत उद्यम किया। महात्मा फुले के जीवनीकार धनंजय कीर ने उन्हें ठीक ही ‘भारतीय समाज सुधार आंदोलन का जनक’ कहा है। डॉ. भीमराव आंबेडकर उन्हें अपना गुरु मानते थे। आज के जाग्रत दलित महात्मा फुले और डॉ. आंबेडकर, दोनों को अपना गुरु मानते हैं।
दुनिया में शायद ही कोई ऐसा गुरु हो जिसके शिष्यों ने उसे सच्ची श्रद्धांजलि दी हो। गुरु के प्रति भक्ति भाव दिखाना एक बात है, उसके उत्तराधिकार को संभालना और उसे आगे बढ़ाना बिलकुल दूसरी बात। महात्मा फुले के कामों की रोशनी में आज की दलित सक्रियता पर विचार करें, तो निराशा हासिल होती है। यह सच है कि फुले और आंबेडकर, दोनों ही सिर्फ दलित और निम्न जातियों के नेता नहीं थे। वे हिन्दू समाज को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करने वाले महापुरुष भी थे। दयानंद सरस्वती, विवेकानंद और महात्मा गांधी ने भी यही काम किया। लेकिन फुले और आंबेडकर को सिर्फ दलितों ने ही अपनाया। अच्छा होता कि पूरा भारतीय समाज उन्हें अपना पथ प्रदर्शक मानता। तब एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति हो जाती। दुर्भाग्य से ऐसा न हो सका। आज भी उनकी स्मृति के साथ दलित समूह ही पूरे मन से जुड़े हुए हैं। इसीलिए इन समूहों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने आचरण से भी इस जुड़ाव को प्रमाणित करें। ऐसा लगता है कि जिस तरह सवर्ण लोग नाम महात्मा गांधी का करते हैं और काम अपनी मर्जी का करते हैं, वैसे ही दलित नेता और बुद्धिजीवी भी नाम फुले का लेते हैं, पर ज्यादातर आत्मसिद्धि में लगे रहते हैं।
महात्मा फुले के मन में ब्राह्मणवाद से बहुत घृणा थी। वे वेद-पुराणों को तिरस्कार की नजर से देखते थे। अधिकतर सामाजिक रीति-रिवाजों को पाखंड मानते थे। सामाजिक विषमता और शोषण-अत्याचार को देख कर उनका खून खौलने लगता था। लेकिन फुले ने अपने अंतःकरण को संतुष्ट करने के लिए सिर्फ किताबें नहीं लिखीं और न सिर्फ राजनीति की (वे 1876 से 1885 तक पुणे नगरपालिका के सदस्य रहे)। उन्होंने शूद्र समाज को शिक्षित और समर्थ बनाने के लिए सभी प्रकार का उद्यम भी किया। विचार जब तक कर्म में नहीं बदलता, वह असरदार नहीं बन पाता।
कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं। फुले की पत्नी सावित्रीबाई निरक्षर थीं। उन्होंने सबसे पहले शिक्षा की ज्योति अपने घर में ही जलाई। पत्नी को पढ़ाया-लिखाया और इस योग्य बनाया कि वे शिक्षक का काम कर सकीं। फुले ने अगस्त 1984 में भारत में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। यह काम उस समय के सवर्ण समाज को इतना नागवार गुजरा कि पति-पत्नी को अपना घर छोड़ना पड़ गया। लेकिन इससे वे जरा भी निरुत्साहित नहीं हुए। उनका संघर्ष और तीखा हो गया। विचार और आचरण के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए महात्मा ने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। फुले स्वयं इसके अध्यक्ष बने। सावित्रीबाई ने उसकी महिला शाखा की अध्यक्षता संभाली। दोनों ने विधवा पुनर्विवाह का अभियान छेड़ा। एक ऐसे आश्रम की स्थापना की, जिसमें सभी जातियों की तिरस्कृत विधवाएं सम्मान के साथ रह सकें।। उन नवजात शिशु कन्याओं के लिए भी एक घर बनाया, जो अवैध संबंधों से पैदा हुई थीं और जिनका सड़क या घूरे पर फेंक दिया जाना निश्चित था। महात्मा फुले ने इस तरह के अनगिनत काम किए, जिससे पता लगता है कि उनके हाथ भी वहीं थे जहां उनका हृदय था।
इसके बरक्स आज के दलित बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं का जीवन देखिए। सबसे पहले तो बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का विभाजन ही आपत्तिजनक है। महात्मा फुले बुद्धिजीवी भी थे और कार्यकर्ता भी। इसी तरह, आंबेडकर ने भी सिर्फ बौद्धिक कार्य नहीं किया, दलित आंदोलन की शुरुआत भी की। लेकिन दलित लेखक और बुद्धिजीवी दलित पीड़ा के बारे में सिर्फ लिखता रहता है, उसे कम करने के लिए किसी प्रकार का सामाजिक उद्यम नहीं करता। इस तरह, वह अपने समाज से जुड़ा हो कर भी उससे अलग ही रहता है। कभी-कभी शक होता है कि वह अपनी और अपने समाज की पीड़ा का उपयोग आगे बढ़ने और मध्यवर्गीय जीवन बिताने के लिए सीढ़ी की तरह तो नहीं कर रहा है।
दूसरी तरफ, दलित राजनीति भी सिर्फ दलितों को राजनीतिक स्तर पर संगठित करने का काम करती है और सत्ता हासिल करने के लिए उनके एकमुश्त वोट की प्यासी होती है। वह पार्टी या संगठन के स्तर पर दलितों का जीवन बेहतर करने के लिए कोई भी काम करना नहीं चाहती। मानो सत्ता ही सब कुछ हो और सत्ता से बाहर रह कर कुछ भी नहीं किया जा सकता। इससे दलित जागरण का काम अधूरा रह जाता है। समाज सुधार की प्रक्रिया मंद बनी रहती है। माना कि दलितों को राजनीतिक सत्ता मिलने के बाद और उनके स्वाभिमान में वृद्धि होती है और समाज में उनकी हैसियत भी सुधरती है। पर उसके भौतिक जीवन में कोई लक्षित होने योग्य परिवर्तन नहीं हो पाता। जो निरक्षर है, वह निरक्षर ही बना रहता है। जो स्कूल नहीं जाते, उन्हें स्कूल जाने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता। सामाजिक रूढ़ियों की जकड़बंदी मजबूत होती जाती है। यहां तक कि सवर्णों की देखादेखी दलित भी अपने लिए नई समस्याएं पैदा करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, दलित समाज में भी अब दहेज प्रथा और स्त्रियों पर पारिवारिक नियंत्रण की बुराई शुरू हो गई है।1890 ई. इस महान समाज सेवी का देहांत हो गया था।
क्या महात्मा ज्योतिबा फुले का रास्ता यही है?