बघेलखण्ड में ‘‘बाघेला राज्य’’ स्थापित होने के पूर्व गुजरात में बघेलों की सार्वभौम्य सत्ता स्थापित हो चुकी थी, जिनकी राजधानी ‘‘अन्हिलवाड़ा’’ थी। बाघेल क्षत्रिय चालुक्यों की एक शाखा है, जिन्होंने दक्षिण भारत के चालुक्य क्षत्रियों की एक शाखा के रूप में गुजरात पहुँचकर 960ई. में अन्हिलवाड़ा में सोलंकियों का राज्य स्थापित किया था। रीवा स्टेट गजेटियर में भी यह उल्लेख किया गया है कि, बघेलखण्ड की रीवा रियासत के नरेश सोलंकी अर्थात् चालुक्य क्षत्रिय की बाघेल शाखा के राजपूत हैं। बाघेलों का इस क्षेत्र में आने के पूर्व इनके पूर्वज चालुक्यों और सोलंकियों का दक्षिणी भारत और गुजरात के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दक्षिण भारत में चालुक्यों का इतिहास छठीं शताब्दी से प्राप्त होता है। दक्षिण भारत के इन्हीं चालुक्य सम्राटों के वंशज गुजरात आये। गुजरात में ‘‘अन्हिलवाड़ा’’ के शासक के रूप में महाराज ‘‘मूलराज’’ ने सन् 960 में चालुक्य क्षत्रियों की सोलंकी शाखा की नींव डाली। इस वंश के प्रतापी नरेश ‘‘जयसिंह सिद्धराज’’ हुए, जिनके कोई सन्तान नहीं थी। इन्होंने अपने नजदीकी संबंधी (छोटे भाई) त्रिभुवनपाल के पुत्र कुमारपाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया। कुमारपाल (1143-1173 ई.) ने अपनी मौसी के पुत्र अर्णोराज (गोत्र-भरद्वाज) को ‘‘व्याघ्रपल्ली’’ (बाघेला गाँव) का सामन्त/जागीरदार बना दिया। अर्णोराज के पुत्र लवण प्रसाद को गुजरात के लेखों में ‘‘व्याघ्रपल्लीय’’ कहा गया है, जो कालान्तर में अप्रभंश के रूप में ‘‘बघेल/बाघेला/वाघेला/बाघेल" हो गया। इस तरह व्याघ्रपल्ली गाँव में रहने के कारण अर्णोराज के उत्तराधिकारी ‘‘‘‘बघेल/बाघेला/वाघेला/बाघेल" कहलाये जाने लगे,किन्तु रीवा स्टेट गजेटियर, जीतन सिंह द्वारा लिखित रीवा राज्य दर्पण एवं गुरु राम प्यारे अग्निहोत्री ने रीवा राज्य के इतिहास में लिखा है कि, गुजरात के पाँचवें सोलंकी राजा भीमदेव के चैथे पुत्र सारंगदेव के पुत्र वीर धवल के सुपुत्र का नाम ‘‘बाघराव’’ था। गुजरात के शासक सिद्धराज जय सिंह (1093-1142ई.) ने ‘बाघराव’ को जागीर में व्याघ्रपल्ली (अन्हिलवाड़ा से 10 मील दक्षिण पश्चिम) (‘‘बाघेला गाँव) दिया था, जिसके आधार पर बाघराव की संतानें ‘‘बघेल/बाघेला/वाघेला/बाघेल" नाम से विख्यात हुई। बाघराव इससे संतुष्ट नहीं थे, उन्होंने यह जागीर सिद्धराज जयसिंह के पुत्रों को देकर गुजरात से प्रस्थान किया। गुजरात के इस सोलंकी वंश का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
बाघराव को ‘‘बाघदेव’’ भी कहा जाता था, गुजराती में देव का अर्थ ठाकुर होता है। यही बाघदेव दक्षिण सोलंकी सम्वत् 631 यानी सन् 1233-34 में गुजरात से लाव लश्कर ले कर चलते हुए अनेक तीर्थों का भ्रमण तथा सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन करते हुए चित्रकूट पहुँचे । चित्रकूट में पहुँचकर उन्होंने आसपास के क्षेत्र को देखा। उस समय वहाँ पर कोई सुदृढ़ सत्ता नहीं थी। तरौंहा में चन्द्रावत परिहारों का राज्य था, जिसके राजा मुकुन्ददेव थे। कालिंजर भटों के राज्य के अन्तर्गत था। ‘बाघदेव’, जिन्हें ‘व्याघ्रदेव’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है, ने कालिन्जर से 16 मील उत्तर पूर्व की और पहाड़ी पर चन्देलों के दुर्ग ‘‘मरफा’’ पर (जो कि समुद्र तल 1240 फुट ऊँचा था) अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और उन्होंने अपने रक्षार्थ अपने साथ आये हुए लोगों की जो बस्ती बसाई उसका नाम ‘‘बघेलवारी’’ पड़ गया । बांदा गजेटियर के अनुसार व्याघ्रदेव का प्रभुत्व इस किले के उत्तर में 15 मील (24 किमी.) ‘‘बघेल भवन’’ और दक्षिण में 15 मील (24 किमी) ‘‘बघेलन नाला’’ तक था। उस समय दिल्ली के सिंहासन पर कोई सुदृढ़ शासक नहीं था और आस पड़ोस के शासकों ने व्याघ्रदेव से किसी प्रकार छेड़-छाड़ नहीं की। परिणाम यह हुआ कि उन्होंने भटदेश के राजा से कालिंजर छीन लिया और साथ ही पड़ोसी मण्डीहा राजा को जीतकर उसका राज्य ले लिया। मण्डीहा रघुवंशी राजा था।
गहोरा में लोधियों के राज्य को भी तिवारी ब्राह्मणों के सहयोग से व्याघ्रदेव ने अधिकार कर लिया । इसी लिए रीवा के तिवारी को "अधरजिया" कहते हैं । बाग़देव ने तिवारी ब्राह्मणों को अधराज देना चाहा तो तिवारियो ने लेने से मना कर दिया (हलाँकि इन बातों का कोई प्रमाण नही है) । अय्यास लोधी राजा के सलाहकार/मंत्री तिवारी ब्राह्मण थे जो व्याघ्रदेव से मिलकर लोधी राजा के साथ छलकर युद्ध मे हरवा दिया ।
इनका पाश्र्ववर्ती राज्य तरौंहा का था, जिसके शासक मुकुन्ददेव चन्द्रावत परिहार थे। उन्होंने अपनी इकलौती बेटी ‘‘सिन्दूरमती’’ का ब्याह व्याघ्रदेव के साथ कर दिया। इनके दूसरी कोई सन्तान भी न थी, अस्तु अपना राज्य भी इन्हीं को सौंप दिया। व्याघ्रदेव ने इसके पश्चात् परदवाँ और तरिहार प्रान्त भी जीत लिया। इस तरह 13वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर ‘‘बाघेल’’ राजपूतों का आधिपत्य हुआ। व्याघ्रदेव का एक विस्तृत भू-भाग में अधिकार हो गया। इन्होंने अपनी राजधानी गहोरा में स्थापित की। गहोरा रीवा पठार के तलहारी क्षेत्र में स्थित था। वर्तमान समय में गहोरा बाँदा-चित्रकूट जिला, उत्तरप्रदेश में स्थित है। कर्बी से 14 मील पूर्व रयपुरा गाँव के निकट उसके दक्षिण में बह रही दो नदियों के मध्य ‘‘गहोरा खास’’ नामक गाँव बसा है। अभयराज सिंह परिहार ने ‘‘गहोरा का ऐतिहासिक अनुसन्धान’’ (पृष्ठ 17) में लिखा है कि, गहोरा का असली नगर नदी के दूसरे किनारे से प्रारंभ होता है, यहाँ महल, मन्दिर, कुएँ तथा नागरिकों की बस्ती के चिन्ह अभी भी पाये जाते हैं। यह हिस्सा अब ‘‘खेरवा’’ नाम से विख्यात है। उस समय इनके शासित प्रान्त की आमदनी अठारह लाख रुपये थी। गहोरा के दो हिस्से थे। एक तो ‘‘गहोराखास’’ और दूसरा ‘‘गहोराघाटी’’ था। व्याघ्रदेव की परिहारिन ठकुराइन से दो पुत्र हुए जिनमें जेठ कर्णदेव गहोरा के अधिकारी हुए और लहुरे पुत्र कन्धरदेव कसौटा और परदमा के ठाकुर हुए। व्याघ्रदेव (बाघराव) इस प्रदेश के बघेलों के आदि पुरुष हैं। जिन्होंने बघेलों की सत्ता इस प्रदेश में स्थापित की। इनका स्वर्गवास वि.सं. 1245 के आसपास हुआ।