कुछ स्थूल उदाहरण रखता हूँ, सूक्ष्म बातें फिर कभी :-
(1) अपनी अर्थव्यवस्था को बूस्ट देने के लिए विकसित देश समय समय पर दुनिया में कृत्रिम युद्ध का माहौल खड़ा करते हैं। उनके पास शांति की अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद जो ईसाई संस्कृति की लूट का तरीका है और गजवा, जिहाद इत्यादि इस्लामिक लूट का तरीका।
क्या कोई शांति की अर्थव्यवस्था भी है? कुम्भ के मेले हों या कावड़ यात्रा। अभी अयोध्या में भी कुछ बड़ा होगा। ये सारे धार्मिक आयोजन अर्थव्यवस्था के महान उद्धारक हैं।
भारत में अकेला दीपावली का त्यौहार इतनी इकोनॉमी खड़ी कर देता है जितनी पाकिस्तान की एक वर्ष की जीडीपी है।
सभी देश अपने देशों में दीपावली मनाना चाहते हैं। वे शुरू कर रहे हैं। पाकिस्तान ने भी दीपावली मनाने का निर्णय लिया है। सऊदी और व्हाइट हाउस के आधिकारिक एजेंडे में वह पहले से ही है।
इसके अलावा यूरोप अब मंदिरों पर आधारित मेले आयोजित कर रहा है क्योंकि उससे एक निरापद अर्थतंत्र का नियमित व निरन्तर सिलसिला चालू हो जाता है।
संसार के अद्यतनअर्थशास्त्री हैरान हैं कि यह आइडिया उन्हें पहले क्यों नहीं आया?
(2)यही हाल स्वास्थ्य को लेकर है।
आप नित्य जिम नहीं जा सकते, प्रवचन नहीं सुन सकते जबकि शरीर और दिमाग खतरनाक कोलाहल से भर गया है:- आपको योग की शरण लेनी होगी जिसमें थोड़ा सा समय निकाल कर स्वास्थ्य सम्बन्धी आदतों को दिनचर्या में शामिल किया गया है। आयुर्वेद भी दुनिया की नई मजबूरी बनने जा रहा है। उपवास, पर्यटन, वेगन, हर्बल का बोलबाला यूँ ही नहीं है।
(3)इन्द्रिय सुख की नीरसता भी दुनिया को समझ आ रही है। भारत के अलावा ज्यादातर स्थानों पर यही माना जाता है कि सेक्स के मजे से बड़ा आनंद दुनिया में कुछ भी नहीं है।
यूरोप की ओपन कल्चर या इस्लाम का 72 हूर का कॉन्सेप्ट, सबमें जननांगों द्वारा सुख लेने के कई हथकंडे भरे पड़े हैं। 6साल से लेकर 96 साल तक इन्द्रिय भोग में सर्वथा लिप्त रहकर, सैकड़ों विपरीत लिंगियों की व्यवस्था करके भी, समलैंगिक और विकृत यौन संबंधों के बावजूद मानव मन अतृप्त और उत्पीड़ित है। वियाग्रा और वाइब्रेटर के बावजूद जो उन्हें चाहिए था वह नहीं मिला।
और समाधान मिला, पूरब के उस हरि कीर्तन में, जहां एक मुरलीवालेग्वाले के स्टेच्यू के सामने ढोलक, खड़ताल हारमोनियम लिए हरे राम हरे कृष्ण पर झूमता जनसमूह, मात्र आधे घण्टे के सत्संग और नाच के बाद समग्र संसार मिथ्या लगने लगता है, सारे विषय भोग फीके पड़ जाते हैं और अतृप्त मन को एक असीम सुख मिलता है। भारत ऐसी विधियों का खजाना है। ज्यों ज्यों अशांति बढ़ेगी, लोग अधिकाधिक हाथ पैर मारकर इधर दौड़े चले आएंगे।
(4) छवि निर्माण के लिए करोड़ों रुपए व्यय करके संसार ने कुछ काल्पनिक, थोथे नायक खड़े किए, कम्पनियों को हायर किया, टीम लगाई, लेखक, पत्रकारों को लालच देकर झूठी किताबें लिखवाई, पुरस्कार दिलवाए लेकिन वे सब, उस समय ठगे से रह गए जब देखा कि 26 साल का एक सुंदर सा लड़का, बागेश्वर बाबा बनकर, खेल खेल में ही करोड़ों दिलों में स्थापित हो गया। अब सभी सिर धुन रहे हैं कि वह क्या तत्त्व है जो इस व्यक्ति के पास है लेकिन उनके पास नहीं। उस तत्त्व की खोज में सारे आलोचक और आविष्कारक पागल बने घूम रहे हैं।
(5) संसार के बड़े बड़े राजनेता, जिनकी तुती बोलती है, जिन्हें जबरदस्त प्रशिक्षण, अनुभव और बैक सप्पोर्ट मिला है, अचानक इस बात से हैरान हैं कि मांगकर खाने वाला, चाय बेचने वाला, जंगल की खाक छानने वाला, जिसका न घर है न ठिकाना और देश का प्रधानमंत्री बन जाता है, मात्र 10 वर्षों में विगत 1000 वर्षों के नुकसान की भरपाई कर देता है और जाने से पहले एक स्थायी, दृढ़, निरापद व्यवस्था का विकल्प देकर जाना चाहता है, ऐसा क्या है इसमें ? इसके सामने तो सारे कयास धरे के धरे रह गए। इसने तो रेत में से तेल निकाल दिया।
यहाँ मात्र कुछ उदाहरण दिए हैं। पूरी दुनिया भारत और भारतीय संस्कृति का अध्ययन कर रही है कि कुछ सूत्र उन्हें भी मिलें।
और वे सभी अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि बिना भारतीयता, बिना हिन्दू दृष्टि के,बिना सनातन पद्धति के, आगे के सभी द्वार बंद हैं।
मजबूरी में ही सही, उन्हें भारत को अपनाना ही होगा।
और जो देश जितना जल्दी इस पर आएगा, उतना फायदे में रहेगा।
झक मारकर दुनिया भारत को स्वीकार करेगी।
नान्यः पन्थाः विद्यते अयनाय।
दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है। आयातित आसुरी विचारों की चवन्नियां चल गई तब चल गई, अब ग्लोबल का जमाना है और संसार को एक साझा निरापद विकल्प की तलाश है।
गर्व कीजिए कि आप उस परम्परा के वाहक हैं ।
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