गुरुवार, 31 अगस्त 2017

भारतीय लोकतन्त्र में इस्लाम का कितना खौफ ?

15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्रता प्राप्ति तक हिन्दुओं ने कासिम से औरंगजेब तक इस्लाम के नाम पर जघन्य अत्याचार झेले थे किन्तु स्वतन्त्रता के समय तक उन्हें काफी हद तक भुला दिया गया था और भुला दिया जाना भी चाहिए था। सदियाँ और पीढ़ियाँ बीत चुकी थी.! किन्तु दुर्भाग्य से औरंगी मानसिकता अभी तक जीवित थी जो भारत-पाकिस्तान के विभाजन के रूप में सामने आई। विभाजन मात्र भारतवर्ष का विभाजन ही नहीं था वरन लाखों-करोड़ों हिन्दू सिक्खों के लिए इस्लामिक आक्रमण काल का पुनर्योदय था जिसने उनकी संपत्ति, परिवार, पत्नी-बहन-बेटियाँ और घर सब कुछ छीन लिया। वे लुटे पिटे भारत आए।
भारत ने हिन्दू परिवारों को आश्रय तो दिया किन्तु भारत में बसे मुसलमानों से उसके एवज में बसूली नहीं की.! वे भयभीत तो थे किन्तु हिन्दू उदारता ने उनके भय को निरर्थक सिद्ध कर दिया। भारतीय राजनीति और संविधान ने भी पूरी सहिष्णुता का परिचय दिया, अंततोंगत्वा सहिष्णुता तो उचित ही थी और हिन्दू मूल्यों के अनुरूप भी! किन्तु भारत के दुर्भाग्य का दूसरा अध्याय फिर प्रारम्भ हो गया जब हिन्दू सहिष्णुता को छुद्र स्वार्थों के लिए कुछ गद्दारों ने पुनः छलना प्रारम्भ कर दिया। भारत की एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापना को हिंदुओं ने उस समय भी स्वीकार लिया जब मजहब के आधार पर उन्होने अपने देश के दो (तीन) टुकड़े होते हुए देखे थे और मजहब के आधार पर ही हिन्दुओं को लुटते और हिन्दू औरतों का बलात्कार होते देखा था, किन्तु उदारता और आधुनिकता का चोला ओढ़े संकीर्ण राजनीति ने उसमें भी हिन्दुओं के साथ छल किया। पंथनिरपेक्ष राष्ट्र का संविधान स्थान-स्थान पर हिन्दू मुसलमानों के सन्दर्भ में अलग अलग बातें करता दिखाई देने लगा। फिर चाहे वह कश्मीर हो, विवाह अधिनियम हो, हज सब्सिडि हो, अल्पसंख्यकों के नाम पर करदाताओं के पैसों से दी जाने वाली भेदभावपूर्ण विशेष सुविधाएं हों, मस्जिदों को स्पेशल छूट और मंदिरों से बसूला जाने वाला कर हो अथवा मस्जिदों के लिए सरकारी जमीन और मंदिरों का सरकारी अधिग्रहण हो, प्रत्येक स्थान पर हिन्दू पंथनिरपेक्षता का बोझ ढोता रहा है।
सतत मुस्लिम परस्त होती पंथनिरपेक्षता की परिभाषाओं से स्थित इतनी बिगड़ गई कि अब तो संविधान भी नागरिक समानता की रक्षा करने में असमर्थ होता जा रहा है, जितना यह चाहता भी है! बात अब तक कश्मीर में कश्मीरी पण्डितों की, अमरनाथ यात्रा की, असम में बोडो हिन्दुओं की अथवा केरल में जेहादी शोर की ही थी जहां कानून और सत्ता बेबस खड़ी तमाशा देखती रहती है किन्तु अब तो देश की राजधानी में भी शासन और प्रशासन संगठित कट्टरतावाद के चरणों में नतमस्तक दिखाई देने लगे हैं। दिल्ली के चाँदनी चौक क्षेत्र में, जहां कि प्रसिद्ध लालकिला और जामामस्जिद स्थित हैं, मेट्रो की खुदाई के दौरान पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए थे जिसके बाद जमीन पुरातात्विक विभाग (एएसआई) के पास चली गयी। किन्तु एएसआई कुछ निष्कर्ष निकाले और जमीन के विषय में कुछ निर्णय हो इससे पहले ही वहाँ के मुसलमानों ने उसे शाहजहाँकालीन कालीन अकबरावादी मस्जिद घोषित कर दिया और रातों रात उस पर मस्जिद भी बना डाली। यह निर्माण किसी गाँव अथवा कस्बे में नहीं वरन राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के हृदय क्षेत्र चाँदनी चौक में किया गया किन्तु आश्चर्य कि दिल्ली पुलिस, जिसका स्लोगन है “हम तुरंत कार्यवाही करते हैं”, को खबर तक नहीं लगी.! कम से दिल्ली पुलिस का ऐसा ही कहना है। न्यायालय द्वारा जमीन पर किसी भी प्रकार के धार्मिक क्रियाकलाप पर रोक लगाने का आदेश भी जारी हुआ किन्तु कई दिनों तक नमाज़ पढ़ने से रोकने का साहस दिल्ली सरकार अथवा दिल्ली पुलिस नहीं कर सकी। विश्वहिंदू परिषद आदि हिन्दू संगठन इस अतिक्रमण के खुले विरोध में उतर आए और हिन्दू महासभा की याचिका पर न्यायालय ने अवैध मस्जिद को तत्काल गिरने का आदेश जारी कर दिया। यह आदेश मिलते ही दिल्ली पुलिस की सारी वास्तविकता सामने आ गयी। दिल्ली पुलिस ने न्यायालय में निर्लज्जता से हाथ खड़े करते हुए कह दिया कि अवैध मस्जिद गिराना उसके बस की बात नहीं है.! यह इस बात का सूचक है कि जिन मुसलमानों को राजेन्द्र सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र समिति जैसे सरकारी आडंबरों का प्रयोग कर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनेता दबा कुचला पिछड़ा और वंचित बताकर तुष्टीकरण का घिनौना खेल खेल रहे हैं, उस मुसलमान समुदाय की वास्तविक स्थिति देश में क्या है। बात-बात पर देश की अखंडता, राष्ट्रीय हितों और संविधान को पलीता लगाकर अपने दीनी हक़ का शोर मचाने वाले समुदाय की मानसिकता एवं शासन और प्रशासन का इस मानसिकता के सामने भीगी बिल्ली बनकर मिमियाना देश की संप्रभुता और संविधान के मुंह पर तमाचा ही कहा जा सकता है। यह तमाचा स्वयं में अनोखा नहीं है, दिल्ली उच्च-न्यायालय लम्बे समय से जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी कर रहा है किन्तु दिल्ली पुलिस की हिम्मत नहीं पड़ रही कि वह बुखारी को गिरफ्तार करे! दिल्ली पुलिस न्यायालय में जाकर बताती है कि उसे बुखारी नाम का कोई सख्श इलाके में मिला ही नहीं.! पूर्व में शाही इमाम रहे अब्दुल्लाह बुखारी ने तो दिल्ली के रामलीला मैदान से खुली घोषणा की थी कि वो आईएसआई का एजेंट है और यदि भारत सरकार में हिम्मत है तो उसे गिरफ्तार कर ले.! सरकार और पुलिस तमाशा देखने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकते थे.? यदि देश में राष्ट्रीय हितों की राजनीति हो रही होती तो कैसे मान लिया जाए कि कोई बुखारी राष्ट्रीय भावना और कानून से ऊपर हो सकता है अथवा भारत माँ को डायन कहने वाला कोई आज़म खाँ एक प्रदेश की सरकार में मंत्री बन सकता है??
प्रश्न उठता है कि क्या शासन और प्रशासन को इतना भय किसी बुखारी अथवा आज़म से लगता है कि देश का कानून बार बार बौना साबित होता रहे.? यह भय उस मानसिकता से है जो देश से पहले दीन-ए-इस्लाम को अपना मानती है। निश्चित रूप से हर मुसलमान को हम इस श्रेणी में नहीं रख सकते और न ही रखना चाहते हैं किन्तु यह सत्य है कि बहुमत इसी मानसिकता के साथ है अन्यथा शाहबानों जैसे मामले में संविधान और सर्वोच्च न्यायालय को धता बताकर कानून नहीं बदले गए होते, मोहनचन्द्र शर्मा के बलिदान पर सवाल नहीं खड़े किए गए होते, अफजल की फांसी को लटकाकर नहीं रखा जाता और बुखारी पर केस वापस लेने की अर्जी लेकर दिल्ली सरकार न्यायालय के पास नहीं गिड़गिड़ाती.! गिलानी जैसे गद्दार देश की राजधानी में आकर बेधड़क चीखकर चले जाते हैं कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है और भारत सरकार उनके कार्यक्रम को सरकारी सुरक्षा मुहैया कराने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाती है.!
तर्क दिया जाता है कि बुखारी को गिरफ्तार करने अथवा अवैध मस्जिद को गिराने से दंगे भड़क उठेंगे, प्रश्न उठता है कि सैकड़ों साल पुराने हिन्दू मंदिरों को सरकारी आदेश पर जब गिरा दिया जाता है या अधिग्रहण कर लिया जाता है अथवा हिन्दुओं के शीर्ष धर्मगुरु कांची शंकराचार्य को दीपावली के अवसर पर सस्ते आरोपों में गिरफ्तार कर लिया जाता है तब दंगे क्यों नहीं भड़क उठते.? तब विरोध अधिकतम शासन और प्रशासन तक ही सीमित क्यों रहता है? क्या यह 1919-24 के खिलाफत आंदोलन की मानसिकता नहीं है कि इस्लाम का शोर उठते ही सामाजिक राष्ट्रीय प्रत्येक हित को किनारे लगा दिया जाता है और शुरुआत दंगों से होती है? भारत-पाकिस्तान विश्व कप में फ़ाइनल सेमीफ़ाइनल खेल रहे हों तो भारत के शहरों में अघोषित कर्फ़्यू लगता है, पाकिस्तान में ओसामा मारा जाता है तो भारत में शोकसभाएं होती हैं अथवा अमेरिका में कुरान जलाने की बात होती है तो भारत में हिंसा भड़क उठती है.!
इतिहास की मानसिकता अभी तक जीवित है अतः वर्तमान में इतिहास का प्रतिबिम्ब भी झलकता है। यदि भारत को जीवित रखना है तो भारत को पाकिस्तान बनने से रोकना होगा और इसके लिए आवश्यक है कि कट्टरपंथ के आगे घुटने टेकने की आदत को बदला जाए। वास्तविक पंथनिरपेक्षता को आखिर समान संवैधानिक क़ानूनों से परहेज क्यों होना चाहिए.? अन्यथा यह प्रश्न तो उठना स्वाभाविक ही है कि 21वीं सदी के लोकतन्त्र में इस्लाम से यह खौफ और हिन्दुओं के साथ ही दोगला व्यवहार क्यों.?

सोमवार, 28 अगस्त 2017

क्या गौवध वेद सम्मत है ?


भारतीय दर्शन के वेदों में ऐसे यज्ञों का कई बार जिक्र आया है जिनमे पशुओं की आहुति दी जाती है ,ऐसा सप्रमाण कर्मकांडीयों द्वारा प्रचारित एवं प्रचलित किया जाता है । किन्तु मेरा अन्तर्मन इसे स्वीकारने के लिए बिल्कुल भी तैयार नही । आजकल गौहत्या, गौमांस भक्षण को लेकर टीवी पर विद्वान धर्म गुरुओं के मध्य बहस चल रही थी कि प्राचीन धर्म शास्त्रों में गौमांस भक्षण तो ऋषि मुनियों द्वारा स्वीकार रहा है । अनेक क्लिष्ट भाषा मे श्लोक उच्चारित किये गए और उनका अर्थ बताया गया कि "अग्निसोमीय पशु" को यज्ञ के निमित्त बलि देकर उसका प्रसाद गृहण करने का जिक्र तो वेदों में बहुत अच्छी तरह मिलता है । मेरे आश्चर्य का ठिखाना नही रह जब वैदिक धर्म के सबसे बड़े प्रचारक आदि शंकराचार्य तक को इस पशुबलि खासकर "अग्निसोमीय" पशु अर्थात बैल की बलि का समर्थक बताया गया । जब बात शंकराचार्य तक चली गयी तो इसके लिए कांची कामकोटिपीठ शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी से विचार लेना अपेक्षित हुआ एंकर ने अपने संवाददाता के द्वारा उन्हें जोड़ा और उनसे पूँछा कि केंद्र की वर्तमान सरकार गोवध पर प्रतिबंध के नाम पर सत्ता में आई है और आज इस चुनावी वायदे से पीछे हटकर उल्टा गौरक्षकों को गुंडा कह रही है ।
इस बारे में आपके क्या विचार हैं तो शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी ने कहा कि वेदों में गोवध का विधान होते भी ऐसी मांग कैसे की जा सकती है ?" उनका इतना कहना था कि गौमांस भक्षण के पक्षकारो के चेहरे खिल उठे और वे इतने हावी हो गए कि राष्ट्रवादी टी वी चैनल ने जिस लक्ष्य से यह डिबेट रखी वो पूरी तरह ध्वस्त हो गयी अतः बाध्य होकर उसे एक लंबा ब्रेक लेना पड़ा । लेकिन मेरे मन मष्तिष्क में एक भंयकर द्वंद्ध उठ खड़ा हुआ और मुझे आधुनिक विश्वामित्र राजर्षि देवी सिंह जी महार साहब का वो उद्बोधन जो उन्होंने अप्रैल 2014 झाकड़ा(अलवर) में दिया था सहसा स्मरण हो उठा । मेरे पास उनके उस उद्बोदन की वीडियो रिकॉर्डिंग थी अतः मैंने पुनः इसे ध्यानपूर्वक सुना जिसमे उनका कहना था कि "समाज आज जितना पतित हुआ यह तो कुछ भी नही बल्कि आज से कोई 2500 वर्ष पूर्व तो इससे कहीं अधिक पतित हो चुका था । आज हम कितने ही संस्कारहीन हो गए हों किन्तु किसी भी धर्म के ठेकेदार के कहने पर हम गौमांस नही खा सकते ,गौहत्या नही कर सकते किन्तु उस समय कर्मकांडी पंडो गाँवों से हजारों गौवंश एकत्रित करवाकर यज्ञ के नाम पर उनकी निर्मम हत्या कर प्रसाद के रूप में क्षत्रियों सहित समस्त प्रजा को खिलाते थे और कहते थे कि जो गौमांस नही खाये वो आर्य नही है जैसे आजकल कुछ ठाकर कहते है कि बकरा न खायें तो काहे का राजपूत । उस विषम और धर्म के नामपर चल रहे इस पाखण्ड के विरुद्ध भी क्षत्रिय राजकुमारों ने विद्रोह किया कि यह धर्म नही हो सकता यह तो अधर्म है । इस महा पाखण्ड का जो सबसे सशक्त विद्रोह किया वो किया राजकुमार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने । उन्होंने कहा कि यदि गौमांस खाने से ही कोई आर्य बनता तब तो कुत्ते, कौवे, चील एवं गिद्धादि सभी हिंसक पशु पक्षी आर्य हो गए । कर्मकांडी पंडो ने कहा ऐसा तो वेद सम्मत है तब गौतम बुद्ध ने कहा" ऐसे वेदों को मैं नही मानता ।"
इसका अर्थ यह हुआ कि 2500 वर्ष पूर्वतक तो गौमांस भक्षण प्रचलित हो चुका था किंतु इसका विरोध निरन्तर रहा और सम्भवतः बौद्ध प्रभाव के कारण गौमांस भक्षण बंद हुआ । 2500 वर्ष पहले भी धर्म के ये तथाकथित ठेकेदार गौमांस भक्षण को वेद सम्मत बता रहे थे और आज भी शंकराचाय जयेंद्र सरस्वती जी उसे वेद सम्मत बता रहे है । में चूंकि वेदों के प्रति पूर्ण आस्थावान हूँ और गौतम बुद्ध के प्रति पूर्ण सम्मान होने पर भी में उनकी तरह यह नही कह सकती कि "मैं नही मानती वेदों को" अतः मैंने वेदों के उन श्लोकों की तह में जाने का प्रयास किया कि आखिर विवाद की जड़ कहाँ है ? अबतक में वेदों के सबसे बड़े व्याख्याकार आदि शंकराचार्य को ही मानती रही हूँ अतः उनके शंकरभाष्य के
'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' वेदांतदर्शन (१,१,१) की खोजकर पढ़ा जिसमे उन्होंने लिखा है-"यथा च हृदयाद्यवदानाना मानन्तर्य नियम:"
अर्थात जैसे हृदयादि के अवदान अर्थात छेदन में आनन्तर्यक्रम का नियम है । क्या नियम बताया देखें:-
हृदयस्याग्रेश्वद्यति अथ जिह्वाया अथ वक्ष: (तै.सं.) अर्थात प्रथम उस अग्निसोमीय यज्ञ के पशु के हृदय का, फिर जिह्वा का, फिर वक्ष:स्थल का छेदन करे । ये वाक्य अग्निषोमीय यज्ञ में श्रुत है ।" 
इसका अर्थ हुआ कि वास्तव: आदि शंकराचार्य जी भी यह उदाहरण देकर यज्ञ में पशु वध को विधि सम्मत मानते थे ?
इसी प्रकार आसुरी प्रवृति के लोगों ने अपनी प्रकृति के अनुरूप यज्ञ, श्राद्ध, मधुपर्क आदि में मांसादि का विधान बतला दिया:-
" मधुपर्के तथा यज्ञे पित्र्यदैवत्वकर्मणि ।
अत्रैव पशवो हिंस्या: नान्यत्रेत्यब्रवीत् मनु: ।।
इस प्रकार के श्लोकों में यज्ञ पशुहिंसा तथा यज्ञशेष के रूप में मांसभक्षण को विधिसम्मत घोषित कर दिया जबकि मीमांसा शास्त्र में 'अपि वा दानमात्रं स्यात् भक्षशब्दानभिसम्बन्धात्' (मी. 10 !7! 15) इत्यादि सूत्रों म् यज्ञ में पशुओं के दनमात्र का विधान है, हिंसा का नही ।
अब यह बहुत उलझन का की बात हो गयी कि वेदों में यज्ञ में पशु वध और वो भी अग्निसोमीय पशु जिसका सीधा अर्थ होता है बैल की हिंसा और फिर यज्ञशेष के रूप में मांसभक्षण का विधान है ? मुझे लगता है वैदिक धर्म के सबसे बड़े व्याख्याकार ही कहीं कहीं चूक कर गए । सम्भव है महाभारत के युद्ध समस्त ज्ञानवान क्षत्रियों के इस लोक से चले जाने के बाद और चन्द्र वंश एवं नागवंश की करीब 2500 वर्ष लम्बे चले युद्ध के समय धर्मद्रोहियों ने वेदों के श्लोकों के साथ कोई छेड़छाड़ की हो और उस दूषित शास्त्रों को आधार मान शंकराचार्य जी ने शंकरभाष्य में मांशभक्षण एवं बैल एवं गाय की यज्ञ के नाम पर हत्या को वेदसम्मत घोषित कर दिया हो । या फिर यह भी सम्भव है कि आदि शंकराचार्य जी भी संस्कृत का मूल ज्ञान न रखते हों और उपलब्ध अर्थो के आधार पर ही व्याख्या कर दी हो । एक और भी बात तत्कालीन पिस्थिति में परिलक्षित होती है कि कुमारिल भट्ट से पूर्व बौद्ध प्रभाव इतना जबरदस्त था कि वैदिक मत को कोई मानने वाला ही नही बचा था अधिकांश क्षत्रिय राजपरिवार बौद्ध या जैन मत अपना चुके थे । अतः वैदिक मत की पुनः स्थापना के लिए बौद्ध और जैन मत के एकदम विपरीत धार्मिक अनुष्ठान और अनुयायियों की आवश्यकता रही होगी । चूंकि बौद्ध और जैन दोनों ही मत क्षत्रिय राजकुमारों ने जीवहिंसा विशेषतौर से गोवंश की हत्या जो यज्ञ एवं यज्ञशेष के नाम पर की जा रही थी के विरुद्ध आरम्भ किये गए थे अतः आदि शंकराचार्य जी ने पुनः पशुबलि को वेद सम्मत सिद्ध कर दिया हो । बात कुछ भी रही हो किन्तु मैं एक क्षत्राणी हूँ, और निरीह प्राणियों और विशेषतौर से गौ जैसे संपूण धर्म के प्रतीक पशु की हत्या को चाहें आदि शंकराचार्य जी शंकरभाष्य मे उचित ठहराये या आज के कांची के जयेन्द्र सरस्वती ,मैं मानने को तैयार नही । तो मुझे अब यह शोध करना ही होगा कि कहाँ पर चूके यह धर्ममूर्ति ? वेद के किस श्लोक के अर्थ से इन्हें प्रमाण मिल गया । क्योंकि वेद मेरे ही महान पूर्वजों की तपस्या के परिणाम है । जब भगीरथ माँ गंगा को धरती पर लाये तब ही गंगा जी ने कहा दिया कि जिस पात्र में मदिरापान या मांसभक्षण होगा वो मेरे जल से 3 कोटि मतलब करोड़ बार साफ करने से भी पवित्र नही हो सकता तो वो शरीर जिसमे मदिरा या मांशभक्षण हो गया कभी पवित्र हो ही नही सकता । अतः वेद के किसी श्लोक या कोई एक शब्द का कुअर्थ जिव्हा के स्वाद के लिए अवश्य किसी धर्मद्रोही ने विगत 5000 वर्ष के भीतर किया है । क्योंकि ज्ञान के सूर्य भीष्म, साक्षात ईश्वर श्री कृष्ण ने मदिरापान एवं मांशभक्षण को एकदम धर्म विरुद्ध घोषित किया है । और में आदि शंकराचार्य जी ज्ञानी मानती हूं किन्तु भीष्म या श्री कृष्ण की तुलना में कहीँ कोई स्थान नही दे सकती । वैसे वे श्लोक और शब्द मुझे इन्ही धर्म शास्त्रों में मिल गए हैं जिनके गलत अर्थ से पशुहिंसा को वेदसम्मत घोषित करने का पाप किया गया है ।

शनिवार, 26 अगस्त 2017

नरसिंघदास महराज पनवार रीवा MP...












आज एक संत की सच्ची बाते बताता हूँ ! (पोस्ट लम्बी है पर आग्रह करूँगा पढ़िए जरूर)
मेरे गाँव (रीवा से 65 किलोमीटर और इलाहबाद से 80 किलोमीटर दूर) से मात्र 5 किलोमीटर दूर पनवार गाँव है जहां पर ''नरसिंघदास महराज'' की कुटिया ''थी'' ! मेरे गाँव के एक बुजुर्ग जिनकी उम्र 105 वर्ष थी उन्होंने भी महराज को ऐसे ही बचपन से देखा जैसे मैंने मेरे बचपन में देखा था !

महराज बहुत ही फक्कड़ किस्म के थे, सामान्य सा एक लंबा कुर्ता और सिर्फ लंगोट पहनते थे ! कभी कभार नहाते थे, कोई जटाजूट नहीं,कोई तिलक नहीं,कोई पूजा पाठ नहीं, कोई आडम्बर नहीं ! उन्हें कभी किसी ने कुछ खाते नहीं देखा , हाँ पानी जरूर पीते देखे जाते थे ! जब जिधर मूड बने चल देते थे ! महीनो कुटिया से गायब हो जाते थे ! कई बार जंगलो में घुस जाते थे तो महीनो जंगल से बाहर ही नहीं निकलते थे ! किसी को अपना पांच नहीं छूने देते थे, जिसने पाँव छूने की कोशिस किया ओ लहूलुहान होता था !

एक बार हमारे रीवा के निर्दलीय सांसद और महाराजा ''मार्तण्ड सिंह जूदेव'' ने उनका पाँव छूने की कोशिस किया तो सिर पर ऐसा डंडा फटकारा की लहूलुहान हो गए ! मार खाने के बाद महाराजा साहब ने अपनी नई इम्फ़ाला कार महराज को दान करके वापस आ गए, हालांकि के अगले चुनाव में लाखो वोट से फिर से जीत गए ! महराज की कुटिया में इतना चढ़ावा आता था पर महरान ने कभी किसी धन को हाथ तक नहीं लगाया ! महराज के सबसे प्रिय सेवक ''कौशल सिंह बाघेल'' ही कुटिया का और प्राप्त दान का ध्यान रखते थे ! दान के धन से कुटिया का नवनिर्माण होता रहता था ! कुटिया में हमेसा भंडारे का आयोजन होता है !

प्रति शनिवार को कुटिया में मेला लगता था ! जिन महिलाओ को बच्चे नहीं होते थे ओ सात शनिवार कुटिया की परिक्रमा लगाती थी और उनकी मनोकमना पूरी होती थी , इसी तरह कई बीमरी का इलाज भी कुटिया के दर्शन,परिक्रमा मात्र से दूर हो जाती थी ऐसा विश्वास है लोगो का ! महराज अपनी कुटिया का दरवाजा बंद करके महीनो अंदर ही पड़े रहते थे,जिसमे लेट्रीन - बाथरूम की कोई ब्यवस्था नहीं थी ! महराज कभी कभी पास में ही जंगलो में स्थित दुअरानाथ के हनुमान जी का दर्शन करने जाते थे इस लिए सायद शनिवार को मेला लगने लगा !

एक बार महराज भयंकर बाढ़ वाली गंगा में यमुना पुल (इलाहाबाद) से कूद गए और पानी में गायब हो गए ! जब पांच छह माह तक वापस नहीं आये तो उनके भक्तो ने उनका क्रिया कर्म करके उनका तेरहवा का भोजन, भंडारा करवा रहे थे , देखा की एक जटाजूट धारी बाबा, पंगत में बैठकर खाना खा रहे है ! (पहली बार उन्हें खाना कहते देखा गया) कौशल सिंह तुरंत पहचान गए और बाबा के पाँव पर लोट गए तब महराज जी ने कौशल सिंह को डंडे से बहुत मारा, मार मार कर उन्हें बेहोस कर दिया और जाकर कुटिया में घुस गए ! और जब सात दिन बाद कुटिया से बहार निकले तो कौशल सिंह से लिपट कर बहुत रोये ! कौशल सिंह का पूरा परिवार आज भी सुखी सम्पन्न है !

कुटिया में एक बार भंडारा चल रहा था , घी ख़त्म हो गया तो कौशल सिंह महराज के पास गए और बताया तो महराज जी बोले ''जा मैया से उधार लेकर आ '' ओ समझ गए मैया कौन है ! कुटिया से लगी हुई नदी को महराज मैया कहते थे ! कौशल सिंह गए और कुटिया से एक टीन (सायद 10 किलो ) गहि ले आये और महराज को दे दिया ! महराज ने गरम कराहे में उबलते हुए घी में पानी डाल दिया ओ घी बन गया और उससे पूड़ी तलकर भंडारा पूरा किया गया ! बाद में बनिया के यहां से घी लेकर नदी में डाल दिया तो घी पानी बन गया ! ये सच्चाई मैंने गाँव के बुजुर्गो से कई बार सुना था ! ऐसे कई चमत्कार महराज जी ने किया था ! फिर कभी लिखूंगा !

महराज की कई बार फोटो खींचने की कोशिस हुई पर उनकी फोटो कैमरे में कभी कैद नहीं हुई ! कौशल सिंह के बड़ी आग्रह के बाद महराज ने कुछ फोटो खिचवाया था, आज वही है ! बाकी कभी उनकी कोई फोटो नहीं खींच सका ! जब भी निगेटिव धुलती थी तो फोटो की जगह सिर्फ एक दिया (जलते हुए दीपक) की फोटो आती थी !

एक बार महराज के हाथ से मैंने भी मार खाया था ! मैं 10वी में पढ़ रहा था किसी काम से जवा (मेरे गाँव से 12KM) से सायकल से वापस आ रहा था ! देखा की महराज खेत से सड़क की तरफ आ रहे है, करीब छह सात लोग भी पीछे पीछे लगे हुए है ! मैं दर्शन के लिए रुक गया महराज जैसे ही आये मेरे सायकल के कॅरियर में बैठ गए और बोले ''चल'' ! मेरे तो डर के मारे हाथ पाँव फूल गए फिर डर डर कर सायकल चलाने लगा और कुछ दूर जाकर गिर गया और महराज भी गिर गए ! महराज उठे और मेरा हाथ पकड़ कर उठाया सिर पर,चेहरे पर बड़े प्यार से हाँथ घुमाया और ''ओह माई गाड़ , ऐसा जोरदार थप्पड़ मारा की कई दिन तक उस कान से सुनाई नहीं दिया'' आज भी ओ थप्पड़ नहीं भूला ! महराज जी के साथ चलने वालों ने बोला ''जाओ महराज जी का आशीर्वाद मिल गया, जीवन में हमेसा ही सुखी रहोगे'' ! और ओ बात आज तक झूठी नहीं हुई !

ऐसी बहुत सी सच कहानियां है ! जिन्हे फिर कभी लिखुगा !
बाद में महराज जी ने समधी ले लिए उसी जगह महराज की समधी स्थल बन गया और आज भी उनके समाधि पर मेला लगता है !
कहने का मतलब सच्चे संत वही है जो मोह माया से कोसो दूर रहते है !
सुप्रभात मित्रो..... जय जय श्री राम .....
#NSB

बुधवार, 23 अगस्त 2017

भारतीय स्कूलों में पाठ्यक्रम के नाम झूठ का पुलिंदा

सायद आपको आपको पता नहीं होगा की भारत के सेकुलर ,हिन्दू विरोधी, , वामपंथी विचारो से ग्रस्त इतिहासकारों ने कैसे भारत के इतिहास की धज्जिय उड़ाई है इसी कड़ी में एक बड़ा नाम है, रोमिला थापर
इतिहास लेखन का काम करती है. ये और इसके जैसे तमाम इतिहास लेखकों के ऊपर कोई सेंसर बोर्ड नहीं है ! ये जो चाहे लिख सकते हैं, और हम तथा हमारे बच्चे इनके लिखे हुए विकृत और असत्य लेखों को दिमाग की बत्ती बंद करके पढते रहते हैं, जब हम इनको पढते रहते हैं,! तब हमारा सरोकार सिर्फ इतना रहता है कि बस इसका रट्टा मारो और परीक्षा के दौरान कॉपी पर छाप दो जिससे अच्छे नम्बर आ जाएँ ! लेकिन हम ये भूल जाते हैं, हम जो पढते हैं, उसको साथ साथ गढते भी हैं, उसकी छवियाँ और दृश्य साथ साथ दिमाग में घर बनाते रहते हैं, जिसका नतीजा ये होता है कि अगर इन्होने राम और महाभारत को काल्पनिक लिख दिया तो हम भी उसे काल्पनिक मानकर अपनी ही संस्कृति और परम्पराओं से घृणास्पद दूरी बना लेते हैं, और यही इन किराये के टट्टुओं का मकसद रहता है.! इन विधर्मी और गद्दार लेखकों द्वारा देश के इतिहास के सम्बन्ध में जो विकृत लेख लिखे गए हैं, उसकी एक बानगी आप देखिये !

वैदिक काल में विशिष्ट अतिथियों के लिए गोमांस का परोसा जाना सम्मान सूचक माना जाता था।
(कक्षा 6-प्राचीन भारत, पृष्ठ 35, लेखिका-रोमिला थापर)

महमूद गजनवी ने मूर्तियों को तोड़ा और इससे वह धार्मिक नेता बन गया।
(कक्षा 7-मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 28)

1857 का स्वतंत्रता संग्राम एक सैनिक विद्रोह था।
(कक्षा 8-सामाजिक विज्ञान भाग-1, आधुनिक भारत, पृष्ठ 166, लेखक-अर्जुन देव, इन्दिरा अर्जुन देव)

महावीर 12 वर्षों तक जहां-तहां भटकते रहे। 12 वर्ष की लम्बी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले। 42 वर्ष की आयु में उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग कर दिया।
(कक्षा 11, प्राचीन भारत, पृष्ठ 101, लेखक-रामशरण शर्मा)

तीर्थंकर, जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निर्वाण प्राप्त किया, की मिथक कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई।
(कक्षा 11-प्राचीन भारत, पृष्ठ 101, लेखक-रामशरण शर्मा)

जाटों ने, गरीब हो या धनी, जागीरदार हो या किसान, हिन्दू हो या मुसलमान, सबको लूटा।
(कक्षा 12 - आधुनिक भारत, पृष्ठ 18-19, विपिन चन्द्र)

रणजीत सिंह अपने सिंहासन से उतरकर मुसलमान फकीरों के पैरों की धूल अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी से झाड़ता था।
(कक्षा 12 -पृष्ठ 20, विपिन चन्द्र)

आर्य समाज ने हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों और ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने का प्रयास किया।
(कक्षा 12-आधुनिक भारत, पृष्ठ 183, लेखक-विपिन चन्द्र)

तिलक, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय जैसे नेता उग्रवादी तथा आतंकवादी थे
(कक्षा 12-आधुनिक भारत-विपिन चन्द्र, पृष्ठ 208)

400 वर्ष ईसा पूर्व अयोध्या का कोई अस्तित्व नहीं था। महाभारत और रामायण कल्पित महाकाव्य हैं।
(कक्षा 11, पृष्ठ 107, मध्यकालीन इतिहास, आर.एस. शर्मा)

वीर पृथ्वीराज चौहान मैदान छोड़कर भाग गया और गद्दार जयचन्द गोरी के खिलाफ युद्धभूमि में लड़ते हुए मारा गया।
(कक्षा 11, मध्यकालीन भारत, प्रो. सतीश चन्द्र)
औरंगजेब जिन्दा पीर थे।

(मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 316, लेखक-प्रो. सतीश चन्द्र)
राम और कृष्ण का कोई अस्तित्व ही नहीं था। वे केवल काल्पनिक कहानियां हैं।

(मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 245, रोमिला थापर)
(ऐसी और भी बहुत सी आपत्तिजनक बाते आपको एन.सी.आर.टी. की किताबों में पढ़ने को मिल जायेंगी)
इन किताबों में जो छापा जा रहा हैं उनमें रोमिला थापर जैसी लेखको ने मुसलमानों द्वारा धर्म के नाम पर काफ़िर हिन्दुओं के ऊपर किये गये भयानक अत्याचारों को गायब कर दिया है.
नकली धर्मनिरपेक्षतावादी नेताओं की शह पर झूठा इतिहास लिखकर एक समुदाय की हिंसक मानसिकता पर जानबूझकर पर्दा ड़ाला जा रहा है. इन भयानक अत्याचारों को सदियों से चली आ रही गंगा जमुनी संस्कृति, अनेकता में एकता और धार्मिक सहिष्णुता बताकर नौजवान पीढ़ी को धोखा दिया जा रहा है.
उन्हें अंधकार में रखा जा रहा है. भविष्य में इसका परिणाम बहुत खतरनाक होगा क्योकि नयी पीढ़ी ऐसे मुसलमानों की मानसिकता न जानने के कारण उनसे असावधान रहेगी और खतरे में पड़ जायेगी.
सोचने का विषय है कि आखिर किसके दबाव में सत्य को छिपाया अथवा तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा है ?
और इन सभी को हमारे पाठ्यक्रम से कब हटाया जाएगा ?

इस रोमिला थापर को गाली देने का मन कर रहा है , पर ये इतनी बुजुर्ग है ( 85वर्ष) की दिल गवाही नहीं दे रहा है गाली लिखने के लिए ! पर इतना जरूर लिखना चाहूंगा की ''डोकरी जिन्दा रहते बड़े बड़े कीड़े तेरे वादन में पड़े और उस दर्द से बेहाल होकर तू मरे !  

कर्नल पुरोहित मामले की अनकही कहानी :


2006 में सेनाध्यक्ष थे जनरल जे जे सिंह जिन्होंने वी के सिंह के साथ विश्वासघात किया था | 2006 में रक्षा मन्त्रालय ने भविष्य में सेनाध्यक्ष बनने योग्य वरीय पदाधिकारियों की सूची बनायी तो उसमें वी के सिंह का नाम रक्षा मन्त्रालय को पसन्द नहीं आया क्योंकि वे रक्षा उपकरणों की खरीद में घोटाला करने वाली माफिया को नापसन्द थे | तब वी के सिंह के पुराने गलत आवेदन पत्र को ढूँढकर उसी को मूल दस्तावेज मानने का निर्णय लिया गया ताकि वी के सिंह को एक वर्ष पहले ही रिटायर किया जा सके | इसके विरुद्ध वी के सिंह ने रक्षा मन्त्रालय में अर्जी दी और मौखिक तौर पर अदालत जाने की धमकी दी | रक्षा मन्त्रालय ने उनकी अर्जी को अनदेखा किया, किन्तु रक्षा मन्त्रालय को पता था कि वी के सिंह यदि अदालत चले गए तो मुकदमा जीत जायेंगे और रक्षा मन्त्रालय की किरकिरी हो जायेगी | तब एक षड्यन्त्र रचा गया | सेनाध्यक्ष ने वी के सिंह को मुख्यालय बुलाया और कहा कि रक्षा मंत्रालय में आपकी बात कोई नहीं सुनेगा, अतः वहां आप वैसा ही लिखकर दे दें ताकि मामला समाप्त हो जाय, उसके बाद मामला मेरे हाथों में चला आयेगा, उसके बाद आप जो चाहते हैं वैसा ही सही निर्णय मैं कर दूंगा | वी के सिंह ने गलती यही की कि सेनाध्यक्ष पर भरोसा कर लिया और लिखकर दे सिया कि रक्षा मंत्रालय की बात से वे सहमत हैं (अर्थात गलत जन्मतिथि को ही सही मान ली)| किन्तु बाद में सेनाध्यक्ष मुकर गए, बोले कि मैंने कोई आश्वासन नहीं दिया था ! बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने भी वे के सिंह की याचिका यह कहकर ठुकरा दी कि आपने रक्षा मन्त्रालय के निर्णय को सही माने की बात लिखकर दे चुके थे, अतः अब उसे गलत कहने का आपको अधिकार नहीं है !
उनके बाद 1 अक्टूबर 2007 से 31 मार्च 2010 तक सेनाध्यक्ष थे जनरल दीपक कपूर | इनके ही कार्यकाल में कर्नल पुरोहित को सेना मुख्यालय से जाँच हेतु ही कर्नल श्रीवास्तव बलपूर्वक उनको महाराष्ट्र ले गए (कर्नल श्रीवास्तव ने मूवमेंट आर्डर में स्वय गन्तव्य "सेना मुख्यालय" काटकर "मुम्बई" लिख दिया) और ATS के हवाले कर दिया, कर्नल श्रीवास्तव वरिष्ठ थे अतः कर्नल पुरोहित ने रास्ते में प्रतिवाद नहीं किया | किन्तु ATS की जाँच में कर्नल श्रीवास्तव पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अकारण भयंकर मारपीट और गालीगलौच आरम्भ कर दी जिसमें कुछ मिनट पश्चात ATS वालों ने भी हाथ बंटाया, कर्नल श्रीवास्तव का एक ही कथन था -- मालेगाँव विस्फोट कराने का जिम्मा कबूल कर लो वर्ना माँ-बहन और पत्नी को नंगा परेड करा दूंगा !
कर्नल पुरोहित ने इस अवैध हरकत की शिकायत सेना मुख्यालय से लेकर मंत्रालय तक की किन्तु कर्नल श्रीवास्तव पर कोई कार्यवाई आजतक नहीं हुई | कर्नल श्रीवास्तव सेना की मिलिट्री इंटेलिजेंस यूनिट के निदेशक थे | स्पष्ट है कि कर्नल श्रीवास्तव अपनी मनमर्जी से कार्य नहीं कर रहे थे | सेना मुख्यालय से मालेगाँव विस्फोट में संलिप्तता का आरोपपत्र लेकर कर्नल श्रीवास्तव आये थे, अतः सेना मुख्यालय का यह कथन सरासर असत्य है कि कर्नल पुरोहीय उनदिनों लापता थे, जबकि वे कर्नल श्रीवास्तव की गिरफ्त में थे जिनको सेना मुख्यालय ने भेजा था | अतः सेना मुख्यालय के उस उच्च अधिकारी की संलिप्तता है जिसने मालेगाँव विस्फोट में कर्नल पुरोहित के हाथ होने की जाँच का आदेशपत्र पत्र दिया और कर्नल श्रीवास्तव को अधिकृत किया | यदि कर्नल पुरोहित लापता थे तो कर्नल श्रीवास्तव भी लापता होंगे क्योंकि दोनों एकसाथ थे ! किन्तु सेना मुख्यालय कर्नल श्रीवास्तव को उनदिनों लापता नहीं मानती | इतना ही नहीं, बिना सेना मुख्यालय की अनुमति के महाराष्ट्र पुलिस की ATS को कोई अधिकार नहीं था कि वह कर्नल पुरोहित को गिरफ्तार करे | मध्यप्रदेश मे स्थित कर्नल पुरोहित को सीधे महाराष्ट्र ATS गिरफ्तार नहीं कर सकती थी, और थर्ड डिग्री अत्याचार करने में भी हिचकती | अतः सेना मुख्यालय ने एक वरिष्ठ अधिकारी को यह दायित्व सौंपा जो एक अनहोनी घटना है | यदि सेना मुख्यालय को अंदेश था कि कर्नल पुरोहित ने कोई अवैध कार्य किया था तो उसकी जाँच के लिए सेना के पास अपनी जाँच मशीनरी और अपने कोर्ट मार्शल हैं | सेना कभी भी पुलिस को नहीं कहती कि कर्नल रैंक के अधिकारी की जाँच करे | अतः सेना मुख्यालय ने अवश्य ही ऐसा आदेश दिया, किन्तु कर्नल पुरोहित को कोई सूचना नहीं दी गयी | सेना मुख्यालय में किस अधिकारी ने ऐसा किया यह आगे की घटना से स्वतः स्पष्ट हो जाएगा |
कर्नल पुरोहित की गिरफ्तारी के कुछ ही काल पश्चात सेना ने कर्नल पुरोहित के विरुद्ध उसी आरोप में कोर्ट ऑफ़ इन्क्वारी COI कराई जिसने कर्नल पुरोहित को दोषी ठहराते हुए उनको सेना से बर्खास्त करने और आवश्यक कार्यवाई करने का आदेश दिया | उस समय जनरल दीपक कपूर ही सेनाध्यक्ष थे |
इस COI ने सेना के Rule-180 का उल्लंघन करते हुए पक्षपातपूर्ण सुनवाई की थी, जिस कारण आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल ने इस COI को अवैध घोषित करते हुए 2011 ईसवी में पुनः नयी COI का आदेश दिया (http://www.ndtv.com/…/lt-colonel-purohit-did-the-army-sell-…)|उस समय जनरल वी की सिंह सेनाध्यक्ष थे |
मई 2012 में दूसरी COI विधिवत हुई जिसमें सभी पक्षों की वैध तरीके से सुनवाई हुई और निर्णय दिया गया कि कर्नल पुरोहित अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे और वरिष्ठ अधिकारियों को अपनी समस्त गतिविधियों की सूचना दे रहे थे, अतः निर्दोष हैं | किन्तु उसी महीने 31 मई 2012 को जनरल वी के सिंह का कार्यकाल समाप्त हो गया, उसके बाद चार वर्षों तक COI की रिपोर्ट दबा दी गयी, अर्पणा पुरोहित को मांगने पर भी नहीं दी गयी, और अदालत में भी पेश नहीं की गयी जिस कारण कर्नल पुरोहित की जमानत NIA के आरोप के कारण न्यायालय ने ठुकराया था | जनरल वी के सिंह का रक्षा मन्त्रालय से मतभेद एक घटिया विदेशी ट्रक की खरीद के मामले पर हुआ जिसमें एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने जनरल वी के सिंह को 14 करोड़ रूपये घूस देने की पेशकश की, किन्तु शिकायत के बाद भी उस अधिकारी पर कोई कार्यवाई नहीं हुई और रक्षा मन्त्रालय ने जनरल वी के सिंह की सेवा एक वर्ष पहले ही समाप्त कर दी |
उनके बाद जनरल बिक्रम सिंह सेनाध्यक्ष बने जिन्होंने जनरल वी के सिंह के उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसमे लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग की प्रोन्नति इस कारण रोक दी गयी थी चूँकि उन्होंने जोरहट डकैती काण्ड में अपनी चहेती एक महिला कप्तान को बचाने के लिए नियमों को ताक पर रख दिया था (उस घटना पर मैं बहुत पहले ही विस्तार से लिख चुका हूँ)| फलस्वरूप प्रोन्नति हो गयी और जनरल दलबीर सिंह सुहाग 1 अगस्त 2014 से 31 दिसम्बर 2016 तक सेनाध्यक्ष रहे | ब्रिटिश राज के काल से आधुनिक काल तक वे पहले गोरखा अफसर थे जो इस पद तक पँहुचे | उनके बाद भी गोरखा राइफल्स के अधिकारी ही सेनाध्यक्ष बने | मई 2014 में सरकार बदल गयी, किन्तु COI रिपोर्ट को दबाये रखने का केन्द्र सरकार और सेना का निर्णय ज्यों-का-त्यों रहा | सेना ने COI कराई थी तो उसका कार्यान्वयन हो इसे सुनिश्चित कराना सेना का ही दायित्व था, किन्तु सेना मुख्यालय ने कुछ नहीं किया | कर्नल पुरोहित के पक्ष में केवल यही एक सबूत था जिसे सेना और सरकार ने दबाकर रखा -- पहले कांग्रेस सरकार ने दबाया और फिर भाजपा सरकार ने दबाया |
तब अर्पणा पुरोहित को अदालती आदेश लाना पडा जिसके बाद मनोहर पर्रीकर को आदेश देना पड़ा कि COI के वे हिस्से अर्पणा पुरोहित को दिए जाएँ जिनमे 76 सैन्य अधिकारियों की गवाही हुई थी, उन सबने कर्नल पुरोहित के निर्दोष होने की बात स्वीकारी थी (मई 2012 में ही !!)|
किन्तु NIA हाल तक अपने पुराने रुख पर ही अड़ी हुई थी | हाल के सर्वोच्च न्यायालय में जमानत के मामले में भी NIA जमानत का विरोध करेगी यह समाचार जी-न्यूज़ जैसे राष्ट्रवादी चैनल में भी आयी थी | किन्तु COI की रिपोर्ट का जो हिस्सा अर्पणा पुरोहित को दिया गया था उसे अर्पणा पुरोहित ने एक नारीवादी संस्था "मानुषी" को दिया http://www.manushi.in/articles.php… और scribd पर अपलोड भी कर दिया, किन्तु (सेना मुख्यालय के प्रतिवाद करने पर) scribd से हटाया -- अब वहां COI का केवल Deletion Notice ही मिलेगा |
किन्तु रक्षा मन्त्रालय घबड़ा गयी -- अर्पणा पुरोहित जब COI की रिपोर्ट को सर्वोच्च न्यायालय में पेश करेंगी तो NIA किस आधार पर सेना के रिपोर्ट को गलत ठहरा सकेगी ? तब निर्णय लिया गया कि NIA अपनी रिपोर्ट बदले और COI का अनुसरण करे | फलस्वरूप कर्नल पुरोहित को जमानत की मंजूरी मिल सकी |
बहुत से राष्ट्रवादियों को समझ में नहीं आयेगा कि भाजपा सरकार ने अर्पणा पुरोहित को COI सौंपने से इनकार क्यों किया, जिस कारण अर्पणा पुरोहित को अदालत द्वारा आदेश कराना पडा ! अर्पणा पुरोहित को COI नहीं दी जाती तो कर्नल पुरोहित आजीवन जेल में ही रहते | भाजपा सरकार ने उसी मालेगाँव काण्ड के अभियुक्त साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को छुड्वाया, किन्तु कर्नल पुरोहित पर सरकार खिसियाई हुई थी, क्योंकि COI की रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि कर्नल पुरोहित ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इस बात की सूचना बहुत पहले ही दी थी कि राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के नेता इन्द्रेश कुमार का हाथ कई विस्फोटों में था | कांग्रेस ने झूठा प्रचार कराया था कि इन्द्रेश कुमार और मोहन भगवत को पाकिस्तान की ISI से पैसा मिलता था, ऐसा होता तो कांग्रेस सरकार उन दोनों को जेल भेज चुकी होती, किन्तु इन्द्रेश कुमार की विस्फोटों में संलिप्तता का बयान कर्नल पुरोहित ने COI में पूछताछ के दौरान दिया था जिस कारण संघ बिगड़ गया था | NDTV राष्ट्रवादी नहीं है, संघ विरोधी भी है, किन्तु उसका यह समाचार बिलकुल सही है क्योंकि इस मामले में सेना के वरिष्ठ अधिकारियों से मेरी सीधी बातचीत हुई है जिनका नाम नहीं बताऊंगा -- http://www.ndtv.com/…/lt-colonel-purohit-did-the-army-sell-…
हिन्दू आतंकवाद सिद्ध करने में कांग्रेस का कितना बड़ा हाथ था यह स्पष्ट हो चुका है, किन्तु सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी कर्नल पुरोहित के विरुद्ध षड्यन्त्र में हाथ बंटाया था जिसका कारण था विदेशों से हथियारों के आयात में कमीशनखोरों की आपसी मैत्री ! भाजपा सरकार में भी नौकरशाही पहले वाली ही है | सिस्टम में कोई बदलाव नहीं आया | राफेल युद्धक विमान मोदी जी ने जितने में खरीदने का बयान आरम्भ में दिया था, उससे बहुत अधिक मूल्य देकर बाद में खरीद की गयी और फ्रांस की रजामन्दी के बावजूद राफेल बनाने का कारखाना बैंगलोर में लगाने का प्रस्ताव भाजपा सरकार ने ठुकरा दिया -- मनोहर पर्रीकर के काल में | सरकार के मन्त्री एक पैसा घूस न भी खाएं तो भी घूस खाने वालों की कमी नहीं है | भारत संसार में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है | भयंकर घूसखोरी है | यही कारण है जनरल वी के सिंह को रक्षा मन्त्रालय से दूर रखने का |
भगवा आतंकवाद का हौवा खड़ा करने से पाकिस्तान को यह कहने का बहाना मिला कि आतंकवादी हिन्दू होते हैं | समझौता एक्सप्रेस काण्ड में भी ATS ने कर्नल पुरोहित का नाम डाल दिया था और उनको पाकिस्तान को सौंपने की बात चल रही थी ! वह तो अमरीका में ही उस काण्ड का भण्डाफोड़ हो गया और महाराष्ट्र ATS ने कर्नल पुरोहित को फँसाने के लिए माफी मांग ली |
क्या माफी मांगने पर ऐसे लोगों को माफ़ कर देना चाहिए ? मेरी मांग यह है कि सेना और ATS के उन सभी अधिकारियों पर आपलोग मिलकर कोई PIL दायर कराएं जिनलोगों ने एक देशभक्त और निर्दोष व्यक्ति के साथ ऐसा अमानवीय और देशद्रोह वाला षड्यन्त्र रचा, तब इस काण्ड में संलिप्तता के कारण कांग्रेस के नेतागण स्वतः फँसने लगेंगे | ऐसा PIL दायर हो इसके लिए पहले आवश्यक है कि उपरोक्त बातों का जमकर प्रचार हो | मीडिया तो अब यह बताती भी नहीं कि COI की पहली रिपोर्ट अवैध थी जिसकारण पुनः COI कराई गयी जिसकी अनुशंसा के कारण कर्नल पुरोहित का वेतन बन्द नहीं हुआ |
अन्धभक्तों को अपनी मानसिकता पर पुनर्विचार करना चाहिए (हालाँकि यह सम्भव नहीं है) -- कर्नल पुरोहित ने COI में इन्द्रेश कुमार का नाम क्यों लिया, क्या इस कारण एक निर्दोष और देशभक्त अधिकारी को आजीवन बिना सुनवाई के जेल में रखना चाहिए ?
अर्पण पुरोहित को COI के केवल वे तीन अंश दिए गए (परिशिष्ट 2, 3, 4) जिनमें 76 सैन्य अधिकारियों की गवाही थी, COI का मुख्य रिपोर्ट उनको नहीं दिया गया, जिनकी अनेक मुख्य बातों का खुलासा मैंने प्रस्तुत लेख में किया है | सरकार का कहना सही है कि पूरी रिपोर्ट अदालत को सौंपने या सार्वजनिक करने से देश की सुरक्षा को ख़तरा हो जाएगा, क्योंकि देश का अर्थ है मन्त्रालय के नेता और नौकरशाह एवं सेना के मुट्ठीभर भ्रष्ट अधिकारी | हमलोग "देश" नहीं हैं, कीड़े-मकोड़े हैं !
मेरी ही तरह दूसरे समस्त कीड़ों-मकोडो से अपील है कि मगरमच्छों को बेनकाब करने की मुहीम छेड़ दें | कर्नल पुरोहित सेना में कार्यरत हैं, अपने ही अधिकारियों के विरुद्ध नहीं बोलेंगे, यह सैन्य अनुशासन के विरुद्ध है | तो फिर कौन बोलेगा ? यह भारत है या पाकिस्तान ?
आतंकवाद के "दरभंगा मोड्यूल" की चर्चा आपलोगों ने सूनी होगी | इसके संस्थापक का नाम कोई नहीं लेता -- मोहम्मद अली अशरफ फातमी जो लालू यादव की पार्टी से सांसद और केन्द्र में राज्यमन्त्री रह चुके हैं | जब उनको कोई नहीं जानता था और वे सऊदी अरब में रहते थे तब दावूद इब्राहिम ने उनको 50 लाख रूपये का चेक देकर दरभंगा से 1991 में लोक सभा का चुनाव लड़ने भेजा था जिसमें वे जीते भी थे -- उसी समय सरकारी टीवी दूरदर्शन ने खबर चलाई थी लेकिन सबूत CBI 26 वर्षों से दबाकर बैठी हुई है ! दरभंगा संसदीय क्षेत्र को भाजपा ने भागलपुरी कीर्ति झा आज़ाद को सौंप दिया जिसे क्रिकेट के अलावा कुछ सूझता ही नहीं है |
सही जाँच हुई तो वे सभी हिन्दू-विरोधी नेता जेल चले जायेंगे जो आज कर्नल पुरोहित के छूटने से परेशान हैं | लेकिन इसके लिए जन-जागरण और जन-अभियान आवश्यक है, वरना कोई भी सरकार कुछ नहीं करेगी | लोकतन्त्र में लोक जैसा होता है उसे वैसा ही तन्त्र मिलता है | लोक सुधरेंगे, तन्त्र सुधरेगा |
एकाध गड़बड़ी के बावजूद मोदी सरकार ही कुछ सुधार करने में सक्षम है | कांग्रेस को तो देख ही चुके हैं | किन्तु मोदी सरकार भी शीघ्र और कठोर कदम उठाये इसके लिए जनता का दवाब आवश्यक है |

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

धारा 370 की जननी अनुच्छेद 35A

धारा 370 की जननी अनुच्छेद 35A : संविधान का व अदृश्य हिस्सा जिसने कश्मीर को लाखों लोगों के लिए नर्क बना दिया है ! आगे पढ़िए क्या है यह ?
जून 1975 में लगे आपातकाल को भारतीय गणतंत्र का सबसे बुरा दौर माना जाता है. इस दौरान नागरिक अधिकारों को ही नहीं बल्कि भारतीय न्यायपालिका और संविधान तक को राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ा दिया गया था. ऐसे कई संशोधन इस दौर में किये गए जिन्हें आज तक संविधान के साथ हुए सबसे बड़े खिलवाड़ के रूप में देखा जाता है. लेकिन क्या इस आपातकाल से लगभग बीस साल पहले भी संविधान के साथ ऐसा ही एक खिलवाड़ हुआ था? 'जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र' की मानें तो 1954 में एक ऐसा 'संवैधानिक धोखा' किया गया था जिसकी कीमत आज तक लाखों लोगों को चुकानी पड़ रही है.

1947 में हुए बंटवारे के दौरान लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए थे. ये लोग देश के कई हिस्सों में बसे और आज उन्हीं का एक हिस्सा बन चुके हैं. दिल्ली, मुंबई, सूरत या जहां कहीं भी ये लोग बसे, आज वहीं के स्थायी निवासी कहलाने लगे हैं. लेकिन जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी नहीं है. यहां आज भी कई दशक पहले बसे लोगों की चौथी-पांचवी पीढ़ी शरणार्थी ही कहलाती है और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित है.

एक आंकड़े के अनुसार, 1947 में 5764 परिवार पश्चिमी पकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे. इन हिंदू परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे. यशपाल भारती भी ऐसे ही एक परिवार से हैं. वे बताते हैं, 'हमारे दादा बंटवारे के दौरान यहां आए थे. आज हमारी चौथी पीढी यहां रह रही है. आज भी हमें न तो यहां होने वाले चुनावों में वोट डालने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न ही सरकारी कॉलेजों में दाखिले का.'

यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी पकिस्तान से आए इन हजारों परिवारों की ही नहीं बल्कि लाखों अन्य लोगों की भी है. इनमें गोरखा समुदाय के वे लोग भी शामिल हैं जो बीते कई सालों से जम्मू-कश्मीर में रह तो रहे हैं. इनसे भी बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जो 1957 में यहां आकर बस गए थे. उस समय इस समुदाय के करीब 200 परिवारों को पंजाब से जम्मू कश्मीर बुलाया गया था. कैबिनेट के एक फैसले के अनुसार इन्हें विशेष तौर से सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए यहां लाया गया था. बीते 60 सालों से ये लोग यहां सफाई का काम कर रहे हैं. लेकिन इन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता.

ऐसे ही एक वाल्मीकि परिवार के सदस्य मंगत राम बताते हैं, 'हमारे बच्चों को सरकारी व्यावसायिक संस्थानों में दाखिला नहीं दिया जाता. किसी तरह अगर कोई बच्चा किसी निजी संस्थान या बाहर से पढ़ भी जाए तो यहां उन्हें सिर्फ सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिल सकती है.'

यशपाल भारती और मंगत राम जैसे जम्मू कश्मीर में रहने वाले लाखों लोग भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता. इसलिए ये लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू कश्मीर में पंचायत से लेकर विधान सभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं. 'ये लोग भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन जिस राज्य में ये कई सालों से रह रहे हैं वहां के ग्राम प्रधान भी नहीं बन सकते.' सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ बताते हैं, 'इनकी यह स्थिति एक संवैधानिक धोखे के कारण हुई है.'

ये लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू कश्मीर में पंचायत से लेकर विधान सभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं

जगदीप धनकड़ उसी 'संवैधानिक धोखे' की बात कर रहे हैं जिसका जिक्र इस लेख की शुरुआत में किया गया था. जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक आशुतोष भटनागर बताते हैं, '14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा एक आदेश पारित किया गया था. इस आदेश के जरिये भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35A जोड़ दिया गया. यही आज लाखों लोगों के लिए अभिशाप बन चुका है.'

'अनुच्छेद 35A जम्मू-कश्मीर की विधान सभा को यह अधिकार देता है कि वह 'स्थायी नागरिक' की परिभाषा तय कर सके और उन्हें चिन्हित कर विभिन्न विशेषाधिकार भी दे सके.' आशुतोष भटनागर के मुताबिक 'यही अनुच्छेद परोक्ष रूप से जम्मू और कश्मीर की विधान सभा को, लाखों लोगों को शरणार्थी मानकर हाशिये पर धकेल देने का अधिकार भी दे देता है.'

आशुतोष भटनागर जिस अनुच्छेद 35A (कैपिटल ए) का जिक्र करते हैं, वह संविधान की किसी भी किताब में नहीं मिलता. हालांकि संविधान में अनुच्छेद 35a (स्मॉल ए) जरूर है, लेकिन इसका जम्मू-कश्मीर से कोई सीधा संबंध नहीं है. जगदीप धनकड़ बताते हैं, 'भारतीय संविधान में आज तक जितने भी संशोधन हुए हैं, सबका जिक्र संविधान की किताबों में होता है. लेकिन 35A कहीं भी नज़र नहीं आता. दरअसल इसे संविधान के मुख्य भाग में नहीं बल्कि परिशिष्ट (अपेंडिक्स) में शामिल किया गया है. यह चालाकी इसलिए की गई ताकि लोगों को इसकी कम से कम जानकारी हो.' वे आगे बताते हैं, 'मुझसे जब किसी ने पहली बार अनुच्छेद 35A के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि ऐसा कोई अनुच्छेद भारतीय संविधान में मौजूद ही नहीं है. कई साल की वकालत के बावजूद भी मुझे इसकी जानकारी नहीं थी.'

भारतीय संविधान की बहुचर्चित धारा 370 जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार देती है. 1954 के जिस आदेश से अनुच्छेद 35A को संविधान में जोड़ा गया था, वह आदेश भी अनुच्छेद 370 की उपधारा (1) के अंतर्गत ही राष्ट्रपति द्वारा पारित किया गया था. लेकिन आशुतोष कहते हैं, 'भारतीय संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ देना सीधे-सीधे संविधान को संशोधित करना है. यह अधिकार सिर्फ भारतीय संसद को है. इसलिए 1954 का राष्ट्रपति का आदेश पूरी तरह से असंवैधानिक है.'

अनुच्छेद 35A (कैपिटल ए) संविधान की किसी किताब में नहीं मिलता. हालांकि संविधान में अनुच्छेद 35a (स्मॉल ए) जरूर है, लेकिन इसका जम्मू-कश्मीर से कोई सीधा संबंध नहीं

अनुच्छेद 35A की संवैधानिक स्थिति क्या है? यह अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है या नहीं? क्या राष्ट्रपति के एक आदेश से इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ देना अनुच्छेद 370 का दुरूपयोग करना है? इन तमाम सवालों के जवाब तलाशने के लिए जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र जल्द ही अनुच्छेद 35A को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की बात कर रहा है.

वैसे अनुच्छेद 35A से जुड़े कुछ सवाल और भी हैं. यदि अनुच्छेद 35A असंवैधानिक है तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 के बाद से आज तक कभी भी इसे असंवैधानिक घोषित क्यों नहीं किया? यदि यह भी मान लिया जाए कि 1954 में नेहरु सरकार ने राजनीतिक कारणों से इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल किया था तो फिर किसी भी गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसे समाप्त क्यों नहीं किया? इसके जवाब में इस मामले को उठाने वाले लोग मानते हैं कि ज्यादातर सरकारों को इसके बारे में पता ही नहीं था शायद इसलिए ऐसा नहीं किया गया होगा.

अनुच्छेद 35A की सही-सही जानकारी आज कई दिग्गज अधिवक्ताओं को भी नहीं है. जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र की याचिका के बाद इसकी स्थिति शायद कुछ ज्यादा साफ़ हो सके. लेकिन यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो आज भी सबके सामने है. पिछले कई सालों से इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. यशपाल कहते हैं, 'कश्मीर में अलगाववादियों को भी हमसे ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं, वहां फौज द्वारा आतंकवादियों को मारने पर भी मानवाधिकार हनन की बातें उठने लगती हैं. वहीं हम जैसे लाखों लोगों के मानवाधिकारों का हनन पिछले कई दशकों से हो रहा है. लेकिन देश को या तो इसकी जानकारी ही नहीं है या सबकुछ जानकर भी हमारे अधिकारों की बात कोई नहीं करता.'

आशुतोष भटनागर कहते हैं, 'अनुच्छेद 35A दरअसल अनुच्छेद 370 से ही जुड़ा है. और अनुच्छेद 370 एक ऐसा विषय है जिससे न्यायालय तक बचने की कोशिश करता है. यही कारण है कि इस पर आज तक स्थिति साफ़ नहीं हो सकी है.' अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर को कुछ विशेषाधिकार देता है. लेकिन कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने वाला यह अनुच्छेद क्या कुछ अन्य लोगों के मानवाधिकार तक छीन रहा है? यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो यही बताती है.
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सुप्रभात मित्रो..... जय जय श्री राम .....