वैदिक समाज को श्रम विभाजन के निमित्त चार वर्णों में विभक्त किया गया था। किन्तु कालान्तर में इससे लाखों जातियाँ बन गयीं। जाति के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव या पक्षपात करना जातिवाद कहलाता है। एक जाति स्वयं अनेक उपजातियों तथा समूहों में विभक्त रहती है। उच्च हिंदू जातियों में गोत्रीय विभाजन भी विद्यमान हैं। एक गोत्र के व्यक्ति एक ही पूर्वज के वंशज समझे जाते हैं। कभी कभी जब किसी जाति का एक अंग अपने परंपरागत पेशे के स्थान पर दूसरा पेशा अपना लेता है तो कालक्रम में वह एक पृथक् जाति बन जाता है, किंतु उसका गोत्र वो ही रहता है| इस प्रकार एक गोत्र अनेक जातियों में विभक्त हो जाता है| इन उपजातियों में भी ऊँच नीच का एक मर्यादाक्रम रहता है। उपजातियाँ भी अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है और इनमें भी उच्चता तथा निम्नता का एक क्रम होता है जो विशेष रूप से विवाह संबंधों में व्यक्त होता है|
क्या जातियाँ, छुआ-छूट सिर्फ़ हिंदू धर्म में हैं?
ईसाइयों, मुसलमानों, जैनों और सिखों में भी जातियाँ हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है| ईसा की 12 वीं शती में दक्षिण में वीर शैव संप्रदाय का उदय जाति के विरोध में हुआ था। किंतु कालक्रम में उसके अनुयायिओं की एक पृथक् जाति बन गई जिसके अंदर स्वयं अनेक जातिभेद हैं। सिखों में भी जातीय समूह बने हुए हैं और यही दशा कबीरपंथियों की है। गुजरात की मुसलिम बोहरा जाति की मस्जिदों में यदि अन्य मुसलमान नमाज पढ़े तो वे स्थान को धोकर शुद्ध करते हैं। बिहार राज्य में सरकार ने 27 मुसलमान जातियों को पिछड़े वर्गो की सूची में रखा है। मुसलमानों और सिक्खों की भाँति ईसाइयों में अछूत समूह हैं जिनके गिरजाघर अलग हैं अथवा जिनके लिये सामान्य गिरजाघरों में पृथक् स्थान निश्चित कर दिया गया है। किंतु मुसलमानों और सिखों के जातिभेद हिंदुओं के जातिभेद से अधिक मिलते जुलते हैं जिसका कारण यह हे कि हिंदू धर्मं के अनुयायी जब जब इस्लाम या सिख धर्म स्वीकार करते हें तो वहाँ भी अपने जातीय समूहों को बहुत कुछ सुरक्षित रखते हैं और इस प्रकार सिखों या मुसलमानों की एक पृथक् जाति बन जाती है।
घर के ना घाट के
मुगल काल में औरंगज़ेब के समय में सब ज़्यादा हिंदुओं को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया| किसी ने मजबूरी में तो किसी ने अपनी इच्छा से लालच के कारण धर्म परिवर्तन किया|
ईसाई मिशनरियों ने जाति हिंदू व्यवस्था को तोड़ने के लिए इसे ब्राह्मणवाद की रचना कहना प्रारंभ किया| देवेन्द्र स्वरूप जी बताते हैं कि "जाति प्रथा से छुटकारा दिलाने के नाम पर उन्होंने अपने धर्मांतरण के प्रयास निचली और निर्धन जातियों पर केन्द्रित कर दिये|" इसके लिए बाईबल के जिस वाक्य को आधार बनाया गया वह है कि "हे (जाति) बोझ से दबे और थके (दलित) लोगों, मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा." जो लोग अपनी जाति से मुक्ति चाहते थे उन्होने ईसाईयत को मुक्ति का द्वार माना| जाति को बुरा बताने वाला चर्च अब दलित ईसाई की बात करता है| ईसाई संगठनों और चर्चों ने हमेशा यही कहा है कि अगर दलित और पिछड़े लोग छूआछूत की अभिशाप से मुक्ति चाहते है तो ईसाईयत का रास्ता पकड़ें| 2008 तक देश में कुल दलितों में 1.5 करोड़ दलित ईसाई थे| जी लोगो ने सब्ज़ बात देख कर अपने धर्म परिवर्��न किया वो जिस स्थिति से गये थी उसी स्थिति में थे उससे बुरी स्थिति में पहुँच गये .......| भला या बुरा जैसा भी था अपना था किंतु अब तो ना घर के रहे और ना घाट के अपने लोग धर्म परिवर्तन के कारण हैय दृष्टि से देखते हैं और जिस धर्म में जाते हैं उनका समाज पूर्ण रूप से अपनाता नही ......
सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से विभिन्न वर्गों का श्रेणीविभाजन तो सभी देशों में रहा है।
प्राचीन मिस्र में पुरोहित, सैनिक, लेखक, चरवाहे, सुअर पालनेवाले और व्यापारियों के पृथक् पृथक् वर्ग थे जिनके पेशे और पद वंशानुगत थे। कोई कारीगर अपना पैतृक धंधा छोड़कर दूसरा धंधा नहीं कर सकता था। सुअर पालने वाले अछूत माने जाते थे और उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।
जापान में सैनिक सामंतवाद (12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के मध्य तक) के शासनकाल में अभिजात सैनिक समुराई वर्ग के अतिरिक्त कृषक, कारीगर, व्यापारी और दलित वर्ग थे। दलित वर्ग में एता और हिनिन दो समूह थे जो समाज के पतित अंग माने जाते थे और गंदे तथा हीन समझे जानेवाले कार्य उनके सपुर्द थे।
अफ्रीका में लोहारों का समूह प्राय: शेष समाज से पृथक् रखा जाता है|
प्राचीन मिस्र, मध्यकालीन रोम और सामंती जापान में राज्य की ओर से अंतर्विवाहों पर प्रतिबंध लगा दिए गए थे और पेशों को वंशानुगत कर दिया गया था।
जातीय संघटन नए ढ़ग से अपने को संगठित कर रहे हैं
श्री भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में पहले दलित वर्गसंघ और बाद में रिपब्लिकन पार्टी बनी और दक्षिण भारत में पहले जस्टिस पार्टी और स्वतंत्रप्राप्ति के बाद द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम् का संघटन हुआ। देश के लोकतांत्रिक निर्वाचनों में जातितत्व प्रमुख हो जाता है, सरकारी नौकरियों और सुविधाओं की प्राप्ति में भी जातीय पक्षपात प्रतिलक्षित होता है। इस प्रकार राजनीति में जाति का विशेष स्थान हो गया है।
जातिवाद तो सभी धर्मो में है ..सच्चाई देखें इस दकुमेंतरी फिल्म में जो एक सच्चाई बया करती है .
भारतीय संविधान और कानून की दृष्टि से छुआछूत का व्यवहार दंडनीय अपराध है।
नोट --अंत में मैं यह निःसंकोच कह सकता हु की यह जातिप्रथा और छुआछुत निश्चय ही सनातन धर्म की देन हो सकती है !!
क्या जातियाँ, छुआ-छूट सिर्फ़ हिंदू धर्म में हैं?
ईसाइयों, मुसलमानों, जैनों और सिखों में भी जातियाँ हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है| ईसा की 12 वीं शती में दक्षिण में वीर शैव संप्रदाय का उदय जाति के विरोध में हुआ था। किंतु कालक्रम में उसके अनुयायिओं की एक पृथक् जाति बन गई जिसके अंदर स्वयं अनेक जातिभेद हैं। सिखों में भी जातीय समूह बने हुए हैं और यही दशा कबीरपंथियों की है। गुजरात की मुसलिम बोहरा जाति की मस्जिदों में यदि अन्य मुसलमान नमाज पढ़े तो वे स्थान को धोकर शुद्ध करते हैं। बिहार राज्य में सरकार ने 27 मुसलमान जातियों को पिछड़े वर्गो की सूची में रखा है। मुसलमानों और सिक्खों की भाँति ईसाइयों में अछूत समूह हैं जिनके गिरजाघर अलग हैं अथवा जिनके लिये सामान्य गिरजाघरों में पृथक् स्थान निश्चित कर दिया गया है। किंतु मुसलमानों और सिखों के जातिभेद हिंदुओं के जातिभेद से अधिक मिलते जुलते हैं जिसका कारण यह हे कि हिंदू धर्मं के अनुयायी जब जब इस्लाम या सिख धर्म स्वीकार करते हें तो वहाँ भी अपने जातीय समूहों को बहुत कुछ सुरक्षित रखते हैं और इस प्रकार सिखों या मुसलमानों की एक पृथक् जाति बन जाती है।
घर के ना घाट के
मुगल काल में औरंगज़ेब के समय में सब ज़्यादा हिंदुओं को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया| किसी ने मजबूरी में तो किसी ने अपनी इच्छा से लालच के कारण धर्म परिवर्तन किया|
ईसाई मिशनरियों ने जाति हिंदू व्यवस्था को तोड़ने के लिए इसे ब्राह्मणवाद की रचना कहना प्रारंभ किया| देवेन्द्र स्वरूप जी बताते हैं कि "जाति प्रथा से छुटकारा दिलाने के नाम पर उन्होंने अपने धर्मांतरण के प्रयास निचली और निर्धन जातियों पर केन्द्रित कर दिये|" इसके लिए बाईबल के जिस वाक्य को आधार बनाया गया वह है कि "हे (जाति) बोझ से दबे और थके (दलित) लोगों, मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा." जो लोग अपनी जाति से मुक्ति चाहते थे उन्होने ईसाईयत को मुक्ति का द्वार माना| जाति को बुरा बताने वाला चर्च अब दलित ईसाई की बात करता है| ईसाई संगठनों और चर्चों ने हमेशा यही कहा है कि अगर दलित और पिछड़े लोग छूआछूत की अभिशाप से मुक्ति चाहते है तो ईसाईयत का रास्ता पकड़ें| 2008 तक देश में कुल दलितों में 1.5 करोड़ दलित ईसाई थे| जी लोगो ने सब्ज़ बात देख कर अपने धर्म परिवर्��न किया वो जिस स्थिति से गये थी उसी स्थिति में थे उससे बुरी स्थिति में पहुँच गये .......| भला या बुरा जैसा भी था अपना था किंतु अब तो ना घर के रहे और ना घाट के अपने लोग धर्म परिवर्तन के कारण हैय दृष्टि से देखते हैं और जिस धर्म में जाते हैं उनका समाज पूर्ण रूप से अपनाता नही ......
सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से विभिन्न वर्गों का श्रेणीविभाजन तो सभी देशों में रहा है।
प्राचीन मिस्र में पुरोहित, सैनिक, लेखक, चरवाहे, सुअर पालनेवाले और व्यापारियों के पृथक् पृथक् वर्ग थे जिनके पेशे और पद वंशानुगत थे। कोई कारीगर अपना पैतृक धंधा छोड़कर दूसरा धंधा नहीं कर सकता था। सुअर पालने वाले अछूत माने जाते थे और उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।
जापान में सैनिक सामंतवाद (12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के मध्य तक) के शासनकाल में अभिजात सैनिक समुराई वर्ग के अतिरिक्त कृषक, कारीगर, व्यापारी और दलित वर्ग थे। दलित वर्ग में एता और हिनिन दो समूह थे जो समाज के पतित अंग माने जाते थे और गंदे तथा हीन समझे जानेवाले कार्य उनके सपुर्द थे।
अफ्रीका में लोहारों का समूह प्राय: शेष समाज से पृथक् रखा जाता है|
प्राचीन मिस्र, मध्यकालीन रोम और सामंती जापान में राज्य की ओर से अंतर्विवाहों पर प्रतिबंध लगा दिए गए थे और पेशों को वंशानुगत कर दिया गया था।
जातीय संघटन नए ढ़ग से अपने को संगठित कर रहे हैं
श्री भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में पहले दलित वर्गसंघ और बाद में रिपब्लिकन पार्टी बनी और दक्षिण भारत में पहले जस्टिस पार्टी और स्वतंत्रप्राप्ति के बाद द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम् का संघटन हुआ। देश के लोकतांत्रिक निर्वाचनों में जातितत्व प्रमुख हो जाता है, सरकारी नौकरियों और सुविधाओं की प्राप्ति में भी जातीय पक्षपात प्रतिलक्षित होता है। इस प्रकार राजनीति में जाति का विशेष स्थान हो गया है।
जातिवाद तो सभी धर्मो में है ..सच्चाई देखें इस दकुमेंतरी फिल्म में जो एक सच्चाई बया करती है .
भारतीय संविधान और कानून की दृष्टि से छुआछूत का व्यवहार दंडनीय अपराध है।
नोट --अंत में मैं यह निःसंकोच कह सकता हु की यह जातिप्रथा और छुआछुत निश्चय ही सनातन धर्म की देन हो सकती है !!