बॉम्बे / मुंबई
1661 में जब इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय ने पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरिन से विवाह किया तो राजा को दहेज में काफ़ी कुछ मिला। दहेज में शामिल था बॉम्बे का द्वीप। उस समय भारत में पुर्तगाल ने बॉम्बे पर क़ब्ज़ा कर रखा था।
लंदन में अंग्रेज लोग काफ़ी कंफ्यूज हुए- बॉम्बे है किधर? कुछ बड़े अंग्रेज विद्वान बोले- शायद ब्राज़ील के धोरे है। दहेज तो मिला लेकिन एक साल लग गया ये जानने में - बॉम्बे दुनिया में है किधर?
1662 में जब अंग्रेज़ी हुकूमत को बॉम्बे की लोकेशन कन्फर्म हुई- तो अंग्रेज सूबेदार सर अब्राहम शिपमन को साढ़े चार सौ आदमियों के साथ बॉम्बे पर क़ब्ज़ा करने भेजा। जब शिपमन ने बॉम्बे में कदम रखा तो पुर्तगाली गवर्नर ने इन अंग्रेजों पर बंदूके तान दी। पुर्तगाली गवर्नर को ये नहीं ज्ञात था कि दहेज में बंबई दिया जा चुका है। अंग्रेज और पुर्तगाली फ़ौज में मुठभेड़ हुई- तीन साल तक झड़पें चलती रही। 1665 में अंतः पुर्तगाल के राजा के फ़रमान के बाद पुर्तगाली गवर्नर वहाँ से निकल गया। शिपमन उस से पहले ही ख़ुदा को प्यारा हो लिया था- केवल 115 अंग्रेज लोग शेष बचे थे 450 में से।
इधर से बॉम्बे की कहानी शुरू हुई थी। दहेज देने वाला पुर्तगाली, लेने वाला अंग्रेज और जगह हिंदुस्तानी।
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मद्रास/ चेन्नई
1626 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना पहला क़िला बनाया- नये शहर मद्रासपतिनम में । फ़्रांसिस डे नामक अंग्रेज गवर्नर ने वहाँ के नायक से ये गाँव ख़रीदा ।
फ़्रांसिस डे की एक वहाँ की लोकल मछुरनियान महिला से आशनाई थी- फ़्रांसिस डे को इस मछलीवाली से नाईट में मुलाक़ात करना अच्छा लगता था तो उसने ये निर्जन वीरान गाँव कंपनी के नाम ख़रीद लिया। शुरू में इधर कुछ फ़्रेंच पादरी और छः लोकल मछुआरे परिवार रहते थे। कंपनी ने एलान किया आगामी तीस साल तक इधर कोई कस्टम ड्यूटी टैक्स आदि देना ना पड़ेगा। बस इस के तहत जुलाहे ,व्यापारी आदि भर भर कर आने शुरू हो गये - सैंट जॉर्ज क़िला बनने से पहले आबादी बसनी शुरू हो चुकी थी।
अगले चालीस वर्षों में लोकल अंगेज़ हुकूमत के चलते चालीस हज़ार से ऊपर लोग इधर बस चुके थी - ख़ुद की बनाये स्वर्ण सिक्के भी चलने लगे थे। जब मद्रास पूर्ण विकसित हो चुका था तब बॉम्बे पर अंग्रेज क़ब्ज़ा होना शुरू हुआ। सूरत में भी प्रचुर मात्रा में अंग्रेज लोग मटरगश्ती करते दिखते। व्यभिचारी पियक्कड़ फ़सादी अंग्रेज लोगों को भारतीय लोग बेटीच* और बहनच* गालियों से सरेआम नवाज़ते थे। अंग्रेज ट्रैवललोग में ये गालीयाँ बक़ायदा नोट है। मतलब उन्हें बाद में समझ आया होगा।
मद्रास बना आशनाई से और बंबई बना दहेज से!
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कोलकाता / कलकत्ता
1681 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपने पैर जमा लिए थे। मुनाफ़ा भरपूर हो रहा था - चाँदी काट रहे थे। इस समय सर जोशुआ चाइल्ड नामक आदमी कंपनी का डायरेक्टर बना। सर चाइल्ड को मुग़ल सूबेदारों और अफ़सर लोगो को पेशकश अर्थात् रिश्वत देना बहुत अखरता था। औरंगज़ेब का मामू शाइस्ता ख़ान जो बंगाल का नवाब था- उसे अंग्रेज़ लोगो से सख़्त घृणा थी। बादशाह को कई बार आगाह भी किया था।
सर चाइल्ड ने 1686 में लंदन से सैन्य सहायता मंगाई- इरादा था मुग़ल रिश्वतखोरी को ताक़त से क़ाबू करेंगे। लंदन से उन्नीस जहाज़ आये- दो सौ तोप और छः सौ गोरे सिपाही। लेकिन सर चाइल्ड ने समय बड़ा ग़लत चुना। इस टाइम औरंगज़ेब ख़ुद पूरी फ़ौज लेके दखन में पड़ा हुआ था- मराठा और बीजापुर के ख़िलाफ़ लड़ाई में। जुलाहे का ग़ुस्सा दाढ़ी पर निकाला- इन अंग्रेजों को मुग़लिया सेना ने पटक कर मारा- सब सफ़ाचट कर दिया। यही नहीं- हुगली, पटना क़ासिमबाज़ार मसूलीपतनाम विशाखापतनाम आदि में कंपनी की फैक्ट्री सब तबाह कर दी गई। सूरत और ढाका में अंग्रेज़ी अफ़सरन को बेडियो में जकड़ घुमाया गया। 1690 में बादशाह ने काफ़ी लल्लोचप्पो के बाद कंपनी को माफ़ी दी और फिर से व्यापार करने की अनुमति।
हालाँकि औरंगज़ेब ने अंग्रेज कंपनी के व्यापार आदि बंद करवा दिये थे लेकिन हज यात्रा रुके नहीं और ईस्ट इंडिया कंपनी से मिलने वाला पैसा ना मारा जाये- इन कारणों से बादशाह ने तीन साल बाद 1690 में ईस्ट इंडिया कंपनी को तीन हज़ार रुपये सालाना पर फिर से व्यापार करने की अनुमति दे दी। गौर करने वाली दो बाते थी- कंपनी को इतना भारी नुक़सान हुआ था लेकिन फिर भी ये अंग्रेज भारत में व्यापार करने को उतावले थे। दूसरी बात- औरंगज़ेब जैसे फ़क़ीर को रेवन्यू लॉस की इतनी फ़िक्र थी कि मात्र तीन हज़ार सालाना के लिए बंगाल में कंपनी को लाइसेंस फिर से दे दिया।
ख़ैर- जॉन चरणोंडक नामक अंग्रेज बारिश के मौसम में बंगाल में अंग्रेज़ी थीया ढूँढ रहा था। सुतानुति और कालीकटा नामक गाँव के पास उसने दलदल वाली एक जगह देखी और इस जहां उसने कलकत्ता नामक कॉलोनी बसाने का निर्णय लिया। अंग्रेज़ी रोजनामचे के अनुसार इस से बदतर जगह कोई और हो ही नहीं सकती थी- सती प्रथा से लबरेज़ ये स्थान मूर्तिपूजा के लिए जाना जाता था। दलदली जगह और ना रहने योग्य मौसम। जॉन ने इधर एक सती होती हुई स्त्री को बचाया और उससे विवाह किया। ये सब लोग उधर नये बसाये शहर में रहने लगे।
एक साल के भीतर ही इस नये शहर में एक हज़ार लोग रहने आ चुके थे किंतु चिंता वाली बात और कुछ थी। इसी समय में साढ़े चार सौ लोग मर भी चुके थे। कहावत थी- इधर रहो अंग्रेजों की भाँति और मरो भेड़ बकरियों की भाँति। ख़ैर जो भी हो- शहर बस चुका था और अंग्रेज़ी व्यापार भी जम चुका था।
औरंगज़ेब को ये तीन हज़ार रुपये बड़े भारी पड़े। कालांतर में बहादुर शाह ज़फ़र की दाढ़ी को जब अंग्रेज़ी अफ़सरान ने पकड़ खींचा तो इन तीन हज़ार रुपये के एक एक कौड़ी को वसूला होगा।