इस ब्लॉग में मेरा उद्देश्य है की हम एक आम नागरिक की समश्या.सभी के सामने रखे ओ चाहे चारित्रिक हो या देश से संबधित हो !आज हम कई धर्मो में कई जातियों में बटे है और इंसानियत कराह रही है, क्या हम धर्र्म और जाति से ऊपर उठकर सोच सकते इस देश के लिए इस भारतीय समाज के लिए ? सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वें भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत।। !! दुर्भावना रहित सत्य का प्रचार :लेख के तथ्य संदर्भित पुस्तकों और कई वेब साइटों पर आधारित हैं!! Contact No..7089898907
शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011
क्षत्रिय राजपूत राजाओं की वंशावली
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देवास, मध्य प्रदेश, भारत
मायावती जी का ब्राह्मण कार्ड
सवर्णों के आरक्षण का समर्थन किया-बीएसपी
उत्तरप्रदेश में 2012 में होने वाले चुनावों की तैयारी राज्य की सत्ताधारी पार्टी ने शुरू कर दी है। मुख्यमंत्री मायावती नए-नए योजनाओं का लोकार्पण और शिलान्यास में लगी हुई हैं साथ ही ब्राह्मण कार्ड खेलने से भी नहीं चुक रही हैं 12 नवंबर को सतीश चंद्र मिश्रा की मां के नाम पर खुले विक्लांग विश्वविद्यालय लोकार्पण के बाद 13 नवंबर को बीएसपी ने ब्राहम्ण सम्मेलन का आयोजन किया। पार्टी में मायावती के बाद सबसे अहम स्थान रखने वाले सतीश चंद्र मिश्रा ने सम्मेलन में जनता को पहले संबोधित किया और कहा कि ‘न कोई अगड़ा है न कोई पिछड़ा सब एक हैं’। लेकिन उनकी मंशा जल्द ही साफ हो गई जब उन्होने नारा दिया ‘ब्राहम्ण शंख बजाएगा तो हाथी दिल्ली जाएगा’। यानी वोट बैंक बढ़ाने के लिए ब्राहम्णों को लुभाना सम्मेलन का मुख्य लक्ष्य था।
राज्य में मायावती की कितनी शक्ती है ये तो सभी को पता है साथ ही पार्टी में मायावती की शक्ति भी किसी से छुपी नहीं है फिर भी मिश्रा ने माया की एक और शक्ति से जनता को अवगत कराया और कहा कि मायावती को देवीय शक्ति प्राप्त है। चुनावी सरगर्मी को भांपते हुए मिश्रा नए नारो के साथ आए थे, वैसे भी पार्टी का पुराना नारा ‘चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर, बीएसपी के साथ अब फिट नहीं बैठता है इसलिए मिश्रा ने नया नारा दिया ‘तिलक लगाओं हाथी पर बाकी सब बैसाखी पर’।
जाहिर है सम्मेलन का नाम ही जब ब्राहम्ण सम्मेलन है तो बात भी सवर्णों की ही की जाएगी सो मायावती ने पिछली सरकारों पर इल्जाम लगाते हुए कहा कि अधिकांश समय सत्ता उंची जाती के लोगों के हाथ में रहने के बाद भी मुट्ठीभर लोगों को छोड़ कर बाकी लोग काफी पिछड़े हैं। लगे हाथ उन्होने सवर्णों के आरक्षण का समर्थन करते हुए कहा कि सवर्ण समाज के गरीबी के कारण पिछड़े लोगों की आरक्षण के मांग का भी बीएसपी ने पुरजोर समर्थन किया है इस संबंध में माननीय प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर बार- बार अनुरोध किया है।
सम्मेलन दर सम्मेलन जनमत के जुगा़ड़ में लगी बीएसपी का ब्राहम्ण कांड और नारे जनता को कितना रास आएंगे ये तो वक्त ही बताएगा।
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माया की माया कौन जाने ?
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मजहब के आधार पर आरक्षण क्यों ?
मुस्लिम आरक्षण की फिर से तेज हुई पैरवी से विघटनकारी शक्तियों को प्रोत्साहन मिलता देख रहे है.उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के सिर पर आते ही मुस्लिम मतों में सेंधमारी के पैंतरे शुरू हो गए हैं। बसपा ने प्रधानमत्री को पत्र लिखकर मुसलमानों के लिए आरक्षण व्यवस्था करने की माग करते हुए जरूरत पड़ने पर सविधान सशोधन करने की सलाह दी। पत्र के जवाब में प्रधानमत्री ने लिख भेजा कि उत्तर प्रदेश चाहे तो आध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल की तर्ज पर मुसलमानों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है। इसके लिए सविधान में सशोधन करने की आवश्यकता भी नहीं है। बसपा से बाजी मारने की फिराक में काग्रेस ने मुसलमानों को पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित 27 प्रतिशत कोटे में से छह प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है, वहीं अन्य अल्पसख्यकों के लिए मात्र 2.4 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित किया गया है। मुस्लिमों के लिए अलग से आरक्षण का प्रश्न लबे समय से प्राय: हर चुनाव में सेक्युलर दलों का ऐसा झुनझुना रहा है जो मुस्लिम समुदाय को भी लुभाता रहा है, किंतु क्या मजहब के आधार पर आरक्षण सवैधानिक मूल्यों व उन प्रतिबद्धताओं के साथ दगाबाजी नहीं है, जिसे दलितों, पिछड़ों व वचितों के उत्थान के लिए तय किया गया था?
आध्र प्रदेश मजहब के आधार पर मुसलमानों के लिए आरक्षण करने वाला पहला राज्य है। सन 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मजहब विशेष के लिए रोजगार आरक्षित करने के मद्रास सरकार के निर्णय को निरस्त करते हुए उसे 'साप्रदायिक निर्णय' बताया था। सन 2004 में तत्कालीन राजशेखर रेड्डी सरकार ने विभाजित भारत के इतिहास में मजहब के आधार पर आरक्षण का एक नया अध्याय जोड़ा। केंद्र में प्रारंभिक 45 वर्ष और आध्र प्रदेश में 35 वषरें तक कथित पथनिरपेक्षी काग्रेस पार्टी का अबाधित शासन रहा था। अल्पसख्यकों की हितैषी होने का दावा करने वाली काग्रेस के राज में मुसलमानों की स्थिति मे कोई बदलाव क्यों नहीं आया? यह काग्रेस की विफलता रही या फिर मुसलमानों ने पिछड़ेपन का आवरण ओढ़ रखा है? भारतीय सविधान का अनुच्छेद 14 सबको समान अवसर देने का वचन देता है तो अनुच्छेद 15[1] के द्वारा यह विश्वास दिलाया गया है कि जाति, धर्म, सस्कृति या लिग के आधार पर राज्य किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा। मुसलमानों को बहुसख्यकों के बराबर स्वतत्रता और रोजगार का अधिकार प्राप्त है। प्रश्न उन बुनियादी समस्याओं के निराकरण का है, जिन्हे मुस्लिम समुदाय के कठमुल्ले मजहब की आड़ में पोषित करते हैं। बुर्का प्रथा, बहुविवाह, मदरसा शिक्षा, जनसख्या अनियत्रण जैसी समस्याओं को दूर किए बगैर मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की कवायद वस्तुत: एक छलावा मात्र है, किंतु यक्ष प्रश्न यह भी है कि मुसलमानों को यह छलावा समझ में क्यों नहीं आता? इसमें उनका क्या हित है?
मुस्लिमों को नौकरी में आरक्षण देने वालों का तर्क है कि उनकी आबादी [13.5 प्रतिशत] की तुलना में आइएएस जैसे उच्च प्रशासनिक पदों पर उनकी भागीदारी चार प्रतिशत से भी कम है। उनका कुतर्क है कि ऐसा उनके साथ भेदभाव किए जाने के कारण हुआ है। भारतीय प्रशासनिक सेवा में नौकरी पाने के लिए स्नातक होना अनिवार्य है, जबकि स्वय रंगनाथ मिश्रा आयोग की रपट में स्नातक मुस्लिमों का अनुपात केवल 3.6 बताया गया है। इस प्रतियोगी युग में मदरसों के अरबी-फारसी इल्म को ही यथेष्ट माना जाए तो सरकारी नौकरियों में भेदभाव की शिकायत भी नहीं होनी चाहिए। हिंदू और मुसलमानों की साक्षरता दर के साथ जनसख्या वृद्धि दर की तुलना करें तो मुसलमानों के पिछड़ेपन का भेद खुल जाता है। केरल की औसत साक्षरता दर 90.9 है। मुस्लिम साक्षरता दर 89.4 प्रतिशत होने के बावजूद मुस्लिम जनसख्या की वृद्धि दर 36 प्रतिशत है, जबकि हिंदुओं में यह दर 20 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में मुस्लिम साक्षरता दर 78 प्रतिशत होने के साथ ही जनसख्या वृद्धि दर हिंदुओं की तुलना में 52 प्रतिशत अधिक है। छत्तीसगढ़ में साक्षरता 82.5 प्रतिशत तो जनसख्या दर हिंदुओं की तुलना में 37 प्रतिशत अधिक है। ससाधन सीमित हों और खाने वालों की सख्या बढ़ती जाए तो कैसी स्थिति होगी? इसकी कीमत वास्तविक रूप से सामान्य वर्ग क्यों चुकाए?
मुस्लिमों के लिए आरक्षण वस्तुत: उस मर्ज का इलाज ही नहीं है, जिससे मुस्लिम समुदाय ग्रस्त है। विडंबना यह है कि सेक्युलर दल अवसरवादी राजनीति के कारण उस मानसिकता को स्वीकारना नहीं चाहते। क्या मुसलमानों को आरक्षण देने से पूरे समुदाय की मूलभूत समस्याएं खत्म हो जाएंगी? मुसलमानों का एक बड़ा भाग गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन और गदगी मे गुजर-बसर करने को स्वयं अभिशप्त है। मुस्लिम नेता अपने समुदाय के लोगों को जनसख्या नियत्रण के तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते। वे अपनी बढ़ी आबादी के बूते सियासी दलों के साथ 'ब्लैकमेलिग' की स्थिति में हैं। वस्तुत: मुस्लिम समुदाय का एक वर्ग अनियत्रित आबादी के बूते भारत में इस्लामी साम्राज्य कायम करने का सपना सजोए बैठे हैं। क्या कारण है कि इस देश में जहा कहीं भी मुसलमान अल्पसख्यक हैं, वे कानून एवं व्यवस्था और सविधान के साथ प्रतिबद्ध होने का दावा करते हैं; किंतु जहा कहीं भी वे बहुसख्या में आते हैं, शरीयत ही उनके लिए सविधान बन जाता है?
यहा इतिहास का एक दौर याद आ रहा है। अंतिम निजाम मीर उस्मान अली खा 1911 में गद्दी पर बैठा। सन 1932 तक सर्वे सेटलमेंट डिपार्टमेंट मराठी भाषा में काम करता था। गद्दी पर आते ही मीर उस्मान ने अपने को दूसरा औरंगजेब कहना शुरू कर दिया और हिंदुओं को नौकरी से निकालना प्रारंभ कर दिया। मराठी, तेलगू और कन्नड़ भाषा को हटाकर उर्दू चलाने के लिए सख्त कानून बनाए। हिंदू मदिरों का निर्माण तो दूर, उनके पुनरुद्धार पर भी रोक लयहा इतिहास का एक दौर याद आ रहा है। अंतिम निजाम मीर उस्मान अली खा 1911 में गद्दी पर बैठा। सन 1932 तक सर्वे सेटलमेंट डिपार्टमेंट मराठी भाषा में काम करता था। गद्दी पर आते ही मीर उस्मान ने अपने को दूसरा औरंगजेब कहना शुरू कर दिया और हिंदुओं को नौकरी से निकालना प्रारंभ कर दिया। मराठी, तेलगू और कन्नड़ भाषा को हटाकर उर्दू चलाने के लिए सख्त कानून बनाए। हिंदू मदिरों का निर्माण तो दूर, उनके पुनरुद्धार पर भी रोगा दी गई। 1922 में जब तुर्किस्तान में कमाल-अता-तुर्क ने मुस्लिम खलीफाओं की गद्दी खत्म कर दी, तब हैदराबाद के इस निजाम ने सारी दुनिया के मुसलमानों का खलीफा बनने का सपना देखा और लिखा-सारे मुस्लिम शासक नजरों से ओझल हो जाने के बाद ऐ उस्मान! मुसलमानों को अब तुमसे ही उम्मीद है। परेशानी यही है कि काग्रेस खुद को मुसलमानों का एकमात्र हितैषी मानती है और यह मानकर बैठी है कि मुसलमान भी उसी के सहारे सुरक्षित हैं। वस्तुत: मुस्लिम समाज का सबसे अधिक बेड़ा गर्क काग्रेस की तुष्टीकरण की नीति से हुआ है और इससे देश में विभाजनकारी शक्तियों को प्रोत्साहन मिला है। मजहब के आधार पर आरक्षण उसी खतरे को निमत्रण देना है।आरक्षण भगाओ देश बचाओ का नारा लगाओ !!
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आरक्षण नीति कितनी न्यायसंगत है ???
आरक्षण नीति आज सर्वत्र चर्चा का विषय बन चुकी है. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में दलित वर्ग की स्थिति अत्यंत शोचनीय थी ,इसलिए सभी नागरिकों को उपलब्धियों के समान अवसर प्रदान करने हेतु अनुसूचित जातियों को आरक्षण की सुविधा दी गयी ,किन्तु वर्तमान समय में इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आये हैं.
आरक्षण का अर्थ -- आरक्षण का शाब्दिक अर्थ है -आरक्षित करना .एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र का दायित्व है कि वह वह एक ऐसे जातिविहीन समाज की स्थापना करे ,जहाँ योग्यता के आधार पर प्रत्येक नागरिक को विकास के सामान अवसर प्राप्त हों .इसलिए निम्न वर्ग का स्तर उठाने के लिए उन्हें शिक्षा में आरक्षण की सुविधा प्रदान की गयी .प्रारंभ में आरक्षण दस वर्षों के लिए थी किन्तु स्थिति की गंभीरता को देखते हुए इसकी अवधि पच्चीस वर्ष कर दी गयी .
- आरक्षण एक राजनीतिक निर्णय --आरंभ में आरक्षण निम्न वर्ग के विकास के लिए एक निःस्वार्थ निर्णय था ,किन्तु समय के साथ यह राजनीतिक का एक मुद्दा बन गया.आरक्षण को वोट बैंक का एक माध्यम बना लिया गया है .आज स्वाधीनता के इतने वर्षों के पश्चात् भी यदि आरक्षण नीति यथावत है तो इसका एक मुख्य कारण है कि जो भी राजनैतिक दल सत्ता में आता है वह वोटों के लिए आरक्षण को और बढ़ावा देता है .
- आरक्षण नीति के दुष्परिणाम -शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के अनेक दुष्परिणामों से हम परिचित हैं .जिस प्रवेश परीक्षा में सामान्य वर्ग के छात्र उच्च अंक प्राप्त करने के बावजूद भी प्रवेश नहीं ले पाता,वहीं दूसरा छात्र उससे कम अंक प्राप्त करके सरलता से प्रवेश पा लेता है .कारण --वह आरक्षित वर्ग से है .यह सरासर अन्याय नहीं तो और क्या है ?
- सामान्य वर्ग में आक्रोश एवं निराशा- जब मेडिकल ,इंजीनियरिंग और सिविल सर्विसेज जैसी श्रमसाध्य परीक्षाओं में सामान्य वर्ग के छात्र आरक्षण के कारण पीछे हो जाते हैं ,तब अपने अथक परिश्रम को बलपूर्वक विफल किया जाता देख वे आक्रोश की भावना से ग्रसित हो जाते हैं .इसके बाद वे विरोध प्रदर्शन ,नारेबाजी ,और तोड़ -फोड़ जैसे कार्यों पर उतर आते हैं ,जिससे क्षति अंततः राष्ट्र की ही होती है .जब आक्रोशित व्यक्ति का क्रोध चरम सीमा पर पहुँच जाने के बाद भी उसका कोई संतोषजनक हल नहीं मिल पाता ,तब वह क्रोध हताशा एवं कुंठा का रूप ले लेता है .और इसी का परिणाम हुआ कि कई छात्रों ने विरोधस्वरूप अपनी डिग्रियां जला डालीं ,आत्मदाह तक कर लिया ,किन्तु सत्तालोभी शासन वर्ग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा .
- बेरोजगारी और अनैतिक कार्यों में वृध्दि -इसी आरक्षण का परिणाम है कि छात्रों का अध्धयन से विश्वास उठ जाता है .बढ़ती हुई बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण आरक्षण नीति भी है .सामान्य वर्ग के छात्र आरक्षण के चंगुल में फंसकर बेरोजगारी के दंश को झेलते हैं .इसके फलस्वरूप वे हिंसात्मक एवं अनैतिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं .बेरोजगारी के कारण राष्ट्र आर्थिक रूप से कमजोर हो जाता है .
- योग्यता का गौड़ हो जाना --आरक्षण नीति का अनुचित लाभ उठाकर वे व्यक्ति भी उच्च पदों पर आसीन हो जाते हैं ,जो वास्तव में उस पद के लिए उपुयुक्त नहीं हैं .जब शासन की डोर अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में होगी तो कितना अच्छा विकास होगा ?इसकी कल्पना हम स्वयं कर सकते हैं .
- जातिवाद को बढ़ावा-आज जहाँ हम जाति-भावना को समाप्त करने की बात करते हैं ,वहीं जाति -भेद के आधार पर आरक्षण नीति को बढ़ावा देते हैं .यह कैसी समानता है ?भारत में प्रत्येक प्रान्त में आरक्षित वर्ग के अंतर्गत भिन्न जातियाँ हैं ,और प्रत्येक व्यक्ति आरक्षण का लाभ उठाना चाहता है ,यह भी विवाद का एक कारण है .आरक्षण ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है और राष्ट्र के नागरिकों में विद्वेष की भावना भर दी है .गुर्जरों का आरक्षण के लिए प्रदर्शन इसका एक तत्कालिक एवं ज्वलंत उदहारण है .
- आर्थिक और सामाजिक न्याय -आरक्षण के समर्थक प्रायः यह तर्क देते हैं कि आज भी भारत में आज भी आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर बहुत विषमतायें विद्यमान हैं .किन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत में सामान्य वर्ग गरीब नहीं है ?एक निर्धन सामान्य वर्ग का छात्र भी आरक्षण का उतना ही अधिकार रखता है जितना कि एक अनुसूचित या पिछड़े वर्ग का छात्र .आरक्षण का उचित लाभ भी वही उठा पाते हैं जो समृद्ध हैं ,अतः आरक्षण का आधार आर्थिक स्तर होना चाहिए न कि जातीय स्तर .यदि प्रश्न सामाजिक न्याय का है तो आरक्षण सामाजिक न्याय का उचित विकल्प नहीं है ,अपितु इससे सामाजिक वैमनस्य में वृद्धि ही होती है .समाज में जागरूकता का प्रसार इससे बेहतर विकल्प सिद्ध हो सकता है.
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करोड़ पति चपराशी
कांग्रेश ने सी और डी ग्रेड के कर्मचारियों को लोकपाल बिल से अलग कर रही है ,,जबकि भ्रष्टाचार की जड़ यही से है ,,,,,अभी उज्जैन में एल लिपिक (चतुर्थ श्रेणी) के यहाँ पर लोकायुक्त पुलिस के क्षापे में १० करोड़ से अधिक की सम्पति बरामद हुई है ,,कहा से आई यह सम्पति ,,क्या अकेले लिपिक ने ही कमाया ? यदि एक लिपिक १० करोड़ कमा सकता है तो बड़े अधिकारी कितनी सम्पति जमा किया होगा ? सोच कर चक्कर आने लगते है .....http://www.bhaskar.com/article/MP-OTH-class-iv-employees-in-ujjain-municipal-corporation-2625048.html?HF-13=
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करोड़ पति चपराशी
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श्री राम कथा और हनुमान जी
**********इस ब्लॉग में तीन विडियो दी गई है जिसे आप एक बार जरुर देखे **********
http://www.youtube.com/watch?v=CYi60Ss4YQEhttp://www.youtube.com/watch?v=h8BXzFHqOXAhttp://www.youtube.com/watch?v=qqQ2yF5TuRU
http://www.youtube.com/watch?v=CYi60Ss4YQEhttp://www.youtube.com/watch?v=h8BXzFHqOXAhttp://www.youtube.com/watch?v=qqQ2yF5TuRU
कहते है राम कथा अगर कही होती है तो हनुमान जी किसी न किसी रूप में उपस्थित जरूर होते है. हनुमान जी राम कथा का आनंद लेते है और प्रसाद ले के जाते है.
ऐसा ही कुछ नज़ारा रतलाम में देखने को मिला. यहाँ राम कथा चल रही थी तो एक वानर महाराज पहुँच गए और मंच पर स्वछंद विचरण करने लगे !
ऐसा कहा जाता है की यदि हनुमान जी को प्रसन्न करना हो तो राम का गुणगान करना चाहिए. यहाँ भी वानर महाराज काफी प्रसन्न मुद्रा मैं है . यहाँ तक की वहां बिराजमान महानुभावों से गले मिलते हुए दिखाई दे रहे है और वानर महाराज प्रसाद ले के ही जाते है !
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हनुमान जी आज भी है ..
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