शनिवार, 17 नवंबर 2012

!!सबसे बड़े मुर्ख आज के ये नव-बौद्ध ही हैं ?

सबसे बड़े मुर्ख आज के ये नव-बौद्ध ही हैं, जो इस्लामी और ईसाई इरादों की हकीकत से आँख चुराते हुए अपने ही हितैषी, हिंदुओं से झगड़ते रहते हैं. प्राचीन भारत में बौद्धों के सबसे बड़े केन्द्र पापिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश, वर्मा (म्यांमार), थाईलैंड, तिब्बत, मलेशिया, इंडोनेशिया और लंका ही थे. जहां से बौद्धों का सफाया करके इस्लाम, ईसाइयत या कमुनिस्म फ़ैल गयी है या फ़ैल रही है.

बौद्ध शिक्षा के सबसे बड़े शिक्षा केन्द्र "नालंदा" को नष्ट करने वाला और कोई नहीं केवल इस्लामी हमलावर "खिलजी" ही था और अभी हाल ही में अफगानिस्तान में बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ने वाले भी मुसलमान ही थे जिनका सहारा लेकर हिंदुओं से लड़ने की सोंच रहे हो. अफगानों द्वारा बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ने का बिरोध भी मात्र हिंदुस्तानियों ने ही किया था, जापान जैसा बौद्ध देश भी खामोश बैठा रहा.

तिब्बत से बौद्धों को मारकर खदेड़ने के बाद भी शरण हिन्दुस्तान ने ही दी थी और किसी ने नहीं. बौद्धों के तीर्थ गया, सारनाथ, साँची आदि में दर्शन को जाने वाले लोगों में बौद्धों के अलावा केवल हिंदू ही होते हैं क्या किसी बौद्ध ने किसी मुस्लिम, ईसाई या कम्युनिष्ट को देखा है इन जगहों पर माथा टेकते हुए ? केवल हिंदू ही हैं जो महात्मा बुद्ध को भी अपने देवताओं जितना सम्मान देते हैं ..............

यह पश्चिम का पाखंड नहीं है तो क्या है ?


आयरलैंड में भारतीय मूल की डेंटिस्ट सविता हलप्पनवार की मौत से साफ है कि दूसरों को सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाला पश्चिमी समाज खुद अंदर से कितना पोंगा है। सविता को 17 हफ्तों का गर्भ था। मिसकैरेज की आशंका के चलते उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। डॉक्टर मान चुके थे कि बच्चे को बचाया नहीं जा सकेगा, लेकिन फिर भी उन्होंने सविता का अबॉर्शन नहीं किया। उनकी दलील थी कि आयरलैंड का कैथलिक कानून इसकी इजाजत नहीं देता। वहां का कानून कहता है कि जब तक गर्भ में पल रहे भ्रूण की धड़कनें बंद नहीं हो जातीं, तब तक गर्भपात नहीं किया जा सकता। वहां के डॉक्टर अपने धर्म से इस तरह बंधे थे कि उन्होंने मानव जीवन की भी परवाह नहीं की। सविता की चीख-पुकार और उनके पति की मिन्नतों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। जिस करुणा की ईसाइयत में बड़ी दुहाई दी जाती है, वह उनके हृदय में थोड़ी भी नहीं उमड़ी। यही काम अगर किसी गैर ईसाई मुल्क में हुआ होता, तो उसकी भर्त्सना का एक ज्वार सा उठ गया होता। लेकिन अभी कोई नहीं बोल रहा है, क्योंकि पश्चिमी जगत अपने धर्म...
को, अपनी सभ्यता को सर्वश्रेष्ठ मानकर चलता है। वहां के बौद्धिक दुनिया को बताते रहते हैं कि कुछ देश सिर्फ इसलिए पिछड़े हैं कि उनकी धार्मिक मान्यताएं पिछड़ी हैं बल्कि वह यहां तक कहते हैं कि एक धर्म विशेष के अनुयायियों ने पूरी दुनिया के लिए संकट पैदा कर रखा है। पश्चिमी देश सलमान रश्दी को सम्मान और शरण देते हैं, क्योंकि रश्दी अपने धर्म इस्लाम पर सवाल उठाते हैं। उन मुल्कों की नजर में तसलीमा नसरीन सम्मान की पात्र हैं, क्योंकि वह अपने धर्म पर सवाल खड़े करती हैं। लेकिन ईसाइयत पर सवाल उठाने वाले कितने लोग वहां सम्मानित हुए? आश्चर्य होता है कि जो समाज स्त्री-पुरुष संबंधों में, सेक्स को लेकर इतना उदार दिखता है, वह कुछ बुनियादी प्रश्नों को अब तक नहीं सुलझा पाया है। असल में इस मामले में भी पश्चिमी समाज का दोहरा रवैया रहा है। वहां एक खास तबके ने अपनी सुविधा के मुताबिक धर्म में छूट ली, उसे लचीला बनाया लेकिन अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए गर्भपात जैसे मुद्दे को हथियार की तरह बरकरार रखा। गर्भपात का विरोध करने वाले मिट रोमनी को अमेरिकी चुनाव में करीब पचास फीसदी पॉप्युलर वोट मिल गए। धर्म का मकसद मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाना है। समय के साथ तमाम धार्मिक व्यवस्थाएं और मान्यताएं बदल रही हैं। अगर गर्भपात जैसे सवाल पर ईसाई धर्म एक लीक पकड़े बैठा है तो यह उसकी असफलता है। राहत की बात है कि सविता की मौत के बाद आयरलैंड के कुछ लोग गर्भपात कानून पर पुनर्विचार की मांग कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि पश्चिमी समाज अपनी जकड़बंदी से बाहर निकलेगा और गर्भपात या ऐसे अन्य मुद्दों पर व्यावहारिक रवैया अपनाएगा..........

यह पश्चिम का पाखंड नहीं है तो क्या है ?



आयरलैंड में भारतीय  मूल की डेंटिस्ट सविता हलप्पनवार की मौत से साफ है कि 
दूसरों को सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाला पश्चिमी समाज खुद अंदर से कितना पोंगा
 है। सविता को 17 हफ्तों का गर्भ था। मिसकैरेज की आशंका के चलते उन्हें 
हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। डॉक्टर मान चुके थे कि बच्चे को बचाया 
नहीं जा सकेगा, लेकिन फिर भी उन्होंने सविता का अबॉर्शन नहीं किया। उनकी 
दलील थी कि आयरलैंड का कैथलिक कानून इसकी इजाजत नहीं देता। वहां का कानून 
कहता है कि जब तक गर्भ में पल रहे भ्रूण की धड़कनें बंद नहीं हो जातीं, तब 
तक गर्भपात नहीं किया जा सकता। वहां के डॉक्टर अपने धर्म से इस तरह बंधे थे
 कि उन्होंने मानव जीवन की भी परवाह नहीं की। सविता की चीख-पुकार और उनके 
पति की मिन्नतों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। जिस करुणा की ईसाइयत में बड़ी
 दुहाई दी जाती है, वह उनके हृदय में थोड़ी भी नहीं उमड़ी। यही काम अगर 
किसी गैर ईसाई मुल्क में हुआ होता, तो उसकी भर्त्सना का एक ज्वार सा उठ गया
 होता। लेकिन अभी कोई नहीं बोल रहा है, क्योंकि पश्चिमी जगत अपने धर्म को, 
अपनी सभ्यता को सर्वश्रेष्ठ मानकर चलता है। वहां के बौद्धिक दुनिया को 
बताते रहते हैं कि कुछ देश सिर्फ इसलिए पिछड़े हैं कि उनकी धार्मिक 
मान्यताएं पिछड़ी हैं बल्कि वह यहां तक कहते हैं कि एक धर्म विशेष के 
अनुयायियों ने पूरी दुनिया के लिए संकट पैदा कर रखा है। पश्चिमी देश सलमान 
रश्दी को सम्मान और शरण देते हैं, क्योंकि रश्दी अपने धर्म इस्लाम पर सवाल 
उठाते हैं। उन मुल्कों की नजर में तसलीमा नसरीन सम्मान की पात्र हैं, 
क्योंकि वह अपने धर्म पर सवाल खड़े करती हैं। लेकिन ईसाइयत पर सवाल उठाने 
वाले कितने लोग वहां सम्मानित हुए? आश्चर्य होता है कि जो समाज 
स्त्री-पुरुष संबंधों में, सेक्स को लेकर इतना उदार दिखता है, वह कुछ 
बुनियादी प्रश्नों को अब तक नहीं सुलझा पाया है। असल में इस मामले में भी 
पश्चिमी समाज का दोहरा रवैया रहा है। वहां एक खास तबके ने अपनी सुविधा के 
मुताबिक धर्म में छूट ली, उसे लचीला बनाया लेकिन अपना वर्चस्व बनाए रखने के
 लिए गर्भपात जैसे मुद्दे को हथियार की तरह बरकरार रखा। गर्भपात का विरोध 
करने वाले मिट रोमनी को अमेरिकी चुनाव में करीब पचास फीसदी पॉप्युलर वोट 
मिल गए। धर्म का मकसद मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाना है। समय के साथ तमाम
 धार्मिक व्यवस्थाएं और मान्यताएं बदल रही हैं। अगर गर्भपात जैसे सवाल पर 
ईसाई धर्म एक लीक पकड़े बैठा है तो यह उसकी असफलता है। राहत की बात है कि 
सविता की मौत के बाद आयरलैंड के कुछ लोग गर्भपात कानून पर पुनर्विचार की 
मांग कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि पश्चिमी समाज अपनी जकड़बंदी से 
बाहर निकलेगा और गर्भपात या ऐसे अन्य मुद्दों पर व्यावहारिक रवैया 
अपनाएगा..........