शिष्टाचार का संबंध सिर्फ बाहर से और संस्कार का भीतर से जुड़ा हुआ है। इस समय ये दोनों ही बातें मानवीय जीवन में या तो कम हो रही हैं या फिर इनका स्वरूप बदलता जा रहा है। सारा शिष्टाचार धंधे का गुर बन गया है। हम उन्हीं के प्रति सभ्य हैं, जिनसे हमें कुछ मिलना है।
अकारण सहज होना, शिष्ट होना कमजोरी की निशानी है। शिष्टाचार सिर्फ इसलिए है कि व्यावसायिक संबंध बिगड़ न जाएं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि शिष्टाचार का संबंध शरीर से है और संस्कार का भीतर से। इसीलिए आज के समय में लोग शरीर क्या कर रहा है, इसकी चिंता अधिक पालते हैं। भीतर जो हो रहा है, उसे कैसे ठीक किया जाए, इसकी फिक्र कम है।
खाते समय हम गिरा न दें, किसी से बात करते समय बॉडी लैंग्वेज ठीक रहे, किसी से वस्तु आदान-प्रदान करते समय आभार-धन्यवाद जरूर बोलें, भोजन का आमंत्रण दें, भोजन करवाएं, थाली कैसी सजी हो, खान-पान की वैरायटी, ऊपरी साफ-सफाई, मौके-दर-मौके उपहार भेंट करना, उपहारों की शानदार पैकिंग, ये सब शिष्टाचार हैं। एक दिन इनसे जुड़कर मनुष्य केवल शरीर पर ही टिका रहता है।
चूंकि वह जान जाता है कि शरीर जो कर रहा है, भीतर वैसा नहीं हो रहा और धीरे-धीरे इसी का आदी हो जाता है। यहीं से आदमी में बाहर कुछ, भीतर कुछ का भेद चलने लगता है। एक दिन हम दोनों को ही धोखा देने लगते हैं, शरीर को भी और आत्मा को भी। हमारी विनम्रता अहंकार का मुखौटा बन जाती है। हमारा क्रोध हमारे सिद्धांतों की प्रतिक्रिया हो जाती है और कुल मिलाकर हम अशांत बन जाते हैं और अपना नुक्सान करते है ......
अकारण सहज होना, शिष्ट होना कमजोरी की निशानी है। शिष्टाचार सिर्फ इसलिए है कि व्यावसायिक संबंध बिगड़ न जाएं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि शिष्टाचार का संबंध शरीर से है और संस्कार का भीतर से। इसीलिए आज के समय में लोग शरीर क्या कर रहा है, इसकी चिंता अधिक पालते हैं। भीतर जो हो रहा है, उसे कैसे ठीक किया जाए, इसकी फिक्र कम है।
खाते समय हम गिरा न दें, किसी से बात करते समय बॉडी लैंग्वेज ठीक रहे, किसी से वस्तु आदान-प्रदान करते समय आभार-धन्यवाद जरूर बोलें, भोजन का आमंत्रण दें, भोजन करवाएं, थाली कैसी सजी हो, खान-पान की वैरायटी, ऊपरी साफ-सफाई, मौके-दर-मौके उपहार भेंट करना, उपहारों की शानदार पैकिंग, ये सब शिष्टाचार हैं। एक दिन इनसे जुड़कर मनुष्य केवल शरीर पर ही टिका रहता है।
चूंकि वह जान जाता है कि शरीर जो कर रहा है, भीतर वैसा नहीं हो रहा और धीरे-धीरे इसी का आदी हो जाता है। यहीं से आदमी में बाहर कुछ, भीतर कुछ का भेद चलने लगता है। एक दिन हम दोनों को ही धोखा देने लगते हैं, शरीर को भी और आत्मा को भी। हमारी विनम्रता अहंकार का मुखौटा बन जाती है। हमारा क्रोध हमारे सिद्धांतों की प्रतिक्रिया हो जाती है और कुल मिलाकर हम अशांत बन जाते हैं और अपना नुक्सान करते है ......