tag:blogger.com,1999:blog-84345701143002067612024-03-06T11:02:54.097+05:30आप हम और देशइस ब्लॉग में मेरा उद्देश्य है की हम एक आम नागरिक की समश्या.सभी के सामने रखे ओ चाहे चारित्रिक हो या देश से संबधित हो !आज हम कई धर्मो में कई जातियों में बटे है और इंसानियत कराह रही है, क्या हम धर्र्म और जाति से ऊपर उठकर सोच सकते इस देश के लिए इस भारतीय समाज के लिए ? सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वें भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत।।
!! दुर्भावना रहित सत्य का प्रचार :लेख के तथ्य संदर्भित पुस्तकों और कई वेब साइटों पर आधारित हैं!! Contact No..7089898907Unknownnoreply@blogger.comBlogger797125tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-12107690462743344212024-03-06T08:18:00.001+05:302024-03-06T08:18:23.495+05:30नेहरू की आत्ममुग्धता जब इन्दिरा गांधी की सुरक्षा में खूबसूरत रूसी नौजवान लगाए गए <div><br></div><div>भारत को तब नई नई आज़ादी मिली हुयी थी। पण्डित नेहरू के नेतृत्व में पूरे देश मे कांग्रेस का झण्डा लहरा रहा था।</div><div><br></div><div>पण्डित नेहरू साम्यवाद और समाजवाद के घोड़े पर सवार थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनियां दो खेमों में बंट गई थी। एक तरफ सोवियत रूस तब पूरी दुनियां में कम्यूनिज़्म और सोशलिज्म का झण्डा बरदार था तो दूसरी तरफ संयुक्त राज्य अमेरिका डेमोक्रेसी और कैपिटलिज्म का पैरोकार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इन दो महाशक्तियों में एक अदृश्य युद्ध छिड़ गया जिसे कोल्डवार के नाम से जाना जाता है। इस कोल्डवार को लीड कर रही थी यूएसएसआर की खुफिया एजेंसी केजीबी और यूएसए की खुफिया एजेंसी सीआइए।</div><div><br></div><div>ये दोनों एजेंसियां अलग अलग देशों में खुफिया ऑपरेशन चलाकर वहां की व्यवस्थाओं पर अपना कब्जा चाहती थीं। उस समय दोनों के निशाने पर था एक ऐसा देश जो क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवां सबसे बड़ा और जनसंख्या के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश था। भारत की व्यवस्था पर कब्जा का अर्थ पूरे यूरोप के बराबर व्यवस्था पर कब्जा। दोनों एजेंसियों ने अपने एजेण्ट भारत मे लगा रखे थे। लेकिन नेहरू के वाम पंथ की तरफ रुझान का फायदा उठा कर केजीबी व्यवस्था में गहरी घुसपैठ कर चुकी थी। नेहरू ने अमेरिका को अपना दुश्मन बना लिया था। </div><div>जोसेफ स्टालिन नेहरू और गांधी को खुलेआम "इम्पीरियलिस्ट पपेट" कहता था और उनकी खिल्ली उड़ाता था।लेकिन नेहरू को तब भी उसकी गोद मे बैठना ही पसंद आया। केजीबी ने भारत मे यूएसएसआर के दूतावास की मदद से अपने सैंकड़ों एजेंटों को भारत के सत्ता केंद्र दिल्ली में काम पर लगा दिये।</div><div><br></div><div>उस समय केजीबी के अहम खुफिया दस्तावेजों का प्रबंधन देख रहे थे "वेसिली मित्रोखिन"। मित्रोखिन कई वर्षों तक इन खुफिया दस्तावेजों की एक एक कॉपी अपने पास जमा करते रहे।फिर एक दिन ब्रिटिश खुफिया एजेंसी MI6 की मदद से वे रूस से भागने में सफल हुये और ब्रिटिश सुरक्षा में उन्होंने इन खुफिया दस्तावेजों के हवाले दो किताबें प्रकाशित करवाई जिन्हें मित्रोखिन आर्काइव 1 और 2 के नाम से जाना जाता है।</div><div><br></div><div>अपनी किताब में मित्रोखिन ने केजीबी के बहुत ही खुफिया ऑपरेशन्स की पोल खोलकर दुनियां भर में तहलका मचा दिया। मित्रोखिन के अनुसार 'जब भारत के प्रधानमंत्री नेहरू सोवियत रूस की यात्रा पर गये तो अपने साथ बेटी इन्दिरा को लेकर भी गये। उनकी इस यात्रा को केजीबी ने बहुत ही चतुराई से डिजाइन किया था। रूस पहुंचते ही नेहरू का अभूतपूर्व स्वागत किया गया। उन्हें मॉस्को की सड़कों पर स्टालिन के साथ घुमाया गया। आयोजन को भव्य रोड़ शो का स्वरूप दिया गया। कुल मिला कर नेहरू को ये अहसास दिलवाया गया कि वो रूस में भी बहुत लोकप्रिय हैं।'</div><div><br></div><div>केजीबी जानती थी कि नेहरू आत्ममुग्ध व्यक्ति हैं अतः उन्हें नियन्त्रण में लाने का यही सबसे अच्छा तरीका था कि चने के झाड़ पर चढ़ाकर मनमाने समझौते करवा लिए जायें। मित्रोखिन आगे बताते हैं कि उस समय केजीबी की तरफ से इंदिरा गांधी को 20 मिलियन भारतीय रुपयों का भुगतान किया गया। उन्हें रूस के खूबसूरत द्वीपों पर और बीचों पर भ्रमण के लिये ले जाया गया। जहां उनकी सुरक्षा में जान बूझ कर लम्बे चौड़े और खूबसूरत दिखने वाले अफसरों को तैनात किया गया था।</div><div>Video- https://www.facebook.com/share/v/qkKqR8UUYe8WriEc/?mibextid=qi2Omg</div><div><br></div><div><br></div><div>आउटलुक के लेख का कुछ अंश:</div><div><br></div><div>उस यात्रा के दौरान केजीबी ने नेहरू से कई महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर करवा लिये। उस दौरान केजीबी ने नेहरू और इंदिरा को यह विश्वास दिलाया कि आने वाला समय कम्युनिस्टों का होगा। इसके बाद केजीबी बड़े पैमाने पर ऐसे नेताओं के चुनाव अभियान चलाने लगी जो चुनाव जीत कर मन्त्री बने। फिर इन मंत्रियों की मदद से वे हमारी व्यवस्थाओं पर और मजबूत पकड़ बनाते चले गये।</div><div><br></div><div>नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने केजीबी के पर कतरने शुरू कर दिये थे लेकिन ताशकंद में केजीबी ने उनकी हत्या कर दी। उनकी हत्या के बाद इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी। इस दौरान केजीबी ने रूस में भारतीय दूतावास में मौजूद राजनयिकों को पैसे का लालच देकर, भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसाकर और हनीट्रैपिंग करके कई गोपनीय सूचनाओं को बाहर निकलवाया।</div><div><br></div><div>बिजनेस स्टैंडर्ड का लेख:</div><div><br></div><div>केजीबी भारतीय राजनयिकों, लेखकों, पत्रकारों, फिल्मकारों, नेताओं और महत्वपूर्ण मंत्रालयों के अधिकारियों को कोई ना कोई सम्मान के बहाने मॉस्को बुलाती थी और वहां किसी को पैसे से खरीद लेते थे तो किसी को महिला एजेंटों का उपयोग करके फंसा लेते थे। महिला एजेंट जिन्हें स्पेरो यानी गौरेया कहा जाता था, इन नेताओं और लेखकों के साथ रंगरेलियां मनाती थी और उनका वीडियो बनाकर फिर ब्लैकमेल करके महत्वपूर्ण सूचनाओं को चुराती थीं।</div><div><br></div><div>जहां एक तरफ केजीबी भारत की व्यवस्थाओं में गहरी घुसपैठ कर रही थी वहीं दूसरी तरफ सीआइए भी इस खेल में जुटी हुई थी। दोनों एजेंसियों ने भारत को अपना प्लेग्राउंड बनाया हुआ था। भारतीय राजव्यवस्था के खेवनहार कांग्रेसियों को और वामपंथियों को खरीदने के लिये दोनों देश पानी की तरह पैसा बहा रहे थे। केजीबी ने भारत के लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को पैसे देकर अपने पक्ष में कर लिया। इन अखबारों के माध्यम से केजीबी ने हजारों आर्टिकल प्रकाशित करवाये। इन लेखों के द्वारा भारतीय जनमानस में अमेरिका के खिलाफ एक माहौल तैयार करवाया गया।</div><div><br></div><div>आज जो Press trust of India है उसे उस समय Press TASS of India कहा जाता था। TASS उस समय सोवियत समाचार एजेंसी थी। यही एजेंसी भारतीय प्रेस को नियंत्रित करती थी। भारत से बड़े बड़े पत्रकारों और लेखकों को सोवियत खर्चे पर मॉस्को बुलाया जाता था। वहां उन्हें कोई छोटा मोटा सम्मान देकर केजीबी के दफ्तरों में भेजा जाता था जहाँ केजीबी के एजेंट उन्हें ब्रीफ करते थे। सोवियत सरकार अपने खर्चे पर भारत मे जगह जगह सोवियत पुस्तक मेलों का आयोजन करवाती थी। इन पुस्तक मेलों में ऐसी लाखों पुस्तकें मुफ्त में बांटी जाती थी जो अमेरिका के खिलाफ प्रोपेगैंडा चलाती थीं और वामपन्थी नीतियों के पक्ष में एक जनमत तैयार करने का काम करती थी। इस तरह के आयोजनों के लिये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के कैडरों का उपयोग किया जाता था।</div><div><br></div><div>उस समय दिल्ली में स्थित सोवियत दूतावास सबसे अधिक चर्चा में रहता था। वहां हर समय पत्रकारों, लेखकों, फ़िल्म कलाकारों, सरकारी अफसरों और नेताओं का हुजूम लगा रहता था। एक अनुमान के मुताबिक उस समय सोवियत दूतावास में 800 से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे जिनमें से ज्यादातर केजीबी के एजेंट होते थे। हर वर्ष रूस ने करीब दस हजार ऐसे टूरिस्ट भारत आते थे जिन्हें सोवियत सरकार अपने खर्चे पर भारत भेजती थी। इन टूरिस्टों में कितने केजीबी के एजेण्ट होते थे यह आज भी रहस्य है।</div><div><br></div><div>सोवियत निर्देशों का पालन करते हुये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने इंदिरा गांधी को बाहर से समर्थन दिया जिसके कारण उनकी सरकार बच गयी।</div><div><br></div><div>इस समर्थन की एवज में वामपंथियों ने कला, संस्कृति, शिक्षा, पुरातत्व, भाषा इत्यादि विभागों में अपने लोग महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिये। इन्हीं वामपंथियों ने 1972 में Indian Council of Historical Research (ICHR) का गठन किया। इस संस्था ने भारतीय इतिहास का जो बंटाधार किया वो कई सौ वर्षों तक मुस्लिम और ईसाई भी नहीं कर पाये।</div><div><br></div><div>रोमिला थॉपर, डी.एन झा, रामगुहा, इरफान हबीब, जैसे फिक्शन लेखकों को इतिहास का विशेषज्ञ बना दिया गया। इन्होंने अपनी मर्जी से बिना किसी पुख्ता सबूत के मनमर्जी का इतिहास लिखा। ये जो आज आप देखते हैं ना कि किस तरह से इतिहास की किताबों में मुगलों की तारीफों का बखान किया गया है, ये सब इन्हीं की देन है।</div><div><br></div><div>ये जो देशद्रोहियों का अड्डा J.N.U है ना 1969 में ही बना था। इसे बनाने में भी कम्युनिस्ट ही शामिल थे। कम्युनिस्टों ने उस समय जो बीज बोया था वो आज वृक्ष बनकर "भारत तेरे टुकड़े होंगे" जैसा फल दे रहा है।</div><div>प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों का निर्धारण भी सोवियत रूस के इशारों पर किया जाने लगा। पाठ्यक्रम से चुन चुन कर हिन्दू प्रतीकों को मिटाया जाने लगा। हिन्दू रीति रिवाजों का मजाक बनाया जाने लगा। इस काम मे तमाम समाचार पत्र पत्रिकाएं लगी हुई थी। केजीबी सोवियत खर्चे पर मुफ्त में ऐसा साहित्य वितरित करवा</div><div>रही थी जो हिन्दू धर्म के खिलाफ जहर उगलता था। उस समय पूरे देश में जगह जगह मास्को कल्चरल फेस्टिवल का आयोजन किया जाता था। इन आयोजनों में पहुंचने वाले युवाओं का जबतदस्त ब्रेनवॉश किया जाता था। कुल मिलाकर एक तरफ केजीबी सरकार पर नियंत्रण करके सैन्य और गोपनीय सूचनायें चुरा रही थी तो दूसरी तरफ कला, संस्कृति, धर्म और भाषा को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रही थी।</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-20291071144949873832024-02-14T05:20:00.001+05:302024-02-14T05:20:49.323+05:30झांसी की रानी के वंशज...अब यहां है ।।अपने इतिहास के सर्वोच्च नायकों के साथ हमने कैसा व्यवहार किया है उसकी एक बानगी देखिये ।<div><br></div><div>झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ ?</div><div><br></div><div>वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.</div><div><br></div><div>अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.</div><div><br></div><div>1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.</div><div><br></div><div>महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.</div><div><br></div><div>आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं :-</div><div><br></div><div>15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.</div><div><br></div><div>मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.</div><div><br></div><div>डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.</div><div><br></div><div>इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.</div><div><br></div><div>मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.</div><div><br></div><div>नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.</div><div><br></div><div>असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.</div><div><br></div><div>मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.</div><div><br></div><div>देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.</div><div><br></div><div>मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.</div><div><br></div><div>ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.</div><div><br></div><div>हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.</div><div><br></div><div>उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.</div><div><br></div><div>फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.</div><div><br></div><div>सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.</div><div><br></div><div>इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.</div><div><br></div><div>दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी.</div><div><br></div><div>इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं।</div><div><br></div><div>जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया।</div><div><br></div><div>अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।</div><div><br></div><div>दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं।</div><div><br></div><div>उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे ! अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार हैं।</div><div><br></div><div>🙌 अनेक शूरवीर सम्राटों के इस अखंड भारत में हमे कभी कोई विदेशी आक्रांता गुलाम नहीं बना सकता था बशर्ते अपने ही लोगों ने कायरता न दिखाई होती.</div><div><br></div><div>साभार :</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-85579386914772760582024-01-06T06:49:00.001+05:302024-01-06T06:49:46.271+05:30श्री राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में नही जायेंगे शंकराचार्य ।।<div><br></div><div>शंकराचार्य गद्दी को हम साक्षात भगवान शिव मानते है आप गुरुतुल्य है प्रभू । लेकिन आपके इस दास के मन मे एक विकार आ रहा है आशा है आप शंका का समाधान करेगे</div><div>या फिर उनके अनुयायी इसका समाधान करेगे ।।</div><div><br></div><div>प्रभु श्री राममंदिर के उद्घाटन मे आप लोगो को तवज्जो नही दी जा रही है</div><div>ऐसा हमने कही और से नही आपके मुंह से सुना है ।</div><div>आपके अनुसार "राममंदिर निर्माण मे सारा योगदान आपका था लेकिन आज श्रेय मोदी ले रहे है ??"</div><div><br></div><div>अच्छा भगवन अब थोड़ा इतिहास मे चलते है आपकी पीठ की एक गद्दी जगन्नाथपुरी है जगन्नाथपुरी मंदिर की रक्षा मे एक राजा मानसिंह का भारी योगदान था ।</div><div>चले जगन्नाथपुरी मंदिर की बात छोड़ देते है गुजरात के द्वारिकाधीश मंदिर का 15वी सदी के अंत मे जीर्णोद्धार हुआ वह भी राजा मानसिंह के समयकाल मे उन्ही के प्रयासो से</div><div>वह भी छोड़ दे जिनकी भक्ति के कारण पूरा विश्व आपको भी प्रणाम करता है। </div><div>उस वृन्दावन तीर्थ का जीर्णोद्धार भी राजा मानसिंह के काल मे हुआ</div><div>वृन्दावन को वैष्णव नगरी मानकर छोड़ दे, तो काशी तो स्वयं शम्भो की नगरी है उसका जीर्णोद्धार भी राजा मानसिंह में काल मे हुआ । लेकिन क्या आप किसी भी जानकर ने राजा मानसिंह के भारी अपमान पर एक बार भी चुप्पी तोड़ी ?? </div><div>एक बार भी उनके योगदान को जनता के समक्ष रखा ? </div><div>जबकि ऐसा नही है की आप जानते नही थे ऐसा हमे लगता है । जब आपको यह पता था की ताजमहल शिवालय था आमेर वालो का था</div><div>तो क्या आपको अपने मंदिरो का इतिहास पता नही था ।</div><div><br></div><div>क्यो की यह विषय ऐसा है,जो आम जनता भी अच्छे से नही समझती लेकिन आप अवश्य समझते है</div><div>और हा आम जनता की तरह हमे हल्दीघाटी वाली बात मत बताना की इसलिए मानसिंह का समर्थन नही किया क्यो की बात फिर बढ़ जाएगी और दूर तलक जाएगी ।</div><div><br></div><div>जब आप राजाओ को उनके योगदान का श्रेय देने को तैयार नही तो फिर आज राजनीति भी शायद आपके साथ वही कर रही है जो कभी आपसे हुआ ।</div><div><br></div><div>कृपा कर मेरे मन के इस विकार को शांत करे नही कर सकते तो मेरा आप कुछ नही ऊखाड सकते बस आप मठो मे बैढ कर हर सनातन के </div><div>मंदिरो के निर्माण पर ऐसे ही विरोध कर कर । </div><div>अपनी बची कुची ईज्जत निलाम करते रहे कोई दिक्कत नही 🙏<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiPSqQiL0JeSuSQoxGjoImPDJO3_X5-Vx-IjX1ajOgeKeyhNzxAzeced2IBA8p2s9rujKqBkBcue5hhHnvtzUXVzG70x3Tpa-WflDbg9LwrIuA_unDisGMllN_VkQs8UCuT-vEunrmpSuMWdf5Zxii7ZCguP19IkNfmMMRjVeSpLc1Ut7Qmsh0FFXlYeObq" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiPSqQiL0JeSuSQoxGjoImPDJO3_X5-Vx-IjX1ajOgeKeyhNzxAzeced2IBA8p2s9rujKqBkBcue5hhHnvtzUXVzG70x3Tpa-WflDbg9LwrIuA_unDisGMllN_VkQs8UCuT-vEunrmpSuMWdf5Zxii7ZCguP19IkNfmMMRjVeSpLc1Ut7Qmsh0FFXlYeObq" width="400">
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</div></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-8073806608852780682023-12-26T06:30:00.001+05:302023-12-26T06:30:14.004+05:30सूरजमल जाट सवाई जय सिंह द्वारा जाटों के सत्ता केंद्र थून को नेस्तनाबूद किए जाने के पश्चात जाट बेहद कमजोर हो चुके थे। इसी कड़ी में हम बदन सिंह का उत्थान पाते है जो की सिनसिनी गांव का जाट जमीदार था और बेहद महत्वाकांक्षी था। वह इस सच्चाई से अवगत था की बिना क्षत्रियों के समर्थन के उसकी दाल नहीं गलने वाली इसलिए उसने धीरे धीरे जयपुर दरबार से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश करना शुरू किया। एक सेवक के भांति उसके विनम्र और विनितपूर्ण स्वभाव ने सवाई जय सिंह का दिल जीत लिया। इस चाटुकारिता का यह परिणाम हुआ की जयपुर महाराज ने बदन सिंह को बृज राज का खिताब दे दिया जिससे उसकी जाटों में प्रतिष्ठा एकाएक बढ़ गई।<div>इतना होने के बाद भी बदन सिंह ने राजा की उपाधि धारण नहीं की और ताउम्र खुद को कच्छवाहों का नौकर कहता रहा। वह हर साल दशहरा दरबार में हाजिरी लगाने के लिए जयपुर आता था और सवाई जय सिंह के धोक लगा कर जाता था।</div><div><br></div><div>बदन सिंह का उत्तराधिकारी सूरजमल था । सूरजमल असल में बदन सिंह का पुत्र नहीं था। उसकी (सूरजमल की) मां एक शादीशुदा महिला थी जिसपर मोहित होकर बदन सिंह ने उसे अपने हरम में रख लिया था। बाद में बदन सिंह ने सूरजमल को अपने पुत्र की तरह ही पाला। सूरजमल एक कुशल राजनीतिज्ञ था तथा शुरू से ही उसने मुगलों से अच्छे संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रकार हम देखते हैं की 1745 में जब मुगल सेना अली मुहम्मद रुहेला का विद्रोह दबाने जाती है तो जाट उस सेना के साथ मुगलों की तरफ़ से लड़ रहे थे। </div><div><br></div><div>सूरजमल से प्रभावित हो मुगल वज़ीर सफदर जंग ने उसे अपने बेड़े में शामिल कर लिया था। इसी के तहत वजीर ने बादशाह से अपील कर बदन सिंह को राजा का और सूरजमल को कुमार बहादुर की उपाधि दिलवाई तथा साथ ही साथ सूरजमल को मथुरा का फौजदार भी नियुक्त करवा दिया (यही कारण है कि आज भी भरतपुर के जाट फौजदार सरनेम का इस्तेमाल करते हैं जो उन्हें मुगल बादशाह की बदौलत मिला था)। इसके बाद जाटों की प्रतिष्ठा में काफी बढ़ोतरी हुई क्योंकि उनके सरदार को स्वयं मुगल बादशाह ने राजा की उपाधि नवाजी थी। </div><div><br></div><div>सूरजमल के मुगलों से मैत्रीपूर्ण संबंध एवं उसके बढ़ते प्रभाव से उसका राजपूतों से टकराव होना निश्चित था। 1753 में सफदर जंग की मदद से उसने घसेड़ा के जागीरदार बहादुर सिंह बड़गुर्जर पर अचानक हमला बोल दिया। मुगलों और जाटों की संयुक्त सेना ने किले का घेराव कर लिया । यह सीज करीब 3 महीने तक चली। आखिरकार जब किले में रसद सामग्री समाप्त हो गई और कोई दूसरा विकल्प नहीं होने के कारण अंदर मौजूद क्षत्राणियो ने जौहर किया और बहादुर सिंह तथा उसके 25 सैनिक केसरिया कर जाटों और मुगलों पर टूट पड़े। मात्र इन 25 राजपूतों ने करीब 1500 जाटों को मौत के घाट उतार दिया। इतिहास में शायद पहला मौका था जब राजपूत महिलाओं को एक हिंदू सेना के हमले के कारण जौहर करना पड़ा। आज इसे " हिंदुआ सूरज" भी कह रहे हैं लोग।</div><div><br></div><div>सफदर जंग के बादशाह के खिलाफ विद्रोह में सूरजमल उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा था। उसके जाट सैनिकों ने दिल्ली के बाहरी हिस्सों को लूटा और इतना उत्पात मचाया की इसे जाटगर्दी कहा जाने लगा। मुख्य दिल्ली की तरफ जाने की इनकी हिम्मत नहीं हुई, जहां मुगल सैनिक थे। So called दिल्ली की जीत और चित्तौड़ के किले का दरवाजा , क्या रूहानी कहानियां चल रही हैं, आजकल।</div><div><br></div><div> दिल्ली के जिन निर्दोष व्यापारियों को लूटा गया था वे सभी ज्यादातर हिंदू थे। इसी तरह हिंदू महिलाओं से बलात्कार और हिंदुओं की हत्या ही सबसे ज्यादा हुई।</div><div><br></div><div>1757 में अहमद शाह अब्दाली ने मथुरा पर धावा बोला। सूरजमल इस सच्चाई से भली भांति परिचित था की उसके जाट सैनिक अफगानों के सामने नहीं टिक पाएंगे। अतः उसने अब्दाली से संधि करना उचित समझा और एक मोटी रकम पेश कर चालाकी से अपने राज्य को पठानों के हमले से बचाने में सफल रहा। </div><div><br></div><div>सूरजमल और नजीब रुहेला का आपसी संघर्ष चलता रहता था। इसी तरह एक युद्ध में पठानों ने सूरजमल की सेना पर हमला बोल दिया। इस लड़ाई में सूरजमल तुरंत मारा गया। सैय्यद मुहम्मद खान रुहेला ने हुकुम दिया की सूरजमल का सर काटकर उसे भाले पर लगा दिया जाए। यह दृश्य देखने के बाद डरी हुई जाट सेना वहां से भाग खड़ी हुई।</div><div><br></div><div>इस तरह सूरजमल की मृत्यु हुई है। जादूनाथ सरकार लिखते है की सूरजमल एक सामान्य कद का था। शरीर मोटा और रंग बेहद काला था। बदन सिंह की तरह सूरजमल भी हर साल जयपुर में दशहरा दरबार में नजराना भेंट करने और जयपुर राजा सवाई माधो सिंह को धोक लगाने जाता था।</div><div><br></div><div>आजकल वोटों की राजनीति के चलते "हिंदुआ सूरज" और अजेय योद्धा और पता नही क्या क्या इनका नया इतिहास बनाया जा रहा है और नए नायक कागजों पर पैदा किए जा रहे हैं। दूसरी तरफ वास्तविक नायकों के मान मर्दन और इतिहास विकृतिकरण की बाढ़ आई हुई है।</div><div><br></div><div>Source: Fall of the Mughal Empire: Volume 2 by Jadunath Sarkar.</div><div>History of Jaipur by Jadunath Sarkar</div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-36861029669651906842023-12-18T05:02:00.001+05:302023-12-18T05:02:40.818+05:30समंदर का वली...<div>तैमूर लंगड़ा जब दिल्ली के करीब पहुंचा उसके पास एक लाख से ज्यादा हिन्दू गुलाम थे, जिनमें औरतें, बच्चे भी थे। इन गुलामों का नियंत्रण था एक उज्बेक अमीर शाहरुख मिर्ज़ा के हाथ। इस शाहरुख मिर्ज़ा का बेहद करीबी मौलवी और उज्बेक व्यापारी था शाह अली खानजादा...!<br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiOic8HuAXTUiiLFu-R4HcEFW5cQ5QlyInnHLcogcJbj714smEZIwXMgROHfzboMVmTD2wD8Q0WDoX5KHn6zuf9isuFf1YZzsMXCY-NZR_SfLAN0YqARl8nKTEQy-AdPizCcOr4sWvTzsKFaueqIAYEBBFqTjrOh_QhFXD5_GQKHc_J68lix4IN45ZHufHA" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div>तैमूर परेशान था कि दिल्ली सल्तनत में युद्ध के समय इन गुलामों का क्या किया जाए... ऐसे में शाह अली ने अपनी राय दी "जो गुलाम मुसलमान हैँ उन्ह रिहा कर दिया जाए काफिरों को क़त्ल कर दिया जाए... काफिरों को नहीं छोड़ा जा सकता।"</div><div><br></div><div>एक लाख हिन्दू तलवार के घाट उतार दिये गए उनके सरों का बड़ा ढेर दिल्ली के बाहर बनाया गया... और फिर दिल्ली को फतह कर हज़ारों की तादाद में हिन्दू कत्ल किये गए...!</div><div><br></div><div>हिंदुस्तान में भारी कत्लोगारत मचा और बड़ी लूट कर तैमूर 1398 ई में वापस लौटा। मगर ज्यादा दिन राज नहीं कर सका और 1405 ई में मर गया। उसके बाद मचे उत्तराधिकार के गदर में मौलवी शाह अली तैमूर के खजाने से पैसा चुरा भाग निकला... और हिंदुस्तान के सिंध इलाके में आकर व्यापारी बन गया... और अपने व्यापार के लिए गुजरात और तब की दक्कन की सल्तनतों तक जाने लगा उसने अपनी छवि एक धार्मिक और नर्मदिल इंसान की बना ली... उसे लोग हाजी शाह अली बुखारी के नाम से जानने लगे।</div><div><br></div><div>उत्तराधिकार की जंग फ़तेह कर गद्दी पर बैठा शाहरुख मिर्ज़ा और उसे अपने चोर और गद्दार साथी की याद आयी। उसने उसकी तलाश का हुक्म दिया तो शाह अली फकीर का भेष बना अरब भाग निकला... मगर वहां पहचान लिया गया और तैमूर के कत्लोगारत को देख चुका अरब किसी हालात में दोबारा उज़्बेकों को अपने यहां नहीं देखना चाहता था। सो उन्होंने शाह अली को जिंदा एक संदूक में बंद कर समुद्र में फैक दिया...!</div><div><br></div><div>ये संदूक इत्तेफ़ाक़ से बहता हुआ आज की मुम्बई के पास के एक टापू पर आ लगा। जिसे कुछ मछुआरों ने खोला तो उसमें फकीर के लिबास में एक लाश थी। इस लाश को कुछ मछुआरों ने पहचान लिया और उसे उसी टापू पर दफ़न कर दिया गया...!</div><div><br></div><div>धीरे धीरे संदूक में मिली फ़क़ीर की लाश की चर्चा फैलने लगी और तमाम कहानियां भी प्रचलित हो गयीं और शाह अली, पीर हाजी शाह अली बुखारी बन गया... </div><div>आगे के कहानी वही है जो हिंदुओं के चूतियापे को दिखाती है...</div><div><br></div><div>आज इस शाहरुख मिर्ज़ा के क्रूर हत्यारे साथी को पीर हाजी अली शाह बुखारी कह इसकी क़ब्र पर सैकड़ों हिन्दू नाक रगड़ने जाते हैं और उस टापू को जहां बक्सा दफ़नाया गया था हाजी अली दरगाह कहा जाता है...!</div><div>समझें हिंदुओं.....</div><div> साभार</div><div>#NSB</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-52603974974261814292023-12-17T13:01:00.001+05:302023-12-17T13:01:45.812+05:30श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर निर्माण की कहानी...सन् 1947 में घोसी मुसलमानों के अवैध कब्जे में थी कृष्ण जन्मभूमि.<div>फिर उद्योगपति जुगल किशोर बिड़ला ने कैसे बनवाया मंदिर...? </div><div><br></div><div>1670 में औरंगजेब ने मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़ दिया था... उसके बाद 281 सालों तक कृष्ण जन्मभूमि पर कोई मंदिर नहीं था...सिर्फ एक बहुत छोटा सा अस्थाई मंदिर बनाकर घंटा लगा दिया गया था जहां स्थानीय पंडे और पुजारी दर्शन करवाते थे...वो प्रतीक रूप में ही था...कि यहां पर भगवान कृष्ण का जन्म हुआ है। </div><div><br></div><div>आज जिस मंदिर को हम कृष्ण जन्मभूमि पर देखते हैं वो सिर्फ 30-40 साल ही पुराना है...इस मंदिर का निर्माण कार्य 1984 में पूरा हुआ था...</div><div>इस वर्तमान मंदिर का निर्माण कैसे हुआ...? आपको समझाते हैं... </div><div><br></div><div>आजादी के पहले करीब साल 1940 में उद्योगपति जुगल किशोर बिड़ला ने मथुरा का दौरा किया था.. तब उन्होंने देखा था कि कृष्णजन्मभूमि की जमीन पर घोसी मुसलमानों ने अवैध कब्जा जमा रखा था, </div><div>इसके अलावा बहुत लंबे समय से यहां पर पुराने तोड़े गए मंदिरों का मलबा भी पड़ा हुआ था...!</div><div><br></div><div>जुगल किशोर बिड़ला ने जब कृष्ण जन्मभूमि का बुरा हाल देखा तो वो काफी दुखी हुए । 1940 में जुगल किशोर बिड़ला ने मदन मोहन मालवीय को एक चिट्ठी लिखकर कहा कि वो पैसा लगाने को तैयार हैं आप यहां पर एक भव्य केशवदेव मंदिर का निर्माण करवाइए।</div><div><br></div><div>लेकिन केशव देव का मंदिर बनाने के लिए पहले कृष्ण जन्मभूमि की जमीन को खरीदना जरूरी था। </div><div><br></div><div>-1707 में औरंगजेब की मृत्यु हुई और 1803 में मराठों ने मुगलों को गोवर्धन के युद्ध में हरा दिया...उन्होंने कृष्ण जन्मभूमि को सरकारी जमीन घोषित कर दिया।</div><div><br></div><div>1803 में अंग्रेजों ने मराठा सूबेदार दौलतराव सिंधिया को हराकर मथुरा पर कंट्रोल कर लिया । अंग्रेजों ने भी मराठों की पॉलिसी को जारी रखते हुए कृष्ण जन्मभूमि को सरकारी जमीन ही दर्ज रहने दिया।</div><div><br></div><div>1815 तक कृष्ण जन्मभूमि सरकारी जमीन के तौर पर दर्ज थी...लेकिन साल 1815 में अंग्रेजों ने कृष्ण जन्मभूमि की नीलामी की। </div><div><br></div><div>बनारस के राजा पटनीमल ने साल 1815 में 13.37 एकड़ का पूरा कृष्ण जन्मभूमि परिसर खरीद लिया। जहां मस्जिद खड़ी थी वो जमीन भी राजा पटनीमल के नाम पर लिख दी गई।</div><div><br></div><div>- साल 1832 में शाही ईदगाह के मुअज्जिन ने ब्रिटिश कोर्ट में केस दायर किया लेकिन अंग्रेज जजों ने ईदगाह के मुअज्जिन का केस खारिज कर दिया। </div><div><br></div><div>1947 के पहले पूरी कृष्ण जन्मभूमि बनारस के राजा पटनीमल के वंशज राय किशन दास के नाम पर थी। </div><div><br></div><div>8 फरवरी 1944 को मदन मोहन मालवीय की मदद से जुगल किशोर बिड़ला ने 13.37 एकड़ की ये पूरी जमीन राय किशन दास से 13 हजार रुपए में खरीद ली।</div><div><br></div><div>साल 1951 में कृष्ण जन्मभूमि से यथा संभव अवैध कब्जे हटवाए गए । फिर जुगल किशोर बिड़ला ने 21 फरवरी 1951 को श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना की... तब मदन मोहन मालवीय की मृत्यु हो चुकी थी लेकिन जुगल किशोर बिड़ला ने मदन मोहन मालवीय के सपने को साकार करने के लिए जन्मभूमि पर निर्माण कार्य शुरू करवाया।</div><div><br></div><div>उद्योगपति विष्णु हरि डालमिया और रामनाथ गोयकना ने भी कृष्ण जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण के लिए काफी धन खर्च किया... और इस तरह औरंगजेब के द्वारा मंदिर का विध्वंस किए जाने के 281 साल बाद दोबारा कृष्ण जन्मभूमि पर मंदिर बनकर तैयार हुआ।</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-62526275219589077272023-12-07T07:22:00.001+05:302023-12-07T07:22:18.285+05:306 दिसंबर...अयोध्या में कब क्या, कैसे हुआ ?6 दिसंबर 1992 की रात, पत्रकार चंद्रकांत जोशी के आंखो देखा हाल ।<div><br></div><div>ढाँचे के आसपास तूफान के पहले और तूफान के बाद की खामोशी का मंजर था। कार सेवक, पत्रकार, नेता और तमाशाई जा चुके थे। मगर कुछ शक्तियाँ ऐसी थी जो अपने काम में चुपचाप लगी थी और इन शक्तियों के पीछे मैं भी चुपचाप एक गँवार देहाती की तरह लगा हुआ था। अगर किसी को तनिक भी भान हो जाता कि मैं पत्रकार हूँ और यहाँ मौजूद हूँ तो फिर मेरे लिए जान बचाना मुश्किल हो जाता, क्योंकि ढाँचा टूटने के बाद सबसे रहस्यमयी, रोमांचक और एक नया इतिहास लिखने वाला घटनाक्रम यहाँ होने वाला था।जिस जगह पर मैं 6 दिसंबर, 1992 की शाम को घुप्प अंधेरे और कड़कड़ाती ठंड में कुछ टिमटिमाते दीयों, लालटेन और टॉर्च की रहस्यमयी रोशनी में कुछ हिलति-डुलती मानवीय आकृतियों के बीच किसी भुतहा हिंदी फिल्म के दृश्यों को डरते-सहमते देख रहा था। रामसे ब्रदर्स की भुतहा फिल्मों से लेकर हॉलीवुड की खतरनाक भुतहा फिल्मों को तीन घंटे देखना रोमांच का काम हो सकता है मगर उससे भी ज्यादा खौफनाक दृश्य को, बगैर बुलाए मेहमान बनकर देखना और बात है।</div><div><br></div><div>ढाँचे का मलबा साफ होते ही वहाँ कुछ ही लोग बचे थे। तभी मैने एक व्यक्ति को ये कहते सुना कि अब रामलला की प्राणप्रतिष्ठा कर इस जगह पर स्थापित करना है और उसके आसपास ईंटों का या कपड़ों का घेरा बना देना है नहीं तो कल कोई अदालत जाकर स्टे लेकर आ सकता है, फिर राम लला को कहाँ बिठाएँगे? ये सुनते ही मुझे भी कुतुहल हुआ कि ढाँचा टूटता देख मैं तो ये भूल ही गया था कि असली मुद्दा ढाँचा तोड़ना नहीं राम मंदिर बनाना है। मुझे लगा कि कल यानि 7 दिसंबर की सुबह से हो सकता है राम मंदिर का काम शुरु हो जाए। ये जिज्ञासा पैदा होते ही कड़कड़ाती ठंड में मेरे शरीर में गर्मी आ गई। मैं भूल ही गया कि मैं यहाँ सुनसान जंगल में तीखी ठंडी हवा के बीच बगैर गरम कपड़ों के ठिठुर रहा हूँ। (पेशे का रोमांच और लक्ष्य् पर टिके रहना क्या होता है ये मैने पहली बार अनुभव किया) । मैं भी पक्का कारसेवक बनकर इन छायाओं का पीछा करता रहा। अंधेरा होते होते राम लला की मूर्तियाँ लाई गई। मै आज भी आश्चर्यचकित हूँ कि जब ढाँचा बगैर किसी योजना के ढहाया जा रहा था तो मूर्तियाँ सही सलामत कैसे बचा ली गई और मलबे में से कैसे निकाल ली गई। (इसका जवाब भी आगे मिलेगा)</div><div><br></div><div>इधर राम लला की मूर्तियों की विधि-विधान से कुछ साधु, कुछ पंडित और कुछ कार सेवकों ने मिलकर प्राण प्रतिष्ठा कर दी और तत्काल इसके चारों ओर ईँटों की छोटी सी चारदीवारी बनाकर बनाकर कपड़ा या कनात बांध दी गई। वही कनात और कपड़ा आज तक राम लला की रक्षा करता रहा है। अजीब संयोग देखिये इधर रामलला की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी उधर फैजाबाद और अयोध्या की मस्जिदों से अजान की आवाजें आ रही थी। प्राण प्रतिष्ठा के मंत्रों, घंटियों और शंख की ध्वनियों में अजान की आवाज़ भी घुल चुकी थी, ऐसा लग रहा था मानो मस्जिदों से भी राम लला की प्राण प्रतिष्ठा की स्वीकृति मिल गई हो।</div><div><br></div><div>अब मेरे मन से उन हिलती -डुलती मानवीय आकृतियों का खौफ़ जाता रहा, ये मेरे पास प्रसाद लेकर आए और कहने लगे, पक्के और सच्चे राम भक्त हो, इतनी ठंड में भी राम लला के दर्शन करने आए हो, तुम पहले दर्शनार्थी हो। उसी समय वहाँ रामजी की आरती हुई और मैने आरती भी ली और प्रसाद भी लिया।</div><div><br></div><div>कुछ ही देऱ में कुछ साधु-संत और शायद विश्व हिंदू परिषद या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता वहाँ और कुछ लोगों को लेकर आए और कहा कि यहाँ से अब कोई नहीं हटेगा, अगर हम हट गए तो पुलिस या सीआरपीएफ वाले मूर्तियाँ हटा देंगे। सुबह तक हम यहाँ रामायण पाठ करेंगे। मैं भी रामायण पाठ करने वाले भक्तों में घुल-मिल गया। अब मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि मैं वहाँ से होटल की तरफ जाऊँ या तिरुपति और अयोध्या होटल में ठहरे पत्रकारों को बताऊँ कि यहाँ क्या हो रहा है। धीरे धीरे वहाँ भक्तों की संख्या बढ़ने लगी और लगभग तीन सौ चार सौ कार सेवक या स्थानी भक्त वहाँ रामायण पाठ में जुड़ गए। ठंड से बचाने के लिए वहाँ अलाव भी जला दिए गए थे, इससे मुझे लगा कि अब रात भर यहीं रहना ठीक है। थोड़ी देर में प्रसाद के रूप में भोजन भी आ गया। शुध्द घी का खाना खाकर मैं भी तृप्त हो गया</div><div><br></div><div>दिसंबर की ठंडी काली रात और आसमान में टिमटिमाते तारों के बीच खुले में रामायण का पाठ मेरे लिए एक अजीब और सिहरन पैदा करने वाला अनुभव था। बार बार मुझे लग रहा था कि यहाँ कभी भी कुछ हो सकता है। आखिर वही हुआ जिसका मुझे डर था। आधी रात होते ही एक आदमी मेरे पास आया और बोला कि तुम कहाँ से आए हो, मैने कहा उज्जैन से। तो उसने कहा, तुम्हारे बाकी साथी कहाँ है, मैने कहा वो सब होटल में हैं। मै समझा वो मेरे पत्रकार साथियों की बात कर रहा होगा। तो उसने कहा कि हमने सब होटलें खाली करवा दी है और सबको स्टेशन भेज दिया है। ये सुनकर मैं डर गया। फिर उसने पूछा कि तुम कितने लोग साथ आए थे। मैने कहा मैं तो अकेला आया था। तो उसने कहा झूठ मत बोलो और पीछे देखो, हमने सब लोगों को स्टेशन भेज दिया है। मैने पीछे देखा तो आधे से ज्यादा लोग गायब थे। फिर उसने अपना परिचय दिया कि हम सीआरपीएफ वाले हैं, और कहा कि तुम भी जाओ और अपने साथियों को स्टेशन लेकर चले जाओ। हम सीआरपीएफ वालों ने अपनी ट्रकों में भर भर कर रात भर में सभी कार सेवकों को स्टेशन भेज दिया है, और कहा है कि जिनको जो गाड़ी मिले यहाँ से चले जाओ नहीं तो सुबह गोली चल सकती है।</div><div><br></div><div>फिर मुझमें अचानक हिम्मत आ गई और मैने कहा कि मैं कार सेवक नहीं हूँ, पत्रकार हूँ। मैं तो शाम से यहीँ फँस गया और मेरे साथी ढाँचा टूटते ही बिछुड़ गए और मैं यहीं रह गया। इस पर वो मुझे पास के ही सीआरपीएक के कैंप में अपने वरिष्ठ अधिकारी के पास ले गया। उस अधिकारी ने मुझसे पूछा कि रात भर में यहाँ क्या हुआ, कौन कौन आया था। तो मैने कहा कि मैं तो खुद उ्ज्जैन से आया हूँ, मैं यहाँ किसी को नहीं जानता। मेरी बातों से वो अधिकारी संतुष्ट नजर आया और उसने मेरे लिए चाय मंगवाई और कहा कि तुम हमारा एक काम करना अगर कोई कार सेवक कहीं छुपे हुए हों तो हमको बता देना क्योंकि हम पूरा अयोध्या और फैजाबाद बाहर के लोगों से खाली करवाना चाहते हैं।</div><div><br></div><div>चाय पीकर मैं वापस भजन गाने वालों के बीच बैठ गया। जैसे तैसे सुबह हुई। फिर भी मुझे लग रहा था कि यहाँ कुछ अनहोनी होने वाली है। मन में एक अजीब सा डर और रोमांच पैदा हो गया था।</div><div><br></div><div>अब जरा दिल थामकर बैठिये, इस जगह पर जहाँ रात भर कीर्तन भजन और रामायण पाठ चला, वहाँ अब एक नया इतिहास करवट लेने वाला था। इसका अंदाजा वहाँ मौजूद गिने चुने लोगों, मुझे और चारों ओर गिध्द दृष्टि से हर एक को घूरते हुए पुलिस व सीआरपीएफ के जवानों को भी नहीं था।</div><div><br></div><div>सुबह 7 बजे रम लला का पुजारी हाथों में पूजा की थाल, पूजा सामग्री घंटी, घड़ियाल और चिमटा लेकर आया। उसने जैसे ही राम लला की मूर्ति की ओर कदम बढ़ाया। वहाँ मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने उसे रोक दिया। उन्होंने कहा कि तुम मूर्तियों के पास नहीं जा सकते। यहाँ बता दूँ कि राम लला की मूर्तियों को कनात और कपड़े में ढंकने के साथ ही वहाँ दो-तीन फीट ऊंची दीवार भी रातोंरात बना दी गई थी। इस पर पुजारी ने कहा कि क्यों नहीं जा सकते मैं तो रोज ठाकुरजी की पूजा और आरती करता हूँ। तो सुरक्षा कर्मी ने कहा कि रोज करते होगे आज तो वो हमारी निगरानी में हैं। इस पर पुजारी ने कहा, आप निगरानी करो, मैं तो पूजा करुंगा। यह बहस बहुत तीखी हो रही थी। इस पर पुजारी ने् चिल्लाकर कहा, अगर मुझे पूजा नहीं करने दी तो मैं शंख और चिमटे बजाकर सब अखाड़े वालों साधु संतों को बुला लाउंगा, फिर तुम जानना। ये सुनकर वो सुरक्षाकर्मी घबरा गया। उसने कहा, रुको मैं अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात करता हूँ। पुजारी ने कहा जल्दी करो, मेरी पूजा और आरती का समय हो रहा है। उस अधिकारी ने वरिष्ठ अधिकारियों को वायरलैस सैट पर पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी। इस घटना ने ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी। थोड़ी ही देर में वरिष्ठ अधिकारी ने वायरलैस पर सूचना दी जो मैने भी अपने कानों से सुनी, दिल्ली बात हो गई है, वहाँ से कहा गया है कि पूजा और आरती में कोई विघ्न न डाला जाए। ये सुनते ही पुजारी सहित सभी सुरक्षा कर्मी और दूसरे लोग खुशी से उछल पड़े। सबने इतनी जोर से जयश्री राम का नारा लगाया कि आसपास के पंछी पेड़ों से उड़ गए।</div><div><br></div><div>अगला दृश्य तो और भी रोमांचक था। पुजारी आरती कर रहा था, और जो सुरक्षा सैनिक पूजा करने से रोक रहे थे, वो अपने जूते और चमड़े के बेल्ट उतारकर आरती गा रहे थे। अंदर पूजा चल रही थी और बाहर सुरक्षा में लगे सैनिक गा रहे थे – भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी, भए प्रगट कृपाला, दीनदयाला, कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी, मुनि मन हारी, अद्भुत रूप बिचारी॥ लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा, निज आयुध भुजचारी। भूषन बनमाला, नयन बिसाला, सोभासिंधु खरारी॥</div><div><br></div><div>ऐसा लग रहा था मानो तुलसी दासजी ने ये आरती और छंद इसी दिन के लिए ही लिखा था।</div><div><br></div><div>इस आरती के बाद सबने श्री रामचंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम आरती गाकर पूजा का समापन किया।</div><div><br></div><div>लेकिन एक दृश्य देखकर मैं भी चौंक गया।जो सुरक्षा कर्मी पुजारी को आरती करने से रोक रहा था उसकी आँखोँ से अविरल आँसू बह रहे थे, वह अपने साथी से कह रहा था आज मैं बहुत बड़े पाप से बच गया अगर अज मेरी वजह से यहाँ आरती और पूजा नहीं होती तो मैं किसी को मुँह दिखाने काबिल नहीं रहता। उसका दूसरा साथी भी भीगी आँखों से उसे समझाने की कोशिश कर रहा था। मैने देखा कि सभी सुरक्षा सैनिकों की आँखें भीगी हुई थी और वे बार बार अपने आँसू रोकने का प्रयास कर रहे थे।</div><div><br></div><div>इधर आरती का समापन हुआ और थोड़ी ही देर में फैजाबाद के निलंबित जिलाधीश आर. एन श्रीवास्तव और एसएसपी डीबी रॉय भी वहाँ आ पहुँचे, दोनों ने प्रसन्न मन से राम लला के दर्शन किए।</div><div><br></div><div>अब आपको दो रहस्य और बता देना चाहता हूँ। पहला तो ये कि ढाँचे मलबे में से राम लला की मूर्तियाँ सुरक्षित कैसे निकाल ली गई। इसकी मैने खोजबीन की तो पता चला कि ढाँचे के टूटने का अंदेशा होते ही राम लला की मूर्तियों की सुरक्षा की व्यवस्था कर ली गई थी।</div><div><br></div><div>और आखरी में एक और चौंकाने वाली बात। सर्वोच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश सरकार और राम जन्म भूमि आंदोलन के नेताओँ ने आश्वासन दिया था कि बाबरी मस्जिद परिसर में कोई निर्माण कार्य नहीं किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय की ओर से तत्कालीन गृह सचिव श्री वनोद ढाल को पर्यवेक्षक बनाया गया था। श्री विनोद ढाल सुबह से लेकर ढाँचा टूटने तक एक वीडियो कैमरा और दूरबीन लिए ढाँचे के बाईँ ओर बनी सीता रसोई ( ये भी एक महल जैसा भवन है) की छत पर बैठे थे। श्री विनोद ढाल 1985 में उज्जैन के संभागायुक्त रह चुके थे और उनसे मेरी अच्छी दोस्ती थी। उनसे मैने पूछा की आपके सामने ही ढाँचा टूटता रहा और आप कुछ नहीं कर सके। तो उन्होंने चौंकाने वाला उत्तार दिया- मेरा काम ये देखना था कि यहाँ कोई निर्माण कार्य ना हो, टूटने के संबंध में मेरे पास कोई निर्देश नहीं थे।</div><div><br></div><div>तो ये है 1992 की रामकथा जिसकी प़टकथा श्री लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, साध्वी ऋतुंभरा, उमा भारती और मुरली मनोहर जोशी ने लिखी थी, आज एक नई रामकथा शुरु हो रही है जिसकी पटकथा की शुरुआत भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हाथों हो रही है।</div><div><br></div><div>साभार –</div><div><br></div><div>इन्दौर से प्रकाशित दैनिक दैनिक प्रजातंत्र से।</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-3111701650230270282023-11-16T19:37:00.002+05:302023-12-18T05:04:37.232+05:30गांधी मुस्लिम समुदाय के समर्थक क्यों थे ??<div>प्रो. के एस नारायणाचार्य ने अपने पुस्तक में कुछ संकेत दिए हैं ...</div><div><br></div><div>यह वात सभी जानते हैं कि - नेहरू और इंदिरा मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखते थे। लेकिन बहुत कम ही लोग गांधीजी की जातिगत जड़ों को जानते हैं...!! आइए यहां एक नजर डालते हैं कि वे क्या कारण देते हैं...!?</div><div><br></div><div>1. मोहनदास गांधी करमचंद गांधी की चौथी पत्नी पुतलीबाई के पुत्र थे।</div><div><br></div><div>पुतलीबाई मूल रूप से प्रणामी संप्रदाय की थीं । यह प्रणामी संप्रदाय हिंदू भेष में एक इस्लामिक संगठन है...।</div><div> </div><div>2. मि. घोष की पुस्तक "द कुरान एंड द काफिर" में भी गांधी की उत्पत्ति का उल्लेख है...।</div><div><br></div><div>मोहनदास गांधी जी के पिता करमचंद एक मुस्लिम जमींदार के अधीन काम करते थे । एक बार उसने अपने जमींदार के घर से पैसे चुराए और भाग गया । फिर मुस्लिम जमींदार करमचंद की चौथी पत्नी पुतलीबाई को अपने घर ले गया और उसे अपनी पत्नी बना लिया । मोहनदास के जन्म के समय करमचंद गान्धी तीन साल तक छिपे रहे..।</div><div><br></div><div>3. गांधीजी का जन्म और पालन- पोषण गुजराती मुसलमानों के बीच में ही हुआ था।</div><div><br></div><div>4. कॉलेज (लंदन लॉ कॉलेज) तक की उनकी स्कूली शिक्षा का सारा खर्च उनके मुस्लिम पिता ने ही उठाया !!</div><div><br></div><div>5. दक्षिण अफ्रीका में गांधी की कानूनी प्रक्टिस ओर वकालत करवाने वाले भी मुसलमान थे !!</div><div><br></div><div> 6. लंदन में गांधी अंजुमन-ए- इस्लामिया संस्थान के भागीदार थे...। </div><div><br></div><div>इसलिए, यह नोट करना आश्चर्यजनक नहीं है कि गांधीजी का झुकाव मुस्लिम समर्थक क्यू था...!?</div><div><br></div><div>उन गान्धी का आखिरी स्टैंड था: ✒️</div><div>☆ "भले ही हिंदुओं को मुसलमानों द्वारा मार दिया जाए, हिंदु चुप रहें उनसे नाराज न हों। </div><div>☆ हमें मौत से नहीं डरना चाहिए। </div><div>☆ आइए हम एक वीर मौत मरें।" </div><div>इसका क्या मतलब है?</div><div><br></div><div>स्वतंत्रता संग्राम के किसी भी चरण में गांधीजी ने हिंदुत्ववादी रुख नहीं अपनाया । वह मुसलमानों के पक्ष में ही बारंबार बोलते रहे।</div><div>जब भगत सिंह और अन्य देशभक्तों को फाँसी दी गई तो गांधीजी ने उन्हें फांसी न देने की याचिका पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया ।</div><div>हमें ध्यान देना चाहिए कि ऐनी बेसेंट ने खुद इसकी निंदा की थी...</div><div>मोहन दास गांधी के अंडरस्टैंड ::</div><div>1. स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद का बचाव किया...</div><div>2. तुर्की में मुस्लिम खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया था । जिससे डा. हेगड़ेवार ने गांधी से नाता तोड़ लिया और आर.एस.एस. की स्थापना की..!</div><div>3. सरदार वल्लभभाई पटेल के पास पूर्ण बहुमत होने पर भी गांधी ने एक कट्टर मुस्लिम जवाहरलाल खान नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया..!! </div><div>तत्कालीन 40 करोड़ भारतवासियों को बेवकूफ बनाकर उस मुस्लिम के नाम के पीछे पंडित का तमगा लगाया , ताकि मूर्ख अज्ञानी हिंदुओं को पागल बनाया जा सके...!!</div><div>4. पाकिस्तान विभाजित को 55 करोड़ रुपए देने के लिए अनशन भी किया..।।</div><div>5. हमेशा मुसलमानों का तुष्टीकरण किया ओर हिंदुओं का अपमान किया...॥ </div><div>हिन्दुओं को भारत में छोटे दर्जे का नागरिक माना...। जो आज भी उसके गांधीवादी राजनीतिज्ञों द्वारा जारी रखा जा रहा है...।।</div><div><br></div><div>🙏 वंदे भारतम् 🇮🇳</div><div><br></div><div>_उपरोक्त कथन सत्य पर आधारित है, कृपया इसे मिथ्या न समझें । आवश्यक हुई तो उक्त ग्रंथ : </div><div>"द कुरान एंड द काफिर" को आप किसी लाइब्रेरी में जाकर अध्ययन कर सकते हैं...॥_</div><div><br></div><div>🚩 जय हिंद, जय भारत🚩</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-20518517345636429952023-11-15T09:24:00.001+05:302023-11-15T09:24:27.987+05:30साम्यवादी आक्रमण और भारत <div>सीताराम गोयल लिखते हैं, "भारत अंग्रेजों और मुसलमानों से बच गया यह आश्चर्य का विषय नहीं है, वह साम्यवादी आक्रमण से बच गया यह हमारे देश का सौभाग्य और संसार की सबसे आश्चर्यजनक घटना है।"</div><div>सीताराम गोयल जैसे महान विद्वान के इस मूल्यांकन के पीछे उनका अनुभव है। वे स्वयं इस आक्रमण का हिस्सा रहे हैं और उन्होंने कई जगह इस भयानक आक्रमण की चर्चा की है। यह इतना सुनियोजित, इतना शातिर और इतना शक्तिशाली था कि आज भी हम उसके थपेड़ों को झेलते हैं।।</div><div>100 साल के इस आक्रमण ने हिन्दुओं को सर्वथा बेहोश, विवेकशून्य और हीनभावना से ग्रस्त बना दिया।</div><div><br></div><div>एक उदाहरण: </div><div>विश्वनाथ 1917 में जन्मा और 1939 में उसने दिल्ली प्रेस क्लब की स्थापना की। दुर्भाग्य से इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती। आजकल इसके बेटे बेटियां (नाथपरिवार) संभालते हैं। वह एक घनघोर हिन्दू द्रोही, खांटी कम्युनिस्ट व्यक्ति था जो निरन्तर हिन्दू धर्म के खिलाफ लिखता रहा।</div><div>क्या यह बिना रूसी सहयोग के सम्भव था? उनकी एक दर्जन से अधिक पत्र पत्रिकाएं निकलती है।</div><div>चंपक, सरस सलिल, मुक्ता, सरिता, कारवाँ.... इत्यादि। किसी समय पूरी हिंदी पट्टी की कुल पत्रिकाओं का 60% विज्ञापन राजस्व इन्हें मिलता था।</div><div>आज का प्रत्येक 40प्लस व्यक्ति कभी न कभी इसका पाठक रहा है।</div><div>इसकी पत्रिकाओं में कुछ स्थायी स्तम्भ होते थे जैसे "ऐसी कैसी परम्परा" में हिंदुओं की उन परम्पराओं का मजाक उड़ाया जाता था जो उनमें प्रचलित थी। कुछ पाठक उन्हें पत्र लिखकर बताते थे और वह छप जाता था। ज्यादातर महिलाएं होती थी। जैसे शादी में सास द्वारा दूल्हे की नाक खींचने का या विदाई के समय रोने का अथवा कोई व्रत उपवास कथा इत्यादि का।</div><div>यह सब इतने मनोरंजक तरीके से लिखा जाता था कि और कुछ पढ़े न पढ़े, इसे अवश्य पढ़ा जाता था।</div><div>तुलसीदास को पथभ्रष्टक दिखाने के आलेख लगभग हरेक पत्रिका में होते थे। इस विषय पर मुकदमा भी चला था।</div><div>प्रत्येक अंक में एक कहानी ऐसी अवश्य होती थी जिसमें कोई साधु या तांत्रिक बलात्कार करता था। इस घटना को काफी रस लेकर लिखा जाता था जैसे --- साधु की उंगलियां बहू के नङ्गे जिस्म पर रेंग रही थी.... एक स्टोरी या अनुभव ढोंगी पंडित को समर्पित रहता था। ज्योतिषी पर अनंत कहानियां होती थी। सूदखोर लाला भी इन्हीं का कॉन्सेप्ट था। दलित की नव ब्याहता को सुहागरात से पहले ठाकुर अपनी हवेली ले जाता है, मन्दिर का पुजारी देवदासी रखता है, दान के पैसे से मौज मस्ती और कुंए से पानी न भरने देना, खेत में बेगार मजदूरी करवाना, स्कूल में अलग मटकी, दलित को घोड़ी पर न बिठाना इत्यादि इनकी कहानियों की विषयवस्तु रहते थे।</div><div>युवाओं को सॉफ्ट पोर्न और अधनंगी तस्वीरे दिखाई जाती। हाई स्कूल के बच्चे इनकी किताबो से ऐसे फोटू काटकर अपनी किताबों में छिपाकर रखते। हस्तमैथून पर इनकी मेडिकल एडवाइजरी होती। हरेक पर्व त्यौहार पर उपदेश और मजाक उड़ाने का सिलसिला इसी ने आरम्भ किया था। इतना सब होने के बावजूद कभी भी exmuslim जो मुद्दे उठाते हैं उनका कोई जिक्र नहीं होता। कभी भी कांग्रेस के किसी घोटाले या परिवारवाद पर कहानी न लिखी।</div><div>अब्दुल अच्छा और रहीम चाचा का बलिदान भी इन्हीं की बनाई परम्परा है। सास बहू सीरियल और परिवार विघटन के एकता कपूर सीरियल के बीज इन्हीं पत्रिकाओं में बोए गये थे।</div><div>इनका व्याप्त और बौद्धिक दबदबा इतना था कि हर रेलवे, बस स्टैंड इनके साहित्य से अटा पड़ा रहता। लोग टाइमपास के लिए इसे पढ़ते और आगे शेयर करते।</div><div>इन्हीं के कथन को फिल्मों द्वारा, कवियों द्वारा, पाठ्यक्रम द्वारा पुष्ट किया जाता। एक एक विषय पर परिचर्चा होती। अमेरिका और रूस प्रयोजित एनजीओ लगातार इस पर सेमिनार करवाते। आज के रवीश, बरखा, ध्रुव राठी, अपूर्वानंद, केजरीवाल, ये सब उसी की उपज हैं और आज भी वहीं से कंटेंट लेते हैं।</div><div>इनकी पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से 5 से 85 वर्ष के प्रति सप्ताह करोडों हिन्दू निरन्तर एन्टीहिन्दूडोज ले रहे होते। लगभग 75 वर्ष तक यह सिलसिला चला। जब इंटरनेट और सोशल मीडिया आया, इन्होंने सोचा अब इनके कार्य को गति मिलेगी। करोड़ों साधनों से हिन्दुओं पर एंटीहिन्दू की #अग्निवर्षा की जाएगी।</div><div>ऐसा हुआ भी। 2010 तक ये जीत रहे थे। निराशा की भयंकर व्याप्ति हो गई थी। लेकिन सत्य तो सत्य ही होता है। 2012 कि बाद, बहुत थोड़ी संख्या में , बहुत अल्प साधनों से, अपने अनगढ़ कॉन्टेंट के साथ कुछ लोग आगे आये औऱ आज देखते देखते इनमें से कई तोपों को फुस्स कर दिया और ज्यादातर खदेड़ दिए गए।</div><div>मैंने यहाँ केवल एक मीडिया घराने के बारे में बताया है। ऐसे हजारों हमले हुए और चल रहे हैं।</div><div>जब सीताराम गोयल यह कहते हैं कि ये सबसे बड़ा हमला था तो सच में यह भयावह था। आप इसका पूरा ताना बाना जानेंगे तो भारतभूमि और हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धा और बढ़ जाएगी। साथ ही यह भी समझ पाओगे कि आरएसएस ने कितनी प्रतिकूलताओं में अपने विचार को न केवल सुरक्षित रखा, उसे स्थापित भी किया।</div><div>#NSB </div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-72199545429759416372023-11-14T13:54:00.002+05:302023-11-14T13:55:35.689+05:30सनातन संस्कृति और विश्व अर्थव्यवस्था ।दुनिया को मजबूरी में भारतीय संस्कृति को अपनाना होगा ।<div>कुछ स्थूल उदाहरण रखता हूँ, सूक्ष्म बातें फिर कभी :-</div><div>(1) अपनी अर्थव्यवस्था को बूस्ट देने के लिए विकसित देश समय समय पर दुनिया में कृत्रिम युद्ध का माहौल खड़ा करते हैं। उनके पास शांति की अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद जो ईसाई संस्कृति की लूट का तरीका है और गजवा, जिहाद इत्यादि इस्लामिक लूट का तरीका।</div><div>क्या कोई शांति की अर्थव्यवस्था भी है? कुम्भ के मेले हों या कावड़ यात्रा। अभी अयोध्या में भी कुछ बड़ा होगा। ये सारे धार्मिक आयोजन अर्थव्यवस्था के महान उद्धारक हैं।</div><div> भारत में अकेला दीपावली का त्यौहार इतनी इकोनॉमी खड़ी कर देता है जितनी पाकिस्तान की एक वर्ष की जीडीपी है।</div><div>सभी देश अपने देशों में दीपावली मनाना चाहते हैं। वे शुरू कर रहे हैं। पाकिस्तान ने भी दीपावली मनाने का निर्णय लिया है। सऊदी और व्हाइट हाउस के आधिकारिक एजेंडे में वह पहले से ही है।</div><div>इसके अलावा यूरोप अब मंदिरों पर आधारित मेले आयोजित कर रहा है क्योंकि उससे एक निरापद अर्थतंत्र का नियमित व निरन्तर सिलसिला चालू हो जाता है।</div><div>संसार के अद्यतनअर्थशास्त्री हैरान हैं कि यह आइडिया उन्हें पहले क्यों नहीं आया?</div><div>(2)यही हाल स्वास्थ्य को लेकर है।</div><div>आप नित्य जिम नहीं जा सकते, प्रवचन नहीं सुन सकते जबकि शरीर और दिमाग खतरनाक कोलाहल से भर गया है:- आपको योग की शरण लेनी होगी जिसमें थोड़ा सा समय निकाल कर स्वास्थ्य सम्बन्धी आदतों को दिनचर्या में शामिल किया गया है। आयुर्वेद भी दुनिया की नई मजबूरी बनने जा रहा है। उपवास, पर्यटन, वेगन, हर्बल का बोलबाला यूँ ही नहीं है।</div><div>(3)इन्द्रिय सुख की नीरसता भी दुनिया को समझ आ रही है। भारत के अलावा ज्यादातर स्थानों पर यही माना जाता है कि सेक्स के मजे से बड़ा आनंद दुनिया में कुछ भी नहीं है।</div><div>यूरोप की ओपन कल्चर या इस्लाम का 72 हूर का कॉन्सेप्ट, सबमें जननांगों द्वारा सुख लेने के कई हथकंडे भरे पड़े हैं। 6साल से लेकर 96 साल तक इन्द्रिय भोग में सर्वथा लिप्त रहकर, सैकड़ों विपरीत लिंगियों की व्यवस्था करके भी, समलैंगिक और विकृत यौन संबंधों के बावजूद मानव मन अतृप्त और उत्पीड़ित है। वियाग्रा और वाइब्रेटर के बावजूद जो उन्हें चाहिए था वह नहीं मिला।</div><div>और समाधान मिला, पूरब के उस हरि कीर्तन में, जहां एक मुरलीवालेग्वाले के स्टेच्यू के सामने ढोलक, खड़ताल हारमोनियम लिए हरे राम हरे कृष्ण पर झूमता जनसमूह, मात्र आधे घण्टे के सत्संग और नाच के बाद समग्र संसार मिथ्या लगने लगता है, सारे विषय भोग फीके पड़ जाते हैं और अतृप्त मन को एक असीम सुख मिलता है। भारत ऐसी विधियों का खजाना है। ज्यों ज्यों अशांति बढ़ेगी, लोग अधिकाधिक हाथ पैर मारकर इधर दौड़े चले आएंगे।</div><div>(4) छवि निर्माण के लिए करोड़ों रुपए व्यय करके संसार ने कुछ काल्पनिक, थोथे नायक खड़े किए, कम्पनियों को हायर किया, टीम लगाई, लेखक, पत्रकारों को लालच देकर झूठी किताबें लिखवाई, पुरस्कार दिलवाए लेकिन वे सब, उस समय ठगे से रह गए जब देखा कि 26 साल का एक सुंदर सा लड़का, बागेश्वर बाबा बनकर, खेल खेल में ही करोड़ों दिलों में स्थापित हो गया। अब सभी सिर धुन रहे हैं कि वह क्या तत्त्व है जो इस व्यक्ति के पास है लेकिन उनके पास नहीं। उस तत्त्व की खोज में सारे आलोचक और आविष्कारक पागल बने घूम रहे हैं।</div><div>(5) संसार के बड़े बड़े राजनेता, जिनकी तुती बोलती है, जिन्हें जबरदस्त प्रशिक्षण, अनुभव और बैक सप्पोर्ट मिला है, अचानक इस बात से हैरान हैं कि मांगकर खाने वाला, चाय बेचने वाला, जंगल की खाक छानने वाला, जिसका न घर है न ठिकाना और देश का प्रधानमंत्री बन जाता है, मात्र 10 वर्षों में विगत 1000 वर्षों के नुकसान की भरपाई कर देता है और जाने से पहले एक स्थायी, दृढ़, निरापद व्यवस्था का विकल्प देकर जाना चाहता है, ऐसा क्या है इसमें ? इसके सामने तो सारे कयास धरे के धरे रह गए। इसने तो रेत में से तेल निकाल दिया।</div><div><br></div><div>यहाँ मात्र कुछ उदाहरण दिए हैं। पूरी दुनिया भारत और भारतीय संस्कृति का अध्ययन कर रही है कि कुछ सूत्र उन्हें भी मिलें।</div><div>और वे सभी अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि बिना भारतीयता, बिना हिन्दू दृष्टि के,बिना सनातन पद्धति के, आगे के सभी द्वार बंद हैं।</div><div>मजबूरी में ही सही, उन्हें भारत को अपनाना ही होगा।</div><div>और जो देश जितना जल्दी इस पर आएगा, उतना फायदे में रहेगा।</div><div>झक मारकर दुनिया भारत को स्वीकार करेगी। </div><div>नान्यः पन्थाः विद्यते अयनाय।</div><div>दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है। आयातित आसुरी विचारों की चवन्नियां चल गई तब चल गई, अब ग्लोबल का जमाना है और संसार को एक साझा निरापद विकल्प की तलाश है।</div><div>गर्व कीजिए कि आप उस परम्परा के वाहक हैं ।</div><div>#कुमारsचरित</div><div>#NSB </div><div><br></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-75703440203627359442023-11-09T04:04:00.001+05:302023-11-09T04:04:14.086+05:30गद्दारी / भ्रष्टाचार की सजा..<div>भ्रष्ट्राचारियों के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए, उसका उदाहरण हमारे इतिहास में घटी एक घटना से मिलता है। यह सजा भी किसी राजा या सरकार द्वारा नही बल्कि उसके परिजन द्वारा ही दी गई। </div><div>ई.सन 1311 में जालौर दुर्ग के गुप्त भेद अल्लाउद्दीन खिलजी को बताने के फलस्वरूप पारितोषिक स्वरूप मिला धन लेकर विका दहिया खुशी खुशी अपने घर लौट रहा था। इतना धन उसने पहली बार ही देखा था। चलते चलते रास्ते में सोच रहा था कि युद्ध समाप्ति के बाद इस धन से एक आलिशान हवेली बनाकर आराम से रहेगा। हवेली के आगे घोड़े बंधे होंगे, नौकर चाकर होंगे। उसकी पत्नी हीरादे सोने चांदी के गहनों से लदी रहेगी। अलाउद्दीन द्वारा जालौर किले में तैनात सूबेदार के दरबार में उसकी बड़ी हैसियत समझी जायेगी। घर पहुंचकर कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए धन की गठरी अपनी पत्नी हीरादे को सौंपने हेतु बढाई।</div><div>अपने पति के हाथों में इतना धन व पति के चेहरे व हावभाव को देखते ही हीरादे को अल्लाउद्दीन खिलजी की जालौर युद्ध से निराश होकर दिल्ली लौटती फौज का अचानक जालौर की तरफ वापस मुड़ने का राज समझ आ गया। वह समझ गयी कि उसके पति विका दहिया ने जालौर दुर्ग के असुरक्षित हिस्से का राज अल्लाउद्दीन की फौज को बताकर अपने वतन जालौर व अपने पालक राजा कान्हड़ देव सोनगरा चौहान के साथ गद्दारी की है। यह धन उसे इसी गद्दारी के पारितोषिक स्वरूप प्राप्त हुआ है।</div><div>उसने तुरंत अपने पति से पुछा- क्या यह धन आपको अल्लाउद्दीन की सेना को जालौर किले का कोई गुप्त भेद देने के बदले मिला है?</div><div>विका ने अपने मुंह पर कुटिल मुस्कान बिखेर कर व खुशी से अपनी मुंडी ऊपर नीचे कर हीरादे के आगे स्वीकारोक्ति कर जबाब दे दिया। उसे तत्काल समझ आ गया कि उसका पति भ्रष्ट्राचारी है। उसके पति ने अपनी मातृभूमि के लिए गद्दारी की है और अपने उस राजा के साथ विश्वासघात किया है। हीरादे आग बबूला हो उठी और क्रोद्ध से भरकर अपने पति को धिक्कारते हुए दहाड़ उठी- अरे! गद्दार आज विपदा के समय दुश्मन को किले की गुप्त जानकारी देकर अपने देश के साथ गद्दारी करते हुए तुझे शर्म नहीं आई? </div><div>क्या तुम्हें ऐसा करने के लिए ही तुम्हारी माँ ने जन्म दिया था? </div><div>अपनी माँ का दूध लजाते हुए तुझे जरा सी भी शर्म नहीं आई? </div><div>क्या तुम एक क्षत्रिय होने के बावजूद क्षत्रिय द्वारा निभाये जाने वाले राष्ट्रधर्म को भूल गए?</div><div>विका दहिया ने हीरादे को समझाने का प्रयास किया हीरादे जैसी देशभक्त क्षत्रिय नारी उसके बहकावे में कैसे आ सकती थी? पति पत्नी के बीच इसी बात पर बहस बढ़ गयी। विका दहिया की हीरादे को समझाने की हर कोशिश ने उसके क्रोध को और ज्यादा भड़काने का ही कार्य किया।</div><div>हीरादे पति की इस गद्दारी से बहुत दुखी व क्रोधित हुई। उसे अपने आपको ऐसे गद्दार पति की पत्नी मानते हुए शर्म महसूस होने लगी। उसने मन में सोचा कि युद्ध के बाद उसे एक गद्दार व देशद्रोही की बीबी होने के ताने सुनने पड़ेंगे। इन्ही विचारों के साथ किले की सुरक्षा की गोपनीयता दुश्मन को पता चलने के बाद युद्ध के होने वाले संभावित परिणाम और जालौर दुर्ग में युद्ध से पहले होने वाले जौहर के दृश्य उसके मन मष्तिष्क में चलचित्र की भांति चलने लगे। जालौर दुर्ग की रानियों व अन्य महिलाओं द्वारा युद्ध में हारने की आशंका के चलते अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर की धधकती ज्वाला में कूदने के दृश्य, छोटे छोटे बच्चों के रोने कलपने के दृश्य। उसे उन योद्धाओं के चेहरे के भाव, जिनकी पत्नियां उनकी आँखों के सामने जौहर चिता पर चढ़ अपने आपको पवित्र अग्नि के हवाले करने वाली थी, स्पष्ट दिख रहे थे। साथ ही दिख रहा था जालौर के रणबांकुरों द्वारा किया जाने वाले शाके का दृश्य जिसमें जालौर के रणबांकुरे दुश्मन से अपने रक्त के आखिरी कतरे तक लोहा लेते लेते कट मरते हुए मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद हो रहे थे। एक तरफ उसे जालौर के राष्ट्रभक्त वीर स्वातंत्र्य की बलि वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर स्वर्ग गमन करते नजर आ रहे थे तो दूसरी और उसकी आँखों के आगे उसका भ्रष्ट्राचारी राष्ट्रद्रोही पति खड़ा था।</div><div>ऐसे दृश्यों के मन आते ही हीरादे विचलित व व्यथित हो गई। उन वीभत्स दृश्यों के पीछे सिर्फ उसे अपने पति की गद्दारी नजर आ रही थी। उसकी नजर में सिर्फ और सिर्फ उसका पति ही इस सबका जिम्मेदार था।</div><div>हीरादे की नजर में पति द्वारा किया गया यह एक ऐसा जघन्य अपराध था जिसका दंड उसी वक्त देना आवश्यक था। उसने मन ही मन अपने गद्दार पति को इस गद्दारी का दंड देने का निश्चय किया। उसके सामने एक तरफ उसका सुहाग था तो दूसरी तरफ देश के साथ अपनी मातृभूमि के साथ गद्दारी करने वाला गद्दार पति। उसे एक तरफ देश के गद्दार को मारकर उसे सजा देने का कर्तव्य था तो दूसरी और उसका अपना उजड़ता सुहाग। आखिर उस देशभक्त वीरांगना ने तय किया कि- "अपनी मातृभूमि की सुरक्षा के लिए यदि उसका सुहाग खतरा बना है तो ऐसे अपराध व दरिंदगी के लिए उसकी भी हत्या कर देनी चाहिए। गद्दारों के लिए यही एक मात्र सजा है।"</div><div>मन में उठते ऐसे अनेक विचारों ने हीरादे के रोष को और भड़का दिया उसका शरीर क्रोध के मारे कांप रहा था। उसके हाथ देशद्रोही को सजा देने के लिए तड़प उठे। हीरादे ने आव देखा न ताव पास ही रखी तलवार उठाकर एक झटके में अपने गद्दार और देशद्रोही पति का सिर काट डाला।</div><div>हीरादे के एक ही वार से विका दहिया का सिर कट कर लुढक गया। </div><div>वह एक हाथ में नंगी तलवार व दुसरे हाथ में अपने गद्दार पति का कटा मस्तक लेकर अपने राजा कान्हड़ देव के समक्ष उपस्थित हुई और अपने पति द्वारा गद्दारी किये जाने व उसे उचित सजा दिए जाने की जानकारी दी।</div><div>कान्हड़ देव ने इस राष्ट्रभक्त वीरांगना को नमन किया और हीरादे जैसी वीरांगनाओं पर गर्व करते हुए अल्लाउद्दीन की सेना से आज निर्णायक युद्द के लिए चल पड़े।</div><div>हीरादे अनायास ही अपने पति के बारे में बुदबुदा उठी-</div><div>"हिरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ"</div><div>अर्थात्- विधाता आज कैसा दिन दिखाया है कि इस चण्डाल का मुंह देखना पड़ा।</div><div>इस तरह एक देशभक्त वीरांगना अपने पति को भी देशद्रोह व भ्रष्टाचार का दंड देने से नहीं चूकी।</div><div>देशभक्ति के ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते है जब एक पत्नी ने देशद्रोह के लिए अपने पति को मौत के घाट उतार कर अपना सुहाग उजाड़ा हो। देश के ही क्या दुनियां के इतिहास में राष्ट्रभक्ति का ऐसा अतुलनीय अनूठा उदाहरण कहीं नहीं मिल सकता।</div><div>काश आज हमारे देश में भ्रष्ट्राचार में लिप्त बड़े बड़े अधिकारियों, नेताओं व मंत्रियों की पत्नियाँ भी हीरादे जैसी देशभक्त नारी से सीख ले अपने भ्रष्ट पतियों का भले सिर कलम न करें पर उन्हें धिक्कार कर बुरे कर्मों से तो रोक सकती ही है!! </div><div><div class="separator" style="clear: both; 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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhK3L78a4o6x-I5Zr9weSbnFs1NpvJcolvSX1UvX2OEs_4uWF14DjBX4oKuD2omfUVTuMPnEwRs4gYtqflx1zWv_PdLQO5pyCBb55XvPZdxx5sHim1_iSUNdTXKcHhKz5AFwBMZbeI125nFXKNZVMZe2r9QTW7AdIO9yDtdwKzCqjqruoaRIx9-cxtt_Z4h" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-80842976636270339052023-10-11T17:43:00.002+05:302023-10-11T17:43:48.441+05:30येरुशलम & इजराइल <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiNCjI_yr3cSHEwCNcF8wGuLdt0EQbuOxhEB3VbAl2bJPPzzIMKhJ7KZdxGU8CsvJRwOPTHYC4KYMNLZw0QREV09iC24SNFF8OW2PmVUl014zq0bqfe1e8oDL-946tkcgkEpSg2MsJu5VzlDnem1mP18fL2CMt4EkfCHvxH71a5xmTQI4BQYyKIFR9zi-CC" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div> प्राचीन नगर येरुशलम यहूदी, ईसाई और मुसलमानों का संगम स्थल है। उक्त तीनों धर्मों के लोगों के लिए इसका महत्व है इसीलिए यहां पर सभी अपना कब्जा बनाए रखना चाहते हैं। फिलिस्तीन इसे अपनी राजधानी बनाना चाहता है जबकि इसराइल अपनी। पैगंबर इब्राहिम को अपने इतिहास से जोड़ने वाले ये तीनों ही धर्म येरूशलम को अपना पवित्र स्थान मानते हैं। <br></div><div><br></div><div>आज हम इजराइल के माइग्रेशन पुनः स्थापना और इजराइल के इजराइल बनने की कहानी और भारत से इसके रिश्ते पर चर्चा करेंगे पोस्ट थोड़ी लंबी हो सकती है -</div><div><br></div><div>यहूदी धर्म की शुरुआत पैगंबर अब्राहम (अबराहम या इब्राहिम) से मानी जाती है, जो ईसा से 2000 वर्ष पूर्व हुए थे।अब्राहम को यहूदी, मुसलमान और ईसाई तीनों धर्मों के लोग अपना पितामह मानते हैं। एडम/आदम से अब्राहम और अब्राहम से मूसा तक यहूदी, ईसाई और इस्लाम सभी के पैगंबर एक ही है किंतु मूसा के बाद सबके अलग अलग । अब्राहम के पोते का नाम याकूब था। याकूब का ही दूसरा नाम इजरायल था। ईसा के 1100 साल पहले जैकब के 12 संतानों के आधार पर अलग-अलग यहूदी कबीले बने। और याकूब ने ही यहूदियों की इन 12 जातियों को मिलाकर एक सम्मिलित राष्ट्र इजरायल बनाया था। याकूब के एक बेटे का नाम यहूदा (जूदा) था। यहूदा के नाम पर ही उसके वंशज यहूदी कहलाए और उनका धर्म यहूदी धर्म कहलाया। इब्राहिम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम 'पैगंबर मूसा' का है। मूसा ही यहूदी जाति के प्रमुख व्यवस्थाकार हैं। मूसा को ही पहले से चली आ रही एक परंपरा को स्थापित करने के कारण यहूदी धर्म का संस्थापक माना जाता है। हालांकि यहूदी फोनीशियन वंशज हैं जो एक सेमिटिक-भाषी लोग थे जो लगभग 3000 ईसा पूर्व लेवंत में उभरे थे, इस्राइल कहे जाने वाले लेवंट (पश्चिमी एशिया व पूर्वी भूमध्य क्षेत्र) में 10 हजार से 4.5 हजार ईसा पूर्व मानव बस्तियों के साक्ष्य मिलते हैं। कांस्य व लौह युग में इन इलाकों में मिस्र के अधीन कैनाइट राज्य बने। इन कैनाइट लोगों की एक शाखा से यहूदी समुदाय की उत्पति मानी जाती है, जो एक ईश्वरवादी थे। यहूदियों के वंशजों ने 900 वर्ष ईसा पूर्व यहां राज्य स्थापित किया, इसे यहूदियों का संयुक्त राज्य भी कहा गया है। (इसपर फिर कभी) ।।</div><div><br></div><div>13वीं शताब्दी ईसा पूर्व में मिस्र से यहूदियों के पलायन और इसराइल के बनने और वहाँ उनके बसने की घटना हुई थी। ये तब की बात है जब मिस्र के फ़ेरो (फ़राओ) यहूदियों को ग़ुलामों की तरह रखते थे, मूसा के नेतृत्व में वे एक जगह आकर बसे और नाम दिया #इजराइल । सदियों से मिस्र में ग़ुलामी झेल रहे यहूदियों के साथ ही उन्होंने इज़रायल बसाया था। मिस्र उस वक्त एक शक्तिशाली साम्राज्य हुआ करता था। मूसा ने तब अपने लोगों को एकजुट किया और कहा जाता है कि वहाँ से पलायन कर उन्हें मुक्ति दिलाई। इसके बाद ही वो जाकर इज़रायल में बसे थे।यहूदियों के ये 12 कबीले ये दो खेमों में बँट गए - एक, जो 10 कबीलों का बना था इसरायल कहलाया और दूसरा , जो बाकी के दो कबीलों से बना था वो जूदा (यहूदा) कहलाया। </div><div><br></div><div>यहूदियों के जो कुल 12 कबीले थे जिन्हें लेकर यह मान्यता थी कि इन 12 कबीलों में से एक कबीला उनका खो गया, यहूदी मानते हैं कि 3000 साल पहले इजरायल के उत्तरी साम्राज्य के 10 समुदायों को अश्शूर से आए असीरियन लोगों के हमले के कारण पलायन करना पड़ा था। उसके बाद से उनके बारे में बहुत कुछ पता नहीं चल पाया था। आपको जानकर हैरानी होगी कि वो खोया हुआ कबीला भारतीय है - माना जाता है कि जो समुदाय खो गए हैं, वो जहाँ जाकर बसे वहीं की संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। कुकी समाज को भी ऐसे ही एक ट्राइब के रूप में जाना जाता है, जिसे वो ‘Bnei Menashe’ कहा जाता है। इन्हें पैगंबर जोसेफ के बेटे बिबिलिकल मनस्सेह के वंशजों के रूप में जाना जाता है। बताया जाता है कि 1950 के दशक में मिजोरम-मणिपुर के 10,000 कुकी लोगों ने ईसाई मजहब छोड़ कर यहूदी मजहब अपना लिया था, जब उन्हें अपनी तथाकथित वास्तविक मातृभूमि का पता चला था। (इसपर विस्तार से पोस्ट अलग से करूंगा ताकि ये मूल पोस्ट लंबी न हो)</div><div><br></div><div>सदियों से मिस्र में अत्याचार और शोषण के साथ ग़ुलामी में जी रहे हिब्रुओं को एक प्रोमिस्ड लैंड मिलता है जिसे इज़रायल के नाम से जानते हैं। हिब्रुओं को एक नया धर्म भी मिला जिसने उन्हें नया रास्ता भी दिखाया यानी यहूदी धर्म ज्यूइज़्म या जूडाइज़्म। ईसा पूर्व 1250 में इसराइलियों ने भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर स्थित केनान के इलाके पर चढ़ाई की और वहाँ बसना शुरू कर दिया।</div><div><br></div><div>अब्राहम और मूसा के बाद इज़रायल में जो दो नाम सबसे अधिक आदरणीय माने जाते हैं वे दाऊद (ईसाइयत में David) और उसके बेटे सुलेमान (ईसाइयत में Solomons) के हैं। ईसा पूर्व 961 से 922 तक सोलोमन का राज रहा जिन्होंने यरूशलम में पवित्र मंदिर बनवाया। सोलोमन के बाद यह इलाका दो अलग-अलग साम्राज्यों में बंट गया।सुलेमान के समय दूसरे देशों के साथ इज़रायल के व्यापार में खूब उन्नति हुई। सुलेमान के ही समय इब्रानी यहूदियों की राष्ट्रभाषा बनी। 37 वर्ष के योग्य शासन के बाद सन् 937 ई.पू. में सुलेमान की मृत्यु हुई।सुलेमान की मृत्यु होते ही इज़रायली और जूदा (यहूदा) दोनों फिर अलग-अलग स्वाधीन रियासतें बन गईं। सुलेमान की मृत्यु के बाद 50 वर्ष तक इज़रायल और जूदा के आपसी झगड़े चलते रहे। इसके बाद लगभग 884 ई.पू. में उमरी नामक एक राजा इज़रायल की गद्दी पर बैठा। उसने फिर दोनों शाखों में प्रेमसंबंध स्थापित किया। किंतु उमरी की मृत्यु के बाद यहूदियों की ये दोनों शाखाएं पुनः युद्ध में उलझ गईं।</div><div><br></div><div>यहूदियों की इस स्थिति को देखकर असुरिया के राजा शुलमानु अशरिद पंचम ने सन् 722 ई.पू. में इज़रायल की राजधानी समरिया पर चढ़ाई की और उसपर अपना अधिकार कर लिया। अशरिद ने 27,290 प्रमुख इज़रायली सरदारों को कैद करके और उन्हें गुलाम बनाकर असुरिया भेज दिया और इज़रायल का शासनप्रबंध असूरी अफसरों को सपुर्द कर दिया। सन् 610 ई.पू. में असुरिया पर जब खल्दियों ने आधिपत्य कर लिया तब इज़रायल भी खल्दी सत्ता के अधीन हो गया। कालांतर में फ़ारस के हखामनी शासकों ने असीरियाइयों को ईसापूर्व 530 तक हरा दिया तो यह क्षेत्र फ़ारसी शासन में आ गया। इस समय जरदोश्त के धर्म का प्रभाव यहूदी धर्म पर पड़ा। यूनानी विजेता सिकन्दर ने जब दारा तृतीय को ईसापूर्व 330 में हराया तो यह यहूदी ग्रीक शासन में आ गए।</div><div><br></div><div>नव-असीरियाई और नव-बेबिलोनियाई साम्राज्य के हमलों से परेशान हो यहूदियों को कई बार पलायन करने पड़े। 539 ईसा पूर्व फारसी साम्राज्य के शासक साइरस महान ने यहूदियों को अपने राज्य लौटने, वहां खुद का शासन करने और अपने मंदिर बनाने की अनुमति दी। अगले करीब 600 साल उनके लिए अनुकूल रहे। लेकिन बाद में सिकंदर, रोमनों और बाइजेंटाइन साम्राज्य ने यहूदियों को जीता, उनके शहर जरुशलम व मंदिरों को तोड़ा। 5वीं शताब्दी तक इस क्षेत्र में ईसाई धर्म बहुसंख्यक हो गया, अधिकतर यहूदियों ने पलायन किया। सन 118 से 138 के बीच रोमन सम्राट हद्रियान के राज्यकाल में पहले तो यहूदियों को वापस यरुशलम आनेजाने की इजाज़त थी, लेकिन सन 133 में एक और यहूदी विद्रोह के बाद शहर पूरी तरह तबाह कर दिया गया और यहां के लोगों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया।</div><div>सन 638 में अरब मुसलमानों के हमले ने रोमन साम्राज्य के वारिस बाइज़ैंटाइन राज्य का ख़ात्मा किया और इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने आठवीं सदी की शुरुआत में वहां उस जगह पर एक मसजिद बनवाई जहां अब अल अक्सा मस्जिद है। </div><div><br></div><div>#विशेष </div><div>सातवीं शताब्दी में अगले 600 साल के लिए इस्लामी खलीफा का शासन आया। 11वीं शताब्दी में मुस्लिम व ईसाइयों में धर्म युद्ध शुरू हुए, जिसका अहम लक्ष्य पवित्र जरुशलम को इस्लामी शासन से मुक्त करवाना था। साल 1516 में ओटोमन साम्राज्य ने क्षेत्र पर कब्जा किया। यहूदियों की मौजूदगी बनी रही। वो लड़ते रहे भागते रहे और वापसी करते रहे। इसके बाद 1099 से 1187 तक चले जेहाद के दौर को छोड़कर यहां मुसलिम राज रहा जब तक कि 20वीं सदी के अंत में औटोमन साम्राज्य का पतन नहीं हो गया। लंबे समय तक पूरी दुनिया में बिखरे रहने के बाद वियेना में रह रहे एक यहूदी लेखक और पत्रकार थियोडोर हर्ज़्ल ने डेर जुडेन्स्टाट यानी यहूदी राष्ट्र नामकी एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने कहा था कि यहूदियों का अपना राष्ट्र होना चाहिए।</div><div>समझा जाता है कि उनके इस विचार की मुख्य वजह यूरोप का यहूदी विरोधी माहौल था। और उसके बाद 1896 में बास्ले, स्विटज़रलैंड में पहली ज़ियोनिस्ट कॉंग्रेस हुई।यहां पास हुए बास्ले प्रस्ताव में कहा गया कि "फ़लस्तीन में यहूदियों के एक विधिसम्मत घर" की स्थापना की जाएगी और इसके लिए विश्व यहूदी संगठन बनाया जाएगा। पोस्ट लम्बी हो रही है इसका एक भाग आपको कल मिलेगा ।।</div><div><br></div><div>छायाचित्र - 830 ईसा पूर्व में यहूदियों के दोनो कबीले</div><div>इजराइल और जूदा (यहूदा) का राज्य ।।</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-50216056906833970792023-10-01T06:36:00.001+05:302023-10-01T06:36:46.685+05:30पंडित राज, लवंगी, दाराशिकोह और यवन..।<div>बनारस क्यों?</div><div>सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था, दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान ब्राह्मण सम्मान पाता था, नाम था जगन्नाथ शास्त्री। साहित्य के प्रकांड विद्वान, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता। इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे। कारण यह कि जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे। दूर दूर के विद्वान आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वता का ध्वज लिए चले गए।</div><div> पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी। उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था। शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था। पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी। "मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है?", शाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा। जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो...." शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।</div><div>सप्ताह भर पश्चात मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था। गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ, पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी। मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी, "पराजित होने पर शिखा देनी होगी..."। पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी, "स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा।" </div><div>मुगल दरबार में "जहाँ पेड़ न खूंट वहाँ रेड़ परधान" की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे, सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई।</div><div>शास्त्रार्थ क्या था; खेल था। अरबों के पास इतनी आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें। पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए, मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया...</div><div>दो माह बाद महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था, "महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं, यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे"।</div><div>मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी। महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके। पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए, शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया "पण्डितराज"।</div><div>दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था, तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त। दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा, और यही कारण था कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा मनुष्य बन गया।</div><div>मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे। उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती। यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा- अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ।</div><div>पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा, दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी। अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों। पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा, मस्तक पर त्रिपुंड लगाए शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था। पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- चलोगी?</div><div>लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया- अविश्वास न करो पण्डित! प्रेम किया है....</div><div> पण्डितराज जानते थे यह एक नर्तकी के गर्भ से जन्मी शाहजहाँ की पुत्री 'लवंगी' थी। एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा, फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-</div><div>न याचे गजालिं न वा वाजिराजिं,</div><div>न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाचित्।</div><div>इयं सुस्तनी मस्त कन्यस्तकुम्भा,</div><div>लवङ्गी कुरङ्गी मदङ्गी करोति ॥</div><div>शाहजहाँ मुस्कुरा उठा! कहा- लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज। यह भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है जब किसी मुगल ने किसी हिन्दू को बेटी दी थी। लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।</div><div>युग बीत रहा था। पण्डितराज दारा शिकोह के गुरु और परम मित्र के रूप में ख्यात थे। समय की अपनी गति है। शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दारा शिकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा। पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए, साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।</div><div>*****/\*****</div><div>बनारस तो बनारस है, वह अपने ही ताव के साथ जीता है। बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं करता। और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है, नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई। यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी *"ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा...."* गा रहा है। बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया। कहा- "लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।"</div><div>तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था, पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया।</div><div>पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे, और लवंगी उनकी प्रेयसी। जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है। पण्डितराज ने कहा- लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।</div><div>पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी, पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य "प्रौढ़ मनोरमा" का खंडन करते हुए उन्होंने "प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम" नामक ग्रन्थ लिखा। बनारस में धूम मच गई, पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया।</div><div>पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई, पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित "चित्रमीमांसा" का खंडन करते हुए "चित्रमीमांसाखंडन" नामक ग्रन्थ रच डाला।</div><div>बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।</div><div>पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था।</div><div>असाढ़ की सन्ध्या थी। गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा- गोदावरी चलोगी लवंगी? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।</div><div>लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं? स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडीजी।</div><div>पण्डितराज ने थके स्वर में कहा- "अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया..."</div><div>लवंगी मुस्कुरा उठी, "जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं। गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।"</div><div>पण्डितराज की आँखें चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था- "प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?"</div><div>पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-"आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया, तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा......"</div><div>पल भर को हिल गया बनारस, पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था। जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।</div><div>अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।</div><div>पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और #गंगालहरी का पाठ प्रारम्भ किया। लवंगी उनके निकट बैठी थी।</div><div>गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थीं। पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आतीं। बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी।</div><div>गंगालहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थीं। पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी- "क्यों अविश्वास करते हो पण्डित? प्रेम किया है तुमसे..."</div><div>पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा। गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ीं और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गईं।</div><div>बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।</div><div>तट पर खड़े पण्डित अप्पय जी दीक्षित ने मुंह में ही बुदबुदा कर कहा- "क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था। बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।"</div><div>युगों बीत गए। बनारस है, सनातन है, गंगा है, तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।</div><div>(सर्वेश कुमार तिवारी श्री मुख जी को फेसबुक पोस्ट)</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhVBv2BKh97yRP0vLmptig8w4Z3btWP76r0scyvTpQm5XXfCV1AKen5gTWkWsi5xYCE1yy4Yr0UqQ6N-0R8gcvZ6JhJVfRds8FlNAS1XiIY_yfEuZ56mS4_XJECSuZv3ND2yvuq3_WheiAcOykE9Bt9XSK1BK-RCAcG2bdARn9lyp8o6H1OPqtJHAz-afc5" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-8017533872204498692023-10-01T04:49:00.001+05:302023-10-01T04:49:36.043+05:30अछूत अवधारणा का जन्म...🚩<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhdi3EXblA3NIrILGYJfxUcRmMKzFIF0hhfU777HGHTfNDnBwN7w3pRhQKsXVGtk_osz2q-IVp-NqS0LBMDeH-cvIrJ68KdyzQf2_uBI8DRcomt-AmoBHdIyAK5InPPfbHg2GdM53tiTZtoET97Fm99P2p3PIoEMpodM3_-8gROkdboc09OchAqfFCm6N_V" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div>एक और षड्यंत्र का पर्दाफाश...</div><div><br></div><div>हजारों साल से शूद्र दलित मंदिरों में पूजा करते आ रहे थे, पर अचानक 19वी० शताब्दी में ऐसा क्या हुआ कि, दलितों को मंदिरों में प्रवेश नकार दिया गया?</div><div><br></div><div>१. क्या इसका सही कारण आपको मालूम है?</div><div>२. या सिर्फ ब्राह्मणों को गाली देकर मन को झूठी तसल्ली दे देते हो?</div><div><br></div><div>अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने की सच्चाई क्या है...? यह काम पुजारी करते थे कि, मक्कार अंग्रेजो के द्वारा किया गया लूटपाट का षड्यंत्र था?</div><div><br></div><div>1932 में लोथियन कॉमेटी की रिपोर्ट सौंपते समय डॉ. आंबेडकर नें अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने का जो उद्धरण पेश किया है वो वही लिस्ट है जो अंग्रेजो ने भारत में कंगाल यानि गरीब लोगों की लिस्ट बनाई थी जो लोग मन्दिर में घुसने (Entry fee) देने के लिए अंग्रेजों के द्वारा लगाये गए टैक्स को देने में असमर्थ थे!</div><div><br></div><div>षड़यंत्र: 1808 ई० में ईस्ट इंडिया कंपनी पुरी के श्रीजगन्नाथ मंदिर को अपने कब्जे में लेती है और फिर लोगो से कर वसूला जाता है, तीर्थ यात्रा के नाम पर कर!</div><div><br></div><div>हिन्दुओं के चार ग्रुप बनाए जाते हैं! इसमें से चौथा ग्रुप जो कंगाल है, उनकी एक लिस्ट जारी की जाती है!</div><div><br></div><div>1932 ई० में जब डॉ आंबेडकर अछूतों के बारे में लिखते हैं तो, वे ईस्ट इंडिया के जगन्नाथ पुरी मंदिर के दस्तावेज की लिस्ट को अछूत बनाकर लिखते हैं!</div><div><br></div><div>भगवान जगन्नाथ के मंदिर की यात्रा को यात्रा कर में बदलने से ईस्ट इंडिया कंपनी को बेहद मुनाफ़ा हुआ और यह 1809 से 1840 तक निरंतर चला। जिससे अरबो रूपये सीधे अंग्रेजो के खजाने में बने और इंग्लैंड पहुंचे। श्रद्धालु यात्रियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता था!</div><div><br></div><div>प्रथम श्रेणी: लाल जतरी (उत्तर के धनी यात्री)</div><div>द्वितीय श्रेणी: निम्न लाल (दक्षिण के धनी यात्री)</div><div>तृतीय श्रेणी: भुरंग (यात्री जो दो रुपया दे सके)</div><div>चतुर्थ श्रेणी: पुंज तीर्थ (कंगाल की श्रेणी जिनके पास दो रूपये भी नही मिलते थे, उनकी तलाशी लेने के बाद)</div><div><br></div><div>चतुर्थ श्रेणी के नाम इस प्रकार हैं!</div><div><br></div><div>01. लोली या कुस्बी!</div><div>02. कुलाल या सोनारी!</div><div>03. मछुवा!</div><div>04. नामसुंदर या चंडाल</div><div>05. घोस्की</div><div>06. गजुर</div><div>07. बागड़ी</div><div>08. जोगी </div><div>09. कहार</div><div>10. राजबंशी</div><div>11. पीरैली</div><div>12. चमार</div><div>13. डोम</div><div>14. पौन </div><div>15. टोर</div><div>16. बनमाली</div><div>17. हड्डी</div><div><br></div><div>प्रथम श्रेणी से 10 रूपये! द्वितीय श्रेणी से 6 रूपये! तृतीय श्रेणी से 2 रूपये और चतुर्थ श्रेणी से कुछ नही!</div><div><br></div><div>अब जो कंगाल की लिस्ट है जिन्हें हर जगह रोका जाता था और मंदिर में नही घुसने दिया जाता था। क्योंकि वो एन्ट्री फीस नही दे पाते थे। ठीक वैसे ही जैसे आज आप ताजमहल/लालकिला में बिना एन्ट्री नही जा सकते...</div><div><br></div><div>आप यदि उस समय 10 रूपये भर सकते थे तो आप सबसे अच्छे से ट्रीट किये जाते थे...</div><div><br></div><div>डॉ आंबेडकर ने अपनी लोथियन कॉमेटी रिपोर्ट में इसी लिस्ट का जिक्र किया है और कहा कि कंगाल पिछले 100 साल में कंगाल ही रहे! </div><div><br></div><div>बाद में वही कंगाल अंग्रेजों द्वारा और बाद में काले अंग्रेज कोंग्रेसियों द्वारा षडयंत्र के तहत अछूत बनाये गए! ताकि हिंदु समाज विभाजित कर उन्हें बरगला कर धर्मांतरित किया जा सके...!!</div><div><br></div><div>हिन्दुओ के सनातन धर्म में छुआछुत बेसिक रूप से कभी था ही नहीं।</div><div><br></div><div>यदि ऐसा होता तो सभी हिन्दुओ के श्मशानघाट और चिता अलग अलग होती। और मंदिर भी जातियों के हिसाब से ही बने होते और हरिद्वार में अस्थि विसर्जन भी जातियों के हिसाब से ही होता।</div><div><br></div><div>यह जातिवाद आज भी ईसाई और मुसलमानों में भी है। इनमें जातियों और फिरको के हिसाब से अलग अलग चर्च और अलग अलग मस्जिदें हैं और अलग अलग कब्रिस्तान बने हैं। सनातनी हिन्दुओं में जातिवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद, धर्मनिपेक्षवाद, जडतावाद, कुतर्कवाद, गुरुवाद, राजनीतिक पार्टीवाद पिछले 1000 वर्षों से मुस्लिम और अंग्रेजी शासको ने षडयंत्र से डाला है, ताकि विभाजित हिंदुओं पर शासन करनें में आसानी हो...</div><div><br></div><div>एकजुट हिंदुओं पर शासन विश्व की कोई भी प्रजाति के बस की बात नहीं है। जिस पर से कांग्रेस नाम के राजनीतिक दल ने पिछले 70 वर्षो तक अपनी राजनीति की रोटियां सेकीं और जूते में दाल खिलाई!</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-57875741582919167842023-08-26T18:58:00.001+05:302023-08-26T18:58:30.160+05:30हल्दीघाटी युद्ध के बाद क्या क्या हुआ ? हल्दीघाटी के बाद अगले १० साल में मेवाड़ में क्या क्या हुआ..??<div><br></div><div>इतिहास से जो पन्ने हटा दिए गए हैं उन्हें वापस संकलित करना ही होगा क्यूंकि वही हिन्दू रेजिस्टेंस और शौर्य के प्रतीक हैं.।</div><div>इतिहास में तो ये भी नहीं पढ़ाया गया है कि हल्दीघाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फ़ौज पांच छह कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई है. ये वाकया अबुल फज़ल की पुस्तक अकबरनामा में दर्ज है.।</div><div><br></div><div>क्या हल्दी घाटी अलग से एक युद्ध था..या एक बड़े युद्ध की छोटी सी घटनाओं में से बस एक शुरूआती घटना..</div><div>महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने हल्दीघाटी तक ही सिमित करके मेवाड़ के इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है. वास्तविकता में हल्दीघाटी का युद्ध , महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था. मुग़ल न तो प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर अधिपत्य जमा सके. हल्दीघाटी के बाद क्या हुआ वो हम बताते हैं.।</div><div><br></div><div>हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7000 सैनिक ही बचे थे..और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुंदा , उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था. उस स्थिति में महाराणा ने “गुरिल्ला युद्ध” की योजना बनायीं और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में सेटल नहीं होने दिया. महाराणा के शौर्य से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दीघाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच एक एक लाख के सैन्यबल भेजे जो कि महाराणा को झुकाने में नाकामयाब रहे.।</div><div><br></div><div>हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के पच्चीस लाख रुपये और दो हज़ार अशर्फिया लेकर हाज़िर हुए. इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर पर हमले की योजना बनाई। भामाशाह ने जितना धन महाराणा को राज्य की सेवा के लिए दिया उस से 25 हज़ार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी. बस फिर क्या था..महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40000 लडाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गयी.।</div><div><br></div><div>उसके बाद शुरू हुआ हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको इतिहास से एक षड्यंत्र के तहत या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है. इसे बैटल ऑफ़ दिवेर कहा गया गया है.</div><div><br></div><div>बात सन 1582 की है, विजयदशमी का दिन था और महराणा ने अपनी नयी संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया. उसके बाद सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया..एक टुकड़ी की कमान स्वंय महाराणा के हाथ थी दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे. </div><div><br></div><div>कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दीघाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का मैराथन बताया है. ये वही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द गिर्द आप फिल्म 300 देख चुके हैं. कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, तेज और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स के तुल्य ही बताया है जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूँ ही टकरा जाते थे.</div><div><br></div><div>दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था, महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर थाने पर हमला किया , हज़ारो की संख्या में मुग़ल, राजपूती तलवारो बरछो भालो और कटारो से बींध दिए गए। </div><div>युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुलतान खान मुग़ल को बरछा मारा जो सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया.उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काट कर निकल गई।</div><div><br></div><div>महाराणा प्रताप ने बहलोलखान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया। शौर्य की ये बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती है. उसके बाद यह कहावत बनी की मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है.ये घटनाये मुगलो को भयभीत करने के लिए बहुत थी। बचे खुचे 36000 मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्म समर्पण किया. ।</div><div>दिवेर के युद्ध ने मुगलो का मनोबल इस तरह तोड़ दिया की जिसके परिणाम स्वरुप मुगलों को मेवाड़ में बनायीं अपनी सारी 36 थानों, ठिकानों को छोड़ के भागना पड़ा, यहाँ तक की जब मुगल कुम्भलगढ़ का किला तक रातो रात खाली कर भाग गए.।</div><div><br></div><div>दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा , कुम्भलगढ़ , बस्सी, चावंड , जावर , मदारिया , मोही , माण्डलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण ठिकानो पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ कोछोड़ के मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए.।</div><div><br></div><div>अधिकांश मेवाड़ को पुनः कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला की अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुसलमानो को हासिल (टैक्स) देगा , उसका सर काट दिया जायेगा। इसके बाद मेवाड़ और आस पास के बचे खुचे शाही ठिकानो पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मगाई जाती थी.।</div><div><br></div><div>दिवेर का युद्ध न केवल महाराणा प्रताप बल्कि मुगलो के इतिहास में भी बहुत निर्णायक रहा। मुट्ठी भर राजपूतो ने पुरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राज करने वाले मुगलो के ह्रदय में भय भर दिया। दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलो में ऐसे भय का संचार कर दिया की अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए.।</div><div><br></div><div>इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली. अकबर खुद 6 महीने मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आस पास डेरा डाले रहा लेकिन ये महराणा द्वारा बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चीर देने के ही डर था कि वो सीधे तौर पे कभी मेवाड़ पे चढ़ाई करने नहीं आया.</div><div><br></div><div>ये इतिहास के वो पन्ने हैं जिनको दरबारी इतिहासकारों ने जानबूझ कर पाठ्यक्रम से गायब कर दिया है. जिन्हें अब वापस करने का प्रयास किया जा रहा है।</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-1617982799477922202023-08-18T12:21:00.001+05:302023-08-18T12:21:34.152+05:30इस्लाम की आंधी और राजपूतों का प्रतिकार...<div>गायब की हुई इतिहास की एक झलक:-</div><div><br></div><div>622 ई से लेकर 634 ई तक मात्र 12 वर्ष में अरब के सभी मूर्तिपूजकों को मुहम्मद ने तलवार से जबरदस्ती मुसलमान बना दिया! (मक्का में महादेव काबळेश्वर (काबा) को छोड कर ।(</div><div><br></div><div>634 ईस्वी से लेकर 651 तक, यानी मात्र 16 वर्ष में सभी पारसियों को तलवार की नोंक पर जबरदस्ती मुसलमान बना दिया!</div><div><br></div><div>640 में मिस्र में पहली बार इस्लाम ने पांँव रखे, और देखते ही देखते मात्र 15 वर्ष में, 655 तक इजिप्ट के लगभग सभी लोग जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए!</div><div><br></div><div>नार्थ अफ्रीकन देश जैसे अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को आदि देशों को 640 से 711 ई तक पूर्ण रूप से इस्लाम धर्म में जबरदस्ती बदल दिया गया!</div><div><br></div><div>3 देशों का सम्पूर्ण सुख चैन जबरदस्ती छीन लेने में मुसलमानो ने मात्र 71 वर्ष लगाए ।</div><div><br></div><div>711 ईस्वी में स्पेन पर आक्रमण हुआ, 730 ईस्वी तक स्पेन की 70% आबादी मुसलमान थी ।</div><div><br></div><div>मात्र 19 वर्ष में तुर्क थोड़े से वीर निकले, #तुर्कों के विरुद्ध जिहाद 651 ईस्वी में आरंभ हुआ, और 751 ईस्वी तक सारे तुर्क जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए ।</div><div><br></div><div>#इण्डोनेशिया के विरुद्ध जिहाद मात्र 40 वर्ष में पूरा हुआ! सन 1260 में मुसलमानों ने इण्डोनेशिया में मारकाट मचाई, और 1300 ईस्वी तक सारे इण्डोनेशियाई जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए ।</div><div><br></div><div>#फिलिस्तीन, सीरिया, लेबनान, जॉर्डन आदि देशों को 634 से 650 के बीच जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए ।</div><div><br></div><div>#सीरिया की कहानी तो और दर्दनाक है! #मुसलमानों ने इसाई सैनिकों के आगे अपनी महिलाओ को कर दिया । मुसलमान महिलाये गयीं इसाइयों के पास, कि मुसलमानों से हमारी रक्षा करो । बेचारे मूर्ख #इसाइयों ने इन धूर्तो की बातों में आकर उन्हें शरण दे दी! फिर क्या था, सारी "सूर्पनखा" के रूप में आकर, सबने मिलकर रातों रात सभी सैनिकों को हलाल करवा दिया ।</div><div><br></div><div>अब आप भारत की स्थिति देखिये ।</div><div><br></div><div>उसके बाद 700 ईस्वी में भारत के विरुद्ध जिहाद आरंभ हुआ! वह अब तक चल रहा है ।</div><div><br></div><div>जिस समय आक्रमणकारी ईरान तक पहुँचकर अपना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर चुके थे, उस समय उनकी हिम्मत नहीं थी कि भारत के राजपूत साम्राज्य की ओर आंँख उठाकर भी देख सकें ।</div><div><br></div><div>636 ईस्वी में खलीफा ने भारत पर पहला हमला बोला! एक भी आक्रान्ता जीवित वापस नहीं जा पाया ।</div><div><br></div><div>कुछ वर्ष तक तो मुस्लिम आक्रान्ताओं की हिम्मत तक नहीं हुई भारत की ओर मुँह करके सोया भी जाए! लेकिन कुछ ही वर्षो में गिद्धों ने अपनी जात दिखा ही दी । दुबारा आक्रमण हुआ! इस समय खलीफा की गद्दी पर #उस्मान आ चुका था! उसने हाकिम नाम के सेनापति के साथ विशाल इस्लामी टिड्डिदल भारत भेजा ।</div><div><br></div><div>सेना का पूर्णतः सफाया हो गया, और सेनापति हाकिम बन्दी बना लिया गया! हाकिम को भारतीय राजपूतों ने मार भगाया और बड़ा बुरा हाल करके वापस अरब भेजा, जिससे उनकी सेना की दुर्गति का हाल, उस्मान तक पहुंँच जाए ।</div><div><br></div><div>यह सिलसिला लगभग 700 ईस्वी तक चलता रहा! जितने भी मुसलमानों ने भारत की तरफ मुँह किया, राजपूत शासकों ने उनका सिर कन्धे से नीचे उतार दिया ।</div><div><br></div><div>उसके बाद भी भारत के वीर राजपूतों ने पराजय नही मानी । जब 7 वीं सदी इस्लाम की आरंभ हुई, जिस समय अरब से लेकर अफ्रीका, ईरान, यूरोप, सीरिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया, तुर्की यह बड़े बड़े देश जब मुसलमान बन गए, भारत में महाराणा प्रताप के पूर्वज बप्पारावल का जन्म हो चुका था ।</div><div><br></div><div>वे अद्भुत योद्धा थे, इस्लाम के पञ्जे में जकड़ कर अफगानिस्तान तक से मुसलमानों को उस वीर ने मार भगाया । केवल यही नहीं, वह लड़ते लड़ते खलीफा की गद्दी तक जा पहुंँचे । जहाँ स्वयं खलीफा को अपनी प्राणों की भिक्षा माँगनी पड़ी ।</div><div><br></div><div>उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं । नागभट्ट प्रतिहार (परिहार) द्वितीय जैसे योद्धा भारत को मिले । जिन्होंने अपने पूरे जीवन में राजपूती धर्म का पालन करते हुए, पूरे भारत की न केवल रक्षा की, बल्कि हमारी शक्ति का डङ्का विश्व में बजाए रखा ।</div><div><br></div><div>पहले बप्पा रावल ने पुरवार किया था, कि अरब अपराजित नहीं है । लेकिन 836 ई के समय भारत में वह हुआ, कि जिससे विश्वविजेता मुसलमान थर्रा गए ।</div><div><br></div><div>सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार ने मुसलमानों को केवल 5 गुफाओं तक सीमित कर दिया । यह वही समय था, जिस समय मुसलमान किसी युद्ध में केवल विजय हासिल करते थे, और वहाँ की प्रजा को मुसलमान बना देते ।</div><div><br></div><div>भारत वीर राजपूत मिहिरभोज ने इन आक्रांताओ को अरब तक थर्रा दिया </div><div><br></div><div>पृथ्वीराज चौहान तक इस्लाम के उत्कर्ष के 400 वर्ष बाद तक राजपूतों ने इस्लाम नाम की बीमारी भारत को नहीं लगने दी । उस युद्ध काल में भी भारत की अर्थव्यवस्था अपने उत्कृष्ट स्थान पर थी । उसके बाद मुसलमान विजयी भी हुए, लेकिन राजपूतों ने सत्ता गंवाकर भी पराजय नही मानी, एक दिन भी वे चैन से नहीं बैठे ।<br></div><div><br></div><div>अन्तिम वीर दुर्गादास जी राठौड़ ने दिल्ली को झुकाकर, जोधपुर का किला मुगलों के हाथो ने निकाल कर हिन्दू धर्म की गरिमा, को चार चाँद लगा दिए ।</div><div><br></div><div>किसी भी देश को मुसलमान बनाने में मुसलमानों ने 20 वर्ष नहीं लिए, और भारत में 800 वर्ष राज करने के बाद भी मेवाड़ के शेर महाराणा राजसिंह ने अपने घोड़े पर भी इस्लाम की मुहर नहीं लगने दिया ।</div><div>महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौड़, मिहिरभोज, रानी दुर्गावती, अपनी मातृभूमि के लिए जान पर खेल गए ।<br></div><div><br></div><div>एक समय ऐसा आ गया था, लड़ते लड़ते राजपूत केवल 2% पर आकर ठहर गए । एक बार पूरा विश्व देखें, और आज अपना वर्तमान देखें । जिन मुसलमानों ने 20 वर्ष में विश्व की आधी जनसंख्या को मुसलमान बना दिया, वह भारत में केवल पाकिस्तान बाङ्ग्लादेश तक सिमट कर ही क्यों रह गए ?</div><div><br></div><div>राजा भोज, विक्रमादित्य, नागभट्ट प्रथम और नागभट्ट द्वितीय, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, समुद्रगुप्त, स्कन्द गुप्त, महराजा छत्रसाल बुन्देला, आल्हा उदल, बाजीराव पेशवा, राजा भाटी, भूपत भाटी, चाचादेव भाटी, सिद्ध श्री देवराज भाटी, कानड़ देव चौहान, वीरमदेव चौहान, हठी हम्मीर देव चौहान, विग्रह राज चौहान, मालदेव सिंह राठौड़, विजय राव लाँझा भाटी, भोजदेव भाटी, चूहड़ विजयराव भाटी, बलराज भाटी, घड़सी, रतनसिंह, राणा हमीर सिंह और अमर सिंह, अमर सिंह राठौड़, दुर्गादास राठौड़, जसवन्त सिंह राठौड़, मिर्जा राजा जयसिंह, राजा जयचंद, भीमदेव सोलङ्की, सिद्ध श्री राजा जय सिंह सोलङ्की, पुलकेशिन द्वितीय सोलङ्की, रानी दुर्गावती, रानी कर्णावती, राजकुमारी रतनबाई, रानी रुद्रा देवी, हाड़ी रानी, रानी पद्मावती, जैसी अनेको रानियों ने लड़ते-लड़ते अपने राज्य की रक्षा हेतु अपने प्राण न्योछावर कर दिए ।</div><div><br></div><div>अन्य योद्धा तोगा जी वीरवर कल्लाजी जयमल जी जेता कुपा, गोरा बादल राणा रतन सिंह, पजबन राय जी कच्छावा, मोहन सिंह मँढाड़, राजा पोरस, हर्षवर्धन बेस, सुहेलदेव बेस, राव शेखाजी, राव चन्द्रसेन जी दोड़, राव चन्द्र सिंह जी राठौड़, कृष्ण कुमार सोलङ्की, ललितादित्य मुक्तापीड़, जनरल जोरावर सिंह कालुवारिया, धीर सिंह पुण्डीर, बल्लू जी चम्पावत, भीष्म रावत चुण्डा जी, रामसाह सिंह तोमर और उनका वंश, झाला राजा मान, महाराजा अनङ्गपाल सिंह तोमर, स्वतंत्रता सेनानी राव बख्तावर सिंह, अमझेरा वजीर सिंह पठानिया, राव राजा राम बक्श सिंह, व्हाट ठाकुर कुशाल सिंह, ठाकुर रोशन सिंह, ठाकुर महावीर सिंह, राव बेनी माधव सिंह, डूङ्गजी, भुरजी, बलजी, जवाहर जी, छत्रपति शिवाजी!</div><div><br></div><div>ऐसे हिन्दू योद्धाओं का संदर्भ हमें हमारे इतिहास में तत्कालीन नेहरू-गाँधी सरकार के शासन काल में कभी नहीं पढ़ाया गया । पढ़ाया ये गया, कि अकबर महान बादशाह था । फिर हुमायूँ, बाबर, औरङ्गजेब, ताजमहल, कुतुब मीनार, चारमीनार आदि के बारे में ही पढ़ाया गया । अगर हिन्दू सङ्गठित नहीं रहते, तो आज ये देश भी पूरी तरह सीरिया और अन्य देशों की तरह पूर्णतया मुस्लिम देश बन चुका होता ।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div>जय सनातन 🚩<br></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-11249492234255270962023-08-17T11:39:00.001+05:302023-08-17T11:39:03.364+05:30 भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की साजिश ??<div><br></div><div><div> कांग्रेस ने भारत को संविधान संशोधन के माध्यम से मुस्लिम राष्ट्र बना चुकी थी बस घोषणा नहीं कर पाई ।।</div><div> </div><div>अनुच्छेद 25, 28, 30 (1950)<br></div><div>एचआरसीई अधिनियम (1951)</div><div>एचसीबी एमपीएल (1956)</div><div>धर्मनिरपेक्षता (1975)</div><div>अल्पसंख्यक अधिनियम (1992)</div><div>POW अधिनियम (1991)</div><div>वक्फ अधिनियम (1995)</div><div>राम सेतु शपथ पत्र (2007)</div><div>केसर (2009)</div><div><br></div><div>1) कांग्रेस अनुच्छेद 25 द्वारा धर्मांतरण को वैध बनाया।</div><div>2)कांग्रेस अनुच्छेद 28 के माध्यम से हिंदुओं से धार्मिक शिक्षा छीन ली लेकिन अनुच्छेद 30 के माध्यम से मुस्लिमों और ईसाइयों को धार्मिक शिक्षा की अनुमति दी।</div><div>3) कांग्रेस ने एचआरसीई अधिनियम 1951 लागू करके सभी मंदिरों और मंदिरों का पैसा हिंदुओं से छीन लिया।</div><div>4) उन्होंने हिंदू कोड बिल के तहत तलाक कानून, दहेज कानून द्वारा हिंदू परिवारों को नष्ट कर दिया लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ को नहीं छुआ। उन्हें बहुविवाह की अनुमति दी ताकि वे अपनी जनसंख्या बढ़ाते रहें।</div><div>5) 1954 में विशेष विवाह अधिनियम लाया गया ताकि मुस्लिम लड़के आसानी से हिंदू लड़कियों से शादी कर सकें।</div><div>6) 1975 में उन्होंने आपातकाल लगाया, जबरदस्ती धर्मनिरपेक्षता शब्द संविधान में जोड़ा और जबरदस्ती भारत को धर्मनिरपेक्ष बना दिया।</div><div>7) कांग्रेस यहीं नहीं रुकी. 1991 में वे अल्पसंख्यक आयोग कानून लेकर आये और घोषणा की</div><div>एमएसएल एम को अल्पसंख्यक माना जाता है, हालांकि धर्मनिरपेक्ष देश में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक नहीं हो सकते।</div><div>8) उन्होंने छात्रवृत्ति, सरकारी जैसे विशेष अधिकार दिए। अल्पसंख्यक अधिनियम के तहत उन्हें लाभ मिले।</div><div>9) 1992 में, उन्होंने हिंदुओं को उनके मंदिर कानूनी तरीके से वापस लेने से रोक दिया और पूजा स्थल अधिनियम द्वारा 40000 मंदिर हिंदुओं से छीन लिए।</div><div><br></div><div><br></div><div><br></div><div><br></div></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-1935190613090124002023-08-05T12:29:00.001+05:302023-08-05T12:29:33.926+05:30राखी का ऐतिहासिक झूठ <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEg14EhbngrqqMzymTD3r0tYEY7detPnaQyWVPpUo5HPWv2rK3KkxTggDSK_G1fqlGCgFhIm_33YMkWdCG0srglLUlWWRr_dIoFrXvjt7lwDZwbEeskUh9HC_TN4UTxuBZAD0SuqU-LFmb2SUYyKPwGiSQ3Lfl-JQOVTLh9Qp0FXW2__dQn3RK4JO3QUMcE4" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div><br></div><div>सन 1535 दिल्ली का शासक है हुमायूँ बाबर का बेटा। उसके सामने देश में दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं, पहला अफगान शेर खाँ और दूसरा गुजरात का शासक बहादुरशाह। पर तीन वर्ष पूर्व सन 1532 में चुनार दुर्ग पर घेरा डालने के समय शेर खाँ ने हुमायूँ का अधिपत्य स्वीकार कर लिया है और अपने बेटे को एक सेना के साथ उसकी सेवा में दे चुका है। अफीम का नशेड़ी हुमायूँ शेर खाँ की ओर से निश्चिन्त है, हाँ पश्चिम से बहादुर शाह का बढ़ता दबाव उसे कभी कभी विचलित करता है।</div><div><br></div><div>हुमायूँ के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा दोष है कि वह घोर नशेड़ी है। इसी नशे के कारण ही वह पिछले तीन वर्षों से दिल्ली में ही पड़ा हुआ है, और उधर बहादुर शाह अपनी शक्ति बढ़ाता जा रहा है। वह मालवा को जीत चुका है और मेवाड़ भी उसके अधीन है। पर अब दरबारी अमीर, सामन्त और उलेमा हुमायूँ को चैन से बैठने नहीं दे रहे। बहादुर शाह की बढ़ती शक्ति से सब भयभीत हैं। आखिर हुमायूँ उठता है और मालवा की ओर बढ़ता है।</div><div><br></div><div>इस समय बहादुरशाह चित्तौड़ दुर्ग पर घेरा डाले हुए है। चित्तौड़ में किशोर राणा विक्रमादित्य के नाम पर राजमाता कर्णावती शासन कर रहीं हैं। उनके लिए यह विकट घड़ी है। सात वर्ष पूर्व खनुआ के युद्ध मे महाराणा सांगा के साथ अनेक योद्धा सरदार वीरगति प्राप्त कर चुके हैं। रानी के पास कुछ है, तो विक्रमादित्य और उदयसिंह के रुप में दो अबोध बालक, और एक राजपूतनी का अदम्य साहस। सैन्य बल में चित्तौड़ बहादुर शाह के समक्ष खड़ा भी नहीं हो सकता, पर साहसी राजपूतों ने बहादुर शाह के समक्ष शीश झुकाने से इनकार कर दिया है।</div><div><br></div><div>इधर बहादुर शाह से उलझने को निकला हुमायूँ अब चित्तौड़ की ओर मुड़ गया है। अभी वह सारंगपुर में है तभी उसे बहादुर शाह का सन्देश मिलता है जिसमें उसने लिखा है, “चित्तौड़ के विरुद्ध मेरा यह अभियान विशुद्ध जेहाद है। जबतक मैं काफिरों के विरुद्ध जेहाद पर हूँ तबतक मुझपर हमला गैर इस्लामिल है। अतः हुमायूँ को चाहिए कि वह अपना अभियान रोक दे।”</div><div><br></div><div>हुमायूँ का बहादुर शाह से कितना भी बैर हो पर दोनों का मजहब एक है, सो हुमायूँ ने बहादुर शाह के जेहाद का समर्थन किया है। अब वह सारंगपुर में ही डेरा जमा के बैठ गया है, आगे नहीं बढ़ रहा।</div><div><br></div><div>इधर चित्तौड़ राजमाता ने कुछ राजपूत नरेशों से सहायता मांगी है। पड़ोसी राजपूत नरेश सहायता के लिए आगे आये हैं, पर वे जानते हैं कि बहादुरशाह को हराना अब सम्भव नहीं। पराजय निश्चित है सो सबसे आवश्यक है चित्तौड़ के भविष्य को सुरक्षित करना। और इसी लिए रात के अंधेरे में बालक युवराज उदयसिंह को पन्ना धाय के साथ गुप्त मार्ग से निकाल कर बूंदी पहुँचा दिया जाता है।</div><div><br></div><div>अब राजपूतों के पास एकमात्र विकल्प है वह युद्ध, जो पूरे विश्व में केवल वही करते हैं। शाका और जौहर…</div><div><br></div><div>आठ मार्च 1535, राजपूतों ने अपना अद्भुत जौहर दिखाने की ठान ली है। सूर्योदय के साथ किले का द्वार खुलता है। पूरी राजपूत सेना माथे पर केसरिया पगड़ी बांधे निकली है। आज सूर्य भी रुक कर उनका शौर्य देखना चाहता है, आज हवाएं उन अतुल्य स्वाभिमानी योद्धाओं के चरण छूना चाहती हैं, आज धरा अपने वीर पुत्रों को कलेजे से लिपटा लेना चाहती है, आज इतिहास स्वयं पर गर्व करना चाहता है, आज भारत स्वयं के भारत होने पर गर्व करना चाहता है।</div><div><br></div><div>इधर मृत्यु का आलिंगन करने निकले वीर राजपूत बहादुरशाह की सेना पर विद्युतगति से तलवार भाँज रहे हैं, और उधर किले के अंदर महारानी कर्णावती के पीछे असंख्य देवियाँ मुह में गंगाजल और तुलसी पत्र लिए अग्निकुंड में समा रही हैं। यह जौहर है। वह जौहर जो केवल राजपूत देवियाँ जानती हैं। वह जौहर जिसके कारण भारत अब भी भारत है।</div><div><br></div><div>किले के बाहर गर्म रक्त की गंध फैल गयी है, और किले के अंदर अग्नि में समाहित होती क्षत्राणियों की देहों की...!</div><div><br></div><div>पूरा वायुमंडल बसा उठा है और घृणा से नाक सिकोड़ कर खड़ी प्रकृति जैसे चीख कर कह रही है, “भारत की आने वाली पीढ़ियों! इस दिन को याद रखना, और याद रखना इस गन्ध को। जीवित जलती अपनी माताओं के देह की गंध जबतक तुम्हें याद रहेगी, तुम्हारी सभ्यता जियेगी। जिस दिन यह गन्ध भूल जाओगे तुम्हें फारस होने में दस वर्ष भी नहीं लगेंगे…”</div><div><br></div><div>दो घण्टे तक चले युद्ध में स्वयं से चार गुने शत्रुओं को मार कर राजपूतों ने वीरगति पा ली है, और अंदर किले में असंख्य देवियों ने अपनी राख से भारत के मस्तक पर स्वाभिमान का टीका लगाया है। युद्ध समाप्त हो चुका। राजपूतों ने अपनी सभ्यता दिखा दी, अब बहादुरशाह अपनी सभ्यता दिखायेगा।</div><div><br></div><div>अगले तीन दिन तक बहादुर शाह की सेना चित्तौड़ दुर्ग को लुटती रही। किले के अंदर असैनिक कार्य करने वाले लुहार, कुम्हार, पशुपालक, व्यवसायी इत्यादि पकड़ पकड़ कर काटे गए। उनकी स्त्रियों को लूटा गया। उनके बच्चों को भाले की नोक पर टांग कर खेल खेला गया। चित्तौड़ को तहस नहस कर दिया गया।</div><div><br></div><div>और उधर सारंगपुर में बैठा बाबर का बेटा हुमायूँ इस जेहाद को चुपचाप देखता रहा, खुश होता रहा।</div><div><br></div><div>युग बीत गए पर भारत की धरती राजमाता कर्णावती के जलते शरीर की गंध नहीं भूली। फिर कुछ गद्दारों ने इस गन्ध को भुलाने के लिए कथा गढ़ी, “राजमाता कर्णावती ने हुमायूँ के पास राखी भेज कर सहायता मांगी थी।”</div><div><br></div><div>अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए मुँह में तुलसी दल ले कर अग्निकुंड में उतर जाने वाली देवियाँ अपने पति के हत्यारे के बेटे से सहायता नहीं मांगती पार्थ! राखी की इस झूठी कथा के षड्यंत्र में कभी मत फंसना...!</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-87693280393603647412023-08-03T14:34:00.000+05:302023-08-03T14:36:13.524+05:30जय दुअरा नाथ स्वामी...🚩🚩<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhnWp0HVdTLpCCO9E9U14EMjdpodoKgyUZNnUrOUvvYi1InNh89W1MpSdvfFatAn830jjduY39OLkGgytu6IfE0CsISh9xWB5MkZiDhWD3UL1q8smorExNsi5zCThQa7A0HbmDhArg4VkwHiWrBz2XOs7nwrqI3QO2x2UoA8A4Yz9Mv6sEale3laNeyalBh" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div>एक जगतदेवता के लोकदेवता बनने की पूर्णतः सत्य कहानी..🚩🚩</div><div><br></div><div>करीब 150/200 वर्ष पुरानी बात होगी । मेरे गांव से करीब 6km दूर के घनघोर जंगल में एक चरवाहा अपनी बकरियां चराने लाता था । प्रतिदिन एक पत्थर पर बैठकर रोटी खाया करता था, चूंकि घनघोर जंगल था /है । जब उसे शेर, बाघ,भालू, भूत, प्रेत आदि से डर लगता तो वह जय बजरंग बली, जय बजरंग करता और बजरंग बली जी को याद करता । </div><div> एक दिन बजरंग बली ने उसे स्वप्न दिया की "जिस पत्थर पर बैठ कर खाते हो वह मैं ही हूं" । अगले दिन वह चरवाहा गया और उस पत्थर को एक पेड़ के तने के सहारे टिका दिया और उस दिन से पूजा करने लगा । गरीब चरवाहा कहीं से सिंदूर और घी,लंगोट की व्यवस्था किया और पत्थर को सिंदूर लगाकर लंगोट पहना दिया । चूंकि जंगल में और चरवाहे भी जाते थे,यह बात धीरे धीरे फैली, तो अन्य लोग भी पूजा पाठ करना सुरु कर दिया । पूर्णत: चमत्कारी परिणाम आने लगा । कुछ माह बाद जब यह बात पास के 3km दूर गांव कल्याणपुर (कल्याणपुर बाघेल राजपूतों की 12 गांव की जागीर है) के बाघेल ठाकुर को पता चली तो उन्होंने उसी पेड़ से थोड़ा आगे एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया और हनुमान जी की एक मूर्ति लाकर प्राण प्रतिष्ठा करवा दिया और फिर हनुमान जी सच में उस पत्थर से निकलकर मूर्ति में प्रतिष्ठित हो गए ।</div><div>हमारे क्षेत्र में बहुत ही पूज्यनीय देवता हैं दुवरानाथ स्वामी ।। धीरे धीरे मंदिर के प्रति आस्था बढ़ती गई । मंदिर से कुछ km दूर गांव के एक भक्त श्री तिलकधारी जी पटेल ने पूर्व के बने छोटे से मंदिर के चारो तरफ मोटी सी दीवार खड़ी करवा दिया, ऊंचा सा चबूतरा बनवा दिया । </div><div> हमारे बाघेलखंड में देवी देवताओं को रोट (मोटी मोटी पूड़ी जिसमे हल्का सा गुड़ मिला देते हैं) पंजीरी चढ़ाने की परंपरा है । हनुमान जी को भक्तो ने रोट,पंजीरी चढ़ाना सुरु कर दिया । श्रावण मास में मेला लगने लगा और धीरे धीरे रोट चढ़ाने की परम्परा और बलवती होती गई । </div><div>मंदिर में बिराजे दुवरा नाथ स्वामी के प्रति इतनी आस्था बढ़ी की किसी के बीमार होने पर डाक्टर से पहले मंदिर जाकर या घर से दुवरानाथ स्वामी को मनौती मान देते । किसी के घर कोई मुसीबत आए तो दुवारा नाथ स्वामी को याद कर लिया और परिणाम इतना सकारत्मक है की आस्था दिनिदिन बढ़ती ही जा रही है । </div><div><br></div><div>(एक दिन पोस्ट में मुंबई के एक सेठ के लड़के की बीमारी के बारे में पोस्ट किया था, पढ़िएगा,बसरेही के डाक्टर पटेल जी )</div><div><br></div><div>अभी जिस दिन हमारे घर का आयोजित अखंड मानस था उसी दिन बगल में ही एक और अखंड मानस का पाठ चल रहा था क्षेत्र में एक सज्जन की कुछ भैंस गुम गई, उन्होंने दुवरानाथ स्वामी के पास जाकर मनौती किया और एक पंडित जी के पास पूछा तो पंडित जी ध्यान लगाकर कुछ देर बाद बोले "दूवरा नाथ स्वामी ला रहे है तुम्हारी सभी भैंस" और चमत्कार देखिए तीन दिन में उनकी सभी भैंस वापस आ गई तो उन्होंने तुरंत अखंड मानस सुरु करवा दिया । ऐसे ही अनगिनत चमत्कार किए है वीर बजरंगी यानी दुवरानाथ स्वामी ने ।।</div><div><br></div><div>एक वीडियो के आखिरी में छोटी चौकड़ी में लाल चंदन लगाएं बड़े भाई साहब रिटायर्ड डाक्टर है और उनके बगल में एक टोपी वाले व्यक्ति को छोड़कर सफेद बाल में प्रसाद लेने में मग्न भाई साहब रिटायर्ड रेंजर है । जब भाई साहब इसी वन क्षेत्र के रेंजर थे तब दुवरानाथ स्वामी के नाम पर 30 एकड़ भूमि कर दिया था जिससे किसी निर्माण कार्य के लिए वन विभाग से स्वीकृत के लिए नही जाना पड़े ।।</div><div><br></div><div> मेरे भतीजे अमेरिका में साफ्टवेयर इंजीनियर है, दादा यानी बड़े भाई ने उनके बेटे (नाती) को लेकर कोई मनौती मान दिया था, उसी मनौती को पूरा करने के लिए भतीजे अमेरिका से आए हैं, अखंड मानस और फिर भंडारे का आयोजन किया । उसी भंडारे के आयोजन में सामिल होने के लिए यहां सपरिवार हम आए हुए हैं ।</div><div>और दो दिन इतनी व्यस्तता रही की एक भी एफबी पोस्ट और वाट्सअप स्टेट्स नही डाल सका ।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div>पूर्ण जानकारी के लिए मेरे फेसबुक पेज #NSB से जुड़िए 🙏</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-58837824889307156102023-07-29T07:42:00.001+05:302023-07-29T07:42:33.697+05:30रानी अबक्का चौटा' (Abbakka Chowta)<div>साल था 1555 जब पुर्तगाली सेना कालीकट, बीजापुर, दमन, मुंबई जीतते हुए गोवा को अपना हेडक्वार्टर बना चुकी थी। टक्कर में कोई ना पाकर उन्होंने पुराने कपिलेश्वर मंदिर को ध्वस्त कर उस पर चर्च स्थापित कर डाली।</div><div><br></div><div>मंगलौर का व्यवसायिक बंदरगाह अब उनका अगला निशाना था। उनकी बदकिस्मती थी कि वहाँ से सिर्फ 14 किलोमीटर पर 'उल्लाल' राज्य था जहां की शासक थी 30 साल की रानी 'अबक्का चौटा' (Abbakka Chowta).।</div><div><br></div><div>पुर्तगालियों ने रानी को हल्के में लेते हुए केवल कुछ सैनिक उसे पकडने भेजा। लेकिन उनमेंसे कोई वापस नहीं लौटा। क्रोधित पुर्तगालियों ने अब एडमिरल 'डॉम अल्वेरो ड-सिलवीरा' (Dom Álvaro da Silveira) के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। शीघ्र ही जख्मी एडमिरल खाली हाथ वापस आ गया। इसके बाद पुर्तगालियों की तीसरी कोशिश भी बेकार साबित हुई।</div><div><br></div><div>चौथी बार में पुर्तगाल सेना ने मंगलौर बंदरगाह जीत लिया। सोच थी कि यहाँ से रानी का किला जीतना आसान होगा, और फिर उन्होंने यही किया। जनरल 'जाओ पिक्सीटो' (João Peixoto) बड़ी सेना के साथ उल्लाल जीतकर रानी को पकड़ने निकला।</div><div><br></div><div>लेकिन यह क्या..?? किला खाली था और रानी का कहीं अता-पता भी ना था। पुर्तगाली सेना हर्षोल्लास से बिना लड़े किला फतह समझ बैठी। वे जश्न में डूबे थे कि रानी अबक्का अपने चुनिंदा 200 जवान के साथ उनपर भूखे शेरो की भांति टूट पड़ी।</div><div><br></div><div>बिना लड़े जनरल व अधिकतर पुर्तगाली मारे गए। बाकी ने आत्मसमर्पण कर दिया। उसी रात रानी अबक्का ने मंगलौर पोर्ट पर हमला कर दिया जिसमें उसने पुर्तगाली चीफ को मारकर पोर्ट को मुक्त करा लिया।कालीकट के राजा के जनरल ने रानी अब्बक्का की ओर से लड़ाई लड़ी और मैंगलुरु में पुर्तगालियों का किला तबाह कर दिया। लेकिन वहाँ से लौटते वक्त जनरल पुर्तगालियों के हाथों मारे गए।</div><div><br></div><div>अब आप अन्त जानने में उत्सुक होंगे..??</div><div><br></div><div>रानी अबक्का के देशद्रोही पति लक्षमप्पा ने पुर्तगालियों से धन लेकर उसे पकड़वा दिया और जेल में रानी विद्रोह के दौरान मारी गई।</div><div><br></div><div>क्या आपने इस वीर रानी अबक्का चौटा के बारे में पहले कभी सुना या पढ़ा है..?? इस रानी के बारे में जो चार दशकों तक विदेशी आततायियों से वीरता के साथ लड़ती रही, हमारी पाठ्यपुस्तकें चुप हैं। अगर यही रानी अबक्का योरोप या अमेरिका में पैदा हुई होती तो उस पर पूरी की पूरी किताबें लिखी गई होती।</div><div>है।</div><div>आज भी रानी अब्बक्का चौटा की याद में उनके नगर उल्लाल में उत्सव मनाया जाता है और इस ‘वीर रानी अब्बक्का उत्सव’ में प्रतिष्ठित महिलाओं को ‘वीर रानी अब्बक्का प्रशस्ति’ पुरस्कार से नवाज़ा जाता है।</div><div><br></div><div>इस कहानी से दो बातें साफ हैं..</div><div><br></div><div>हमें हमारे गौरवपूर्ण इतिहास से जानबूझ कर वन्चित रखा गया है। "रानी अबक्का चौटा" के बारे में "कुछ लोग" तो शायद पहली बार ही ये सुन रहे होगे, ये हमारी 1000 साल की दासता अपने ही देशवासियों (भितरघातियों) के विश्वासघात का नतीजा है। दुर्भाग्य से यह आज भी यथावत है..🙏🙏</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-37751024082517365332023-07-28T12:58:00.001+05:302023-07-28T12:58:38.571+05:30नेहरू की पोल ।।<div> </div><div>थ्रिलर सिनेमा का शौक हो तो नेहरू खानदान को पढ़ लीजिए रोम रोम में सनसनी दौड़ जाती है। किसी जर्नलिस्ट की बहुत पुरानी पोस्ट कहीं दिखी तो पढ़ते पढ़ते पोस्ट करने की इच्छा को दबा न पाए...</div><div><br></div><div>पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने आए हैं क्या?</div><div><br></div><div>जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे। नाते-रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। </div><div><br></div><div>अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके। अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने आए हैं क्या ? </div><div><br></div><div>हंसकर सवाल टालते हुए कहा कि मैडम ऐसा नहीं है, बस बाल कि खाल निकालने कि आदत है इसलिए मजबूर हूं। यह सवाल काफी समय से खटक रहा था। कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज कि किताब ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित। उस किताब मे तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा था। जिसके अनुसार गंगाधर असल में मुसलमान थे जिनका असली नाम था गयासुद्दीन गाजी। इस फोटो को दिखाते हुए हाफीजा ने कहा कि इसकी पुष्टि के लिए नेहरू ने जो आत्मकथा लिखी है, उसको पढऩा जरूरी है। नेहरू की आत्मकथा भी अपने रैक से निकालते हुए एक पेज को पढऩे को कहा। इसमें एक जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के पिता गंगाधर थे। इसी तरह जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत बहादुरशाह जफर के समय में नगर कोतवाल थे। अब इतिहासकारो ने खोजबीन की तो पाया कि बहादुरशाह जफर के समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं था और खोजबीन करने पर पता चला कि उस वक्त के दो नायब कोतवाल हिन्दू थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे। लेकिन किसी गंगाधर नाम के व्यक्ति का कोई रिकार्ड नहीं मिला है। </div><div><br></div><div>नेहरू राजवंश की खोज में मेहदी हुसैन की पुस्तक बहादुरशाह जफर और 1857 का गदर में खोजबीन करने पर मालूम हुआ कि गंगाधर नाम तो बाद में अंग्रेजों के कहर के डर से बदला गया था, असली नाम तो था गयासुद्दीन गाजी। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगा धर को अंग्रेजों ने रोककर पूछताछ की थी लेकिन तब गंगा धर ने उनसे कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं कश्मीरी पंडित हैं और अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया बाकी तो इतिहास है ही। </div><div><br></div><div>एक कप चाय खत्म हो गयी थी, दूसरी का आर्डर हाफीजा ने देते हुए के एन प्राण कि पुस्तक द नेहरू डायनेस्टी निकालने के बाद एक पन्ने को पढऩे को दिया। उसके अनुसार जवाहरलाल मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर। यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल कि एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू। कमला नेहरू उनकी माता का नाम था, जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी।कमला शुरु से ही इन्दिरा के फिरोज से विवाह के खिलाफ थीं क्यों यह हमें नहीं बताया जाता। लेकिन यह फिरोज गाँधी कौन थे ? </div><div><br></div><div>सभी जानते हैं की राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के साथ ही दादा भी तो होते हैं। फिर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या था? किसी को मालूम नहीं, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब, एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाई करता था और जिसका मूल निवास जूनागढ गुजरात में था। नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया। फिरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था घांदी (गाँधी नहीं)घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था। विवाह से पहले फिरोज गाँधी ना होकर फिरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था। </div><div><br></div><div>हमें बताया जाता है कि फिरोज गाँधी पहले पारसी थे यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है। फिरोज खान ने इन्दिरा को बहला फुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली। नाम रखा मैमूना बेगम। नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल पीले हुए लेकिन अब क्या किया जा सकता था। जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने नेहरू को बुलाकर समझाया। राजनैतिक छवि की खातिर फिरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले, यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये बजाय धर्म बदलने के सिर्फ नाम बदला जाये तो फिरोज खान घांदी बन गये फिरोज गाँधी। </div><div><br></div><div>विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और सत्य के साथ मेरे प्रयोग नामक आत्मकथा लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक नहीं नहीं किया। खैर उन दोनों फिरोज और इन्दिरा को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुन: वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक का भ्रम बना रहे। </div><div><br></div><div>इस बारे में नेहरू के सेकेरेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक प्रेमेनिसेन्सेस ऑफ नेहरू एज ;पृष्ट 94 पैरा 2 (अब भारत में प्रतिबंधित है किताब) में लिखते हैं कि पता नहीं क्यों नेहरू ने सन 1942 में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी जबकि उस समय यह अवैधानिक था।कानूनी रूप से उसे सिविल मैरिज होना चाहिये था। </div><div><br></div><div>यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फिरोज अलग हो गये थे। हालाँकि तलाक नहीं हुआ था। फिरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे। तंग आकर नेहरू ने फिरोज के तीन मूर्ति भवन मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। मथाई लिखते हैं फिरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बड़ी राहत मिली थी। 1960 में फिरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी जबकी वह दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे। </div><div><br></div><div>संजय गाँधी का असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था, अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता। लेकिन संजय नाम रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था। ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था, इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था। </div><div><br></div><div>एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ 206 पर लिखते हैं - 1948 में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक नाम श्रद्धा माता था। वह संस्कत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे। वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृत की अच्छी जानकार थी। नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक इंटरव्यू देने को राजी हुए। चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था। नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये। मथाई के शब्दों में एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा वह बहुत ही जवान खूबसूरत और दिलकश थी। एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर नेहरू के पास आये नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया और अचानक एक दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं, किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं।</div><div><br></div><div>नवम्बर 1949 में बेंगलूर के एक कान्वेंट से एक सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर आया। उसने कहा कि उत्तर भारत से एक युवती उस कान्वेंट में कुछ महीने पहले आई थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया। उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को वहाँ छोडकर गायब हो गई थी। उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया। </div><div><br></div><div>मथाई लिखते हैं, मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफी कोशिश की लेकिन कान्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस जो कि एक विदेशी महिला थी बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक शब्द भी किसी से नहीं कहा लेकिन मेरी इच्छा थी कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन कथोलिक संस्कारो में बड़ा करूँ चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था। </div><div><br></div><div>नेहरू राजवंश की कुंडली जानने के बाद घड़ी की तरफ देखा तो शाम पांच बज गए थे, हाफीजा से मिली ढेरों प्रमाणिक जानकारी के लिए शुक्रिया अदा करना दोस्ती के वसूल के खिलाफ था, इसलिए फिर मिलते हैं कहकर चल दिए अमर उजाला जम्मू दफ्तर की ओर ।।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-20538570337174755752023-07-26T21:17:00.000+05:302023-07-26T21:18:19.743+05:30सच्चे दिल से याद करें,प्रभु जरूर आयेंगे ।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjR8O7uY0bk58hMj6XHiDZ96mYZJ4NfdZrH-7FLf-WcHs8dh21HP41QQ0h7JE3Ny51_Wdtz4dWjVD6nglEz0HCaldBYnJj8bkd_u9Dc_Tw2B2k-A_QKgDkz7p-Ml6soteqRyoNRGC8yTP9I1KlTu8rj5pKxPQzvok-hqgbSJU3l3GJddiF4VmvbyqQrYzs9" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjR8O7uY0bk58hMj6XHiDZ96mYZJ4NfdZrH-7FLf-WcHs8dh21HP41QQ0h7JE3Ny51_Wdtz4dWjVD6nglEz0HCaldBYnJj8bkd_u9Dc_Tw2B2k-A_QKgDkz7p-Ml6soteqRyoNRGC8yTP9I1KlTu8rj5pKxPQzvok-hqgbSJU3l3GJddiF4VmvbyqQrYzs9" width="400">
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</div><div>(पढ़ते पढ़ते मेरी आंखे छलक पड़ी) ।।</div><div><br></div><div>श्री अयोध्या जी में 'कनक भवन' एवं 'हनुमानगढ़ी' के बीच में एक आश्रम है जिसे 'बड़ी जगह' अथवा 'दशरथ महल' के नाम से जाना जाता है।</div><div><br></div><div> काफी पहले वहाँ एक सन्त रहा करते थे जिनका नाम था श्री रामप्रसाद जी। उस समय अयोध्या जी में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी। ज्यादा लोग नहीं आते थे। </div><div>श्री रामप्रसाद जी ही उस समय बड़ी जगह के कर्ता धर्ता थे। वहाँ बड़ी जगह में मन्दिर है जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई (श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत एवं श्री शत्रुघ्न जी) एवं हनुमान जी की सेवा होती है। चूंकि सब के सब फक्कड़ सन्त थे... तो नित्य मन्दिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था उसी से मन्दिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था।</div><div><br></div><div>प्रतिदिन मन्दिर में आने वाला सारा चढ़ावा एक बनिए (जिसका नाम था पलटू बनिया) को भिजवाया जाता था। उसी धन से थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था... उसी का भोग-प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और जो भी सन्त आश्रम में रहते थे वे खाते थे। </div><div>एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मन्दिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ जोड़ा गांठा तो था नहीं... तो क्या किया जाए...? कोई उपाय ना देखकर श्री रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेज के कहलवाया कि भइया आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है...</div><div> अतः</div><div>थोड़ा सा राशन उधार दे दो... कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए। पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महन्त जी का लेना देना तो नकद का है... मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा।</div><div><br></div><div>श्री रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो "जैसी भगवान की इच्छा" कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। सारे साधु भी जल पी के रह गए। प्रभु की ऐसी परीक्षा थी कि रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए। वहाँ मन्दिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुन्दर पीताम्बर ओढ़ाया जाता था तथा शयन आरती के बाद श्री रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घण्टा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे। पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए।</div><div><br></div><div>धीरे-धीरे करके रात बीतने लगी। करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं, 'अरे पलटू... पलटू सेठ... अरे दरवाजा खोल...।' </div><div><br></div><div>उसने हड़बड़ा कर खीझते हुए दरवाजा खोला। सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे... अभी इनकी अच्छे से डांट लगाऊँगा। जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी... एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं।</div><div><br></div><div>वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। उनकी छवि इतनी मोहक... ऐसी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा, </div><div>'बच्चों...! तुम हो कौन और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो...?'</div><div>बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले, हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं... इसका कोना खोलो... इसमें सोलह सौ रुपए हैं... निकालो और गिनो।' ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी। </div><div><br></div><div> जल्दी जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चांदी के सोलह सौ सिक्के निकले। प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने कहा, 'इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना।'</div><div><br></div><div>अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई, 'हाय...! आज मैंने राशन नहीं दिया... लगता है महन्त जी नाराज हो गए हैं... इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए।' पश्चाताप, संकोच और प्रेम के साथ उसने हाथ जोड़कर कहा, 'बच्चों...! मेरी पूरी दुकान भी उठा कर मैं महन्त जी को दे दूँगा तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते-देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा।'</div><div><br></div><div>बच्चों ने कहा, 'ठीक है... आप एक साथ मत दीजिए... थोड़ा-थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह-सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा... आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा।' पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए। </div><div><br></div><div>वो फिर हाथ जोड़कर बोला, 'जैसी महन्त जी की आज्ञा।' इतना कह सुन के वो बच्चे चले गए लेकिन जाते जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए।</div><div><br></div><div>इधर सवेरे सवेरे मंगला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मन्दिर के पट खोले तो देखा भगवान का पीताम्बर गायब है। उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया। जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवा के कृतज्ञता के साथ हाथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।</div><div><br></div><div>रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था। वे पूछें, 'क्या हुआ... अरे किस बात की माफी मांग रहा है।' पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे, 'महाराज रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी... मैं कान पकड़ता हूँ आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा और ये रहा आपका पीताम्बर... वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे... बड़े प्यारे बच्चे थे... इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये... </div><div><br></div><div> आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ।' जब रामप्रसाद जी ने वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मन्दिर का ही है जो गायब हो गया था। अब वो पूछें कि, 'ये तुम्हारे पास कैसे आया?' तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई। </div><div>अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मन्दिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि, 'हे भक्तवत्सल...! मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और कष्ट उठाया सो उठाया मैंने जीवन भर आपकी सेवा की... मुझे तो दर्शन ना हुआ... और इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए।'</div><div><br></div><div>जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा वे तो त्रिभुवन के नाथ थे... अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। अब तो वे दोनों ही लोग बैठ कर रोएँ। इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई। आज तक वहाँ सन्त सेवा होती आ रही है। इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में श्री पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए।</div><div><br></div><div>श्री रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। संसार के लिए तो वे मूर्छित थे किन्तु मूर्च्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ और उसी दर्शन में श्री जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा अपनी ऊँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ।</div><div>वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव... ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आए परन्तु प्रभु जानबूझकर इन्हें भेजते हैं ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं... वे सतर्क हो जाएं... उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न हो सके।जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया ऐसे ही हमारा भी कर दे..!!</div><div>‼️🙏जय सियाराम🙏‼️</div><div>#NSB</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-18055323121094030242023-07-26T07:56:00.001+05:302023-07-26T07:56:08.376+05:30माननीय CJI साहब से मेरे सवाल 🙏<div>जज साहब मणिपुर मामले पर गुस्सा हो गए हैं ।</div><div>लेकिन मेरे सवाल हैं माननीय CJI साहब और न्यायपालिका से</div><div>- जज साहब, आप गुस्सा होने के बजाय जल्दी फैसले सुनाने का प्रबंध क्यों नहीं करते ?</div><div>- आप गुस्सा होने के बजाय कुछ ऐसा क्यों नहीं करते कि अदालत के चक्कर काटते हुए आम नागारिक की चप्पलें न घिसें ?</div><div>-जैसे आपने तिस्ता सीतलवाद के लिये समय निकाला वैसे आम नागरिकों के लिये समय क्यों नहीं निकालते ? </div><div>- आप गुस्सा होने के बजाय आम आदमी को तारीख पर तारीख देने के सिस्टम में बदलाव क्यों नहीं करते ?</div><div>- जज साहब, आप गुस्सा होने के बजाय बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने का आदेश क्यों नहीं देते ?</div><div>- जज साहब, निर्भया के बलात्कारियों के बाद किसी भी अन्य बलात्कारी को फांसी पर क्यों नहीं लटकाया गया ?</div><div>- जज साहब आप गुस्सा हो रहे हो न ? जबकि दिल्ली की ही अदालत ने श्रद्धा के 35 टुकड़े करने वाले आफताब को फांसी पर लटकाने का फैसला देने के बजाय उसे गर्म कपड़े और किताबें देने का निर्देश दिया था</div><div>गुस्सा करने वाले जज साहब आपको याद है न ? </div><div>- 2021 में बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद हुई हिंसा में 7 हजार महिलाओं के साथ अत्याचार किया था (Source: फैक्ट फाइंडिंग कमेटी) लेकिन आप न तो गुस्सा हुए और न ही सजा सुनाई</div><div>- बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद 60 साल की बूढ़ी दादी का उनके पोते के सामने घर में घुसकर गैंगरेप किया था, आपको गुस्सा क्यों नहीं आया? अगर आया तो अभी तक उन हैवानों को तारीख पर तारीख देने के बजाय फांसी की सजा क्यों नहीं सुनाई ?</div><div>- बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद 17 साल की नाबालिग किशोरी को घर से घसीटकर जंगल ले जाया गया जहां उसके साथ 5 लोगों ने गैंगरेप किया, आपको गुस्सा क्यों नहीं आया? अगर गुस्सा आया तो अभी तक फांसी की सजा क्यों नहीं सुनाई ?</div><div>- नादिया में नाबालिग किशोरी के साथ TMC नेता के बेटे की जन्मदिन पार्टी में गैंगरेप किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गई जिस पर CM ममता बनर्जी ने कहा कि ये तो लव अफेयर था. इस पर आपको गुस्सा क्यों नहीं आया जज साहब ? अगर आया तो उन हैवानों को अभी तक फांसी पर क्यों नहीं लटकाया गया ?</div><div>माननीय CJI साहब क्या आप बताएंगे कि</div><div>- दिल्ली में साक्षी को साहिल ने चाकुओं से गोदकर, पत्थर से कुचलकर मार डाला. क्या आपको इस पर गुस्सा नहीं आया जज साहब ? अगर आया तो सारे प्रमाण सामने होने के बाद भी अभी तक साहिल को फांसी पर क्यों नहीं लटकाया गया ?</div><div>- चंद्रचूड़ साहब, 8 जुलाई को बंगाल के हावड़ा में TMC नेताओं ने एक महिला के कपड़े फाड़े, उसके शरीर को नोंचा और निर्वस्त्र कर गांव में घुमाया. इस आपको गुस्सा क्यों नहीं आया ?</div><div>- कन्हैयालाल, उमेश कोल्हे, निशांक राठौर, प्रवीण नेत्तारू, शानू पांडेय की हत्या/सर तन से जुदा पर आपको गुस्सा नहीं आया जज साहब ? अगर आया तो सारे प्रमाण सामने होने के बाद भी इनके हैवानों को अभी तक फांसी क्यों नहीं दी गई ?</div><div>- जज साहब, भारतवर्ष की हजारों बेटियां हैं, जो रेप/गैंगरेप की शिकार हैं. न्याय का इंतजार कर रही हैं लेकिन आपको इस पर गुस्सा क्यों नहीं आता जज साहब ? क्यों बलात्कार के मामलों में जल्द सुनवाई कर न्याय सुनिश्चित नहीं किया जाता ?</div><div>- जज साहब, 90 के दशक का अजमेर रेप कांड सुना है आपने ? 250 से ज्यादा बेटियों का रेप/गैंगरेप किया गया था. 30 साल बाद भी एक भी सिंगल बलात्कारी को फांसी नहीं हुई है. क्या आपको इस पर गुस्सा नहीं आता जज साहब ?</div><div>जज साहब, मैं भारतवर्ष का एक आम नागरिक हूं, मणिपुर की घटना पर आपको गुस्सा आ गया तो मुझे भी आ गया, इसलिए मैंने गुस्से में ही ये सवाल पूछे हैं. क्या आप जवाब देंगे जज साहब ? अगर दे पाए तो मुझे लगता है कि देश अति प्रसन्न होगा जज साहब</div><div>CJI साहब,अगर आपको सच मे गुस्सा आ रहा है न तो एक काम करो. रेप के जिन मामलों में सीधे प्रमाण उपस्थित हैं, उनको तारीख पर तारीख देने के बजाय फैसला सुनाओ, बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाओ</div><div>जिस दिन नियमित अंतराल पर बलात्कारी फांसी पर झूलने लग जाएंगे,बहन-बेटियां सुरक्षित हो जाएंगी, निर्वस्त्र कर उनकी परेड निकालने की हिम्मत कोई नहीं कर पाएगा वैसे लगता नहीं है कि आप ऐसा कर पाएंगे क्योंकि न्यायपालिका की क्रेडिबिलिटी आम जन के बीच खत्म सी हो चुकी है. इसका कारण यही है कि जज साहब को भी नेताओं और अभिनेताओ की तरह सेलेक्टिव मामलों पर गुस्सा आता है।अतः मैं सभी ग्रुप के सदस्यों से विनती करूंगा इसी पोस्ट को माननीय नायमूर्ति तक पहुंच जाए। </div><div>जय श्रीराम ....</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-35470247466221634542023-07-25T06:07:00.000+05:302023-07-25T06:08:07.079+05:30मेरी टीवी कथा....😀<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjdtfxpIOjA7DonZOMBtmjZZXi5xYE9TS3KTYxiKC7tZiGzEQsYRytd4cjRS7lG3ky0dSy6h5_jB_GqWvj0r6_H_szgWGSiZflduQqz0S3t7MkX_ya_RSTe_w1Y8ntuZSKbD_7M7aQcEo8P7zhAhdo5-UAST9SW83rT4EGsYQVjJ7XnZtJB5wHbOaidxaLv" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div>आज यह फोटो देखा तो एक घटना याद आ गई ।।</div><div>रामायण सीरियल चल रहा था मेरे मकान मालिक के घर भी टीवी नही थी । तो उनके साथ पड़ोस में जाकर देखते थे । रविवार को सुबह ही नहा धोकर तैयार हो जाते थे और सीरियल सुरु होने के पहले ही पड़ोस में जाकर अपनी सीट सुरक्षित कर लेते थे फर्स पर । <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div><div> सीरियल सुरु होने के पांच मिनट पूर्व ही गृहस्वामिनी टीवी के पास पूजा वाली थाली सजा कर रख लेती थी । सीरियल सुरु होते ही गृहस्वामिनी धूप, दीप, जलाकर आरती करती और फिर जब तक सीरियल चलता तब तक ऐसा सन्नाटा छा जाता रूम में की एक दूसरे की सांस लेने की आवाज तक सुनाई दी जाती । यदि कोई खांसने लगता तो सभी उसी को घूर कर देखने लगते और यदि किसी ने पूं पां कर दिया तो उसे तुरंत उठाकर बाहर कर देते । कभी कभी तो मुझे भी इस विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ता तो बड़ी कुशलता के साथ पृष्ठ भाग को एक किनारे से हल्का सा उठा कर वायु निर्गमन कर प्रदूषण फैला देता, दबाते रहो जिसे अपनी नाक दबाना हो ।।</div><div><br></div><div>वैसे तो इस कुकृत्य के लिए विज्ञापन का समय चुनता ।</div><div><br></div><div>एक बार पड़ोसी गांव चले गए । अब इस रविवार को कहां देखा जाय रामायण ? </div><div> चूंकि अपुन रंगरूट/बैचलर किराएदार थे इस लिए आस पास वाले ज्यादा भाव नही देते थे । इस लिए कहीं जुगाड नही लगा तो हमारी मित्र मंडली (पांच लोग) पास में ही सिंधी की किराना की दुकान के सामने ही जम गए । चूंकि हम सिंधी के यहां से किराना का समान बहुत कम लेते थे इस लिए सिंधी भी ज्यादा भाव नही देता था । </div><div> अब रोड में खड़ी भीड़ बात चीत लिए बिना रह नहीं सकती, तो आवाज साफ साफ सुनाई नही देती । कुछ देर बाद मैने सिंधी को बोला "भैया थोड़ा आवाज बढ़ा दीजिए, सुनाई नही दे रहा है" । सिंधी मेरी आवाज तो सुना पर इग्नोर कर दिया तो दुबारा फिर से बोला तो बड़ी अकड़ के साथ बोला "जाकर तेरे घर में देख ले, मेरी टीवी में इतनी ही आवाज है" । "तेरे" शब्द सुनते ही तन बदन में आग लग गई । मैं भी अकड़ गया और जोर से चिल्लाकर बोला "ओए,जरा तमीज से बात कर" । सिंधी और जोर से चिल्लाया, सिंधी को लगा की ये तो यहां कालोनी में नया नया किराये दार है, बाहरी है फिर भी चिल्ला रहा है, इस लिए सिंधी जोर से चिल्लाया और बोला "चल हट यहां से नही तो अभी....." बस इतना बोलकर चुप हो गया । अब मैं खड़े हुए लोगो के बीच से आगे बढ़ा और काउंटर में बैठा सिंधी के पास गया और बोला "अब बोल" । सिंधी कुछ बोलता उसके पहले ही गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया । लो हो गई रामायण की जगह महाभारत । सिंधी जब तक मुझे मारता मैने फिर से धर दिया । अब पकड़ा पकड़ी हुई, मेरे रिवाड़ी (रीवा) संगी साथी मुझे पकड़ कर ले आए कमरे में । सीरियल समाप्त होने के कुछ देर बाद सिंधी मकान मालिक के पास आया और पूरी बात बताया और कमरा खाली करवाने के लिए बोला । मकान मालिक के कुछ बोलते उसके पहले ही उनकी छोटी लड़की मनु बोल दिया " बघेल भईया से कमरा खाली नहीं करवाऊंगी" । मनु ने बोल दिया, यानी यही होगा, मकान मालिक कुछ नही बोले तो सिंधी फिर बोला "इसको निकालो तुम्हारे घर से" । मकान मालिक बोले "मनु से बात करो" । सिंधी तुनक कर चला गया ।</div><div>दरअसल मकान मालिक बिधुर थे तीन लड़कियों में दो को शादी कर दिया , मनु बहुत लाड़ की थी, उसकी बात टालते नही थे ।।</div><div>शाम को हम रीवा वाले आठ दस नए नए रंगरूट इकट्ठे हुए और टीवी खरीदने का प्लान बन गया । बाजार गए और टीवी का रेट पता लगा आए । "Crown" ब्लैक & व्हाइट टीवी (सटर वाली) 3650/ रू की पसंद आई । 3650/ रू 1988 में बहुत होते थे ।।</div><div> चूंकि तब हम लोगो की अधिकतम सेलरी 300/ रू थी, जी हां 300/ रू. । सबने अपनी अपनी बचत बता दिया । सुबह हम सभी ड्यूटी चले गए । और ड्यूटी के बाद 5 बजे फिर सभी मेरे कमरे में इकठ्ठे हुए और सबने अपनी बचत रख दिया । कुल 3600 रू हो गए । हम 8 लोग टीवी खरीदने गए और ठेले में टीवी रखकर ले आए 😀😀 । दुकान वाले ने 50/ रू की छूट दिया ।।</div><div><br></div><div>ठेले में टीवी आते देख मुहल्ले के बच्चे दौड़ पड़े "बघेल भईया टीवी लाए,बघेल भईया टीवी लाए" । सिंधी के साथ मारपीट से लोग मुझे और मेरा उपनाम जानने लगे ।</div><div> टीवी ले तो आए पर ये तो सोचा ही नही था कि रखेंगे किधर, क्योंकि हमारे दस बाय 12 SQ फिट के कमरे में तीन रूम पार्टनर ओ भी जमीन में बिस्तर लगे ।</div><div>मकान मालिक के कुल तीन तो कमरे, एक में हम किरायेदार बाकी दो कमरे मकान मालिक यूज करते । </div><div>खैर मकान मालिक के आगे वाले कमरे में टीवी एक टेबल पर रख दिया । बड़ी मुस्किल से एंटीना लगाया और हो गई टीवी सुरु । </div><div>टीवी लाने वाली बात हमारे रीवा वालों के बीच चर्चा की विषय बन गया, क्योंकि मुझे नौकरी किए हुए मात्र 7 माह ही हुआ था । इतनी जल्दी इतनी मंहगी टीवी कैसे ले आए ? इतने रुपए कहां पाए ?? आदि आदि....चर्चाएं चली...।</div><div>अगले रविवार को OMG.... हमारे रीवा के जितने भी बैचलर लड़के थे सभी आ धमके रामायण देखने...😀😀</div><div>बैठने की तो छोड़िए, कमरे में खड़े होने की जगह नही थी । </div><div>हालांकि टीवी लाने के 3 सप्ताह बाद ही मकान मालिक का रूम छोड़कर पास में ही ठाकुर भवन में आ गया रहने । </div><div>और यहां पर एक साल में तीन लोहे की पलंग टूटी थी 😀🤣 क्योंकि एक पलंग में आठ दस लोग बैठ जाते थे ।</div><div><br></div><div>टीवी लाने के बाद एक दिन हम पांच छः रिवाड़ी भाई सिंधी की दुकान में गए और मैं बोला "आपकी टीवी में आवाज कम हो तो मेरे रूम में देख लिया करें रामायण" । सिंधी कुछ नही बोला हम अकड़ते हुए आ गए उसकी दुकान से ।</div><div>तो ये थी टीवी कथा...😀</div><div>#NSB</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8434570114300206761.post-74748097569978934632023-07-05T04:51:00.001+05:302023-07-05T04:51:40.873+05:30जमीन के बदले रेलवे में नौकरी (लालू यादव का घोटाला)<div>1.) 2007 में पटना के हजारी राय ने 9527 वर्ग फीट जमीन एके इन्फोसिस्टम प्राइवेट लिमिटेड को ₹10.83 लाख में बेच दी। बाद में हजारी राय के दो भतीजों दिलचंद कुमार और प्रेमचंद कुमार को रेलवे में नौकरी मिली। 2014 में इस कंपनी सारे अधिकार और उसकी सारी संपत्तियाँ राबड़ी देवी और मीसा भारती के नाम पर चली गईं। राबड़ी देवी ने इस कंपनी के ज्यादातर शेयर खरीद लिए और इस कंपनी की डायरेक्टर बन गईं।</div><div><br></div><div>2.) नवंबर 2007 में पटना की रहने वाली किरण देवी ने अपनी 80,905 वर्ग फीट की जमीन मीसा भारती के नाम पर कर दी। यह सौदा सिर्फ ₹3.70 लाख में हुआ था। बाद में किरण देवी के बेटे अभिषेक कुमार को मुंबई में रेलवे में नौकरी मिली।</div><div><br></div><div>3.) फरवरी 2008 को पटना के किशुन देव राय ने अपनी 3375 वर्ग फीट जमीन ₹3.75 लाख में राबड़ी देवी को बेच दी। इसके बदले में किशुन राय के परिवार के तीन लोगों को रेलवे में नौकरी दी गई।</div><div><br></div><div>4.) फरवरी 2008 में पटना के महुआबाग में रहने वाले संजय राय ने 3375 वर्ग फीट की अपनी प्लॉट को राबड़ी देवी को ₹3.75 लाख में बेच दी। इसके बदले में संजय राय और उनके परिवार के 2 सदस्यों को रेलवे में नौकरी दी गई थी।</div><div><br></div><div>5.) मार्च 2008 में ब्रिज नंदन राय ने 3375 वर्ग फीट की अपनी जमीन गोपालगंज के रहने वाले ह्रदयानंद चौधरी को ₹4.21 लाख में बेच दी (तत्कालीन असली कीमत: ₹62 लाख)। बाद में ह्रदयानंद चौधरी ने यह जमीन लालू यादव की बेटी हेमा को तोहफे में दे दी। ह्रदयानंद चौधरी को साल 2005 में हाजीपुर में रेलवे में भर्ती किया गया था।</div><div><br></div><div>6.) मार्च 2008 में विशुन देव राय ने अपनी 3375 वर्ग फीट की जमीन सीवान के ललन चौधरी को बेची। उसी साल ललन के पोते पिंटू कुमार को पश्चिमी रेलवे में भर्ती कराया गया। फरवरी 2014 में ललन चौधरी ने यह जमीन लालू यादव की बेटी हेमा को गिफ्ट कर दी।</div><div><br></div><div>7.) मई 2015 में पटना के रहने वाले लाल बाबू राय ने अपनी 1360 वर्ग फीट जमीन राबड़ी देवी को ₹13 लाख में बेच दी। 2006 में लाल बाबू राय के बेटे लाल चंद कुमार को रेलवे में नौकरी दी गई थी।</div>Unknownnoreply@blogger.com0