संसद के पिछले सत्र् में लगभग सभी दलों ने फैसला कर लिया था कि 2011 की जनगणना में जातीय गणना अवश्य होनी चाहिए लेकिन पिछले सप्ताह दस मंत्रियों के समूह ने न सिर्फ इस बंद पिटारे को दुबारा खोल दिया बल्कि अगले एक माह तक इस मुद्दे पर खुली बहस चलाने की घोषणा की है| यह कैसे हुआ ? क्यों हुआ ?
संसद में सर्वसम्मति बहुत हड़बड़ में हुई| बिना किसी गंभीर बहस के हुई| मई के प्रथम सप्ताह में यह फैसला होते ही मैंने इसके विरूद्घ एक लेख लिखा और तत्काल देश के सभी प्रमुख दलों के नेताओं से बात की, प्रधानमंत्री से भी ! जातीय जनगणना के दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं, इसे समझने में हमारे नेताओं को ज़रा भी देर नहीं लगी| चक्र उलटा घूमने लगा| पुनर्विचार शुरू हो गया| देश के कुछ प्रसिद्घ नेताओं, विधिशास्त्रियों और विद्वानों ने मुझसे आग्रह किया कि ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी‘ लेख लिख देना ही काफी नहीं है| यह 21 वीं सदी के भारत का सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा है| आप इस पर आंदोलन चलाइए|
बिना चलाए ही यह आंदोलन चल पड़ा| देश के लगभग सभी प्रमुख धर्माचार्य इससे जुड़ गए| सबने जातीय जनगणना को जातिवाद बढ़ानेवाली बताया| इस्लामी और ईसाई धर्माचार्यों ने इसे अपने धार्मिक सिद्घांतों के विरूद्घ बताया| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च नेता श्री मोहन भागवत ने कहा कि भाजपा का रवैया चाहे जो भी हो, हम आपका समर्थन करेंगे| सिखों की शिरेामणि सभा ने जातीय जनगणना का विरोध कर दिया| आर्य समाज ने किया| शिवसेना के श्री बाल ठाकरे ने जातीय गणना को राष्ट्रविरोधी घोषित किया| श्री अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर लिखा, ‘मेरी जाति भारतीय‘ ! इतना ही नहीं पूर्व चीफ जस्टिस जे.एस. वर्मा, श्री राम जेठमलानी, श्री फली नारीमन, श्री बलराम जाखड़, श्री वसंत साठे, श्री जॉर्ज वर्गीज़, डॉ. नामवर सिंह जैसे लोग इस आंदोलन के संरक्षक बन गए| श्री स. ना. गोयंका (विपश्यना), बाबा रामदेव, डॉ. प्रणव पंड्रय जैसे विश्व-विश्रुत आचार्यगण इस आंदोलन से जुड़ गए| इस आंदोलन के संचालक मंडल में पूर्व मंत्र्ी श्री आरिफ खान, पूर्व राजदूत श्री जे.सी शर्मा, पूर्व लोकसभा महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, श्री वीरेशप्रताप चौधरी, डॉ. लवलीन थडानी और श्रीमती अलका मधोक आदि सकि्रय भूमिका अदा कर रहे है| अमजद अली खान, श्याम बेनेगल, दिलीप पडगांवकर, रजत शर्मा, रूद्रसेन आर्य, जैसे देश के अनेक नामी-गिरामी विद्वान, पत्र्कार, कलाकार, व्यावसायी और नौजवान इस आंदोलन से जुड़ते चले जा रहे हैं| कई शहरों में इसकी शाखाएं खुल गई हैं|
इस आंदोलन का उद्देश्य देश के किसी भी तबके या नागरिक को नुकसान पहुंचाना नहीं है| यह सोचना कि यह आंदोलन देश के पिछड़ों का विरोधी है, बहुत ही गलत होगा| यह कहना घोर असत्य है कि यह आंदोलन ब्राहम्णवाद या सवर्णवाद का शंखनाद है| इस आंदोलन के साथ देश के लगभग सभी वर्गों के लोग जुड़े हुए हैं| वास्तव में यह आंदोलन हमारे देश के वंचित भाइयों का सबसे प्रबल पक्षधर है| वंचितों के लिए विशेष अवसर, विशेष सुविधा और विशेष अधिकार के हम सुद्दढ़ समर्थक हैं| हमारी मान्यता है कि जनगणना में जाति को जोड़ने से वंचित वर्गों का लाभ होना तो दूर रहा, उनका नुकसान ही ज्यादा होगा|
देश के अनुसूचितों, आदिवासियों और पिछड़ों को इस समय सरकारी नौकरियों में 49.5 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है| उच्चतम न्यायालय 50 प्रतिशत से अधिक की अनुमति किसी भी हालत में नहीं देता| यदि जातीय जनगणना में आरिक्षतों की संख्या मान लें कि 10 करोड़ ज्यादा निकली तो क्या आरक्षण 50 से बढ़ाकर 60 प्रतिशत किया जा सकता है ? नहीं| मान लें कि 10 करोड़ कम निकली तो क्या देश में कोई ऐसा दल या नेता है, जो 50 को घटवाकर 40 प्रतिशत करवा सके ? तो जातीय जनगणना करके हम फिजूल में क्यों थूक बिलोना चाहते हैं ?
पिछड़ी जातियों को जो 27.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, वह 1931 की जन-गणना के आधार पर दिया गया था| उस समय उनकी संख्या 52 प्रतिशत मान ली गई थी लेकिन अब ‘नेशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकनॉमिक रिसर्च‘ के ताज़ातरीन अध्ययन के अनुसार वह 41 प्रतिशत के आस-पास है याने यदि 2011 में जातीय गणना हुई तो उन्हें आरक्षण में 11 प्रतिशत का घाटा उठाना पड़ेगा|
इसके अलावा पिछड़ी जातियों की ‘मलाईदार पर्तों‘ के विरूद्घ उन्हीं की अति पिछड़ी और अतीव पिछड़ी जातियों ने बगावत के नारे बुलंद कर दिए हैं| जो पिछड़े नेता जातीय गणना के पक्ष में शोर मचा रहे हैं, उन्हीं की जातियों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा| आरक्षण में आरक्षण की बंदर-बाँट शुरू हो जाएगी|
यों भी जातीय गणना सर्वथा अवैज्ञानिक है| यह गणना यदि गरीबी दूर करने के लिए की जा रही है तो फिर गरीबी और उसके कारणों की ही सीधी खोज क्यों नहीं की जाती ? हाथ घुमाकर नाक पकड़ने में कौनसी तुक हैं ? क्या देश में एक भी जाति ऐसी है, जिसका हर सदस्य गरीब है या अमीर है ? फिर गरीबी हटाने का आधार जाति को कैसे बनाया जा सकता है ? काका कालेकर और मंडल आयोग के समय भी जातियों के आंकड़े इकट्रठे नहीं किए गए| ऐसा करना संभव नहीं था| इसीलिए जातियों को कामचलाऊ आधार बना लिया गया| स्वयं कालेलकर ने जातीय आधार को अपूर्ण और अवैज्ञानिक कहा है|
1931 की जनगणना के अंग्रेज कमिश्नर डॉ. जे एच हट्रटन ने दो-टूक शब्दों में लिखा है कि सही-सही जातीय गणना असंभव है, क्योंकि लोग अपनी-अपनी हैसियत ऊंची उठाने के लिए अपनी जाति कुछ भी लिखवा देते हैं| एक प्रदेश में जो शूद्र हैं, वे दूसरे प्रदेश में ब्राह्र्रमण हैं| एक जनगणना में जो वैश्य हैं, दूसरी जनगणना में वे शूद्र हैं| जाति-प्रथाके प्राण ऊँच-नीच में बसे हैं| एक ही जाति में ऊँच-नीच के कई स्तर होते हैं| उनमें रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता| देश में जानी-मानी लगभग छह हजार जातियाँ हैं और उनमें भी हजारों छोटी-मोटी जातियाँ हैं| उनकी वैज्ञानिक गणना नहीं हो सकती, इसीलिए डॉ. हट्रटन ने उसका विरोध किया था और इसीलिए पिछले 80 साल से ज़हर का यह पिटारा बंद पड़ा रहा|
हमारे कुछ नेता इस ज़हर के पिटारे को दुबारा क्यों खोलना चाहते हैं ? उन्हें भ्रम है कि उन्हें नए वोट-बैंक मिल जाएंगे| उनका वोट-बैंक उन्हीं की जाति और उप-जातियों के उम्मीदवार चौपट कर देंगे| इसके अलावा यदि वे जातिवाद चलाएंगे तो क्या दलित, आदिवासी, ईसाई, मुसलमान, सिख और सवर्ण भी जातिवाद नहीं चलाएंगे ? यदि सभी चलाएंगे तो इस देश का क्या होगा ? यह देश एक राष्ट्र नहीं रहेगा, हजारों जातियों का अखाड़ा बन जाएगा| 1857 के स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रीय एकता को भंग करने के लिए अंग्रेज ने 1871 में जो जातीय गणना का विष-बीज बोया था, उसे हम दुबारा पुष्पित-पल्लवित क्यों करना चाहते हैं ?
डॉ. आंबेडकर और नेहरू जैसे संविधान-निर्माताओं ने जातिविहीन समाज का सपना देखा था| आंबेडकरजी ने ‘जाति का समूल नाश‘ पुस्तक लिखी थी और डॉ. लोहिया ने ‘जात तोड़ो‘ का नारा दिया था| हमारे कुछ नेता वोट-बैंक के लालच में अपने इन महान नेताओं को शीर्षासन कराने पर उतारू क्या हो गए हैं ? संविधान में जाति के आधार को कहीं भी स्वीकार नहीं किया गया है| उसने पिछड़े ‘वर्गों‘ के ‘नागरिकों‘ को विशेष सुविधा देने की बात कहीं है (देखिए धारा 16 (4))| जातियों को थोकबंद रेवाडि़याँ बांटने की बात कहीं नहीं कही है| सिर्फ नेतागण रेवाडि़या बांटना चाहते हैं| इसीलिए राजनीति में आज भी जाति दनदना रही है लेकिन पिछले 63 साल में भारतीय समाज में से जाति का प्रभाव घटता चला जा रहा है| रोटी-बेटी के संबंध धीरे-धीरे खुले चले जा रहे हैं| जातीय गणना करवाकर करोड़ों भारतीय नागरिकों को हम भेड़-बकरियों की तरह जातीय बाड़ों में बंद क्यों कर देना चाहते हैं ?
संसद में सर्वसम्मति बहुत हड़बड़ में हुई| बिना किसी गंभीर बहस के हुई| मई के प्रथम सप्ताह में यह फैसला होते ही मैंने इसके विरूद्घ एक लेख लिखा और तत्काल देश के सभी प्रमुख दलों के नेताओं से बात की, प्रधानमंत्री से भी ! जातीय जनगणना के दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं, इसे समझने में हमारे नेताओं को ज़रा भी देर नहीं लगी| चक्र उलटा घूमने लगा| पुनर्विचार शुरू हो गया| देश के कुछ प्रसिद्घ नेताओं, विधिशास्त्रियों और विद्वानों ने मुझसे आग्रह किया कि ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी‘ लेख लिख देना ही काफी नहीं है| यह 21 वीं सदी के भारत का सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा है| आप इस पर आंदोलन चलाइए|
बिना चलाए ही यह आंदोलन चल पड़ा| देश के लगभग सभी प्रमुख धर्माचार्य इससे जुड़ गए| सबने जातीय जनगणना को जातिवाद बढ़ानेवाली बताया| इस्लामी और ईसाई धर्माचार्यों ने इसे अपने धार्मिक सिद्घांतों के विरूद्घ बताया| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च नेता श्री मोहन भागवत ने कहा कि भाजपा का रवैया चाहे जो भी हो, हम आपका समर्थन करेंगे| सिखों की शिरेामणि सभा ने जातीय जनगणना का विरोध कर दिया| आर्य समाज ने किया| शिवसेना के श्री बाल ठाकरे ने जातीय गणना को राष्ट्रविरोधी घोषित किया| श्री अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर लिखा, ‘मेरी जाति भारतीय‘ ! इतना ही नहीं पूर्व चीफ जस्टिस जे.एस. वर्मा, श्री राम जेठमलानी, श्री फली नारीमन, श्री बलराम जाखड़, श्री वसंत साठे, श्री जॉर्ज वर्गीज़, डॉ. नामवर सिंह जैसे लोग इस आंदोलन के संरक्षक बन गए| श्री स. ना. गोयंका (विपश्यना), बाबा रामदेव, डॉ. प्रणव पंड्रय जैसे विश्व-विश्रुत आचार्यगण इस आंदोलन से जुड़ गए| इस आंदोलन के संचालक मंडल में पूर्व मंत्र्ी श्री आरिफ खान, पूर्व राजदूत श्री जे.सी शर्मा, पूर्व लोकसभा महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, श्री वीरेशप्रताप चौधरी, डॉ. लवलीन थडानी और श्रीमती अलका मधोक आदि सकि्रय भूमिका अदा कर रहे है| अमजद अली खान, श्याम बेनेगल, दिलीप पडगांवकर, रजत शर्मा, रूद्रसेन आर्य, जैसे देश के अनेक नामी-गिरामी विद्वान, पत्र्कार, कलाकार, व्यावसायी और नौजवान इस आंदोलन से जुड़ते चले जा रहे हैं| कई शहरों में इसकी शाखाएं खुल गई हैं|
इस आंदोलन का उद्देश्य देश के किसी भी तबके या नागरिक को नुकसान पहुंचाना नहीं है| यह सोचना कि यह आंदोलन देश के पिछड़ों का विरोधी है, बहुत ही गलत होगा| यह कहना घोर असत्य है कि यह आंदोलन ब्राहम्णवाद या सवर्णवाद का शंखनाद है| इस आंदोलन के साथ देश के लगभग सभी वर्गों के लोग जुड़े हुए हैं| वास्तव में यह आंदोलन हमारे देश के वंचित भाइयों का सबसे प्रबल पक्षधर है| वंचितों के लिए विशेष अवसर, विशेष सुविधा और विशेष अधिकार के हम सुद्दढ़ समर्थक हैं| हमारी मान्यता है कि जनगणना में जाति को जोड़ने से वंचित वर्गों का लाभ होना तो दूर रहा, उनका नुकसान ही ज्यादा होगा|
देश के अनुसूचितों, आदिवासियों और पिछड़ों को इस समय सरकारी नौकरियों में 49.5 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है| उच्चतम न्यायालय 50 प्रतिशत से अधिक की अनुमति किसी भी हालत में नहीं देता| यदि जातीय जनगणना में आरिक्षतों की संख्या मान लें कि 10 करोड़ ज्यादा निकली तो क्या आरक्षण 50 से बढ़ाकर 60 प्रतिशत किया जा सकता है ? नहीं| मान लें कि 10 करोड़ कम निकली तो क्या देश में कोई ऐसा दल या नेता है, जो 50 को घटवाकर 40 प्रतिशत करवा सके ? तो जातीय जनगणना करके हम फिजूल में क्यों थूक बिलोना चाहते हैं ?
पिछड़ी जातियों को जो 27.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, वह 1931 की जन-गणना के आधार पर दिया गया था| उस समय उनकी संख्या 52 प्रतिशत मान ली गई थी लेकिन अब ‘नेशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकनॉमिक रिसर्च‘ के ताज़ातरीन अध्ययन के अनुसार वह 41 प्रतिशत के आस-पास है याने यदि 2011 में जातीय गणना हुई तो उन्हें आरक्षण में 11 प्रतिशत का घाटा उठाना पड़ेगा|
इसके अलावा पिछड़ी जातियों की ‘मलाईदार पर्तों‘ के विरूद्घ उन्हीं की अति पिछड़ी और अतीव पिछड़ी जातियों ने बगावत के नारे बुलंद कर दिए हैं| जो पिछड़े नेता जातीय गणना के पक्ष में शोर मचा रहे हैं, उन्हीं की जातियों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा| आरक्षण में आरक्षण की बंदर-बाँट शुरू हो जाएगी|
यों भी जातीय गणना सर्वथा अवैज्ञानिक है| यह गणना यदि गरीबी दूर करने के लिए की जा रही है तो फिर गरीबी और उसके कारणों की ही सीधी खोज क्यों नहीं की जाती ? हाथ घुमाकर नाक पकड़ने में कौनसी तुक हैं ? क्या देश में एक भी जाति ऐसी है, जिसका हर सदस्य गरीब है या अमीर है ? फिर गरीबी हटाने का आधार जाति को कैसे बनाया जा सकता है ? काका कालेकर और मंडल आयोग के समय भी जातियों के आंकड़े इकट्रठे नहीं किए गए| ऐसा करना संभव नहीं था| इसीलिए जातियों को कामचलाऊ आधार बना लिया गया| स्वयं कालेलकर ने जातीय आधार को अपूर्ण और अवैज्ञानिक कहा है|
1931 की जनगणना के अंग्रेज कमिश्नर डॉ. जे एच हट्रटन ने दो-टूक शब्दों में लिखा है कि सही-सही जातीय गणना असंभव है, क्योंकि लोग अपनी-अपनी हैसियत ऊंची उठाने के लिए अपनी जाति कुछ भी लिखवा देते हैं| एक प्रदेश में जो शूद्र हैं, वे दूसरे प्रदेश में ब्राह्र्रमण हैं| एक जनगणना में जो वैश्य हैं, दूसरी जनगणना में वे शूद्र हैं| जाति-प्रथाके प्राण ऊँच-नीच में बसे हैं| एक ही जाति में ऊँच-नीच के कई स्तर होते हैं| उनमें रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता| देश में जानी-मानी लगभग छह हजार जातियाँ हैं और उनमें भी हजारों छोटी-मोटी जातियाँ हैं| उनकी वैज्ञानिक गणना नहीं हो सकती, इसीलिए डॉ. हट्रटन ने उसका विरोध किया था और इसीलिए पिछले 80 साल से ज़हर का यह पिटारा बंद पड़ा रहा|
हमारे कुछ नेता इस ज़हर के पिटारे को दुबारा क्यों खोलना चाहते हैं ? उन्हें भ्रम है कि उन्हें नए वोट-बैंक मिल जाएंगे| उनका वोट-बैंक उन्हीं की जाति और उप-जातियों के उम्मीदवार चौपट कर देंगे| इसके अलावा यदि वे जातिवाद चलाएंगे तो क्या दलित, आदिवासी, ईसाई, मुसलमान, सिख और सवर्ण भी जातिवाद नहीं चलाएंगे ? यदि सभी चलाएंगे तो इस देश का क्या होगा ? यह देश एक राष्ट्र नहीं रहेगा, हजारों जातियों का अखाड़ा बन जाएगा| 1857 के स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रीय एकता को भंग करने के लिए अंग्रेज ने 1871 में जो जातीय गणना का विष-बीज बोया था, उसे हम दुबारा पुष्पित-पल्लवित क्यों करना चाहते हैं ?
डॉ. आंबेडकर और नेहरू जैसे संविधान-निर्माताओं ने जातिविहीन समाज का सपना देखा था| आंबेडकरजी ने ‘जाति का समूल नाश‘ पुस्तक लिखी थी और डॉ. लोहिया ने ‘जात तोड़ो‘ का नारा दिया था| हमारे कुछ नेता वोट-बैंक के लालच में अपने इन महान नेताओं को शीर्षासन कराने पर उतारू क्या हो गए हैं ? संविधान में जाति के आधार को कहीं भी स्वीकार नहीं किया गया है| उसने पिछड़े ‘वर्गों‘ के ‘नागरिकों‘ को विशेष सुविधा देने की बात कहीं है (देखिए धारा 16 (4))| जातियों को थोकबंद रेवाडि़याँ बांटने की बात कहीं नहीं कही है| सिर्फ नेतागण रेवाडि़या बांटना चाहते हैं| इसीलिए राजनीति में आज भी जाति दनदना रही है लेकिन पिछले 63 साल में भारतीय समाज में से जाति का प्रभाव घटता चला जा रहा है| रोटी-बेटी के संबंध धीरे-धीरे खुले चले जा रहे हैं| जातीय गणना करवाकर करोड़ों भारतीय नागरिकों को हम भेड़-बकरियों की तरह जातीय बाड़ों में बंद क्यों कर देना चाहते हैं ?
(लेखक, ‘सबल भारत‘ के ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी आंदोलन‘ के सूत्र्धार हैं)