बुधवार, 16 मई 2012

!!गणेश परम चेतना के प्रतीक हैं!!

गणेश दिव्यता की निराकर शक्‍ति हैं, जिनको भक्‍तों के लाभ के लिए एक शानदार रूप में प्रकट किया गया है । गण यानी समूह । ब्रह्मांड परमाणुओं और विभिन्‍न ऊर्जाओं का एक समूह है । इन विभिन्‍न ऊर्जासमूहों के ऊपर यदि कोई सर्वोपरि नियम न बनकर रहे तो यह ब्रह्मांड अस्त-व्यस्त हो जाएगा । परमाणुओं और ऊर्जा के इन सभी समूहों के अधिपति गणेश हैं । वह परमतत्व चेतना हैं, जो सब में व्याप्त है और इस ब्रह्मांड में व्यवस्था लाती है । आदि शंकर ने गणेश के सार तत्व का बड़ा सुंदर वर्णन किया है । हालांकि गणेश भगवान को हाथी के सिर वाले रूप में पूजा जाता है, उनका यह स्वरूप हमें निराकर परब्रह्म रूप की ओर ले जाने के लिए हैं । वे अगम, निर्विकल्प, निराकार और एक ही हैं । अर्थात वे अजन्मे हैं गुणातीत हैं और उस परम चेतना के प्रतीक हैं जो सर्वव्यापी है । गणेश वही शक्‍ति है जिससे इस ब्रह्मांड का सृजन हुआ, जिससे सब कुछ प्रकट हुआ और जिसमें यह सब कुछ विलीन हो जाना है । हम सब इस कहानी से परिचित हैं कि गणेश जी कैसे हाथी के सिर वाले भगवान बने । शिव और पार्वती उत्सव मना रहे थे, जिसमें पार्वती जी मैली हो गईं । यह एहसास होने पर वे अपने शरीर पर लगी मिट्टी को हटाकर उससे एक लड़का बना देती हैं । वह स्नान करने जाती हैं और लड़के को पहरेदारी करने के लिए कहती हैं । जब शिव लौटते हैं, वह लड़का उन्हें पहचान नहीं पाता उनका रास्ता रोक देता है । तब शिव लड़के का सिर काट देते हैं और और अंदर प्रवेश कर जाते हैं । पार्वती चौंक जाती हैं । वे समझाती हैं कि वह उनका बेटा था उसे बचाने का निवेदन करती हैं । शिव अपने सहायकों को उत्तर दिशा की ओर इशारा करते हुए किसी सोते हुए का सिर लाने के लिए कहतें हैं । तब सहायक हाथी का सिर लेकर आते हैं, जिसे शिव जी लड़के के धड़ से जोड़ देते हैं और इस तरह गणेश की उत्पत्ति होती है ।

क्या यह सुनने में कुछ अजीब सा है ? पार्वती के शरीर पर मैल क्यों आया ? सब कुछ जानने वाले शिव अपने बेटे को क्यों नहीं पहचान सके? शिव जो शांति के प्रतीक हैं, उनमें क्या इतना गुस्सा था कि वे अपने ही बेटे का सिर काट दें? और गणेश का सिर हाथी का क्यों है? इसमें कुछ और गहरा रहस्य छिपा हुआ है । पार्वती उत्सव की ऊर्जा का प्रतीक है । उनका मैला होना इस बात का प्रतीक है कि उत्सव के दौरान हम आसानी से राजसिक हो सकते हैं । मैल अज्ञानता का प्रतीक है और शिव परमशांति और ज्ञान के प्रतीक हैं । गणेश द्वारा शिव का मार्ग रोकने का अर्थ है अज्ञानता (जो इस सिर का गुण है) जो ज्ञान को पहचान नहीं पाई । फिर ज्ञान को अज्ञानता मिटानी पड़ी । इसका प्रतीक यही है कि शिव ने गणेश के सिर को काटा । और हाथी का सिर क्यों? ज्ञान शक्‍ति और कर्म शक्‍ति दोनों का प्रतिनिधित्व हाथी करता है । हाथी का बड़ा सिर बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है । हाथी न तो किसी अवरोध से बचने के लिए घूमकर निकलता है और न ही कोई बाधा उसे रोक पाती है । वह सभी बाधाओं को हटाते हुए सीधे चलता रहता है । गणेश का बड़ा पेट उदारता और पूर्ण स्वीकृति का प्रतीक है । उनका अभय मुद्रा में उठा हाथ संरक्षण का प्रतीक है- घबराओ नहीं - मैं तुम्हारे साथ हूं । और उनका दूसरा हाथ नीचे की तरफ है और हथेली बाहर की ओर, जो कहती है कि वह निरंतर हमें दे रहे हैं । गणेश जी का एक ही दंत है जो कि एकाग्रचित होने की प्रतीक है । उनके हाथों में जो उपकरण हैं उनका भी प्रतीक हैं । वह अपने हाथों में अंकुश लिए हुए हैं जो कि सजगता का प्रतीक है और पाश है जो नियंत्रण का प्रतीक है । चेतना जागृत होने पर बहुत ऊर्जा निकलती है जो बिना किसी नियंत्रण के अस्त व्यस्त हो जायेगी । और हाथी के सिर वाले गणेश की सवारी इतने छोटे से चूहे पर क्यों होती है ? यह बात असंगत सी लगती है न ? यहां भी एक प्रतीक है । जो बंधन बांध कर रखते हैं उसे चूहा कुतर-कुतर कर समाप्त कर देता है । चूहा उस मंत्र की भांति है, जो धीरे-धीरे अज्ञान की एक-एक परत को काट कर भेद देता है, और उस परम ज्ञान की ओर ले जाता है जिसका प्रतिनिधित्व गणेश करते हैं ।

!! धर्म ग्रंथो पर अज्ञानियों द्वारा निरर्थक वर्तापाल !!

मैं कई दिनों नहीं बल्कि कई माहीनो से देख रहा हु की बहुत से अज्ञानी ब्यक्ति दिन भर धार्मिक बाते मो रस लेकर लेकर बाते करते है जिन्हें ज्ञान नहीं है ओ भी जिन्हें  ज्ञान है ओ भी इन मूर्खो के बीच में अपना कीमती समय नस्त करते है .जबकि वेदों की रिचाए और संस्कृत के श्लोको का सत्य ज्ञान नहीं है इन दुराग्रहियो को .अनर्गल वार्तालाप करते रहते है  ..   कई दिनों से कुछ एक स्वयम्भू विद्वानों द्वारा धर्म ग्रंथो के श्लोकों की मनमानी व्याख्या पढने को मिल रही है ये तथाकथित विद्वान हिन्दू धर्म के लिए किसी सिरफिरे मानसिक विकृत लेखकों की पुस्तको का हवाला देते रहते है पर ये ये क्यों नहीं समझते कि जिन मानसिक विकृत लेखको ने इस तरह का साहित्य लिखा है उसे स्वीकार किसने किया है ? क्या सलमान रुश्दी का लिखा हुआ किसी ने स्वीकार किया है ? क्या तसलीमा नसरीन द्वारा लिखी हुई पुस्तके उसके समाज व धर्म वालों ने स्वीकार की है ? तो ये लोग ये क्यों नहीं समझते कि कुछ घटिया मानसिक सोच रखने वाले लेखकों द्वारा हिन्दू धर्म के अपमान वाली पुस्तके कैसे स्वीकार की जा सकती है ?
जिन वेदों के एक एक श्लोक की व्याख्या के लिए पूरा लेख छोटा पड़ जाता है, जिन्हें समझने के लिए कई जन्म कम पड़ जाते है उन वेदों की ये तथाकथित विद्वान अपने हिसाब से विवेचना करने में लगे है | जिन लोगों को इंसानियत और मानव धर्म तक की समझ नहीं है उन्हें वेदों और धर्म के बारे में बड़ी बड़ी बाते लिखते देख आज मुझे एक किस्सा याद आ गया -
एक में चार अंधे रहते थे , एक दिन उस गांव में एक हाथी आ गया , हाथी आया , हाथी आया की आवाजें सुनकर अंधे भी वहां आ गए कि क्यों न हाथी देख लिया जाये पर बिना आँखे देखे कैसे ? सो एक बुजुर्ग ग्रामवासी के कहने पर महावत ने उन अंधों को हाथी को छूने दिया ताकि अंधे छू कर काठी को महसूस करने लगे | और अंधों ने हाथी को छू लिया , एक अंधे के हाथ में हाथी सूंड आई , दुसरे अंधे के हाथ पूंछ आई तो तीसरे अंधे के हाथ हाथी के पैर लगे | और चौथे के हाथी के दांत | इस तरह अंधों ने हाथी को छू कर महसूस कर देख लिया | दुसरे दिन चारो अंधे एक जगह इक्कठे होकर हाथी देखने छूने के अपने अपने अनुभव के आधार पर हाथी की आकृति का अनुमान लगा रहे थे | पहला कह रहा था - हाथी एक चिकनी सी रस्सी के सामान होता है , दूसरा कहने लगा - तुम्हे पूरी तरह मालूम नहीं रस्सी पर बाल भी थे अत: हाथी बालों वाली रस्सी के समान था , तीसरा कहने लगा - नहीं ! तुम दोनों बेवकूफ हो | अरे ! हाथी तो खम्बे के समान था | इतनी देर में चौथा बोल पड़ा - नहीं तुम तीनो बेवकूफ हो | अरे ! हाथी तो किसी हड्डी के समान था और बात यहाँ तक पहुँच गयी कि अपनी अपनी बात सच साबित करने के चक्कर में चारो आपस में लड़ने लगे |
चारों अन्धो में जूतम-पैजार होते देख पास ही गुजरते गांव के एक ताऊ ने आकर पहले तो उन्हें लड़ते झगड़ते छुड्वाया फिर किसी डाक्टर के पास ले जाकर उनकी आँखों का ओपरेशन करवाया | जब चारो अंधों को आँखों की रोशनी मिल गई तब ताऊ उनको एक हाथी के सामने ले गया और बोला - बावलीबुचौ ! ये देखो हाथी ऐसा होता है | तब अंधों को पता चला कि उनके हाथ में तो हाथी का अलग- अलग एक एक अंग हाथ आया था और वो उसे ही पूरा हाथी समझ रहे थे |
ठीक उसी तरह ये तथाकथित विद्वान भी कहीं से एक आध पुस्तक पढ़कर अपने आप को सम्पूर्ण ज्ञानी समझ रहे और ये तब तक समझते रहेंगे जब तक इन्हें कोई ताऊ नहीं मिल जाता जो इन्हें धर्म का मर्म समझा सके | जिस दिन इन्हें इंसानियत और मानव धर्म का मर्म समझ आ जायेगा इन्हें पता चल जायेगा कि धर्म क्या है ? और कौनसा धर्म श्रेष्ट है ?



BY Naveen Verma ji ----जातिवादी लोग अक्सर , पौराणिक ग्रंथों से प्रसंगो को ढूंड-ढूंड कर विवाद खड़ा करने के लिए, उनकी मन गढ़ंत व्याख्या करते रहते हैं. उस समय वो ये भी भुला देते हैं कि- उस भेदभाव करने वाले व्यक्ति को अपनी गलती का परिणाम भी भुगतना पद गया था . उदाहरण के लिए एकलव्य और द्रोणाचार्य का प्रसंग -

द्रोणाचार्य का गुरुकुल एक बड़ा और महंगा गुरुकुल था जिसमे केवल राजघराने के लोग ही शिक्षा ले सकते थे. ठीक बैसा ही जैसा आ...जकल के महंगे पब्लिक स्कुल जिनमे कोई गरीब पढने नहीं जा सकता है. एकलव्य का स्वयं धनुर्विद्या सीख लेना, उन्हें अपने गुरुकुल का अपमान दिखाई देता था. ये उनको किसी के अर्जुन से आगे निकलने से भी कहीं ज्यादा इसलिए दुःखदाई था. इसीलिए उन्होंने उसको बातों में उलझाकर उसका अंगूठा कटवा दिया था.

महाभारत में द्रोणाचार्य ने केवल यही एक अपराध नहीं किया था, राजाश्रय न छिन जाए इसलिए राज सभा में, पांडव कुलबधू द्रौपदी के अपमान को चुचाप देखते रहे. युद्ध में अपने द्वारा रचे हुए चक्रव्यूह को, अभिमन्यु द्वारा तोड़ने पर, सात महारथियों के द्वारा एकसाथ एक निहत्थे बालक की ह्त्या करने के भागी दार भी बने.

महाभारत में भी द्रोणाचार्य को उनकी योग्यता की बजह से आदरणीय तो माना गया है , लेकिन साथ ही उनके उपरोक्त अपराधों की बजह से पूज्यनीय नहीं माना है. उनके पापो की सजा भी मिली कि - जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र की हत्या का कारण भी बने थे. और उसी अर्जुन के साले के हाथों म्रत्यु को प्राप्त हुए .

महाभारत में एक से बढ़कर एक, अनेकों ब्राह्मण और क्षत्रीय पात्र होने के बाबजूद केवल एक ही व्यक्ति यदुवंशी 'श्री कृष्ण' को ही पूज्यनीय का दर्जा प्राप्त है और किसी को नहीं . महाभारत में जिसके पुत्रो की कहानी है वो सत्यवती निषाद कन्या थी और महाभारत लिखने वाले 'व्यास' भी निषाद जाति के थे और व्यास जी का संत समाज में किसी ब्राह्मण से भी ज्यादा सम्मान था .