मंगलवार, 16 मई 2023

मुगल डकैत थे,निर्माता नही ।।

मुगलों को लेकर सेक्युलर्स, लिबेरल्स, वामी, और तालिबानी मीडिया गैंग एक सवाल करते हैं कि मुगल तो यहीं बस गए थे, उन्होंने अंग्रेजो के जैसे लूट कर अपना देश नही भरा। यहाँ की चीज यहीं रही। वे लुटेरे कैसे हुए बल्कि वे तो भारत के निर्माता थे। 

भारत के निर्माता मुगल थे कहने वाले मार्क्सवादी अपने बाप कार्ल मार्क्स के साथ धोखा करते हैं। वह ऐतिहासिक भौतिकवादी सिद्धांतों को भूल जाते हैं, खैर धोखाधड़ी तो इन लोगों के रग रग में है वापस अपने मुद्दे पर आते हैं। भारत मुगलों से पहले सुशिक्षित, सुसभ्य, सम्पन्न और समृद्ध देश था। ये लुटेरे लूटने के लिए अपनी बंजर भूमि छोड़कर आये और यहां पीढ़ियों लूटकर्म में रत रहे। अगर हम लूट का माल देश मे है इसलिए वह लूट नही है वाले तर्क का इस्तेमाल करें तो देश मे जितने डकैत चोर उचक्के हैं उन सबको भारत का निर्माता घोषित कर देना चाहिए क्योंकि वे डकैती से प्राप्त माल कहीं बाहर एक्सपोर्ट नही कर रहे बल्कि देश मे ही निवेश कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे। इन्हें तो भारत रत्न मिलना चाहिए। कितना वाहियात तर्क है। 

मुगलों की लूट को लूट न मानने वाले भूल जाते हैं कि यहां की अधिसंख्य जनता को अपने धर्म का पालन करने के लिए भी पैसा देना पड़ता था, जजिया लूट का घृणितम तरीका था। जिस राज्य पर मुगल आक्रमण करते थे वहां क्या कुछ छोड़ देते होंगे? एक सजीव उदाहरण देता हूँ शायद लोगों की आंख खुल जाए। महाराणा और वहां के लोग जो अपने मेवाड़ को बचाने के लिए घास की रोटी खाने पर विवश हो गए, वहां के राजपूत आज भी उस दरिद्रता से निकल नही पाए और आज भी यायावरी की जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं। यह लूट का जीता जागता उदाहरण नही है क्या?  

महिलाओं की लूट मुगलों का प्रिय कर्म था। बाबर ने 1528 में हिन्दू मंडरों को लूटने के लिए चढ़ाई की जिसने उस इलाक़े के हिन्दुओं पर जमकर ज़ुल्म ढाया। मंडाहर बस्ती को जमींदोज कर दिया गया। हथियाई गई हिन्दू महिलाओं में से 20 को छांटकर बाबर ने स्वयं के लिए रख लिया व बाकी उसने अपने साथियों में बांट दी । अहमद यादगार लिखता है कि हिन्दू मंडाहर पुरूषों को ज़मीन में आधा दफ्न कर तीरों से मारा गया था और उनकी स्त्रियों को फौज में बांट दिया गया । जनवरी 1624 में जहांगीर अपनी आत्मकथा में जाटों के लिए तिरस्कारपूर्ण संबोधन का प्रयोग करते हुए बताता है कि उसने उन्हें दबाने के लिए फौज भेजी। इसी प्रकार अपनी आत्मकथा में पृष्ठ संख्या 285 पर वह लिखता है कि, 1634 में भेजी गई एक मुगल फौज ने आगरा क्षेत्र में 10000 जाट पुरूषों को मार डाला ...महिलाओं को "गणना से परे" संख्या में बंदी बना लिया गया।

1619 में, कालपी कनौज के चौहान राजपूतों ने विद्रोह कर दिया था। जिसे दबाने हेतु अब्दुल्लाह खान नामक एक उज़्बेक मुसलमान आप्रवासी सैन्य अधिकारी को फौज सहित भेजा गया। हिन्दू वीरों ने भरपूर मुकाबला किया, लेकिन मुगलों की ज़्यादा तादाद, बेहतर बख्तर व बंदूकों के सामने वह जीत न सके। हिन्दू किले के जीते जाने से पहले कुछ कठिन लड़ाई हुई, जिसमें 30,000 हिन्दू यौद्धा मारे गए । 10,000 सिर काट कर 20 लाख रुपयों के लगभ लूट की गई ।

इसके बाद 1632 में एक अंग्रेज़ यात्री पीटर मुंडी भी इसी क्षेत्र से गुजरने के 4 दिनों के दौरान उस ने 200 मीनार या खंभे देखे, जिन पर कुल 7,000 कटे इंसानी सिर चिन दिए गए थे । इसे मुंडी अब्दुल्ला खान और उसकी 12,000 घोड़े और 20,000 पैदल मुग़ल सेना का कारनामा बताता है | मुंडी के अपने शब्दों में, "उसने सभी को नष्ट कर दिया उनके शहर, उनके (हिन्दुओं के) सभी सामान लूट लिए गए, उनकी पत्नियों और बच्चों को गुलाम बना लिया गया, और उनके पुरूषों के सिर काट काट कर मीनारों में चिनवा दिए गए" । किसी मुगल द्वारा यह पूछे जाने पर की उसने कितने काफिरों को मौत के घाट उतार दिया होगा, अब्दुल्लाह खान ने जवाब दिया, "इतने कटे हुए सिर होंगे कि आगरा से पटना तक दो कतारों में लगाए जा सकें"।

चार महीने बाद जब पीटर मुंडी इसी रास्ते पटना से आगरा आया, तो उसने देखा कि हर मीनार पर 2,100 से 2,400 कटे हुए हिन्दू सिरों के साथ 60 नई मीनारें बना दी गई हैं और नई मीनारों का निर्माण अब तक रुका ही नहीं था। डच इतिहासकार डर्क कोफ बताते हैं कि मुगल काल में हर वर्ष हजारों हिन्दू किसानों को गुलाम बनाकर मध्य एशिया में बेचे जाने के अकाट्य सबूत हैं । 

दरअसल , मुगल अभिजात्य वर्ग हिन्दू किसानों से कर वसूली निर्दयता से करता था। किसी साल फसल खराब होने की सूरत में भी कर कम नहीं होता था और किसानों को अपनी पत्नियों, बच्चों व खुद को बेच कर उसे चुकाना पड़ता था। जो अपने परिवारों को बेचने को तैयार नहीं होते थे, उनके साथ वैसा व्यवहार किया जाता था जैसा कि ऊपर वर्णित है।

चित्तौड़ के तीसरे शाके के बारे में कई हिन्दू जानते ही हैं। जब किले की रक्षा में जुटे 8,000 राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए व उनकी महिलाओं के राख बने जिस्म देखकर भी जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने हुक्म दे दिया कि किले में कत्ल ए आम किया जाए। 40,000 बेकसूर हिन्दू पुजारियों, किसानों, काश्तकारों व व्यापारियों को बेरहमी से काट दिया गया। उनके परिवारों को गुलाम बना लिया गया।

औरंगजेब ने लगभग सभी मंदिरों को नष्ट करने के आदेश दिए ताकि मंदिरों के पैसे की लूट से मुगल दरबार की तामीर की जा सके। और हां मुगलों की लूट का एक बड़ा हिस्सा मध्य एशिया बड़ा भेजा जाता रहा। यह हिस्सा धन, गुलाम और वस्तुओं के रूप में था। 

मुगल डकैत ही थे निर्माता नही। इस लेख में कुछ संदर्भ इसलिए लिए गए ताकि तथाकथित कहानीबाज इतिहासकारों को थप्पड़ लगाया जा सके जो 'एक अनुमान के आधार पर' पूरा इतिहास लिख देते।

ऐसे अत्याचारी मुगलों की डकैती/ क्रूरता  पर लगाम लगाने वाले महाराणा प्रताप की आज जयंती है, महायोद्धा को प्रणाम। 🙏

मुस्लिमो का इतिहास जो छिपाया गया है

9 सितम्बर 1947 की मध्यरात्रि को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा सरदार पटेल को सूचना दी गई कि 10 सितम्बर को संसद भवन उड़ा कर एवं सभी मन्त्रियों की हत्या कर के लाल किले पर पाकिस्तानी झण्डा फहराने की दिल्ली के मुसलमानों की योजना है। 
सूचना क्यों कि संघ की ओर से थी, इसलिये अविश्वास का प्रश्न नहीं था। पटेल तुरंत हरकत में आए और सेनापति आकिन लेक को बुला कर सैनिक स्थिति के बारे में पूछा। 
उस समय दिल्ली में बहुत ही कम सैनिक थे। आकिन लेक ने कहा कि आस-पास के क्षेत्रों में तैनात सैनिक टुकड़ियों को दिल्ली बुलाना भी खतरे से खाली नहीं है। कुल मिला कर आकिन लेक का तात्पर्य था कि यह इतनी जल्दी भी नहीं किया जा सकता, इसके लिये समय चाहिए। यह सारी वार्ता वायसराय माउंटबैटन के सामने ही हो रही थी, लेकिन पटेल तो पटेल ही थे। उन्होंने आकिन लेक को कहा-“विभिन्न छावनियों को संदेश भेजो, उनके पास जितनी जितनी भी टुकड़ियाँ फालतू हो सकती हैं, उन्हें तुरंत दिल्ली भेजें।” आखिर ऐसा ही किया गया। 

उसी दिन शाम से टुकड़ियाँ आनी शुरू हो गई। अगले दिन तक पर्याप्त टुकड़ियाँ दिल्ली पहुँच चुकी थीं।

सैनिक कार्यवाही....
सैनिक कार्यवाही आरम्भ हुई। दिल्ली के जिन-जिन स्थानों के बारे में संघ ने सूचना दी थी, उन सभी स्थानों पर एक साथ छापे मारे गये और हर जगह से बड़ी मात्रा में शस्त्रास्त्र बरामद हुए। पहाड़गंज की मस्जिद, सब्ज़ी मंडी मस्जिद तथा मेहरौली की मस्जिद से सब से अधिक शस्त्र मिलेl अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने स्टेन गनों तथा ब्रेन गनों से मुकाबला किया, लेकिन सेना के सामने उन की एक न चली। सब से कड़ा मुकाबला हुआ सब्जी मण्डी क्षेत्र में स्थित ‘काकवान बिल्डिंग’ में। इस एक बिल्डिंग पर कब्जा करने में सेना को चौबीस घण्टों से भी अधिक समय लगा।

मेहरौली की मस्जिद से भी स्टेनगनों व ब्रेनगनों से सेना का मुकाबला किया गया। चार-पाँच घंटे के लगातार संघर्ष के बाद ही सेना उस मस्जिद पर कब्जा कर सकी।

तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी के अनुसार....
“मुसलमानों ने हथियार एकत्र कर लिए थे। उन के घरों की तलाशी लेने पर बम, आग्नेयास्त्र और गोला बारूद के भण्डार मिले थे। स्टेनगन, ब्रेनगन, मोर्टार और वायर लेस ट्रांसमीटर बड़ी मात्रा में मिले। इन को गुप्तरूप से बनाने वाले कारखाने भी पकड़े गए।

अनेक स्थानों पर घमासान लड़ाई हुई, जिस में इन हथियारों का खुल कर प्रयोग हुआ। पुलिस में मुसलमानों की भरमार थी। इस कारण दंगे को दबाने में सरकार को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा। इन पुलिस वालों में से अनेक तो अपनी वर्दी व हथियार लेकर ही फरार हो गए और विद्रोहियों से मिल गए। शेष जो बचे थे, उन की निष्ठा भी संदिग्ध थी। सरकार को अन्य प्रान्तों से पुलिस व सेना बुलानी पड़ी।” (कृपलानी, गान्धी, पृष्ठ  292-293)

मुसलमान सरकारी अधिकारी थे योजनाकार....
दिल्ली पर कब्जा करने की योजना बनाने वाले कौन थे ये लोग? ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। इन में बड़े – बड़े मुसलमान सरकारी अधिकारी थे, जिन पर भारत सरकार को बड़ा विश्वास था। इन में उस समय के दिल्ली के बड़े पुलिस अधिकारी तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी थे, जो कि मुसलमान थे।
एक-एक पहलू को अच्छी तरह सोच-विचार करके लिख लिया गया था और वे लिखित कागज-पत्र विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की ही कोठी में एक तिजोरी में सुरक्षित रख लिए गए थे।

       उन दिनों मुसलमान बन कर मुस्लिम अधिकारियों की गुप्तचरी करने वाले संघ के स्वयंसेवकों को इस की जानकारी मिल गई और उन्होंने संघ अधिकारियों को सूचित किया । संघ अधिकारियों ने योजना के कागजात प्राप्त करने का दायित्व एक खोसला नाम के स्वयंसेवक को सौंपा ।
खोसला ने उपयुक्त स्वयंसेवकों की एक टोली तैयार की और सभी मुसलमानी वेश में रात को विश्वविद्यालय के उस अधिकारी की कोठी पर पहुँच गए। मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ता वहाँ पहरा दे रहे थे। खोसला ने उन्हें ‘वालेकुम अस्सलाम’ किया और कहा – “हम अलीगढ़ से आए हैं। अब यहाँ पहरा देने की हमारी ड्यूटी लगी है। आप लोग जाकर सो जाओ।” वे लोग चले गए।

कोठी से तिजोरी ही उठा लाए....
खोसला के लोग कोठी से उस तिजोरी को ही निकाल कर ट्रक पर रख कर ले गए। उस में से वे कागज निकाल कर देखे गए तो सब सन्न रह गए।

नई दिल्ली में आजकल जो संसद सदस्यों की कोठियाँ हैं, इन्हीं में से ही किसी कोठी में रात को कुछ स्वयंसेवक सरकारी अधिकारियों की बैठक बुलाई गई और दिल्ली पर कब्जे की उन कागजों में अभिलिखित योजना पर मन्थन किया गया। इसी मन्थन में से यह बात सामने आई कि यह योजना इतने बड़े और व्यापक स्तर की है कि हम संघ के स्तर पर उस को विफल नहीं कर सकते। इसे सेना ही विफल कर सकती है। अतः इस की सूचना हमें सरदार पटेल को देनी चाहिए। फलतः उस बैठक से ही दो - तीन कार्यकर्ता रात्रि को एक बजे के लगभग सीधे सरदार पटेल की कोठी पर पहुँचे तथा उन्हें जगा कर यह सारी जानकारी दी। पटेल बोले – “अगर यह सच न हुआ तो?” कार्यकर्ताओं ने उत्तर दिया - “आप हमें यहीं बिठा लीजिए तथा अपने गुप्तचर विभाग से जाँच करा लीजिए। अगर यह सच साबित न हुआ तो हमें जेल में डाल दीजिए।” इस के बाद सरदार हरकत में आए।

कल्पना करें कि यदि सरदार पटेल संघ की उक्त सूचना पर विश्वास न करते अथवा वे आकिन लेक की बातों में आ जाते तो भारत सरकार को भाग कर अपनी राजधानी लखनऊ, कलकत्ता या मुम्बई में बनानी पड़ती और परिणाम स्वरूप आज पाकिस्तान की सीमा दिल्ली तक तो जरूर ही होती।

साभार : पुस्तक : ”विभाजनकालीन भारत के साक्षी” (पृष्ठ संख्या 92-93)
लेखक - श्री कृष्णानन्द सागर जी ।