शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

!! इतने जौहर क्यों ?



    मनुष्य जाति में परस्पर युद्धों का श्री गणेश भी इसी आशंका से हुआ कि कोई उसकी स्वतंत्रता छिनने आ रहा है तो कोई उसे बचाने के लिए अग्रिम प्रयास कर रहा है ! और आज भी इसी आशंका के चलते आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ कर हमें अपनी स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए अग्रिम प्रयास जारी रखने होंगे ! विश्व की सभी सभी जातियां अपनी स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए और समृद्धि के लिए निरंतर बलिदान करती आई है !
           राजस्थान की युद्ध परम्परा में "जौहर और शाकों" का विशिष्ठ स्थान है जहाँ पराधीनता के बजाय मृत्यु का आलिंगन करते हुए यह स्थिति आ जाती है कि अब ज्यादा दिन तक शत्रु के घेरे में रहकर जीवित नही रहा जा सकता, तब जौहर और शाके किए जाते थे !
जौहर : युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर,तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश कर अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है ! पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा ! महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ! सबसे ज्यादा जौहर और शाके चित्तोड़ के दुर्ग में हुए ! चित्तोड़ के दुर्ग में सबसे पहला जौहर चित्तोड़ की महारानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 हजार रमणियों ने
25 अगस्त 1303 में किया था !
शाका : महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष कसुम्बा पान कर, केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे ! पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ ...........
प्रथम जौहर:- रानी पद्मिनी ने चित्तौड़गढ़ में दुर्ग स्थित विजय स्तम्भ व गौ-मुख कुण्ड़ के पास विक्रम संवत् 1360 भादवा शुक्ला तेरस 25 अगस्त 1303 में सौलह हजार क्षत्राणियों के साथ अग्नि प्रवेश किया।
जौहर करने का कुआ


द्वितीय जौहर:- महाराणा संग्रामसिंह (महाराणा सांगा) की पत्नी राजमाता महाराणा विक्रमादित्य की माता कर्णावती का विक्रम संवत 1592 में चैत्र शुक्ल चतुर्थी सोमवार, 8 मार्च 1535 को 23,000 क्षत्राणियों के साथ अग्नि प्रवेश किया। यह जौहर चित्तौड़गढ़ में दुर्ग स्थित विजय स्तम्भ व गौ-मुख कुण्ड़ के पास हुआ।


तृतीय जौहर:- महाराणा उदयसिंह के समय जयमल मेड़तिया राठौड़ फत्ताजी के नेतृत्व में चार माह के युद्ध के बाद सांवतों की स्त्रियों ने फत्ताजी की पत्नी ठकुराणी
फूलकंवर जी के नेतृत्व में विक्रम संवत 1624 चैत्र कृष्णा एकादशी सोमवार 13 फरवरी सन् 1568 को सात हजार क्षत्राणियों के साथ चित्तौड़गढ़ में दुर्ग स्थित विजय स्तम्भ व गौ-मुख कुण्ड़ के पास अपनी-अपनी हवेलियों में अग्नि प्रवेश किया। फत्ताजी वंशज मुख्य ठिकाना आमेर आदि ठिकाने में जयमल जी चित्तौड़गढ़ के सेनानायक अथवा किले के दरवाजों के चाबीदार थे। इनको महाराणा संग्रामसिंह जी ने बदनोर, माही गांव दिये। जयमल जी को उनके चाचा रतनसिंह जी की पुत्री मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ कुंवर भोजराज के साथ हुआ। मीराबाई पूर्ण रूप से भगवान कृष्ण की सेविका थी। मीराबाई का जन्म कुड़की बाजोली में हुआ। इनकी माता कुसुम कंवर का स्वर्गवास मीराबाई के बाल्यकाल में ही हो गया था। मीरा राव दूदा मेड़तिया के पौत्री थी। राव दूदा का ज्येष्ठ पुत्र विरमदेव जी थे और विरमदेव जी के ज्येष्ठ पुत्र जयमल जी थे। राव दूदाजी के पांच संतानें थी। विरमदेव जी के 10 पुत्र और 3 पुत्रियां थीं।
राव दूदाजी के वंशजों के नाम:- रावदूदा की दो रानियां थीं जिनमें प्रथम रानी देवलिया प्रतापगढ़ के नरसिंह की पुत्री सिसोदणी चंद्र कुंवरी और दूसरी रानी बबावदा के मानसिंह की पुत्री चौहान मृगकुंवरी। इन दोनों रानियों से राव दूदा के पांच पुत्र और एक पुत्री गुलाब कुंवरी उत्पन्न हुई। राव दूदा के पुत्रों में प्रथम विरमदेव, दूसरे रायमल, ये रायसलोत शाखा के मूल पुरूष थे। इनके वंशजों में अधिकार में मारवाड़ के भण्डाणा, बांसणी, जीलारी आदि ठिकाने हैं तथा मेवाड़ राज्य में हुरड़ा प्रांत के कुछ ग्रामों में भौम है। तीसरे पुत्र पंचायणजी, जिनके कोई संतान नहीं थी और इनका कोई वृतान्त उपलब्ध नहीं हो सका। चौथा पुत्र रतनसिंह थे, जिनके सिर्फ एक पुत्री थी जो मीराबाई के नाम से विख्यात हुई। मीराबाई का विवाह चित्तौड़ के प्रसिद्ध महाराणा संग्रामसिंह के युवराज भोजराज से हुआ। रतनसिंह को निर्वाह के लिये मेड़ता राज्य से कुड़की, बाजोली सहित कुल 12 गांव दिये गये।
विक्रम संवत् 1584 चैत्र शुक्ला चतुर्दशी, 17 मार्च सन् 1527 को महाराणा संग्रामसिंह का मुगल बादशाह बाबर से जो प्रसिद्ध युद्ध हुआ
था, उसमें मुसलमानों से बड़ी वीरता से लड़ते हुए रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। मीराबाई के पिता रतनसिंह के पांचवे पुत्र रायमल थे, जो जोधपुर नरेश राव गंगाजी ने बयाने के युद्ध में महाराणा की सहायता के लिये जो सेना भेजी थी, उसके प्रधान सेनापति थे। ये भी उस युद्ध में बड़ी बहादुरी से लड़कर मारे गये। मारवाड़ में इनके वंशजों के अधिकार में मुख्य ठिकाने रेण और रायरा थे। वीरमदेव की रानियों में प्रथम रानी निवरवाड़ा के राणा केशवदास की पुत्री चालुक्य सोलंकी कल्याण कुंवरी, दूसरी रानी निवरवाड़ा अथवा बीसलपुर के राव फतहसिंह की पुत्री चालुक्या गंग कुंवरी, तीसरी रानी चित्तौड़ के महाराणा रायमल की पुत्री सिसोदिनी गोरज्या कुंवरी, चौथी रानी जयपुर राज्य के कालवाड़ा के महाराजा किशनदास की पुत्री कछवाहा रानी मान कुंवरी थी।
वीरमदेव के तीन पुत्रियां थी जिनमें प्रथम पुत्री राजकुमारी श्यामकुंवरी, जिनका विवाह मदारिया के रावत सागाजी शिशोदिया से हुआ। दूसरी पुत्री राजकुमारी फुलकुंवरी, इनका विवाह केलवा के सुविख्यात वीर सामंत रावत फत्ताजी शिशोदिया से किया गया। वीरवर रावत फत्ताजी ने चित्तौड़ के युद्ध में अकबर के विरूद्ध बड़ी बहादुरी से लड़कर वीरगति प्राप्त की। आजकल मेवाड़ में रावत फत्ताजी के वंशजों का मुख्य ठिकाना आमेट है। तीसरी राजकुमारी अभयकुंवरी का विवाह गंगराव के राव राघवदेव चौहान से हुआ था।
जयमल निवरवाड़ा के भाणेज और जयलोत राजपूतों के मूल पुरूष थे। प्रथम पुत्र जयमल जी, दूसरे पुत्र ईसरदास जी थे। जयमल जी के दूसरे नम्बर के भाई चित्तौड़ में संवत् 1624 में वीरगति को प्राप्त हुए। वे मुसलमानों के विरूद्ध लड़ाई में सुरजपोल पर काम आ गये। तीसरा पुत्र जगमाल जी, चौथा पुत्र चांदाजी, पांचवां पुत्र करण जी, छठा पुत्र अचला जी, सातवां पुत्र बिकाजी, आठवां पुत्र पृथ्वीराज जी, नोवां पुत्र सारंगदेव जी, दसवां पुत्र प्रतापसिंह जी।
जयमल जी का जन्म विक्रम संवत् 1564 आश्विन शुक्ला एकादशी, 17 सितम्बर सन् 1507 को शुक्रवार के दिन रात्रि दस ृृबजकर दस मिनट पर हुआ, तब राव दूदा और प्रथम कुंवर विरमदेव जिन्दा थे। जयमल जी की प्रथम रानी लुणावाड़ा के राणा रणधीर सिंह जी की पुत्री थी, दूसरी रानी खंड़ेला के राजा केशवदास जी की पुत्री विनयकुंवरी, तीसरी रानी देसुरी के राव केसरीसिंह जी की पुत्री सोलंकी पद्मकुंवरी थी।
जयमल की पुत्रियों का विवाह:- प्रथम राजकुमारी गुमानकुंवर का विवाह गंगरार राव बख्तावर सिंह जी चौहान से हुआ। दूसरी राजकुमारी गुलाब कुंवरी का पाणिग्रहण शिशोदिया रावत पंचायणजी के साथ हुआ।
जयमल जी के प्रथम पुत्र सुलतान सिंह को संवत् 1631, सन् 1574 को बादशाह अकबर ने इनको बीकानेर के राजा रायसिंह जी के साथ जोधपुराधीश राव चंद्रसेनजी के विरूद्ध करने के लिये भेजा और दूसरे ही वर्ष बादशाह अकबर ने गुजरात पर चढ़ाई की, उसमें सुलतान सिंह जी ने वीरगति पाई।
जयमलजी का दूसरा पुत्र शार्दुलजी, तीसरा पुत्र केशवदास जी, चौथा माधवदास जी, पांचवां मुकुंद दास जी, छठा हरिदासजी, सातवां कल्याणदास जी, आठवां रामदास जी, जो कि महाराणा प्रताप की सेना में थे और अकबर की सेना से लड़ते हुए हल्दीघाटी के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। नौवां पुत्र गोचंद दास जी, दसवां विट्ठलदास जी, ग्यारहवां नरसिंहदास जी, बारहवां श्यामदास जी, तेरहवां द्वारिकादास जी, चौदहवां अनोपसिंहजी, पंद्रहवां नारायणदासजी, सोलहवां अचलदास जी थे। इस प्रकार जयमलजी के दो राजकुमारियां और सोलह पुत्र थे।
जयमल फत्ता चित्तौड़गढ़ के सेनानायक थे। विदेशी हमलावर ने मांड़लगढ़ की ओर कूच किया। विक्रम संवत् 1624, माघ कृष्णा छठ, 23 अक्टूबर सन् 1567, गुरूवार को चित्तौड़ से तीन कोस दूरी पर उत्तर में स्थित नगरी गांव में ड़ेरा ड़ाला। उस समय आकाश मेघाच्छन्न हो रहा था। बादलों की भीषण गर्जना से पृथ्वी कम्पायमान हो रही थी। बिजलियां झकाझक चमक रहीं थी और बड़ी तेज हवा चल रही थी। इसी कारण बादशाह को किला दिखाई नहीं दिया परंतु आधे घण्टे बाद आकाश के मेघरहित हो जाने पर बादशाह को चित्तौड़ का गगन सुगढ़ दुर्ग दिखाई दिया। बादशाह ने दुर्ग के समीप पहुंच कर पहाड़ी के नीचे ड़ेरा ड़ाल दिया। किले पर घेरा ड़ालने का काम बरिन्शयों को सौंपा गया जो एक महीने में समाप्त हुआ। इसी माह के अंत में बादशाह ने आसफ खां को रामपुरा के दुर्ग पर भेजा जिसको उसने विजय कर लिया। महाराणा के उदयपुर, अजमेर या कुंभलगढ़ की ओर चले जाने की खबर पाकर अकबर ने हुसैन कुली खां को बड़ी सेना देकर उधर भेजा। हुसैन कुली खां ने उदयपुर पहुंचकर बहुत लुटमार की। उसने आसपास के प्रदेश में महाराणा का पता लगाने की बहुत कोशिश की परंतु कहीं भी पता नहीं लगने से अंत में वह निराश होकर बादशाह के पास लौट गया। इधर बादशाह ने चित्तौड़ पर अपना अरमान पूरा न होता देखकर साबात और सुरंगें बनाने का हुक्म दिया तथा जगह-जगह मोर्चा कायम करके तोपखाने से उनकी रक्षा की गई।

साबात और सुरंगें बनाने के काम में शाही सैनिक बड़ी मुस्तैदी के साथ कटिबद्ध होकर लग गये। अनेक स्थानों पर मोर्चाबंदी की गई। दो सुरंगें किले की दीवार के नीचे तक पहुंच गईं जिनमें से एक में 120 मन और दूसरी में 80 मन बारूद भर दिया गया। विक्रम संवत् 1624, माघ कृष्णा एकम्, 17 दिसम्बर सन् 1567 को एक सुरंग में आग ड़ाली गई जिससे 50 राजपूतों सहित किले की एक बुर्ज उड़ गई फिर दूसरी सुरंग भी उड़ गई जिसमें 500 शाही सैनिक जो दुर्ग में प्रवेश कर रहे थे और कुछ दुर्ग के राजपूत तत्काल मारे गये।
सुरंग के विस्फोट का धमाका 50 कोस तक सुनाई दिया। इस धमाके में मारे गये लगभग 100 राजपूत सैनिकों में से 20 प्रसिद्ध तोपची और अन्य उच्च सैनिक कर्मचारी थे जिन्हें स्वयं बादशाह भी अच्छी तरह से जानता था।
राव जयमलजी ने दुर्ग का प्रबंध ऐसी तरीकेबद्ध योजना से कर रखा था कि किले की जो दीवारें विपक्षियों के द्वारा गिराई गई थी उसी जगह पर तुरंत पहले जैसी नई दीवार बना ली गई। उसी दिन बीका खोह और मोहर मंगरी की तरफ आसफ खां के मोर्चे में जो एक तीसरी सुरंग खुदी हुई थी, वह भी उड़ गई परंतु उससे किले के केवल 30 सैनिक ही मारे गये और दुर्ग को कोई विशेष क्षति नहीं पहुंची। बादशाह को उस समय तक भी कोई विशेष सफलता नहीं मिल पाई।
जयमलजी राठौड बदनोरा मेड़तिया़ की आयु उस समय 60 वर्ष 5 माह और 17 दिन थी। इस अवस्था में भी चित्तौड़ के प्रसिद्ध संग्राम में आर्य जाति की स्वाधीनता की रक्षा करते हुए वीरगति प्राप्त की। इन्होंने 24 वर्ष राज्य किया।
राव जयमल जी का कद लम्बा, शरीर पुष्ट, विशाल नेत्र, चौड़ा वक्षस्थल, गेहुंआ रंग और प्रतिभाशाली चेहरा था। इनकी बड़ी-बड़ी मुंछें थी परंतु ये दाढ़ी नहीं रखते थे।
अकबर के साथ युद्ध के समय राव जयमल जी को रात्रि के समय लाकोटा दरवाजे के पास दीवार की मरम्मत कराते समय अकबर ने संग्राम नाम की बंदुक से गोली चलाई जो जयमलजी की जांघ में लगी और वो जख्मी हो गये। इसके बाद सामंतों ने आपस में सलाह कर चित्तौड़ दुर्ग के दरवाजे खोल दिये। दशामाता के दूसरे दिन एकादशमी को केसरिया बाना धारण करके बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए जयमल फत्ता, जो कि कलाकुंवर जयमलजी के कुटुंब के थे, ने अपनी पीठ पर बिठाकर चारों हाथों में तलवारें चलाते हुए हनुमान पोल और भैडू पोल के बाच वीरगति पाई।
विक्रम संवत् 1927 में आसोज सुदी एकम्, सोमवार को इनकी छतरी पर श्री प्रतापसिंह जी राठौड़ ने आगे वाले खंभे पर एक खिलालेख खुदवाया जो आज भी मौजूद है। इनके वंशज बदनोर, मेड़ता अजमेर भीलवाड़ा आदि में है जिनमें धौली कुंवर उम्मेदसिंह जी आदि का ठिकाना है। जयमल वंशावली प्रथम भाग अथवा दूसरे भाग में कर्नल डाड के द्वारा उल्लेख किया गया है.............. 


नोट --इतिहास के बहुत से जौहर है जनका पूरा पूरा अभिलेख और जानकारी  उपलब्ध नहीं है एक अनुमान के अनुसार मुस्लिम आक्रमण के बाद से लगभग दो लाख बावन हजार से ज्यादा राजपूत महिलायों ने जौहर किया है ! जौहर के समय पर अपनी छोटे-छोटे दुधमुहे नवजात शिशु को गोद में लेकर जौहर करती थी !

!!वेदों की उत्पत्ति !!

 
वेद भारतीय संस्कृति के वे ग्रंथ हैं, जिनमें ज्योतिष, संगीत, गणित, विज्ञान, धर्म, औषधि, प्रकृति, खगोल शास्त्र आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान का भण्डार भरा पड़ा है। वेद हमारी भारतीय संस्कृति की रीढ़ है। इनमें अनिष्ट से संबंधित उपाय तथा जो इच्छा हो उसके अनुसार उन्हें प्राप्त करने के उपाय संगृहीत हैं। लेकिन जिस प्रकार किसी भी कार्य में मेहनत लगती है, उसी प्रकार इन रत्नरूपी वेदों का श्रमपूर्वक अध्ययन करके ही इनमें संकलित ज्ञान को मनुष्य प्राप्त कर सकता है............
सामान्य भाषा में वेद का अर्थ है-‘ज्ञान’। वस्तुतः ज्ञान वह प्रकाश है जो मनुष्य-मन के अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट कर देता है। वेदों को इतिहास का ऐसा स्रोत कहा गया है, जो पौराणिक ज्ञान-विज्ञान का अथाह भंडार है। ‘वेद’ शब्द संस्कृत के विद् शब्द से निर्मित है अर्थात् इस एकमात्र शब्द में ही सभी प्रकार का ज्ञान समाहित है। प्राचीन भारतीय ऋषि जिन्हें मंत्रदृष्टा कहा गया है, उन्होंने मंत्रों के गूढ़ रहस्यों को जान कर, समझ कर, मनन कर, उनकी अनुभूति कर उस ज्ञान को जिन ग्रंथों में संकलित कर संसार के समक्ष प्रस्तुत किया वे प्राचीन ग्रंथ ‘वेद’ कहलाए। यहाँ वेद का अर्थ उन्हीं प्राचीन ग्रंथों से है। इस जगत्, इस जीवन एवं परमपिता परमेश्वर; इन सभी का वास्तविक ज्ञान वेद है।
विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने शब्दों में कहा है कि वेद क्या है ? आइए पढ़ें किसने क्या कहा है-
(1) मनु के अनुसार, ‘‘सभी धर्म वेद पर आधारित हैं।’’
(2) स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘‘वेद ईश्वरीय ज्ञान है।’’
(3) महर्षि दयानन्द के अनुसार, ‘‘समस्त ज्ञान विद्याओं का निचोड़ वेदों में निहित है।’’
(4) प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के अनुसार,
‘‘वेद-वेद के मंत्र-मंत्र में, मंत्र-मंत्र की पंक्ति-पंक्ति में,
पंक्ति-पंक्ति के शब्द-शब्द में, शब्द-शब्द के अक्षर स्वर में,
दिव्य ज्ञान-आलोक प्रदीपित, सत्यं शिवं सुन्दरं शोभित
कपिल, कणाद और जैमिनि की स्वानुभूति का अमर प्रकाशन
विशद-विवेचन, प्रत्यालोचन ब्रह्म, जगत्, माया का दर्शन।’’
अर्थात् वेद केवल ढकोसला मात्र नहीं है, इनमें वह पौराणिक ज्ञान समाहित है जिनके अध्ययन से धीरे-धीरे विकास हुआ और आज के आधुनिक युग की कई वस्तुओं का ज्ञान प्राचीन भारतीय ऋषियों ने पहले ही मनन कर प्राप्त कर लिया था। वेद परम शक्तिमान ईश्वर की वाणी है। अर्थात् वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेद श्रुति भी कहलाते हैं क्योंकि श्रुति का तात्पर्य है-सुनना। इसका अर्थ है कि प्राचीन भारतीय ऋषियों ने मनन एवं ध्यान कर अपनी तपस्या के बल पर ईश्वर के ज्ञान को ग्रहण किया, उसे आत्मसात् किया। जब उनके शिष्य उनसे शिक्षा ग्रहण करते तो वे उसी ज्ञान को उन्हें बाँटते।

यह ईश्वररीय ज्ञान मंत्रों के रूप में ऋषियों के साथ सभी को स्मरण होता गया, उन्हें कण्ठस्थ हो गया और धीरे-धीरे उन सभी से एक-दूसरे के पास पहुँचा। क्योंकि प्राचीन काल में आज की तरह स्कूल, कॉलेज नहीं थे। अपितु शिष्य, ऋषियों के आश्रय में जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे जो गुरु-शिष्य परम्परा कहलाती थी और ऋषि मंत्रों का उच्चारण कर शिष्यों को समझाते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि ऋषियों ने जो ईश्वरीय ज्ञान सुना वह वेद है, श्रुति है। इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा गया।
वेद ज्ञान का अनन्त भण्डार है। ये ईश्वरीय ज्ञान है। ये कोई ऐतिहासिक पुस्तकें नहीं है कि कोई घटना घटी और पुस्तकवद्ध हो गई। अतः ईश्वर की अलौकिक वाणी जो ज्ञानरूप में वेदों में निहित है, उसे समझने के लिए वेद ही वे अलौकिक नेत्र हैं जिनकी सहायता से मनुष्य ईश्वर के अलौकिक ज्ञान को समझ सकता है। वेद ही वे ज्ञान ग्रंथ हैं जिनके समकक्ष विश्व का कोई भी ग्रंथ नहीं है।
अतः वेद ईश्वरीय ज्ञान है और उनका उद्भव भी ईश्वर द्वारा ही हुआ है।
वेदों की उत्पत्ति का पौराणिक आधार
ब्रह्माजी ने सृष्टि रचना के समय देवों और मनुष्यों के साथ-साथ कुछ असुरों की भी रचना कर दी। इन असुरों में देवों के विपरीत आसुरी गुणों का समावेश था, इस कारण ये स्वभाव से अत्यंत क्रूर, अत्याचारी और अधर्मी हो गए। ब्रह्माजी ने देवगण के लिए स्वर्ग और मनुष्यों के लिए पृथ्वी की रचना की। लेकिन जब ब्रह्माजी को असुरों की आसुरी मानसिकता का ज्ञान हुआ तो उन्होंने असुरों को पाताल में निवास करने के लिए भेज दिया।

असुर स्वच्छंद आचरण करते थे। शीघ्र ही उन्होंने अपनी तपस्या से भगवान् शिव को प्रसन्न कर वरदान में अनेक दिव्य शक्तियाँ प्राप्त कर लीं और पृथ्वी पर आकर ऋषि-मुनियों पर अत्याचार करने लगे। धीरे-धीरे ये अत्याचार बढ़ते गए। इससे असुरों की आसुरी शक्तियों में भी वृद्धि होती गई। देवों की शक्ति का आधार भक्ति, सात्त्विकता और धर्म था, लेकिन स्वर्ग के भोग-विलास में डूबकर वे इसे भूल गए, इस कारण उनकी शक्ति क्षीण होती गई। 
वेद मानव सभ्यता और संस्कृति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं I लिपिबद्ध होने के पूर्व, वेद श्रुति के माध्यम से असंख्य वर्षों से मानवता की धरोहर रहे हैं I वेद लिखित रूप में द्वापर युग में आये I इनमे सर्वव्यापक, सर्वप्रकाश्मान ईश्वर का ज्ञान परिलक्षित है जो कि मानव सभ्यता को सृष्टि के प्रारम्भ में दिया गया I वेदों में जीवन के हर क्षेत्र का ज्ञान उप्लब्ध है और वे हिन्दू (सनातन) संस्कृति के मौलिक आधारभूत ग्रन्थ हैं I वास्तविक्ता में वेद समस्त मानव जाति की धरोहर हैं न कि किसी एक संप्रदाय विशेष की I वेद अर्थात ज्ञान अथवा दृष्टि I क्योंकि ज्ञान का लोप होना सर्वथा असंभव है, यही कारण है कि युग युगांतर से वैदिक दर्शन शाश्वत है एवं आज भी सनातन संस्कृति वेदों को ही अपना आधार मानती है I संसार का कोई ऐसा ज्ञान नहीं जो वेदों की परिधि से बाहर हो I वेद हिन्दू संस्कृति के सामाजिक, न्यायिक, दार्शनिक, घरेलु एवं सांस्कृतिक पहलुओं को देदीप्यमान करते हैं I वेदों की महानता इस बात से साबित होती है कि आस्तिक विचारधारा को मानना अर्थात ईश्वर अथवा वेदों में विश्वास एवं नास्तिक विचारधारा को मानना अर्थात ईश्वर अथवा वेदों को नकारना I आज वेदों का ज्ञान सामान्य मनुष्य जाति की समझ से ओझल है और वेदों को सही मायने में समझने हेतु उच्च कोटि की मानसिकता एवं परिष्कृत निर्मल ह्रदय की आवश्यकता है I
वेदों के रचेयता कौन हैं?
वेद मनुष्य की रचना नहीं, वे अपौरुषेय हैं I वे ईश्वर प्रदत्त हैं और कालांतर से मानव जाति को सौंपें गए हैं I वेदों की ऋचाओं का अवलोकन ब्रह्म में स्थित ऋषियों (जो कि मंत्रद्रष्टा कहे जाते हैं) ने किया I सर्वप्रथम चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान हुआ जो कि हर प्रकार से इस ज्ञान को समझने के उत्तम थे एवं दूसरों को समझाने की भी क्षमता रखते थे I अग्नि ने ऋग वेद, वायु ने यजुर वेद, आदित्य ने साम वेद एवं अंगिरा ने अथर्व वेद को प्राप्त किया I महर्षि वेद व्यास ने द्वापर युग में वेदों को लिपिबद्ध किया I
वेद: वर्गीकरण
वेद मूलतः चार हैं : ऋग , साम, यजुर एवं अथर्व I ऋग वेद समस्त भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान का भण्डार हैं I साम वेद संगीतमय भक्ति और चिंतन पर केन्द्रित हैं , यजुर वेद देव सम्मत मनुष्य के लिए निहित कर्म पर प्रकाश डालते हैं एवं अथर्व वेद तीनों वेदों में निहित ज्ञान का अनुप्रयोगात्मक परिचय देते हैंI
ऋग्वेद
ऋग्वेद दिव्य मन्त्रों की संहिता हैI इसमें १०१७ ऋचाएं अथवा सूक्त हैं जो कि १०६०० छंदों में पंक्तिबद्ध हैं I ये आठ "अष्टको" में विभाजित हैं एवं प्रत्येक अष्टक के क्रमानुसार आठ अध्याय एवं उप- अध्याय हैंI माना जाता है कि ऋग्वेद का ज्ञान मूलतः अत्रि, कन्व, वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदाग्नि, गौतम एवं भरद्वाज ऋषियों को प्राप्त हुआI ऋग वेद की ऋचाएं एक सर्वशक्तिमान पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर की उपासना अलग अलग विशेषणों से करती हैं I
साम वेद
साम वेद संगीतमय ऋचाओं का संग्रह हैं I विश्व का समस्त संगीत सामवेद की ऋचाओं से ही उत्पन्न हुआ है I ऋग वेद के मूल तत्व का सामवेद संगीतात्मक सार हैं, प्रतिपादन हैं I
यजुर वेद
यजुर वेद मानव सभ्यता के लिए नीयत कर्म एवं अनुष्ठानों का दैवी प्रतिपादन करते हैं I यह व्यावहारिक रूप से लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सामाजिक कृत्यों के लिए बलि सूत्रों को अनुमोदित करते हैं I यजुर वेद का ज्ञान मद्यान्दीन, कान्व, तैत्तरीय, कथक, मैत्रायणी एवं कपिस्थ्ला ऋषियों को प्राप्त हुआ I

अथर्ववेद
अथर्व वेद ऋग वेद में निहित ज्ञान का व्यावहारिक कार्यान्वन प्रदान करता है ताकि मानव जाति उस परम ज्ञान से पूर्णतयः लाभान्वित हो सके I लोकप्रिय मत के विपरीत अथर्व वेद जादू और आकर्षण मन्त्रों एवं विद्या की पुस्तक नहीं है I
वेद: संरचना
प्रत्येक वेद चार भागों में विभाजित हैं, क्रमशः : संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् I ऋचाओं एवं मन्त्रों के संग्रहण से संहिता, नीयत कर्मों और कर्तव्यों से ब्राह्मण , दार्शनिक पहलु से आरण्यक एवं ज्ञातव्य पक्ष से उपनिषदों का निर्माण हुआ है I आरण्यक समस्त योग का आधार हैं I उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है एवं ये वैदिक शिक्षाओं का सार हैं I
वेद: समस्त ज्ञान के आधार
यद्यपि आज वेदों का पठन पाठन सामान्य जन समुदाय में प्रचलित नहीं है, तदापि वेद सनातन संस्कृति एवं विचारधारा का मूलभूत आधार हैं, धर्म के स्तम्भ हैं, इसमें कोई संदेह नहीं I आदि काल से वेद हमारा मार्गदर्शन एवं धार्मिक दिशा निर्देश करते आये हैं एवं भविष्य में भी पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा करते रहेंगे I वेद सदा सर्वदा व्यापक और सार्वभौमिक ज्ञान की प्रकाशिका बनकर मानव जाति के पथ प्रदर्शक रहेंगे I

!! बाबा साहेब अम्बेडकर जी सिर्फ दलितों के मसीहा थे ?

डा अम्बेडकर
!!१४ अप्रैल को बाबा साहेब के जन्म दिवस पर विशेस !!
एक बात जो लगभग हमारे सहजबोध (कामन सेन्स) का हिस्सा बन गयी है - जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं - जो डा अम्बेडकर के बारे में कही जाती है, कि वह ‘दलितों के मसीहा’ थे। दिलचस्प है कि समूचे राजनीतिक स्पेक्ट्रम में यह बात स्वीकार्य है। अपने आप को उनका सच्चा वारिस घोषित करनेवालों के लिए भी यह बात सुनकर कोई बेआरामी नहीं होती।
क्या उनका यह चित्रण पूरी तौर पर सही है ? या उनको दलितों का मसीहा कह देने से उनके जीवन के तमाम पक्ष छूट जाते हैं और उनकी एकांगी किस्म की छवि बनती है 
अगर उनके इस चित्रण को सही मान लें तो उनके लगभग चालीस साला राजनीतिक-सामाजिक जीवन के कई अहम पहलुओं पर चुप्पी साधनी पड़ती है। और यही बात स्वीकारनी पड़ती है कि मनु के विधान की स्वीकार्यतावाले हमारे समाज में - जिसने शूद्रों-अतिशूद्रों-स्त्रिायों की विशाल आबादी को तमाम मानवीय हकों से वंचित किया था - उन्होंने अतिशूद्रों के अधिकारों के लिए कुछ संघर्ष किया एवम कुछ रिआयतें हासिल कीं।

फिर इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन हो जाता है कि
क्या वे स्त्रिायों के अधिकारों के लिए संघर्षरत नहीं रहे या क्या किसानों-मजदूरों की समस्या की ओर उनकी दृष्टि नहीं गयी, क्या जनता के आर्थिक सवालों से वह बेख़बर रहे या क्या वह शूद्रों-अतिशूद्रों का नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर करनेवाली जाति/जातियों के खिलाफ थे या उस मानसिकता के खिलाफ थे जिसने इस स्थिति का निर्माण किया था ? शिक्षा संस्थानों का जाल बिछाने के पीछे तथा अख़बार-पत्रा-पत्रिकाओं को शुरू करने के पीछे उनका क्या मकसद था ? और सबसे बढ़ कर क्या उन्होंने उपनिवेशवादियों के खिलाफ जारी राजनीतिक आन्दोलन की सीमा को उजागर नहीं किया जिसके लिए उन्हें जोखिम उठाना पड़ा


एक गुलाम मुल्क में उपनिवेशवादियों के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलनों के साथ एक सुविधा रहती हैं कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समूचे जनसमुदाय का उन्हें समर्थन प्राप्त रहता है लेकिन बाबासाहेब की अपनी जद्दोजहद का अच्छा खासा हिस्सा समाज की अपनी बीमारियों, परम्पराओं, संस्थाओं के खिलाफ, उपनिवेशवादियों के आगमन से पहले से चली आ रही उस सामाजिक-धार्मिक निज़ाम के खिलाफ था। उनके सामने खड़ी चुनौती को आसानी से समझा जा सकता है जहां उन्हें उन लोगों को भी निशाने पर लेना पड़ रहा था जो खुद साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित थे या उसके विरोध में संघर्ष के लिए तैयार थे मगर जो खुद भारतीय समाज की उस मंज़िलनुमा बनावट के खिलाफ खडे़ होने के लिए तैयार नहीं थे। अपने एक आलेख में डा अम्बेडकर ने उच्चनीचअनुक्रम, शुद्धता एवम प्रदूषण पर टिकी भारतीय समाज रचना की तुलना उस बहुमंजिली इमारत से की थी जिसमें एक मंज़िल से दूसरी पर जाने के तमाम दरवाजे़ बिल्कुल बन्द थे। वे लोग जो जातिप्रथा को श्रम का विभाजन कह कर महिमामण्डित करते थे, उन्हें करारा जवाब देते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि ‘जातिप्रथा श्रम का नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है।’

उनके जीवन एवम संघर्ष को सरसरी निगाह से देखने पर पता चलता है कि तमाम शोषितों-उत्पीड़ितों के हालात के प्रति उनका गहरा सरोकार एवम उसको बदल डालने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी। और अहम बात जो उनके यहां नज़र आती है वह है राजनीतिक-आर्थिक संघर्षों में या सामाजिक-सांस्कृतिक हलचलों के बीच उनके यहां किसी ‘चीन की दीवार’ की अनुपस्थिति।
( क्या यह कहना अनुचित होगा कि उत्तरअम्बेडकर आन्दोलन में इस सिलसिले का बनाये नहीं रखा जा सका)

उनके जीवन के सबसे पहले ऐतिहासिक संघर्ष को ही देखें जब 1927 में महाड के चवदार तालाब पर सत्याग्रह करने वह पहुंचते हैं (19-20 मार्च 2008) जिसके बारे में मराठी में हम कहते हैं कि जब ‘उन्होंने पानी में आग लगा दी।’ मालूम हो कि महाराष्ट्र के कोकण नामक इलाके के महाड नामक क्षेत्रा के सार्वजनिक तालाब पर हजारों की संख्या में दलितों ने अन्य तमाम समानविचारी लोगों डाॅ बाबासाहेब आम्बेडकर के नेतृत्व में एक सत्याग्रह किया था। यूं तो कहने के लिए यह महज पानी पीने का हक था लेकिन इसकी विशिष्टता इसी में निहित थी कि सदियों से उच्चनीचअनुक्रम पर टिके, प्रदूषण एवम शुद्धता पर आधारित समाज के उत्पीड़ित जनों ने अपने विद्रोह का एक संगठित हुंकार भरा था।

इस अवसर पर आयोजित सम्मेलन के प्रस्ताव गौर करनेलायक हैं। प्रस्तुत सम्मेलन में कई सारे महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गये। जंगल की जमीन दलितों को खेती के लिये दी जाय, उन्हें सरकारी नौकरियां मिलें, सरकार न केवल शिक्षा को अनिवार्य करे बल्कि 20 साल के छोटे लड़कों तथा 15 साल से छोटी लड़कियों की शादी पर भी पाबन्दी लगाये आदि विभिन्न आर्थिक सामाजिक मसलों पर प्रस्ताव मंजूर हुए । सरकार से अपील की गयी वह शराबबन्दी लागू करे तथा मरे हुए जानवरों का मांस खाने पर पाबंदी लगा दे । सम्मेलन में उच्चवर्णीयों से भी आवाहन किया कि वे अछूतों को उनके नागरिक अधिकार दिलाने में सहायता करें, उन्हें नौकरियां दें, अपने मरे हुए जानवरों को खुद दफनायें।


सत्याग्रह के दूसरे चरण में उन्होंनेे शुचिता तथा प्रदूषण के आधार पर उनके अपमान को जायज ठहराने वाले पवित्र कहलानेवाले मनुस्मृति नामक ग्रंथ को भी आग के हवाले किया था। (25 दिसम्बर 1927)

सम्मेलन के अपने शुरूआती वक्तव्य में बाबासाहेब ने प्रस्तुत सत्याग्रह परिषद का उद्देश्य स्पष्ट किया ‘‘ अन्य लोगों की तरह हम भी इन्सान है इस बात को साबित करने के लिए हम तालाब पर जाएंगे अर्थात यह सभा समता संग्राम की शुरूआत करने के लिए ही बुलायी गयी है । आज की इस सभा और 5 मई 1789 को फ्रांसीसी लोगों की क्रांतिकारी राष्ट्रीय सभा में बहुत समानताएं हैं । .. इस राष्ट्रीय सभा ने राजारानी को सूली पर चढ़ाया था, सम्पन्न तबकों के लिए जीना मुश्किल कर दिया था, उनकी सम्पत्ति जब्त की थी । 15 साल से ज्यादा समय तक समूचे यूरोप में इसने अराजकता पैदा की थी ऐसा इस पर आरोप लगता है। मेरे खयाल से ऐसे लोगों को इस सभा का वास्तविक निहितार्थ समझ नहीं आया।.. इसी सभा ने ‘जन्मजात मानवी अधिकारों को घोषणापत्रा जारी किया था.. इसने महज फ्रान्स में ही क्रान्ति को अंजाम नहीं दिया बल्कि समूची दुनिया में एक क्रांति को जनम दिया ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा‘‘ उन्होंने अपील की थी इस सभा को फ्रेंच राष्ट्रीय सभा का लक्ष्य अपने सामने रखना चाहिए..‘‘ हिन्दुओं में व्याप्त वर्णव्यवस्था ने किस तरह विषमता और विघटन के बीज बोये हैं इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘ समानता के व्यवहार के बिना प्राकृतिक गुणों का विकास नहीं हो पाता उसी तरह समानता के व्यवहार के बिना इन गुणों का सही इस्तेमाल भी नहीं हो पाता। एक तरफ से देखें तो हिन्दु समाज में व्याप्त असमानता व्यक्ति का विकास रोक कर समाज को भी कुंठित करती है और दूसरी तरफ यही असमानता व्यक्ति में संचित शक्ति का समाज के लिए उचित इस्तेमाल नहीं होने देती।…‘सभी मानवों की जनम के साथ बराबरी की घोषणा करता हुआ मानवी हकों का एक ऐलाननामा भी सभा में जारी हुआ।

सभा में चार प्रस्ताव पारित किये गये जिसमें जातिभेद के कायम होने के चलते स्थापित विषमता की भत्र्सना की गयी तथा यहभी मांग की गयी कि धर्माधिकारी पद पर लोगों की तरफ से नियुक्ति हो। इसमें से दूसरा प्रस्ताव मनुस्मृतिदहन का था जिसे सहस्त्राबुद्धे नामक एक ब्राहमण जाति के सामाजिक कार्यकर्ता ने प्रस्तुत किया था । प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘‘शूद्र जाति को अपमानित करनेवाली उसकी प्रगति को रोकनेवाली उसके आत्मबल को नष्ट कर उसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूती देनेवाली मनुस्मृति के श्लोकों को देखते हुए … ऐसे जनद्रोही और इन्सानविरोधी ग्रंथ को हम आज आग के हवाले कर रहे हैं।’

इस सत्याग्रह के अवसर महिलाओं को दिया गया उनका स्वतंत्रा उद्बोधन काफी चर्चित रहा है। मनुस्मृति दहन के बाद रात में स्त्रियां को अलग सम्बोधित करते हुए डा अम्बेडकर ने जोर देकर कहा था:

‘‘ परिवार की दिक्कतें स्त्री एवम पुरूष दोनों मिला कर ही सुलझाते है और उसी तरह समाज की, दुनिया की कठिनाइयों को भी स्त्रियों एवम पुरूषों को दोनों को मिला कर ही सुलझानी चाहिए। स्त्रियां ही इस काम को बखूबी कर सकती हैं, इस पर मुझे पूरा यकीन है। इसके आगे आप को भी सभाओं एवम सम्मेलनों में आना चाहिए।आप ने हम पुरूषों को जन्म दिया है। आप के पेट से जन्म लेना आखिर अपराध क्यों माना जाता है और ब्राह्मण स्त्री के पेट से जन्म लेना पुण्य क्यों समझा जाता है ? .. स्त्रियां गृहलक्ष्मी बनें यही हमें क्यों सोचना चाहिए, इसके आगे की मंजिल उन्हें क्यों नहीं पार करनी चाहिए ? ... ज्ञान और विद्या की आवश्यकता सिर्फ पुरूषों के लिए नहीं है वह स्त्रियों  के लिए भी उतनीही जरूरी है इसलिए आनेवाली पीढ़ी को सुधारना हो तो आप को चाहिए कि बेटों के साथ बेटियों को भी शिक्षा दें।स्त्रियों को राजनीतिक-सामाजिक सक्रियताओं में उतारने की, उन्हें अधिकारों से लैस करने की चिन्ता हमें उनके समूचे जीवन में दिखती है।

अगर हम 50 के दशक में नेहरू मंत्रिमण्डल से उनके इस्तीफे पर गौर करें तो क्या वजह समझ में आती है। जहां वे इस बात के प्रति क्षुब्ध है कि अनुसूचित जातियों एवम जनजातियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के प्रति सरकार पर्याप्त गम्भीरता का परिचय नहीं दे रही हैं वहीं वे इस बात को विशेष तौर पर रेखांकित करते हैं कि उनके इस निर्णय लेने के पीछे ‘हिन्दु कोड बिल’ को लेकर नज़र आती सरकार की आनाकानी का मसला अहम था।आखिर क्या था ‘हिन्दु कोड बिल’ ? दरअसल हिन्दु कोड बिल के जरिये आपसी सम्बन्ध विच्छेद एवम जायदाद के मामले में हिन्दु महिलाओं को अधिकार दिए जा रहे थे। सभी जानते हैं कि उसके पहले हिन्दुओं में बहुपत्नीप्रथा कायम थी, यहां तक कि तलाक या सम्पत्ति के मामले में उन्हें कोई अधिकार नहीं प्राप्त थे। हिन्दु कोड बिल को लेकर डा अम्बेडकर को जो जद्दोजहद करनी पड़ी वह अपने आप में एक रोचक इतिहास है। स्त्रिायों को अधिकारसम्पन्न कर ‘हिन्दु संस्कृति एव परम्परा को ध्वस्त करने’ की कोशिश करने के लिए कई बार उनके घर पर प्रदर्शन भी हुए। इस बिल को न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध था बल्कि कांग्रेस के अन्दर मौजूद रूढिवादी/सनातनी तत्वों ने भी उनके इस कदम की लगातार मुखालिफत की थी जिसमें अग्रणी थे बाबू राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल आदि। नेहरू मंत्रिमण्डल से इस्तीफा सौंपते हुए प्रस्तुत वक्तव्य में उन्होंने लिखा था:......

‘हिन्दु कोड बिल एक तरह से इस मुल्क की विधायिका द्वारा हाथ में लिया गया समाज सुधार का सबसे बड़ा कदम था। अतीत में हिन्दोस्तां की विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून से या भविष्य में पारित किए जा सकनेवाले किसी भी कानून से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। वर्ग और वर्ग के बीच की गैरबराबरी, लिंगों के बीच की गैरबराबरी - जो हिन्दु समाज की आत्मा है - को अक्षुण्ण बनाये रखना तथा आर्थिक समस्याओं को लेकर एक के बाद एक विधेयक पारित करते रहना, एक तरह से संविधान का माखौल उड़ाना है और गोबर के ढेर पर महल खड़े करने जैसा है मेरे लिए हिन्दु कोड का यही महत्व रहा है। और अपने मतभेदों के बावजूद इसी वजह से मैं मंत्रिमण्डल का सदस्य बना रहा।’

डा अम्बेडकर के जीवन और संघर्षों की व्यापकता जानना हों तो तीस का दशक कई मायनों में अहम दिखता है जिसमें वह सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर भी नयी जमीन तोड़ते प्रतीत होते हैं वहीं वह राजनीतिक-आर्थिक मसले पर भी एक अलग रास्ता अख्तियार करते नज़र आते हैं
 
बाबा साहेब के इन बातो से सिर्फ यही निष्कर्ष निलकता है की उन्हें सिर्फ और सिर्फ दलितों की ही समस्या दिखाई देती थी ..जबकि उस समय पर भी उच्च वर्ग में भी बहुत गरीबी और  असमानता थी ,मुस्लिमो की बहुत बड़ी आवादी भी बहुत ही गरीब थी ,,फिर भी इन महासे को सिर्फ दलित ही दिखाई दिए बाकी सभी वर्ग और समाज के लिए इनके मन में कोई दर्द नहीं था ..यही वजह है की ये महासय एक सर्वमान्य नेता नहीं बन सके ..सिर्फ दलितों का उद्धार ही दिखाई दिया इन्हें .........मतलब साफ़ है ये पूर्वाग्रह और बदले की भावना से जल रहे थे ......

नोट --यह जाने माने विचारक "सुभाष गाताडे "के लंबे आलेख का एक हिस्सा है