बयान वीर
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले दंगे भड़काने वालों पर सख्त कार्रवाई करने का
आह्वान कर रहे हों, भले राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में भाग लेने वाले
पक्ष-विपक्ष के तमाम राजनेता और मुख्यमंत्री उसका एकमत से समर्थन कर दें,
लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आखिर यह कार्रवाई करेगा कौन ? क्या
यह कार्रवाई केन्द्र और राज्य की सरकारों को ही नहीं करनी है और यदि उन्हीं
को करनी है, तो फिर यह आह्वान और समर्थन का ड्रामा किसके लिए ?
इन सभी राजनेताओं को ही तो ऎसे तत्वों पर कार्रवाई करनी है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से जारी ताजा आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में देश में हुए साम्प्रदायिक दंगों में ढाई हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं तथा लगभग 27 हजार लोग घायल हुए हैं। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह शर्मनाक बात है कि वहां साम्प्रदायिक दंगे हों।
उससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री को दंगों में शामिल लोगों पर कड़ी कार्रवाई के लिए कहना पड़े। इसके मायने साफ हैं कि अब तक ऎसा नहीं हो रहा था। यह कहने की नहीं, समझने की बात है कि साम्प्रदायिक दंगों के अधिकांश मामलों में राजनीतिक दलों की भूमिका ही अहम रहती है। जम्मू-कश्मीर में हुए दंगे अथवा इंदिरा गांधी की हत्या के बाद फैले साम्प्रदायिक दंगों की कहानी अलग है। साम्प्रदायिक दंगों की शुरूआत के कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाद में इसमें राजनीतिक दल और राजनेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
देश साम्प्रदायिक दंगों से निजात पाना चाहता है, क्या ऎसा संभव है। दिल्ली में हुए 1984 के सिख दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए, लेकिन आज तक एक भी शक्तिशाली दोषी को सजा नहीं मिल पाई। कानून-व्यवस्था बनाए रखना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है और कोई भी राज्य सरकार अगर ठान ले, तो दंगा हो ही नहीं सकता और अगर हो भी गया, तो समय रहते उसे फैलने से रोका जा सकता है। मुजफ्फरनगर के ताजा दंगों के बाद वोट बैंक के लिए खेली जा रही तुच्छ राजनीति किसी से छिपी नहीं है।
जब तक वोट बैंक की राजनीति के मोह से उबरा नहीं जाएगा, तब तक दंगों को रोकना संभव ही नहीं है। दंगे बयानों या भाषणों से नहीं, दृढ़ इच्छाशक्ति और अपने-परायों के भेद से ऊपर उठ कर ही रोके जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को सच्चे मन से एक मंच पर आकर दिल से एक साथ खड़ा हो पाने का साहस दिखाना होगा।
इन सभी राजनेताओं को ही तो ऎसे तत्वों पर कार्रवाई करनी है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से जारी ताजा आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में देश में हुए साम्प्रदायिक दंगों में ढाई हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं तथा लगभग 27 हजार लोग घायल हुए हैं। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह शर्मनाक बात है कि वहां साम्प्रदायिक दंगे हों।
उससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री को दंगों में शामिल लोगों पर कड़ी कार्रवाई के लिए कहना पड़े। इसके मायने साफ हैं कि अब तक ऎसा नहीं हो रहा था। यह कहने की नहीं, समझने की बात है कि साम्प्रदायिक दंगों के अधिकांश मामलों में राजनीतिक दलों की भूमिका ही अहम रहती है। जम्मू-कश्मीर में हुए दंगे अथवा इंदिरा गांधी की हत्या के बाद फैले साम्प्रदायिक दंगों की कहानी अलग है। साम्प्रदायिक दंगों की शुरूआत के कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाद में इसमें राजनीतिक दल और राजनेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
देश साम्प्रदायिक दंगों से निजात पाना चाहता है, क्या ऎसा संभव है। दिल्ली में हुए 1984 के सिख दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए, लेकिन आज तक एक भी शक्तिशाली दोषी को सजा नहीं मिल पाई। कानून-व्यवस्था बनाए रखना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है और कोई भी राज्य सरकार अगर ठान ले, तो दंगा हो ही नहीं सकता और अगर हो भी गया, तो समय रहते उसे फैलने से रोका जा सकता है। मुजफ्फरनगर के ताजा दंगों के बाद वोट बैंक के लिए खेली जा रही तुच्छ राजनीति किसी से छिपी नहीं है।
जब तक वोट बैंक की राजनीति के मोह से उबरा नहीं जाएगा, तब तक दंगों को रोकना संभव ही नहीं है। दंगे बयानों या भाषणों से नहीं, दृढ़ इच्छाशक्ति और अपने-परायों के भेद से ऊपर उठ कर ही रोके जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को सच्चे मन से एक मंच पर आकर दिल से एक साथ खड़ा हो पाने का साहस दिखाना होगा।