बुधवार, 6 जून 2012

गोधरा काण्ड का सच

गोधरा काण्ड का सच- दंगे में 1004 लोग मारे गये, 12548 लोग घायल, 223 लापता, 919 महिलायें विधवा हुईं और 606 बच्चे अनाथ.....


गोधरा काण्ड भारतीय इतिहास का वो काला दिन जो मानो गुजरात की सरकार को चारो चारो तरफ से सवालो को घेरे में लाकर खड़ा कर दिया। दंगों को कभी भी और किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकताचाहे वो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बंटवारे के समय हुए होंया नौआखली में हुआ हिंदुआ का कत्लेआम होया 1984 में सिखों का कत्लेआम. हमेशा से भारत में साम्प्रदायिक दंगे होते रहे और उन पर राजनीति भी लीपापोती हुई और सब समाप्त लेकिन 2002 में गुजरात में हुए दंगों में कुछ अलग ही हुआ जो मानो भारतीय में सबस बड़ा काला दिन माना गया हो।  दंगों में कुल 1044 लोग मारे गएजिनमें 720 मुस्लिम और 254 हिन्दू थे. 12548 घायल223 लापता919 महिलायें विधवा हुईं और 606 बच्चे अनाथ. सात साल बाद लापता लोगों को भी मृत मान लिया गया और मृतकों की संख्या 1267  हो गयी. 1 मार्च 2011 को  विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 11 को फांसी20 को उम्रकैद की सजा सुनाई।   पुलिस ने दंगों को रोकने में लगभग 10000 राउण्ड गोलियां चलायींजिनमें जिनमें 96  मुसलमानों और 77 हिन्दुओं की मौत हुई. दंगों के दौरान 17947  हिन्दुओं और 3616 मुस्लिमों को गिरफ्तार किया गया बाद में कुल मिला कर 27901 हिन्दुओं को और 7651 मुस्लमों को गिरफ्तार किया गया.

 


कैसे शुरू हुआ दंगा
27 फरवरी 2002 के गोधरा काण्ड में 57 हिन्दू जलाकर मारे गए जिसमें 25 औरतें और 15 बच्चे भी शामिल थे. जिसके उपरान्त 27 फरवरी 2002 को अहमदाबाद में दंगे भड़के जिसका प्रमुख कारण वो अफवाह थी जिसमें कहा गया की गोधरा काण्ड के बाद तीन हिन्दू लड़कियों का अपहरण मुस्लिमों ने कर लिया है हालांकि इस अफवाह के सच या झूठ की कितनी जांच पड़ताल हुई ये तो सरकार ही जाने . दंगों की शुरुआत गुलबर्ग सोसाइटी से हुई. तत्पश्चात मस्जिदों से ये ऐलान किया गया की ” दूध में जहर है और इस्लाम खतरे में है” और गुजरात के विभिन्न जिलों में दंगा फ़ैल गया. अहमदाबादवड़ोदरासाबरकांठापंचमहलमेहसानाखेडाजूनागड़पतन,आनंदनर्मदा और गांधीनगर जिलों में अधिकतर हमले हिन्दुओं ने मुस्लिमों पर किये तथा मोडासाहिम्मतनगरभरूचराजकोटसूरतभंडेरी पोल तथा दानिलिम्डा में मुसलामानों ने हिन्दुओं पर हमले किये.

साबरमती एक्सप्रेस से शुरू हुआ दंगा
27 फरवरी 2002 की सुबह 7:30 बजे के लगभग साबरमती एक्सप्रेस के गोधरा स्टेशन पहुँचने के एक किलोमीटर पहले इस ट्रेन की एक बोगी के साथ ऐसा कुछ हुआ कि जिसने भारत के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने पर गहरा असर डाला. ये असर नकारात्मक था अथवा सकारात्मकइसका उत्तर भविष्य के इतिहासविदों के लिए छोड़ते हुए एक गहरी नजर डालते हैं उस खौफनाक सुबह हुई लोमहर्षक घटना पर.

गोधरा में दंगों का है पुराना इतिहास
मुस्लिम बहुल गोधरा में दंगों का एक पुराना इतिहास रहा है. वीकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार गोधरा में 1947-481953-5519651980-81 और 1985 में भी भीषण दंगे हुए थेजिन्हें नियंत्रित करने के लिए कई बार सेना की मदद भी लेनी पड़ी. 27 फरवरी 2002 की घटना के बाद दंगों की इस गाथा में एक काला अध्याय और जुड़ गया है. गोधरा की इस भीषण घटना में जीवित बचे एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार उस दिन सुबह गोधरा स्टेशन के पास 'सिग्नल फालियामें लगभग 3000 लोग एकत्रित थे. द ट्रिब्यून (The Tribune)के अनुसार साबरमती एक्सप्रेस जैसे ही स्टेशन से आगे बढ़ीगाड़ी में पहले से सवार हो चुके लोगों में से किसी ने चेन खींचकर ट्रेन रोक दी और तुरंत ही बाहर से भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया. इससे बचने के लिए अंदर बैठे यात्रियों ने दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर लीं. कुछ ही देर बाद बाहर से पेट्रोल और केरोसीन छिड़ककर डिब्बे में आग लगा दी गई. गोधरा के एक पेट्रोल पंप पर काम करनेवाले दो कर्मचारियों के अनुसार एक दिन पूर्व ही कुछ लोगों द्वारा उनके पेट्रोल-पंप से 140 लीटर पेट्रोल खरीदा गया था.



1500 लोगो ने मिलकर लगाई आग60 से ज्यादा लोग जिंदा जले
श्रीराम को दर्शन कर लौटे तीर्थयात्रियो के क्या मालूम था कि ये उनका अन्तिम दर्शन है। साबरमती एक्सप्रेस की बोगी नंबर S-6 में विश्व हिन्दू परिषद् (VHP) के कार-सेवक यात्रा कर रहे थे. इस बोगी को निशाना बना कर एक संप्रदाय विशेष के लोगों द्वारा हिन्दू विरोधी नारों के बीच आग लगा दी गई. बताया जाता है कि आग लगाने वालों की संख्या 1500 के क़रीब थी. इस अग्निकांड में 60 से ज्यादा लोगों की मौत हुईजिसमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे. कोच को आग के हवाले करने वाले लोग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थे कि कोच एस 6 में कारसेवक और उनके परिवार वाले यात्रा कर रहे है. कोई हिंदू यात्री बोगी से बाहर ना निकल पाए इसीलिए योजना के अनुसार उन पर पत्थर भी बरसाए जाने लगे. इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि इस घटना को एक सोची-समझी साजिश के तहत अंजाम दिया गया. गुजरात पुलिस ने भी अपनी जांच में ट्रेन जलाने की इस वारदात को आईएसआई की साजिश ही करार दिया,जिसका मकसद हिन्दू कारसेवकों की हत्या कर राज्य में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करना था. इस हत्याकांड ने गुजरात की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति को पूरी तरह झकझोर कर रख दिया। वंही इस मामले  में 1 मार्च 2011 में 11 लोगो को फांसी औऱ 20 को उम्र कैद की सजा सुनाई।  

गोधरा कांड के बाद भड़के दंगे2002 के दंगे में 1044 लोगों की हुई थी मौत
गोधरा में कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा कार सेवकों को जलाने के बाद भड़के गुजरात दंगे को रोकने के लिए मुख्य्मंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्कााल कदम उठाया था. इसका जिक्र सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच करने वाले एसआईटी की रिपोर्ट में भी है. नानावती कमीशन ने भी लिखा है कि मोदी सरकार ने दंगों से निपटने में कोई कोताही नहीं बरती.  यूपीए सरकार ने 11 मई 2005 में संसद के अंदर अपने लिखित जवाब में बताया था कि 2002 के दंगे में 1044 लोगों की मौत हुई थी,जिसमें से 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे. अब सवाल उठता है कि कांग्रेसतीस्तां सितलवाड़,संजीव भट्ट और कांग्रेस व व विदेशी फंड पर पलने वाली मीडिया की बात यदि सच है तो फिर 254 हिंदुओं की हत्याा किसने की थी।

2012 में आया फैसला 19 मुकदमे में 249 लोगों को हुई सजा
27 फरवरी 2002 की सुबह अयोध्या से आ रहे 59 कार सेवकों को गोधरा रेलवे स्टे शन पर साबरमती एक्स प्रेस में जिंदा जला कर मार डाला गया था. इस घटना के बाद 28 फरवरी को गुजरात के विभिन्नय शहर में दंगे भड़कने शुरू हो गए. पहली और दूसरी मार्च को दंगा अपने उग्र रूप में थालेकिन तीन मार्च को सरकार ने दंगे पर पूरी तरह से नियंत्रण पा लिया था. इस दंगे में कुल 1044 लोगों की मौत हुईजिसमें 790 मुसलमान और 254 हिंदू शामिल थे.  गुजरात दंगा पूरे आजाद भारत के इतिहास का एक मात्र दंगा है जिस पर अदालती फैसला इतनी शीघ्रता से आया है और इतने बड़े पैमाने पर लोगों को सजा भी हुई है. अगस्तर 2012 में आए अदालती फैसले में 19 मुकदमे में 249 लोगों को सजा हुई हैजिसमें से 184 हिंदू और 65 मुसलमान हैं. इन 65 मुसलमान में से 31 को गोधरा में रेलगाड़ी जलाने और 34 को उसके बाद भड़के दंगे में संलिप्तसता के आधार पर सजा मिली है.


गोधरा और उसके बाद भड़के दंगे पर मोदी सरकार की कार्रवाई रिपोर्ट
जानकारी के लिए बता दें कि गुजरात दंगे की जांच सीधे सर्वोच्चर न्या यालय की निगरानी में हो रही है और ऐसा इस देश में पहली बार हो रहा है. अन्यकथा कांग्रेस सरकार में हुए कई दंगों की तो आज तक एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई है. भाजपा प्रवक्ताह शाहनवाज हुसैन ने मीडिया से बातचीत में बताया था कि  मलियाना में लाइन से मुस्लिमों को खड़ा कर गोली मार दी गई थी लेकिन आज तक उसमें कई मामलों में एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित स्पेथशल इंवेस्टीमगेशन टीम (SIT) और गुजरात हाई कोर्ट द्वारा वर्ष 2005 में गठित जस्टिस नानावती कमीशन इस झूठ का पर्दाफाश करती है कि नरेंद्र मोदी ने गोधरा के बाद भड़के दंगे के बाद कार्रवाई करने में देरी की. रिपोर्ट की डिटेल

27 फ़रवरी 2002- गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती ट्रेन के एस-6 कोच में भीड़ द्वारा आग लगाए जाने के बाद 59 कारसेवकों की मौत हो गई। इस मामले में 1500 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई।

28 फ़रवरी 2002- गुजरात के कई इलाकों में दंगा भड़का जिसमें 1200 से अधिक लोग मारे गए। मारे गए लोगों में ज्यादातर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग थे।

03 मार्च 2002- गोधरा ट्रेन जलाने के मामले में गिरफ्तार किए गए लोगों के खिलाफ आतंकवाद निरोधक अध्यादेश (पोटा) लगाया गया।

06 मार्च 2002- गुजरात सरकार ने कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट के तहत गोधरा कांड और उसके बाद हुई घटनाओं की जाँच के लिए एक आयोग की नियुक्ति की।

09 मार्च 2002- पुलिस ने सभी आरोपियों के खिलाफ भादसं की धारा 120-बी (आपराधिक षड्यंकत्र) लगाया।

25 मार्च 2002- केंद्र सरकार के दबाव की वजह से सभी आरोपियों पर से पोटा हटाया गया।

18 फ़रवरी 2003- गुजरात में भाजपा सरकार के दोबारा चुने जाने पर आरोपियों के खिलाफ फिर से आतंकवाद निरोधक कानून लगा दिया गया।

21 नवंबर 2003- उच्चतम न्यायालय ने गोधरा ट्रेन जलाए जाने के मामले समेत दंगे से जुड़े सभी मामलों की न्यायिक सुनवाई पर रोक लगाई।

04 सितंबर 2004- राजद नेता लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री रहने के दौरान केद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले के आधार पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश यूसी बनर्जी की अध्यक्षता वाली एक समिति का गठन किया गया। इस समिति को घटना के कुछ पहलुओं की जाँच का काम सौंपा गया।

21 सितंबर 2004- नवगठित संप्रग सरकार ने पोटा कानून को खत्म कर दिया और अरोपियों के खिलाफ पोटा आरोपों की समीक्षा का फैसला किया।

17 जनवरी 2005- यूसी बनर्जी समिति ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में बताया कि एस-6 में लगी आग एक दुर्घटना’ थी और इस बात की आशंका को खारिज किया कि आग बाहरी तत्वों द्वारा लगाई गई थी।

16 मई 2005- पोटा समीक्षा समिति ने अपनी राय दी कि आरोपियों पर पोटा के तहत आरोप नहीं लगाए जाएँ।

13 अक्टूबर 2006- गुजरात उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि यूसी बनर्जी समिति का गठनअवैध’ और असंवैधानिक’ है क्योंकि नानावटी-शाह आयोग पहले ही दंगे से जुड़े सभी मामले की जाँच कर रहा है। उसने यह भी कहा कि बनर्जी की जाँच के परिणाम अमान्य’ हैं।

26 मार्च 2008- उच्चतम न्यायालय ने गोधरा ट्रेन में लगी आग और गोधरा के बाद हुए दंगों से जुड़े आठ मामलों की जाँच के लिए विशेष जाँच आयोग बनाया।

18 सितंबर 2008- नानावटी आयोग ने गोधरा कांड की जाँच सौंपी और कहा कि यह पूर्व नियोजित षड्यंोत्र था और एस6 कोच को भीड़ ने पेट्रोल डालकर जलाया।

12 फ़रवरी 2009- उच्च न्यायालय ने पोटा समीक्षा समिति के इस फैसले की पुष्टि की कि कानून को इस मामले में नहीं लागू किया जा सकता है।

20 फरवरी 2009- गोधरा कांड के पीड़ितों के रिश्तेदार ने आरोपियों पर से पोटा कानून हटाए जाने के उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इस मामले पर सुनवाई अभी भी लंबित है।

01 मई 2009- उच्चतम न्यायालय ने गोधरा मामले की सुनवाई पर से प्रतिबंध हटाया और सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता वाले विशेष जाँच दल ने गोधरा कांड और दंगे से जुड़े आठ अन्य मामलों की जाँच में तेजी आई।

01 जून 2009- गोधरा ट्रेन कांड की सुनवाई अहमदाबाद के साबरमती केंद्रीय जेल के अंदर शुरू हुई।

06 मई 2010- उच्चतम न्यायालय सुनवाई अदालत को गोधरा ट्रेन कांड समेत गुजरात के दंगों से जुड़े नौ संवेदनशील मामलों में फैसला सुनाने से रोका।

28 सितंबर 2010- सुनवाई पूरी हुई लेकिन शीर्ष अदालत द्वारा रोक लगाए जाने के कारण फैसला नहीं सुनाया गया।

18 जनवरी 2011- उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाने पर से प्रतिबंध हटाया।

22 फरवरी - विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 31 लोगों को दोषी पायाजबकि 63 अन्य को बरी किया।

1 मार्च 2011- विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 11 को फांसी20 को उम्रकैद की सजा सुनाई।

दंगे के दौरान गुजरात पुलिस ने 103,559 राउंड गोलियां चलाई थी. इसमें से आधे से अधिक केवल 72 घंटे में चलाए गए थे.


पूरे दंगे के दौरान 66,268 हिंदू और 10,861 मुसलमानों को preventive detention law के तहत हिरासत में लिया गया था.

!!शब्दों की नाव से उतरें!!


जिसे शब्दों की नाव से उतरने की कला आ गई, उसे शांति की खोज में पहाड पर जाकर तप करने की जरूरत नहीं होती। वह संसार के बीच रहकर भी शांति की खोज कर सकता है !मौन को जिसने पा लिया, उसे पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता, क्योंकि मौन के क्षण में ही पता चलता है कि हम परमात्मा के अंश हैं। परमात्मा का अभिप्राय है- जिसे पाने को कुछ भी शेष न हो। परमात्मा का अर्थ है-जो भी है, वह उससे परम तृप्त है। कोई चाह नहीं। कोई प्यास नहीं। कोई क्षुधा नहीं। कोई मांग नहीं। कोई प्रार्थना नहीं। जिस दिन प्रार्थना और मांग खो जाती है, उस दिन जो भी पाया जा सकता है, वह हमें मिल जाता है। लेकिन मौन के क्षण में ही यह पता चलता है। मौन के बिना हम अपने से अपरिचित ही रह जाते हैं। मौन से अपनी कहानी खुल जाती है। जैसे कोई बंद द्वार खुल जाता है। जैसे अंधेरे में कोई दीया जल जाए और सब प्रकाशित हो जाए।
                  हम बोलते हैं, क्योंकि यह जरूरी है। क्योंकि दूसरे से जुडने का शब्दों के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब दूसरों से जुडने की आवश्यकता भी नहीं है या जब तुम अकेले में होते हो, तब क्यों बोलते हो? उपयोगिता न होने पर भी शब्दों का उपयोग क्यों? एक आदमी रास्ते पर चलता है, तो उसके पैर चलते हैं। लेकिन तुम बैठे हुए पैरों को हिलाते रहो और तुम उन्हें रोकने में असमर्थ हो जाओ, तो? इसका मतलब है कि तुम्हारा शरीर अस्वस्थ है। उससे तुम्हारा नियंत्रण खो गया है। वस्तुत:अपने से बोलने के लिए न भाषा की जरूरत है, न शब्द की। अगर खुद से बोलना है, तो मौन रहकर बोलो। पदार्थ को जानना हो, तो शब्द साधन है, लेकिन खुद को या परमात्मा को जानना हो तो शून्य साधन है। वहां मौन होकर पहुंचना पडेगा। वहां बोलते हुए गए तो चूक जाएंगे। क्योंकि जो बोल रहा है, वह अपने ही स्थूल शब्दों से इतना भरा है कि सूक्ष्म उसकी पकड में नहींआएगा।हमारे भीतर बाजार का शोरगुल है। मंदिर-मस्जिद में भी बडा शोरगुल है। वहां जाने का अर्थ ही यह होना चाहिए कि तुम शोरगुल या बाजार को पीछे छोड आए। जहां तुम जूते उतारते हो, वहीं शब्द भी उतार देने चाहिए। मंदिर में शब्द ले जाने का क्या अर्थ है? शब्द जूतों की तरह बासी और गंदे हो गए हैं। गौर करो, तो तीन सौ से ज्यादा शब्द नहीं होते, जिनका तुम दिन-रात उपयोग करते हो। तीन सौ शब्द तुम ठीक से सीख लो, तो नई भाषा आ जाएगी। जैसे रुपया बाजार में चलते-चलते गंदा हो जाता है, घिस जाता है, वैसे ही तुम्हारे शब्द भी घिस गए हैं। इन्हें मंदिर के बाहर छोड जाना, तभी खुद से मिल सकोगे। वस्तुत:जो मौन हो गया, वह मंदिर में है और जो बोलता रहा, वह मंदिर में होते हुए भी दुकान में है। तुम कहां हो, इससे फर्क नहीं पडता, तुम्हारे भीतर क्या है, इससे फर्क पडता है।
                        इंसान जब गर्भ में होता है, तब वह मौन होता है। उसकी मृत्यु होती है, तब भी मौन हो जाता है। जीवन के इस छोर के पहले मौन है, जीवन के उस छोर के बाद मौन है। मौन से तुम उठते हो, मौन में खो जाते हो। शब्द बीच का खेल है।
दूसरे से बातचीत उपयोगी है, लेकिन उससे तुम्हारे आगे तुम्हारा स्वभाव प्रकट नहीं होगा। इसके लिए शब्द को भूलना होगा। शब्द को भूलने का अर्थ है-दूसरे को भूल जाना। लेकिन शब्द के बिना तो तुमने कुछ भी नहीं सीखा है। सभी सीख शब्दों पर खुदी है। शब्द को छोडते ही सब पांडित्य और ज्ञान चला जाता है। तुम रह जाते हो-निपट-निर्दोष। जैसे तुम थे-जन्म के पहले और हो जाओगे मृत्यु के बाद। यही तो तुम हो, जिसकी तुम्हें खोज थी। लेकिन तुम सारी ऊर्जा शब्दों में चुका रहे हो। बोल-बोलकर नष्ट हुए जा रहे हो।
शब्दों से उतर जाने की कला मौन है, जहां असीमित शांति है। इसके लिए हिमालय जाने की जरूरत नहीं। हिमालय तो वे जाते हैं, जो नासमझ हैं। जो इस कला को नहीं जानते, उन्हें हिमालय में भी कुछ नहीं मिलेगा। अगर उन्हें छोटी-सी कला आ गई-शब्द की नाव से उतर जाने की कला, तो वे ठीक यहीं बीच बाजार में [सांसारिक जीवन में] जब चाहें तब हिमालय को खोज सकते हैं। जैसे ही वे शब्द का द्वार बंद करते हैं, उसी क्षण मौन हो जाते हैं। बाहर हो जाते हैं संसार के हर स्थान से। चुप होना इस जगत में सबसे बडी कला है। शेष सभी कलाएं शब्दों पर ही निर्भर हैं।
इस बार सोमवतीअमावस्या भी
माघ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। इस बार यह अमावस्या 23जनवरी को है। संयोगवश इस दिन सोमवार भी है, इसलिए इस दिन सोमवतीअमावस्या भी पड रही है। मौनी और सोमवतीअमावस्या के इस संयोग के बारे में मान्यता है कि इस दिन मौन रहकर गंगा में स्नान करने से अक्षय पुण्य मिलता है। इस अवसर पर एक दिन, एक माह या एक वर्ष के लिए मौन का संकल्प लेने की भी परंपरा है। मान्यता है कि मौनी अमावस्या को ही ब्रह्मा जी ने महाराज मनु और महारानी शतरूपाको प्रकट कर सृष्टि की शुरुआत की थी।
ग्रंथों में मौनी अमावस्या की कथा भी मिलती है। उसके अनुसार, जब सागर मंथन से भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए, तो देवताओं एवं असुरों में अमृत कलश के लिए खींचतान शुरू हो गई। इससे अमृत की कुछ बूंदे छलककर इस दिन प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैनमें जा गिरीं। यही कारण है कि यहां की नदियों में स्नान करने को लोग ज्यादा महत्व देते हैं। मौन रहने का का संदेश यह है कि हम अपनी इंद्रियों को वश में रखें और स्नान हमें नदियों को बचाने और उन्हें स्वच्छ रखने की प्रेरणा देता है..........

मैकाले का उद्देश्य और विचार क्या थे ?

 मैकाले नाम हम अक्सर सुनते है मगर ये कौन था ? इसके उद्देश्य और विचार क्या थे ? ***
यहाँ हम कुछ बिन्दुओं की विवेचना का प्रयास करते हैं....थोड़ा समय निकाल कर जरूर पढ़ें और इस विषय पर सोचें..........

मैकाले: मैकाले का पूरा नाम था थोमस बैबिंगटन मैकाले....अगर ब्रिटेन के नजरियें से देखें...तो अंग्रेजों का ये एक अमूल्य रत्न था ! एक उम्दा इतिहासकार, लेखक प्रबंधक, विचारक और देशभक्त.....इसलिए इसे लार्ड की उपाधि मिली थी और इसे लार्ड मैकाले कहा जाने लगा
!
अब इसके महिमामंडन को छोड़ मैं इसके एक ब्रिटिश संसद को दिए गए प्रारूप का वर्णन करना उचित समझूंगा जो इसने भारत पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए दिया था ...२ फ़रवरी १८३५ को ब्रिटेन की संसद में मैकाले की भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में:

"मैं भारत में काफी घुमा हूँ ! दाएँ- बाएँ, इधर उधर मैंने यह देश छान मारा और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो, जो चोर हो ! इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे ! जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्यूंकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर हैं, तो वे अपने आत्मगौरव, आत्म सम्मान और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं ! एक पूर्णरूप से गुलाम भारत !"

कई बंधू इस भाषण की पंक्तियों को कपोल कल्पित कल्पना मानते हैं.....अगर ये कपोल कल्पित पंक्तिया है, तो इन काल्पनिक पंक्तियों का कार्यान्वयन कैसे हुआ ?
मैकाले की गद्दार औलादें इस प्रश्न पर बगलें झाकती दिखती हैं और कार्यान्वयन कुछ इस तरह हुआ की आज भी मैकाले व्यवस्था की औलादें सेकुलर भेष में यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं। अरे भाई मैकाले ने क्या नया कह दिया भारत के लिए ?
भारत इतना संपन्न था की पहले सोने चांदी के सिक्के चलते थे कागज की नोट नहीं! धन दौलत की कमी होती तो इस्लामिक आतातायी श्वान और अंग्रेजी दलाल यहाँ क्यों आते... लाखों करोड़ रूपये के हीरे जवाहरात ब्रिटेन भेजे गए जिसके प्रमाण आज भी हैं मगर ये मैकाले का प्रबंधन ही है की आज भी हम लोग दुम हिलाते हैं 'अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृति' के सामने! हिन्दुस्थान के बारे में बोलने वाला संस्कृति का ठेकेदार कहा जाता है और घृणा का पात्र होता है.......

इस सभ्य समाज का शिक्षा व्यवस्था में मैकाले प्रभाव- ये तो हम सभी मानते है की हमारी शिक्षा व्यवस्था हमारे समाज की दिशा एवं दशा तय करती है ! बात १८२५ के लगभग की है जब ईस्ट इंडिया कंपनी वितीय रूप से संक्रमण काल से गुजर रही थी और ये संकट उसे दिवालियेपन की कगार पर पहुंचा सकता था ! कम्पनी का काम करने के लिए ब्रिटेन के स्नातक और कर्मचारी अब उसे महंगे पड़ने लगे थे ! १८२८ में गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक भारत आया जिसने लागत घटने के उद्देश्य से अब प्रसाशन में भारतीय लोगों के प्रवेश के लिए चार्टर एक्ट में एक प्रावधान जुड़वाया की सरकारी नौकरी में धर्म जाती या मूल का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा! यहाँ से मैकाले का भारत में आने का रास्ता खुला! अब अंग्रेजों के सामने चुनौती थी की कैसे भारतियों को उस भाषा में पारंगत करें जिससे की ये अंग्रेजों के पढ़े लिखे हिंदुस्थानी गुलाम की तरह कार्य कर सकें ! इस कार्य को आगे बढाया जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के अध्यक्ष 'थोमस बैबिंगटन मैकाले' ने ....मैकाले की सोच स्पष्ट थी, जो की उसने ब्रिटेन की संसद में बताया जैसा ऊपर वर्णन है ! उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ख़त्म करने और अंग्रेजी (जिसे हम मैकाले शिक्षा व्यवस्था भी कहते है) शिक्षा व्यवस्था को लागू करने का प्रारूप तैयार किया। मैकाले के शब्दों में:

"हमें एक हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिये का काम कर सके, जिन पर हम शासन करते हैं ! हमें हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों !"
और देखिये आज कितने ऐसे मैकाले व्यवस्था की नाजायज श्वान रुपी संताने हमें मिल जाएंगी... जिनकी मात्रभाषा अंग्रेजी है और धर्मपिता मैकाले! इस पद्दति को मैकाले ने सुन्दर प्रबंधन के साथ लागू किया!अब अंग्रेजी के गुलामों की संख्या बढने लगी और जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे वो अपने आप को हीन भावना से देखने लगे क्योंकि सरकारी नौकरियों के ठाठ उन्हें दिखते थे, अपने भाइयों के जिन्होंने अंग्रेजी की गुलामी स्वीकार कर ली और ऐसे गुलामों को ही सरकारी नौकरी की रेवड़ी बँटती थी ! कालांतर में वे ही गुलाम अंग्रेजों की चापलूसी करते करते उन्नत होते गए और अंग्रेजी की गुलामी न स्वीकारने वालों को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया ! विडम्बना ये हुई की आजादी मिलते मिलते एक बड़ा वर्ग इन गुलामों का बन गया जो की अब स्वतंत्रता संघर्ष भी कर रहा था ! यहाँ भी मैकाले शिक्षा व्यवस्था चाल कामयाब हुई अंग्रेजों ने जब ये देखा की भारत में रहना असंभव है तो कुछ मैकाले और अंग्रेजी के गुलामों को सत्ता हस्तांतरण कर के ब्रिटेन चले गए ..मकसद पूरा हो चुका था.... अंग्रेज गए मगर उनकी नीतियों की गुलामी अब आने वाली पीढ़ियों को करनी थी और उसका कार्यान्वयन करने के लिए थे कुछ हिन्दुस्तानी भेष में बौद्धिक और वैचारिक रूप से अंग्रेज नेता और देश के रखवाले (नाम नहीं लूँगा क्यो की कुछ लोगो की आत्मा को कष्ट होगा) कालांतर में ये ही पद्धति विकसित करते रहे हमारे सत्ता के महानुभाव ..इस प्रक्रिया में हमारी भारतीय भाषाएँ गौड़ होती गयी और हिन्दुस्थान में हिंदी विरोध का स्वर उठने लगा ! ब्रिटेन की बौद्धिक गुलामी के लिए आज का भारतीय समाज आन्दोलन करने लगा ! फिर आया उपभोगतावाद का दौर और मिशिनरी स्कूलों का दौर चूँकि २०० साल हमने अंग्रेजी को विशेष और भारतीयता को गौण मानना शुरू कर दिया था तो अंग्रेजी का मतलब सभ्य होना, उन्नत होना माना जाने लगा ! हमारी पीढियां मैकाले के प्रबंधन के अनुसार तैयार हो रही थी और हम भारत के शिशु मंदिरों को सांप्रदायिक कहने लगे क्यूं की भारतीयता और वन्दे मातरम वहां सिखाया जाता था ! जब से बहुराष्ट्रीय कंपनिया आयीं उन्होंने अंग्रेजो का इतिहास दोहराना शुरू किया और हम सभी सभ्य बनने में, उन्नत बनने में लगे रहे मैकाले की पद्धति के अनुसार ..अब आज वर्तमान में हमें नौकरी देने वाली हैं अंग्रेजी कंपनिया जैसे इस्ट इंडिया थी ..अब ये ही कंपनिया शिक्षा व्यवस्था भी निर्धारित करने लगी और फिर बात वही आयी कम लागत वाली, तो उसी तरह का अवैज्ञानिक व्यवस्था बनाओं जिससे कम लागत में हिन्दुस्थानियों के श्रम एवं बुद्धि का दोहन हो सके।
एक उदहारण देता हूँ: कुकुरमुत्ते की तरह हैं इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान, मगर शिक्षा पद्धति ऐसी है की १००० इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग स्नातकों में से शायद १० या १५ स्नातक ही रेडियो या किसी उपकरण की मरम्मत कर पायें, नयी शोध तो दूर की कौड़ी है.. अब ये स्नातक इन्ही अंग्रेजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास जातें है और जीवन भर की प्रतिभा ५ हजार रूपए प्रति महीने पर गिरवी रख गुलामों सा कार्य करते है ...फिर भी अंग्रेजी की ही गाथा सुनाते है.. अब जापान की बात करें १०वीं में पढने वाला छात्र भी प्रयोगात्मक ज्ञान रखता है ...किसी मैकाले का अनुसरण नहीं करता.. अगर कोई संस्थान अच्छा है जहाँ भारतीय प्रतिभाओं का समुचित विकास करने का परिवेश है तो उसके छात्रों को ये कंपनिया किसी भी कीमत पर नासा और इंग्लैंड में बुला लेती है और हम
मैकाले के गुलाम खुशिया मनाते हैं की हमारा फला अमेरिका में नौकरी करता है। इस प्रकार मैकाले की एक सोच ने हमारी आने वाली शिक्षा व्यवस्था को इस तरह पंगु बना दिया की न चाहते हुए भी हम उसकी गुलामी में फसते जा रहें है।

### समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव : अब समाज व्यवस्था की बात करें तो शिक्षा से समाज का निर्माण होता है। शिक्षा अंग्रेजी में हुए तो समाज खुद ही गुलामी करेगा, वर्तमान परिवेश में 'MY HINDI IS A LITTLE BIT WEAK' बोलना स्टेटस सिम्बल बन रहा है जैसा मैकाले चाहता था की हम अपनी संस्कृति को हीन समझे ...मैं अगर कहीं यात्रा में हिंदी बोल दूँ, मेरे साथ का सहयात्री सोचता है की ये पिछड़ा है ..लोग सोचते है त्रुटी हिंदी में हो जाए चलेगा मगर अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए ..और अब हिंगलिश भी आ गयी है बाज़ार में..क्या ऐसा नहीं लगता की इस व्यवस्था का हिंदुस्थानी 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का' होता जा रहा है। अंग्रेजी जीवन में पूर्ण रूप से नहीं सिख पाया क्यूंकी विदेशी भाषा है...और हिंदी वो सीखना नहीं चाहता क्यूंकी बेइज्जती होती है। हमें अपने बच्चे की पढाई अंग्रेजी विद्यालय में करानी है क्यूंकी दौड़ में पीछे रह जाएगा। माता पिता भी क्या करें बच्चे को क्रांति के लिए भेजेंगे क्या ?? क्यूकी आज अंग्रेजी न जानने वाला बेरोजगार है ..स्वरोजगार के संसाधन ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया ख़त्म कर देंगी फिर गुलामी तो करनी ही होगी..तो क्या हम स्वीकार कर लें ये सब?? या हिंदी या भारतीय भाषा पढ़कर समाज में उपेक्षा के पात्र बने?? शायद इसका एक ही उत्तर है हमें वर्तमान परिवेश में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित उच्च आदर्शों को स्थापित करना होगा .....

हमें विवेकानंद का "स्व" और क्रांतिकारियों का देश दोनों को जोड़ कर स्वदेशी की कल्पना को मूर्त रूप देने का प्रयास करना होगा, चाहे भाषा हो या खान पान या रहन सहन पोशाक ! अगर मैकाले की व्यवस्था को तोड़ने के लिए मैकाले की व्यवस्था में जाना पड़े तो जाएँ ....जैसे मैं 'अंग्रेजी गूगल' का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहा हूँ और इसे 'अँग्रेजी फ़ेसबुक' पर शेयर कर रहा हूँ .....क्यूंकी कीचड़ साफ करने के लिए हाथ गंदे करने होंग ! हर कोई छद्म सेकुलर बनकर सफ़ेद पोशाक पहन कर मैकाले के सुर में गायेगा तो आने वाली पीढियां हिन्दुस्थान को ही मैकाले का भारत बना देंगी ! उन्हें किसी ईस्ट इंडिया की जरुरत ही नहीं पड़ेगी गुलाम बनने के लिए और शायद हमारे आदर्शो 'राम और कृष्ण' को एक कार्टून मनोरंजन का पात्र !

शेयर करें और अंग्रेजों के मानसिक गुलामों की आँखें खोलें..........
 नोट  - यह लेख मूल रूप से भूपेंद्र सिंह चौहान जी से ,मिला  है जिसमे कुछ संसोधन करके यहाँ ब्लॉग में सामिल किया है ......