शनिवार, 12 मई 2018

हमारा गौरवशाली इतिहास

कठों के भीषण प्रतिरोध और यौधेयों की भीषण युयुत्सु वृत्ति के किस्सों को सुन सुनकर यूनानी सैन्य घबरा उठा । उन्होंने अभी अभी कठों की दुर्द्धष प्रवृत्ति को झेला था और उन्हें बताया गया कि यौधेय कठों से भी भीषण योद्धा हैं । उनकी हिम्मत जवाब दे गई और व्यास के किनारे उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया ।
सिकंदर के सामने वापस लौटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा पर यहां भी उसके सामने एक समस्या खड़ी हो चुकी थी ।
उसके आक्रमण के मार्ग में आई कई जातियाँ विद्रोह करने लगीं थीं जिनका नेतृत्व कर रहा था एक युवक चंद्रगुप्त मौर्य । पर इस विद्रोह का वास्तविक शिल्पकार था तक्षशिला का एक ब्राह्मण, एक शिक्षक का जो इतिहास में आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य के नाम से भारत का एक नया इतिहास लिखने वाला था ।
सिकंदर को पुरु पर विश्वास नहीं रहा और वो सत्य भी था क्योंकि सिकंदर की अधीनता स्वीकार करने वाले राजाओं व गणों का सम्मान जनसामान्य की नजरों में गिर गया था इसलिये लज्जा, ग्लानि और जनदवाब के कारण वे अपनी दासता के जुए को उतार फैंकना चाहते थे । पुरु की आंखें भी खुल चुकी थीं और संभवतः वह भी चंद्रगुप्त को गुप्त सहायता प्रदान कर रहा था ।
अत्यधिक सावधान सिकंदर इस बात को समझ चुका था इसलिये उसने भिन्न रास्ते से प्रत्यावर्तन का फैसला किया परंतु सिकंदर और यूनानियों का दुर्भाग्य ...
यहां उसका सामना हुआ एक और भयंकर युयुत्सु जाति से जो रावी और चेनाब के दोआब में बसी हुई थी । यह जाति आगे जाकर भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली थी और इस गणक्षत्रिय जाति का नाम था -----
********** #मालव ********
जिन्हें यूनानियों ने कहा #मल्लोई
कठ अगर अपने सौंदर्यबोध जैसे लंबाई , गौर वर्ण और नील नेत्रों के लिये प्रसिद्ध थे तो मालव प्रसिद्ध थे अपनी कठोर और भव्य मल्ल शारीरिक संरचना के लिये ।
कौन थे ये मालव ?
इन्हें मालव क्यों कहा जाता था ??
इनकी उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ ???
इतिहासकारों ने इस विषय में मौन साध रखा है क्योंकि उनके लिये इतिहास के मानक और स्रोत पश्चिम की अवधारणाओं से अभिप्रेरित रहे है और इसीलिये पुराण, रामायण, महाभारत आदि स्रोतों से इतिहास की खोई कड़ियों को जोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पाते । मालवों का यशस्वी इतिहास भी इसीलिये चार लाइनों में समेट दिया जाता है ।
वास्तव में मालवों का इतिहास रामायण युग से प्रारंभ होता है जब प्रथम बार उनका उल्लेख सुग्रीव द्वारा पूर्व दिशा में खोजी दल के नायक के समक्ष उनकी स्थिति काशी , कोशल जैसे पूर्वी भारतीय जनपदों के साथ #मल्लों के रूप में वर्णित किया गया ।
जब श्रीराम ने अयोध्या साम्राज्य का पुनर्गठन प्रारंभ किया तो मल्लों की इस भूमि में कारूपथ नामक नगर या कहें सैन्यकेन्द्र स्थापित कर लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु को नियुक्त किया ।
मल्ल विद्या में आसक्ति या मत्स्यवेध में कुशलता या मल्ल जनों के बीच लोकप्रियता के कारण लक्ष्मण के इस पुत्र को #मल्ल की उपाधि भी प्राप्त थी ।
बाद में श्रीराम ने पंजाब में कारूपथ के नाम से ही एक और सैन्यकेंद्र स्थापित किया जिसे कालिदास ने #कारापथ नाम से वर्णित किया । लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु 'मल्ल' को ही इस नगर का शासक नियुक्त किया गया और उनके निष्ठावान अनुयायी कहलाये #मालव अर्थात मल्ल से निःसृत ।
मूल शाखा के गण 'मल्ल' नाम से ही पुकारे गये जो बौद्ध काल तक पावा और कुशीनार की दो शाखाओं में बंट गये । राहुल सांकृत्यायन के अनुसार कालांतर में जब इन गणक्षत्रियों में से कुछ ने शुंग काल में वर्णपरिवर्तन किया तो ये कहलाये मलांव वंश के #पांडे ।
अस्तु !
पश्चिमी मल्ल अर्थात मालवों का इतिहास अपेक्षाकृत दुर्धश रहा ।
महाभारत में मालव गणसंघ के सरदारों ने स्वतंत्र रूप से कौरव और पांडव दोंनों ओर से भाग लिया और कौरवों की तरफ से भाग ले रहे एक मालव नरेश इन्द्रवर्मा इतिहास में सिर्फ कुछ क्षणों के लिये चमके और वजह बन गये अपने ही सेनापति द्रोण की मृत्यु की क्योंकि उनके हाथी का नाम था #अश्वत्थामा । शेष घटनाक्रम सभी जानते ही हैं ।
पर अब 326 ई.पू. में उन्हें निभानी थी वह भूमिका जिसके लिये कभी वे पूर्व से आकर उत्तर पश्चिम में बसाये गये थे।
सिकंदर के आगमन ने मालवों के कान खड़े कर दिये । क्षुद्रकों से मतभेद भुला दिये गये और स्थापना हुई 'मालव-क्षुद्रक गणसंघ' की ।
परंतु गृद्धदृष्टि वाला सिकंदर खतरा भांप गया और दोंनों गणों की सेना के सम्मिलित होने से पूर्व ही उसने मालवों पर आक्रमण कर दिया ।
सिकंदर के वेग और रणनीति और गतिशीलता से आश्चर्यचकित परंतु निर्भीक मालव जूझ पड़े । सिकंदर की अप्रतिम अश्वारोहियों की गति कठों के बाद एक बार फिर कुंठित हो गई । एक एक पग बढ़ना भी सिकंदर को भारी पड़ रहा था ।
झुंझुलाये सिकंदर ने घोड़े को एड़ लगाई और मालवों की सबसे सघन पंक्ति में कूद पड़ा ।
एक सनसनाता हुआ मालव शर उसके घुटने में धंस गया और वह घोड़े से नीचे भूमि पर आ रहा ।
सिकंदर का भूमि पर गिरना भारत के इस भाग पर उसकी प्रभुसत्ता के पतन का भी प्रतीक था और उसके स्वप्न व जीवन की समाप्ति का भी ।
सिकंदर जैसे तैसे उठा कि एक मालव के गदा प्रहार ने उसे वापस भूशायी कर दिया । गदाधर मालव सिकंदर के अंगरक्षकों द्वारा वीरगति को प्राप्त हुआ और तभी तीसरा मालव खड्गधर सिकंदर का शीश उतारने को झपट पड़ा ।
सिकंदर की पूरी वाहिनी इसी क्षेत्र में सिमट आई और ना केवल वह खड्गधर खेत रहा बल्कि मालवों का व्यूह भी टूट गया ।
प्रतिशोध से भरे उन्मत्त यूनानी दुर्ग में घुस आये ।
आबाल वृद्ध एकतरफ से काट दिये गये । बलत्कृत और अबलत्कृत स्त्रियों के शवों से कूप भर गये ।
परंतु मालवों को अधीनता स्वीकार नहीं थी । अंततः सिकंदर ने मालवों से सन्धिवार्ता शुरू करनी पड़ी ।
रथों पर सवार 100 सर्वश्रेष्ठ मालव प्रतिनिधियों के व्यक्तित्व की भव्यता से यूनानी चमत्कृत से हो गये ।
सिकंदर ने मालवों पर अपनी एकतरफा विजय की घोषणा को लिपिबद्ध करवा दिया परंतु अधीनता की शर्तें कभी भी घोषित नहीं की गयीं और ना ही कठों की भांति मालवों का विनाश कर सका जो स्पष्ट करता है कि सिकंदर को यहाँ भी कोई निर्णायक विजय प्राप्त नहीं हुई ।
परंतु मालवों की भी प्रभूत जनहानि हुई और इसीलिये उन्होंने चाणक्य द्वारा नियोजित व चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में अपनी आंतरिक गण स्वतंत्रता की एकमात्र शर्त पर अखिल भारतीय साम्राज्य में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया और सिन्धु तट पर सेल्यूकस के विरुद्ध अभियान में भारतीय प्रतिशोध का हिस्सा भी ।
परंतु मालवों की भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका अभी शेष थी ।
सिकंदर के लौट जाने के बाद और मौर्यों साम्राज्य का भाग बन जाने के बावजूद मालवों के संकटों का अंत नहीं हुआ ।
सिकन्दर द्वारा बसाई गई बस्तियों के यूनानी अब भारत के स्थाई निवासी बन चुके थे । वे काफी कुछ हद तक हिंदू संस्कृति को अपना रहे थे और अब हिंद-यूनानी या इंडो-ग्रीक कहलाने लगे थे परंतु उनमें अभी भी राष्ट्रीय पार्थक्य और यूनानी श्रेष्ठता का भाव उपस्थित था और सबसे बुरी बात यह थी कि वे स्वयं को सिकंदर के साम्राज्य और उसके अधूरे स्वप्नों का उत्तराधिकारी समझते थे और भारतीय उनकी इस हेकड़ी को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे ।
जब तक मौर्य साम्राज्य शक्तिशाली रहा वे चुपचाप बैठे रहे और जैसे ही अशोक की अहिंसा और धर्मप्रचार की नीति ने साम्राज्य की सैनिक शक्ति को खोखला किया य्ये ग्रीक बैक्ट्रिया से काबुल घाटी और फिर गांधार से होते हुये आगे बढ़े।
कीमत चुकाई मालवों ने। सिकंदर के समय ही उन्हें शिबियों के साथ अपनी भूमि , घरबार छोड़कर पूर्वी पंजाब में आना पड़ा था जहां उनके गणक्षत्रिय बन्धुओं #यौधेय व#आर्जुनायनों ने उनका सहयोग किया। पंजाब का यह क्षेत्र आज भी उनके नाम पर पंजाब का #मालवा कहलाता है ।
शिबि आगे बढ़कर वर्तमान चित्तौड़ के इलाके में आ बसा जसए उस समय #माध्यमिका कहा जाता था ।
मौर्य सेनायें सम्राट बृहद्रथ और बौद्धों के देशद्रोह के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ थीं । यौधेयों ने अपनी सदैव की नीति के अनुरूप जंगलों व पर्वतों की शरण ली । मालवों ने प्रतिरोध किया परंतु पहले से ही दुर्बल मालव संख्यात्मक रूप से कमजोर थे । वे राजस्थान की ओर अपने गणक्षत्रिय बंधु #शिबियों के क्षेत्र में शरण लेने व सहयोग करने के लिये आगे बढ़े । परन्तु शिबि भी यूनानियों द्वारा पराजित हुये ।
अरुणद् यवन: माध्‍यमिकाम्।‘ (महाभाष्‍य, 3/3, 111)
भारत के सौभाग्य से महर्षि पतंजलि , पुष्यमित्र और उसके पौत्र वसुमित्र राजनीति के क्षितिज पर उभरे जिन्होंने #दिमित्रियस और #मिनांडर की महत्वाकांक्षाओं को सांगल तक सीमित कर दिया ।
मालवों को भी इस अवधि में फलने फूलने का मौका मिला और वे मध्यप्रदेश के उस हिस्से में फैल गये जिसे उनके नाम पर आज कहा जाता है मध्यप्रदेश का #मालवा और उनकी राजधानी बनी अवंतिका जिसे कहा जाने लगा #उज्जयनि और यहाँ पर नियति उनके इतिहास का ही नहीं भारत के इतिहास का सबसे "अमर अध्याय" लिखने वाली थी।
(क्रमशः)
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स्रोत:
1-वाल्मीकि रामायण
2-महाभारत
3-पातंजलि कृत महाभाष्य
4-गार्गी संहिता
5-नियार्कस व पलूटार्क के विवरण
6-बृहत्कथा मंजरी: गुणाढ्य
7-कथा सरित्सागर: सोमदेव
8-श्रेण्य युग : डॉ आर सी मजूमदार
9-प्राचीन भारतीय सिक्के: परमेश्वरी लाल गुप्त
10-प्राचीन भारतीय अभिलेख: परमेश्वरी लाल गुप्त
11-प्राचीन भारत का इतिहास: विमल चंद्र पांडेय
12-राहुल वाङ्गमय
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Note: भारतीय इतिहास के जानबूझकर छिपाये गये तथ्यों के प्रसार हेतु अपने दोस्तों को मेंशन करें और शेयर के स्थान पर कोपीपेस्ट को प्राथमिकता दें।
साभार ....देवेंद्र सिंह सिकरवार जी की फेसबुक पोस्ट .......