गुरुवार, 29 नवंबर 2012

!! सच्चा प्रेम कौन करता है मर्द या नारी ?

बहुत सोचा कि लिखूं या ना लिखूं लेकिन दिल ने कहा कि आज लिख ही डालूं मन की बात. कई बार पहले भी सोची थी कि लिख ही देनी चाहिए लेकिन जंक्शन के लोगों के विचार इतने रुढ़िवादी लगे कि मुझे ना लिखने में ही भलाई नजर आई. फिर भी आज मैं सारा संकोच छोड़ कर एक सच लिख रही हूं जिससे सारा मर्द समाज बेपरदा हो जाएगा.

स्त्री-पुरुष के बीच जब प्रेम होता है तो कुछ बातें निश्चित रूप से घटित होती है. जैसे कि स्त्री तो वास्तविक रूप से प्रेम में होती है जबकि पुरुष प्रेम में होने का दिखावा करता है. स्त्री का प्रेम वासना रहित, शुद्ध, सात्विक और दैविक होता है. स्त्री बिना किसी मांग के केवल प्रेम से मतलब रखती है. उसे बदले में कुछ चाह की आस नहीं होती है बल्कि वह सिर्फ देने में भरोसा रखती है. मर्द की खुशी के लिए स्त्री सर्वस्व समर्पण कर देती है. ऐसा आज से नहीं सदियों से होता चला आया है.

लेकिन इसके ठीक उलट पुरुष के प्रेम की जब बात आती है तो वहां सिर्फ धोखा मिलता है. पुरुष छलना जानता है, मूर्ख बनाना जानता है, अपनी पाशविक वृत्ति के अनुरूप वह स्त्री को प्रेम के प्रतिदान के रूप में सिर्फ प्रताड़ना देता है. मूल रूप से पुरुष स्त्री को केवल उपभोग करता है, उसे अपनी वासना पूर्ति का माध्यम बनाता है. हॉ, ये जरूर है कि अकसर वह बड़ी चालाकी से इसे छुपा लेता है ताकि उसके भोग के रास्ते में कोई रुकावट ना पैदा हो.

अभी एक घटना मुझे याद आ रही है जिसने ये साबित कर दिया कि पुरुष सिर्फ वासनामय प्रेम ही करते हैं और इसके पीछे उनकी अत्याधिक स्वार्थ वाली प्रवृत्ति जिम्मेदार है. मेरी एक दोस्त, जिसने अपने कॅरियर में काफी ऊंचाई प्राप्त की है, वह केवल किसी मर्द के वासनामय रवैये की शिकार बन कर आज  यातनापूर्ण जीवन जी रही है. एक हाई प्रोफाइल कॅरियर और लाइफस्टाइल से संबद्ध होने के बावजूद उसने जिस पुरुष को अपने प्रेम पात्र के रूप में चुना था उसी ने उसकी जिंदगी में कड़वाहट घोल दी. जबकि मेरी दोस्त उसे सर्वस्व समर्पित कर चुकी थी इसके बावजूद उसके प्रेमी ने उसे सिर्फ भोग का जरिया माना इससे ज्यादा और कुछ नहीं. यहॉ तक कि मेरी फ्रेंड उसके लिए अपना कॅरियर और अपने सारे शौक छोड़ने को तैयार थी लेकिन उस स्वार्थी व्यक्ति ने उसे भोगने के बाद उससे नाता ही खत्म कर लिया.

और ये कोई ऐसा अकेला उदाहरण नहीं है जहॉ पर मर्दों ने स्त्रियों को छला हो. ऐसी घटनाएं तो आम हैं जहॉ पर स्त्रियां पुरुष पर भरोसा करके उन्हें अपना सब कुछ मान बैठती हैं जबकि पुरुष केवल उन्हें अपनी वासनापूर्ति का माध्यम बनाते हैं. फिर भी ऐसा क्यूं है कि स्त्री आज तक पुरुष के छल और धोखे को समझ नहीं सकी. तमाम ऐसी स्त्रियां हैं जो पुरुष को आज भी भगवान की तरह पूजती हैं और उन पर आंख बंद करके विश्वास करती हैं. उन्हें यदि समझाने की कोशिश भी जाए तो वे नहीं समझने वाली बल्कि वे आप पर ही तोहमत लगाना शुरू कर देंगी. इसके पीछे का सच यही जान पड़ता है कि स्त्री मानसिक तौर पर गुलाम है और ये गुलामी एक दिन में नहीं बल्कि हजारों वर्षों में लिखी गई है. इसलिए शायद ही इस परिदृश्य में कोई सुधार जल्द हो पाए.

इतना जरूर है कि जिस दिन स्त्री को ये सच पता चल गया, जिस दिन उसे ये एहसास हो गया कि आज तक वह केवल पुरुष पर विश्वास करने के कारण ही इतनी यंत्रणा भोगती रही है उसी दिन से उसका कायाकल्प होने लगेगा.

!! कर्ण और वर्ण व्यवस्था !!


तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक,
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
-- रामधारी सिंह "दिनकर" (रश्मिरथी)


 में वर्ण व्यवस्था के मानकों पर विदुर के सम्मान की वार्ता पर श्रधेय अनुराग शर्मा जी (स्मार्ट इंडियन) ने एक सहज प्रश्न किया था - कर्ण और वर्ण व्यवस्था पर उसकी उपेक्षा पर। कर्ण और भीष्म दोनों ही महाभारत के ऐसे पात्र हैं जिनकी पीड़ा और विवशता किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को द्रवित कर जाती हैं। भीष्म ने जहाँ अपना राजपाट, वंश परम्परा को पिता के लिए त्याग दिया और फ़िर उस निर्णय के कारण अपने वंश को नष्ट होते हुए देखा, अपनी इच्छा-मृत्यु के अभिशापित वर से जितना दुखी वे हुए होंगे उतना तो शायद हो कोई हुआ हो ।

इसी प्रकार कर्ण भी अपने जीवन में सैदव ही सत्य और निष्ठां के कसौटी पर कसा गया, प्रेम और ममत्व में छाला गया। कैसा लगता होगा जब आप के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्घ से पहले आपकी माँ, जिसने आपको हमेशा के लिए त्याग दिया हो, आकर आपसे उन भाइयों की जीवन की भिक्षा मांगे जिन्होंने जीवन भर आपका विरोध किया हो। और साथ ही यह भी सम्भावना हो कि जिस युद्घ में आप उन्हें जीवन दान दे रहे हैं उसी में वो आपके प्राण हरने की घोर चेष्ठा करंगे । कैसा लगता होगा जब आपके द्वार पर स्वं इन्द्र आकर आपके शरीर का अंश कवच और कुंडल मांगे, कैसा लगता होगा जब जिस गुरु की निद्रा के लिए आप वृश्चिक-दंश सहें वो ही आपको शाप दे दे, अपनी मृत्यु वेदना भुला कर भी अपने दांतों का दान करना पड़े.....ऐसे मित्र-वत्सल, सत्य निष्ठ, महादानी और धनुरश्रेष्ठ महा पराक्रमी वीर से सहानभूति किसी को कैसे नहीं होगी।

वैसे तो विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद और कालांतर में पाण्डु की मृत्यु के बाद, कुरुवंश तो शुद्ध क्षत्रियों का रक्तविहीन हो गया था और उसे संकर वर्ण की ही संताने थी। उस काल में संकर वर्ण के इन प्रतिनिधियों का क्षत्रिय रूप में उभारना और मान्यता प्राप्त करना वर्ण व्यवस्था के कर्मगत स्वभाव को ही दर्शाता हैं। साथ ही महाराज शांतनु के मतस्यगंधा सत्यवती और गंगा (जिसके विषय में शांतनु को कुछ भी ज्ञात नहीं था) से विवाह से लेकर भीम और अर्जुन तक विवाह संबंधों में भी वर्ण व्यवस्था नगण्य प्रतीत होती हैं। ऐसे में उस काल में कर्ण की सूत-पुत्र के रूप में हुई तथाकथित उपेक्षा जातिगत कम और राजनैतिक अधिक प्रतीत होती हैं। कर्ण के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलु जिनमे उसकी जातिगत उपेक्षा प्रतीत होती हैं के विषय में मैं अपने विचार रख रहा हूँ...

कर्ण का जन्म के समय कुंती ने स्वाभाविक रूप से वहीं किया जो कोई भी अविवाहिता लड़की लोक-लाज के भय से करती। अपने कवच और कुंडल की वजह से संभवतः कुंती ने कर्ण को अपने प्रथम साक्षात्कार में ही पहचान लिया हो किंतु राज-माता होते हुए शायद वे अपनी गरिमा को खोना नहीं चाहती हो । वैसे भी कर्ण के लालन-पोषण में उसकी जातिगत उपेक्षा नहीं मिलती हैं। अधिरथ और राधा ने संभवतः कर्ण कभी उसके अज्ञात कुल-वंश की वजह से तिरस्कृत नहीं किया - मेरे ज्ञान में तो ऐसा कोई भी सन्दर्भ नहीं हैं। कर्ण के सूत-पुत्र होने का पहला स्मरण उसकी शिक्षा के साथ आता हैं - जब वह द्रोणाचार्य के पास शिक्षा पाने गया। और द्रोणाचार्य ने यह कहकर उसको मन कर दिया कि वे केवल राज-पुत्रों को शिक्षा दे सकते हैं। इस घटना में कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के कारण उसे शिक्षा से वंचित नहीं किया गया। राजकीय सुरक्षा के कारण यह एक सोचा समझा कदम रहा होगा। द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वस्थामा के अतिरिक्त शायद किसी और को शिक्षा न प्रदान करने के लिए बाध्य थे। जबतक द्रोणाचार्य कुरु राजपुत्रों को शिक्षा देने में रत थे तबतक उनके आश्रम से किसी और महाबली को ज्ञान मिला हो इसका वर्णन भी नहीं मिलता हैं। वैसे भी द्रोणाचार्य द्रुपद से प्रतिशोध में इतने संलग्न थे कि वे कुरुकुमारों की शिक्षा जल्द से जल्द पूरी करके अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे। ऐसे में कर्ण को विद्यार्थी के रूप में बीच में लेने से उनकी योजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता था। कर्ण के द्रोणाचार्य के पास जाकर विद्याथी के रूप में लेने के अनुरोध से ही यह सिद्ध होता हैं कि उस काल में कोई भी योग्य मनुष्य किसी भी गुरु से शिक्षा ले सकता था - सभी को ऐसे सामान अवसर प्राप्त थे और जाति व्यवस्था शिक्षा के क्षेत्र में मान्यता नहीं रखती रही होगी ।

कर्ण के जीवन में जाति का दूसरा प्रकरण तब आता हैं जब परशुराम ने उन्हें झूठी जाति बताने पर शापित किया था। इस घटना के विवेचन पर यहाँ भी कर्ण को निम्न जाति का होने से शाप नहीं मिला था। कर्ण ने परशुराम को जाकर अपनी जाति ब्राह्मण बताई। परशुराम का ब्राह्मण-प्रेम उस युग में भी सर्व-विदित था और कर्ण ने ऐसे में अपने को ब्राह्मण बता कर उनसे दीक्षा ली। यहाँ ये प्रश्न स्वाभाविक हैं कि कर्ण ने अपना अधिकांश शैशव क्षत्रिय के बीच ही बिताया था - ऐसे में उसने स्वं को क्षत्रिय (या वैश्य) क्यों नहीं बताया? परशुराम क्षत्रियों को भी शिक्षा देते थे जैसेकि भीष्म। ऐसे में कर्ण का असत्य अपना वर्ण छिपाने से अधिक अपनी स्वीकृति के अवसर बढ़ाने के अधिक प्रतीत होता हैं। पशुराम का शाप भी कर्ण को उसके झूठ के कारण मिला। परशुराम जब उसे उसके गुणों के आधार पर क्षत्रिय मान रहे थे तब भी कर्ण स्वं ब्राह्मण और तदुपरांत सूत पुत्र कह रहा था। ऐसे में परशुराम को कर्ण की अपने कुल की अनभिज्ञता छल अधिक प्रतीत हुई और उन्होंने कर्ण को शाप दे दिया। यहाँ ध्यान देने योग्य दो बातें हैं - प्रथम, परशुराम द्वारा गुणों के आधार पर जाति का निर्धारण और दूसरी परशुराम का क्षत्रिय विरोधी स्वभाव। जिस प्रकार परशुराम ने अनेको बार क्षत्रिय विरोधी अभियान चलाये उससे उन्हें संभवतः क्षत्रियों से विशेष सावधान रहना पड़ता हो -ऐसे में जब उन्होंने एक छदम-भेषी क्षत्रिय को अपने शिष्य के रूप में पाया तो उनका क्रोध और कठोर दंड स्वाभाविक ही था। परशुराम दंड देते समय भी कर्ण को क्षत्रिय ही मान रहे थे (न कि सूत-पुत्र ) क्योंकि उनका शाप कर्ण को युद्घ में आवश्यकता पड़ने पर विद्या भूल जाने का दंड था। अब यदि सूत-पुत्र के रूप में कर्ण को दंड मिलता तो उसके युद्धरत होने की सम्भावना अत्यन्त क्षीण थी। (उस समय तक तो कर्ण के लिए अंग-राज होने का स्वप्न भी दृष्टव्य नहीं था।) इस प्रकार यहाँ भी जाति व्यवस्था के स्थान पर गुरु-शिष्य व्यवस्था में विश्वास का हनन ही शाप का मूल कारण हैं।

एक अन्य घटना जिसने कर्ण को अंगाधिपति बना दिया भी कर्ण और वर्ण-व्यवस्था की चर्चा के लिए महत्वपूर्ण हैं। जब सारे कुरु-कुमार अपने युद्घ कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे ऐसे में कर्ण ने आकर अर्जुन को द्वंद के लिए ललकारा और कृपाचार्य ने कर्ण के राज-पुरूष न होने के कारण उसे अस्वीकार कर दिया। यहाँ भी कर्ण निम्न वर्ण के होने के वजह से अस्वीकृत नहीं हुए। इसी समय दुर्योधन द्वारा उन्हें अंग का राज दे दिया जाता हैं - सूत-पुत्र होना कर्ण के शासक बनने में आड़े नहीं आता हैं। पूरी सभा में उपस्थित कोई भी विद्वजन (यहाँ तक कि कृपाचार्य और द्रोणाचार्य भी) कर्ण के इस उत्कर्ष पर आपत्ति नहीं करते हैं। विदुर, धृतराष्ट्र, भीष्म या प्रजा कोई भी इस आशय में कोई आपत्ति नहीं रखते हैं। इससे यह तो सिद्ध होता ही हैं कि शासन का अधिकार जन्मगत या कुल/वंश आधारित तो नहीं था।

कर्ण के जीवन में जाति के आधार पर प्रथम और एकमात्र तिरस्कार द्रौपदी के स्वयंवर में मिलता हैं। किंतु इस प्रकरण का भी विश्लेषण इसे राजनैतिक अधिक और जातिगत कम ही उजागर करता हैं। कर्ण जब द्रौपदी के स्वयंवर में मत्स्य भेदन के लिए खड़े होते हैं तब श्री कृष्ण के इशारे पर द्रौपदी कर्ण को सूत-पुत्र कहकर विवाह से मना कर देती हैं। इस घटना के अनेक पहलु हैं किंतु इस बात का उज्जवल पक्ष हैं - उस समय में नारी की विवाह के सम्बन्ध में स्वतंत्रता । कर्ण अन्य शासकों के साथ वहां विवाह के लिए आमंत्रित थे अतः विवाह के लिए जाति सामाजिक रूप से कोई अवरोध नही प्रतीत होती हैं। अब प्रश्न अवश्य ही यह उठता हैं कि द्रौपदी ने विवाह के लिए मना क्यों किया (या कृष्ण ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित क्यों किया)। द्रुपद और द्रोणाचार्य की शत्रुता किसी से भी छिपी नहीं थी। साथ ही पांडवों द्वारा द्रुपद विजय के बाद कौरवों में गुरु के लिए कुछ करने के उत्कंठा अवश्य ही रही होगी। श्री कृष्ण तो कौरवों के अमर्यादित, उच्छृंखल और उदंड स्वभाव को जानते ही थे, ऐसे में, यदि द्रुपदी कौरवों या उनके किसी समर्थक के साथ विवाहित होती तो द्रौपदी के अहित की संभावना बनी रहती। कर्ण जो मित्रता के नाते अधर्म का न चाहते हुए भी समर्थन करता रहा (युयुत्सु सा सामर्थ्य सभी में नही होता), किस प्रकार पत्नी रूप में द्रौपदी का अहित रोक पता यह विषय विचारणीय हैं। दूसरी ओर पांडवों के सदैव ही नियंत्रित व्यवहार में ऐसी सम्भावानी क्षीण थी। इस घटना का दूसरा पक्ष यह भी रहा होगा द्रौपदी स्वयं भी इस शत्रुता के चलते कुरु वंश जिसने उनके पिता का अपमान किया हो में न जाना चाहती हों । अर्जुन ने जब द्रौपदी का वरण किया तब द्रौपदी को उनके कुरु वंशज होने का भेद नहीं पता था। वर्ण इतर घरानों में होने वाले कुरु विवाह (शांतनु से लेकर पांडवों तक) और स्वयंवर में कर्ण के निमंत्रण से इस प्रकरण में वर्णाधारित भेदभाव नगण्य प्रतीत होता हैं। द्रौपदी द्वारा कर्ण को मना करना एक सुरक्षात्मक निर्णय था जिसका क्रियान्वयन जाति व्यवस्था की ओट में हुआ परन्तु उस निर्णय में जाति गत विद्वेष नहीं था ।

युद्घ की घड़ी में कर्ण के जाति-गत विरोध के रूप में कुछ प्रबुद्ध जन भीष्म के उस निर्णय को भी लेते हैं जिसमे अपने नेतृत्व में कर्ण को लेने से मना कर दिया था। इस घटना को जाति-गत रूप से देखना भी अनुचित होगा। भीष्म कर्ण के गुरु-भाई भी थे और गुरु के दिए शाप को भी जानते थे संभवतः इसी कारण कर्ण को युद्घ में लाकर क्षति नहीं पहुँचाना चाहते थे। उनको स्वयं इच्छा मृत्यु का वर था और वे चाहते तो सारे पांडवों का विनाश भी कर सकते थे। किंतु वे ह्रदय से पांडवों की विजय चाहते थे। ऐसे में एक और पराक्रमी योद्धा को रण में लाने से पांडवों को भी हानि होती। दोनों ही परिस्थितियों में इस निर्णय को भी जाति-गत नहीं माना जा सकता।

कर्ण का चरित्र आदर्शों से भरा होकर भी अधर्म का मूक समर्थक रहा। और संभवतः यही उसके पतन का कारण भी बना । यश पाकर भी यशस्वी न हो सका। यह जानकर भी कि वह पांडवों और कौरवों में अग्रज होकर भी युद्घ को रोक सकता - मित्र के मान-सम्मान के लिए लड़ता अपनी मृत्यु-शय्या तक दान देता रहा। ऐसे व्यक्तित्व अपने आप में वर्ण वर्गीकरण से कहीं ऊंचा उठ जातें हैं। कर्ण के लिए गुलाल फ़िल्म से कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं -
जीत की हवस नहीं, किसी पर कोई वश नहीं
क्या जिंदगी है ठोकरों पे मार दो ,
मौत अंत है नही तो मौत से भी क्यों डरे?
यह जाके आसमान में दहाड़ दो ।

! इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था !


ब्राह्मण क्षत्रिय विशाम् शूद्राणां च परन्तप।
                 कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥
(गीता १८/४१)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कर्म स्वभाव से ही
उत्पन्न गुणों के आधार पर ही विभाजित किए गए हैं।
                  इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था --------------1
अरविन्द शर्मा की "क्लास्सिकल हिंदू थोअट" में वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में तीन मुख्य भ्रांतियां बताई गयी हैं -
१) वर्ण व्यवस्था को ऋग्वेद के पुरूष सूक्त ने अध्यात्मिक (दैवीय) मान्यता दी हैं।
२) वर्ण व्यवस्था ने हिंदू समाज को अभेद्य वर्गों में विभाजित कर दिया हैं।
३) हिन्दू समाज में सभी वर्गों की सामान उत्त्पति नहीं नहीं माने जाती हैं ।
यह भ्रांतिया सम्पूर्ण व्यवस्था को समझे बिना और शास्त्रों को उनके शाब्दिक आधार पर लेने से हैं। हमने पिछली चर्चाओंमें पाया था की शास्त्र-सम्मत आधार पर भी ये तीनो बातें आधारहीन प्रतीत होती हैं। ऋग्वेद जहाँ इस व्यवस्था को कर्मगत बताते हैं वहीं एक वर्ण के दुसरे के साथ सम्बन्ध और परिवर्तन भी सामान्य था। और जहाँ तक तीसरी भ्रान्ति का सम्बन्ध हैं वो भी यदि सभी वर्गों को मनु-पुत्र माने या पुरूषसूक्त के आधार पर इस समाज की संतान दोनों ही रूपों में वे सामान सामाजिक-उत्त्पति वाले प्रतीत होते हैं (हाँ पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर वे आदम और इव की संतान नहीं हैं)। शास्त्र के आधार पर हम तथ्यपूर्ण रूप से पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था का वास्तविक रूप तो कर्मगत ही हैं। वेदों से लेकर रामायण और गीता तक, उपनिषद और ब्राह्मण व्याख्या से लेकर पौराणिक कथाओं तक प्रथम दृष्टया वर्ण-व्यवस्था कर्मणा ही मान्य हैं। गीता में स्वं श्री कृष्ण भी कहते हैं - "चातुर्वंर्यम् मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः"(गीता ४-१२) अर्थात् चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा कर्म गुण के आधार पर विभागपूर्वक रचित हैं (वर्गीकृत हैं)।

इसी प्रकार इतिहास के पृष्ठ पलटने पर भी वर्ण-व्यवस्था का कर्मगत रूप ही उजागर होता हैं किंतु कालांतर में एक पीढी द्वारा दूसरी पीढी को अपने व्यवसाय के गुण पैत्रिक धरोहर के रूप में विरासत में देने से संभवतः यह व्यवस्था जन्मणा मान्य हो गई हो ... आइये एक दृष्टि अपनी पुरातन व्यवस्था पर डालें और भारतीय समाज और वर्ण-व्यवस्था के उस विकास क्रम को समझने के प्रयास करें जिसने इतनी शताब्दियों तक इस समाज को जीवंत बनाये रखा ।
जैसाकि हम प्रारंभिक चर्चाओं के आधार पर जानते हैं कि वर्ण व्यवस्था का जन्म कर्मगत आधार पर समाज के श्रम विभाजन के कारण हुआ था। इस विभाजन के पीछे समाज के स्थायित्व और उसके सुचारू संचालन की कामना अवश्य ही थी। आर्यावर्त में वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभ्यताओं,जैसे कि ईरान और मिस्र , में भी वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ । यह सभी व्यवस्थाएं कर्मगत ही थी। जान अवेस्ता (जोराष्ट्रियन धार्मिक ग्रन्थ) में प्रारंभिक ईरानी समाज को तीन श्रेणियों -शिकारियों, पशुपालकों और कृषकों, में बांटा गया हैं (विलियम क्रूक - दा ट्राइब एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध)। यह सभी श्रेणियां कर्मगत हैं। कालांतर में जब ईरानी सामाजिक व्यवस्था उन्नत हुई तो चार वर्णों में विभक्त हुई। यह वर्ण थे - अथोर्नन (पुजारी), अर्थेश्तर (योद्धा), वास्तारिउश (व्यापारी) और हुतुख्श (सेवक)। कर्मगत आधार पर पनपे इन चारों वर्णों की वैदिक भारत से समानता विस्मयकरी हैं। अन्य जोराष्ट्रियन ग्रन्थ डेनकार्ड (जो कालांतर में लिखा गया ) में चार वर्णों के जन्म का उल्लेख हैं भी आश्चर्यजनक रूप से वैदिक पुरुषसूक्त का अनुवाद ही प्रतीत होता हैं (पुस्तक ४ -ऋचा १०४ )। किंतु इससे यह अवश्य सिद्ध होता हैं कि स्वतंत्र रूप से विकसित हुए इन दो सभ्यताओं में सामाजिक संरचना का रूप अवश्य ही कर्मगत था। यह भी सम्भावना हैं कि सिन्धु घटी सभ्यता काल में ही इस प्रकार की व्यवस्था का जन्म हुआ हो और वो अपने सहज रूप के कारण ईरान में भी अपनाई गयी हो। आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत में विश्वास करने वाले यदि ये तर्क रखते हैं कि ऐसा एक ही शाखा से जन्मे होने के कारण इन सभ्यताओं में समानता के कारण हैं तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस सिद्धांत के अनुसार ही वेदों की रचना आर्यों के भारत आने के बाद हुई हैं। उस समय के तत्कालीन जोराष्ट्रियन ग्रन्थ जान अवेस्ता में तीन ही श्रेणियों का वर्णन हैं । डेनकार्ड की रचना नवी शताब्दी के आसपास की हैं।
इसी काल के आसपास मिस्र में भी कर्म आधारित वर्ग का जन्म हुआ जिसमे दरबारी, सैनिक, संगीतज्ञ, रसोइये आदि कर्माधारित वर्गों का जन्म हुआ। मिस्र के शासक राम्सेस तृतीय के अनुसार मिस्र का समाज भूपतियों, सैनिकों, राजशाही, सेवक, इत्यादी में विभक्त था (हर्रिस अभिलेख (Harris papyrus ) जेम्स हेनरी ब्रासटेड - ऐन्सीएंट रेकॉर्ड्स ऑफ़ ईजिप्ट पार्ट ४)। इसी काल में यूनानी पर्यटक हेरोडोटस (Herodotus) के वर्णन के अनुसार मिस्र में सात वर्ण थे - पुजारी, योद्धा, गो पालक, वराह पालक, व्यापारी, दुभाषिया और नाविक। इनके अतिरि़क उसने दास का भी वर्णन किया हैं (उसके अनुसार दास बोलने वाले यन्त्र/औजार थे जोकि दास के अमानवीय जीवन को दर्शाता हैं)। इसके अतिरिक्त एक अन्य यूनानी पर्यटक स्त्रबो (Strabo) के वर्णन के अनुसार शासक के अतिरिक्त समाज में तीन भाग थे - पुजारी, व्यापारी और सैनिक। (यूनान की प्रचिलित दास व्यवस्था के कारण स्त्रबो ने भी दासों का उल्लेख आवश्यक नहीं समझा होगा)। मिस्र की सामाजिक व्यवस्था में मुख्यतः लोग अपने पैत्रिक कामों को वंशानुगत रूप से अपनाते रहे। इस प्रकार ये व्यवस्था कर्मगत होते हुए भी जन्मणा प्रतीत होती हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ भारतीय वर्ण व्यवस्था के साथ भी हुआ होगा।
पुरातन काल की सभी स्वतंत्र रूप से विकसित सभ्यताओं में, हम पाते हैं कि समाज का कर्मगत वर्गीकरण स्वाभाविक रूप से हुआ। कालांतर में यह सभ्यताएं अवश्य ही वाणिज्य और राष्ट्र विस्तार के लिए एक दुसरे के संपर्क में आई और इन सभ्यताओं ने अवश्य ही एक दुसरे के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित किया होगा किंतु इनके पुरातन विकास को देखकर यह कयास तो लगाया जा सकता हैं कि वर्ण निर्माण की भावना में सर्वत्र एक ही रही होगी। अतः यदि अन्य तत्कालीन सभ्यताओं में वर्ण व्यवस्था समाज के बढती जटिलताओं के समाधान के रूप में श्रम विभाजन के आधार पर उत्त्पन्न हुई तो वही विकासक्रम वैदिक व्यवस्था में भी रहा हुआ होगा। जेम्स फ्रांसिस हेविट ने अपने निबंध संग्रह "दा रूलिंग रेसस ऑफ़ प्रिहिस्टोरिक टाईम्स इन इंडिया, साउथ वेस्टर्न एशिया एंड साउथर्न यूरोप में भी पुरानी लोककथाओं, शास्त्रों और साक्ष्यों के आधार पर इन सभ्यताओं के विकासक्रम में ऐसी ही समानता स्थापित करने का प्रयास किया हैं। अगली कड़ी में हम भारतीय इतिहास के कुछ पृष्ठों में वर्ण-व्यवस्था का विकास क्रम देखें
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शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था ----2

पिछली चर्चा में हम वर्ण व्यवस्था की वेदानुसार व्याख्या कर रहे थे और उसके प्रारंभिक रूप को कर्मगत ही पाया। आज उस चर्चा को वेदों और मनु-स्मृति के अनुसार समझने का प्रयास करेंगे।
पिछली चर्चा में यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण के अनुसार हमने वर्णों के जन्म के विषय में जाना। किस प्रकार स्वर्ग, व्योम और भूमि से वर्णों का सम्बन्ध स्थापित किया गया था - जिसका विश्लेषणात्मक पहलु कर्मगत आधार पर यूँ किया जा सकता हैं कि दार्शनिक, बौधिक और धार्मिक कृत्यों से सम्बंधित कार्य (स्वर्ग) से ब्राह्मण, प्रशासनिक, संरक्षण एवं आश्रय देने के कृत्यों (व्योम) से क्षत्रिय और भूमि से जुड़े कार्यों से अन्य वर्ण (वैश्य और शूद्र) जन्मे। इस व्यवस्था में सभी को सामान अवसर भी प्राप्त थे। शतपथ ब्राह्मण के १.१.४.१२ श्लोक में वैदिक क्रियाओं में सभी वर्णों का संबोधन दिए हैं जिससे ये स्पष्ट होता हैं कि वैदिक कार्यों में सारे वर्ग भाग लेते थे । शतपथ ब्राह्मण (श्लोक १४.४.२.२३, ४.४.४.१३), तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.९.१४) में क्षत्रियों को संरक्षण और व्यवस्था कायम करने के कारण सभी वर्णों में श्रेष्ठ बताया गया हैं । वहीं दूसरी ओर तैत्तिरीय संहिता ( ५.१.१०.३) और ऐतरेय ब्राह्मण (८.१७) में ब्राह्मणों को ज्ञान के कारण श्रेष्ठ मन गया हैं। इन विरोधाभासी प्रतीत होने वाले विचारों से यह तो सिद्ध होता ही कि सर्वमान्य रूप से किसी वर्ण की भी श्रेष्ठता नहीं थी और un वर्गों को केवल अपने कर्मो के आधार पर ही आँका जाता था। वेदों से चर्चा समाप्त करने से पहले मैं अरविन्द शर्मा जी के विचार भी प्रस्तुत करना चाहूँगा। उनके मतानुसार सभी वर्गों की समानता उनको एक-एक वेद के साथ जोड़ भी हमारे मनीषियों ने प्रदान की हैं ("क्लास्सिकल हिंदू थॉट")। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.१२.९.२) में कहा गया हैं -
"सर्वं तेजः सामरूप्य हे शाश्वत।
सर्व हेदम् ब्रह्मणा हैव सृष्टम्
ऋग्भ्यो जातं वैश्यम् वर्णमाहू:
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।
सामवेदो ब्रह्मणनाम् प्रसूति
अर्थात ऋगवेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण का जन्म हुआ। इस आधार पर ये भी मन जा सकता हैं कि अथर्ववेद का सम्बन्ध शूद्रों से हैं। जिस प्रकार कोई भी ज्ञानवां व्यक्ति किसी भी वेदों को दुसरे से ऊपर नहीं मान सकता उसी प्रकार उनसे जुड़े वर्ण भी एक दुसरे से ऊपर नहीं हो सकते।
वेदों के बाद वर्ण-व्यवस्था से सम्बंधित सबसे ज्यादा चर्चित ग्रन्थ मनु-स्मृति ही हैं (संभवतः वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में वेदों से भी अधिक चर्चित)। भारतीय दर्शन को समझने के लिए जिस ग्रन्थ को पाश्चात्य विद्वानों (अंग्रेजो) ने सर्वप्रथम चुना था वो मनु स्मृति ही था (सन् १७९४ में सर विलियम जोन्स)। इस ग्रन्थ के जिन अंशो को लेकर इसकी निंदा होती रही हैं उनमे से अधिकांश ८वे आध्याय से हैं। वास्तव में उनके अध्ययन के बाद कुछ तो अत्यन्त ही क्रूर और अमानवीय प्रतीत होते हैं (मुझे तो व्यक्तिगत रूप से कुछ अत्याचार के दिशा-निर्देशों से भरे किसी डरावनी पुस्तक से उठाये हुए प्रतीत हुए - जैसे जिह्वा, हस्त विच्छेदित करना, जीवन पर्यन्त बंधुआ मजूरी करना, एक वर्ण का दुसरे का उत्पीडन शास्त्र सम्मत मानना आदि) किंतु इस सम्बन्ध में श्री सुरेन्द्र कुमार की लिखित पुस्तक "विशुद्ध मनुस्मृति" से विचार प्रकट करना चाहूँगा। उन्होंने मनु-स्मृति के 2,६८५ छंदों (श्लोकों) में से मात्र १,२१४ को मूल ग्रन्थ का अंश माना हैं। उनके अनुसन्धान के अनुसार बाकी के श्लोक कालांतर में मनु-स्मृति से जुड़े - उनमे से अधिकांश या तो तत्कालिन लेखकों/ऋषियों की व्यतिगत समझ के अनुसार की हुई व्याख्याएं हैं। इसी सम्बन्ध श्री भीमराव अम्बेडकर जी का भी शोध महत्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार मनुस्मृति के अधिकांश भाग (जोकि यह कालांतर में जुड़े अंश हो सकते हैं) पुष्यमित्र सुंग के राज्य में बढ़ते बौध्य प्रभाव को दबाने के लिए लिखे गए (Revolution and Counter-Revolution in India )। यदि इन कालांतर में जुड़े हुए श्लोकों की भाषा को देखें तो वो भी एक विलुप्त होते समाज की साम, दाम दंड भेद की भाषा ही लगती हैं जोकि उस काल के उच्च वर्ग को लुभाकर अन्य पंथ की तरफ़ होने वाले रुझान से एन केन प्रकारेण रोकना चाह रहा हो। यदि इस ग्रन्थ को इन श्लोको से हटा कर देखें तो हम मनु-स्मृति के मूल रूप को समझ पाएंगे और जान पाएंगे कि शंकराचार्य, स्वामी दयानंद, एन्नी बेसेंट, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और फ्रिएद्रीच निएत्ज़सचे जैसे विद्वानों ने इस ग्रन्थ को क्यों सराहा।

मनु स्मृति में वर्ण व्यवस्था को अत्यन्त विस्तार से समझाया गया हैं। किंतु इसमे भी वर्ण परिवर्तनीय और कर्म बोधक ही हैं.... मनु की मूल व्यवस्था विद्वेषकारी नहीं हैं। मनु कहते हैं "शुद्रो ब्रह्मणाथामेथी ब्रह्मणास्चेथी शुद्रताम" अपने कर्मो के आधार पर ब्राह्मण शूद्र हो सकता हैं और शूद्र ब्राह्मण. इसी प्रकार अन्यत्र मनु कहते हैं "आददीत परां विद्यां प्रयत्नादवरादपि । अन्त्याद्पी परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि" अर्थात जिस प्रकार दुष्कुल (छोटे कुल) की स्त्री से मिलने पर रत्न (उपहार) ले जाने चाहिए उसी प्रकार ज्ञान किसी भी व्यक्ति से (वर्ण भेद नगण्य हैं) आदर पूर्वक लेना चाहिए।

इसी प्रकार मनु ने १०वे अध्याय में कहा हैं "अहिंसा सत्यम् अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह: । एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वंर्ये आब्रवीन मनु: ॥ " अर्थात चारों वर्णों के लिए नियम बनाते हए मनु कहते हैं - "अहिंसा, इन्त्रियों पर संयम, शुद्धता और सत्यता ही सभी वर्णों के लिए आवश्यक हैं"। (जब अहिंसा सभी वर्णों ले लिए आवश्यक हैं तो फ़िर आठवें अध्याय में बताये नियम कियान्वित ही नहीं किए जा सकते। ) इसी अध्याय में २४वे श्लोक में ब्राह्मण और शूद्र से उत्पन्न वंशजों के पुनः ब्राह्मण वर्ण में पुनः लौट आने का भी नियम भी दिया हैं। वर्ण परिवर्तन और उसकी उन्मुक्तता छान्दोग्य उपनिषद के सत्यकामा जाबाला की कथा में भी मिलता हैं, जहाँ केवल माता के परिचय के आधार पर बिना वर्ण के ज्ञान पर भी गुरु ने सत्यकामा को दीक्षित किया। ऐसा ही विवरण चंद्रप्रभा राजन की तीन हाथ वाली उपनिषद कथा में भी मिलता हैं (भारत एक खोज एपिसोड ४)। नारद भक्ति सूत्र में भी ईश्वर भक्ति और उपासना में जाति भेदों को नगण्य बताया हैं क्योंकि सभी भक्त भगवान् के ही हैं. - "नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियाभेदः । यतस्तदीया: । "। इसी प्रकार शाण्डिल्य सूत्र में कहा गया हैं - "आनिन्द्ययोंयाधिक्रियते पारम्पर्यात सामान्यवत" शास्त्रों और उपदेशों की परम्परा से सिद्ध होता हैं कि भक्ति पर सभी का बराबर अधोकार हैं।

इसी प्रकार मनु स्मृति में विभिन्न वर्णों के मिलन से उत्पन्न वर्णों (जातियों ) का भी उल्लेख हैं किंतु यदि इन संकर वर्णों का प्रथम दृष्टया विश्लेषण उन्हें कर्मगत ही पाते हैं। इन वर्णों में से कई तो कर्म सूचक ही हैं जैसे निषाद, वीणा, सूत इत्यादि। अन्य संकर वर्ण जैसे ब्राह्मण और वैश्य के मिलन से उत्पन्न अम्बष्ठ (चिकित्सक) वर्ण भी कर्मगत ही हैं। यह तो सम्भव नहीं कि इस प्रकार के मिलन से उत्पन्न हर व्यक्ति वैद्य ही होगा ....किंतु इस प्रकार के श्लोकों को यूँ समझा जा सकता हैं कि वैश्य गुण से व्यापारिक समझ और ब्राह्मण गुण से ज्ञान पिपासु होने से इस वर्ग की चिकित्सा क्षेत्र में सफलता निश्चित हैं। किंतु ये संकर वर्ण फ़िर भी कर्मगत रूप ही दिखाते हैं। इस विषय पर ऐसे ही कुछ विचार विलियम क्रूकस ने भी अपनी पुस्तक "दा ट्राइब्स एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में व्यक्त किए हैं।

इतिहास के पन्नों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो कि अ-क्षत्रीय शासको का भी वर्णन करते हैं जैसे कि सिंध के ब्राह्मण वंश के अन्तिम हिंदू शासक या वर्त्तमान काशी नरेश भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध रखते हैं। भूमिहार ब्राह्मणों के अतिरिक्त सुंग साम्राज्य, हिन्दू-शाही , त्यागी-ब्राह्मण और कोंकणास्थ-ब्राह्मण अन्य अ-क्षत्रीय -राजवंशों के उदाहरण हैं जिन्होंने कालांतर में क्षत्रिय रूप पा लिया था। यह परिवर्तन की परम्परा आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक चला आया हैं। विलियम क्रूक ने ब्रिटिश शासन-काल में ही मिर्जापुर में सिंगरौली के राजा के खारवार जाति से को वनवासी क्षत्रिय के रूप में परिवर्तन का जिक्र किया हैं। इसी प्रकार ब्रिटिश कर्नल स्लीमन ने अपने यात्रा संस्मरण "जर्नी थ्रू अवध (Journey through Oudh)" में भी एक पासी समुदाय के व्यक्ति द्वारा अपनी पुत्री के पुअर जाति में विवाह के बाद क्षत्रिय वंशी हो जाने की जानकारी दी हैं। विलियम क्रूक ने अवध में ही अन्य वर्ण परिवर्तन के विषय में भी वर्णन किया हैं । इन घटनाओ मे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी वर्णों में अन्य अवैदिक समुदायों और जनजातियों से आगमन होता रहा हैं। (पिछली चर्चा में हम जन-मान्यताओं में ब्राह्मण शासक के शूद्र परिवर्तन देख चुके हैं - ह्वेन त्सांग यात्रा के दौरान सिंध नरेश)। अवध की ही कुछ प्रमुख वर्ण परिवर्तन की घटनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य -
  1. चंद्रवंशी और नागवंशी शासको में बघेल, अह्बन आदि समुदाय में अन्य शासक जातियाँ स्वीकृत हुई।
  2. क्षत्रिय राजाओं में वंश-परम्परा की समाप्ति के भय पर दासी पुत्र अथवा अन्य अन्य जातियों से दत्तक पुत्र लेने की परम्परा रही हैं। (जोकि वर्ण के जन-स्वीकृत परिवर्तनीय रूप को ही दर्शाता हैं। जन्म से वंश में होना अनिवार्यता नहीं थी। )
  3. असोथर के राजा भगवंत राय द्वारा लगभग ढाई शताब्दियों पहले लुनिया समुदाय (नमक व्यवसायी) के एक व्यक्ति को मिश्रा ब्राह्मण बनाना।
  4. इसी प्रकार प्रतापगढ़ के तत्कालीन नरेश राजा मानिकचंद द्वारा सवा-लाख ब्राह्मणों की आवश्यकता के लिए कुंडा ब्राह्मणों का निर्माण।
  5. इस तरह के प्रकरण तिर्गुनैत ब्राह्मण, अंतर के पाठकों, हरदोई के पाण्डेय प्रवर, गोरखपुर और बस्ती के सवालाखिया ब्राह्मण के सम्बन्ध में भी मिलते हैं।
  6. इसी प्रकार वैश्य समुदाय में भी कई जातियों के मिलने का उल्ल्लेख किया हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर भी वर्ण-व्यवस्था की दीवारें उतनी अभेद्य नहीं हैं। पुरातन काल से ही वर्ण की परिभाषा और उसकी परिधि का विस्तार समय की मांग के अनुसार बदलता रहा हैं। संभवतः यही वर्ण-व्यवस्था का वह रूप हैं जिसने इस प्रथा को युगों-युगों तक जीवित रखा हैं। सभी वर्गों के उत्थान की भावना और उन्हें अंगीकार करके उन्हें समान अवसर प्रदान करने के अपने इस स्वरुप के कारण ही यह काल के अनुसार स्वयं को ढाल पाई। अन्य प्रारंभिक सभ्यताएँ कर्म की आवश्यकता से शुरू अवश्य हुई थी किंतु भारतीय वर्ण-व्यवस्था की तरह सभी को समान अवसर न प्रदान कर पाने की वजह से उनका ह्रास हो गया (पुरोहितों और सम्राटों की प्रजा शोषण की नितियां और अन्य समुदायों को आत्मसात न कर पाना एक बड़ा कारक रहा)। अपने कर्म-बोधक स्वरुप के कारण ही यह व्यवस्था न केवल स्वयं को जीवित रख पाई बल्कि इसमें अन्य जनजातियों को कर्म के आधार पर सम्मलित होने देने से इसका विस्तार और विकास भी हुआ। जे सी नेसफिल्ड ने अपनी पुस्तक "ब्रीफ वियूस ऑफ़ दा कास्ट सिस्टम ऑफ़ दा नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में भी इस विषय पर विचार रखते हुए कहा हैं कि "जनजातीय कबीलों और परिवारों को जिस भावना ने जाति के रूप में बांधे रखा वह पंथ-सम्प्रदाय की भावना या सगोत्रीय (पारिवारिक) भावना से अधिक कर्मगत समानता ही थी। कर्मात्मक केवल कर्मात्मक समानता ही जाति व्यवस्था के निर्माण की अवधारणा थी। " यह बात अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं से भी सिद्ध होती हैं जैसे महर्षि वेदव्यास और विचित्रवीर्य व चित्रांगद के भ्राता होते हुए भी ब्राह्मण और क्षत्रिय रूप; इसी प्रकार गोरखनाथ मठ के क्षत्रिय उत्तराधिकारी को संत रूप नें मानना आदि।
इस सम्बन्ध में सबसे सहज प्रश्न जो आता हैं कि वर्त्तमान में जगह-जगह दलित शोषण का जो विकृत रूप देखने को मिलता हैं; उसके कारण क्या हैं? मैक्स मूलर के विचार इस बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रदान करते हैं - उसके अनुसार बौध और जैन धर्म के कारण हुए ह्रास के बाद जब वैदिक धर्म का पुनर्जागरण हुआ तब हिंदू वैदिक (ब्राह्मण वादी व्यवस्था) ने कठोरता से अपने मत का अनुपालन करना शुरू किया। मेरे विचार से यह व्यवस्था और कट्टर अन्य गैर-भारतीय धर्मों के प्रभाव और उससे बचाव के कारण भी हुई होगी। हम मनु-स्मृति सम्बंधित अपनी चर्चा में भी इसी प्रकार के विचार पातें हैं - जब बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण मनु-स्मृति के कई अंशो का विस्तार हुआ और साथ ही उनमे कई दंडात्मक नियमो का सृजन हुआ। इसी प्रभाव से कुछ स्थानों पर संभवतः आधुनिक दौर में वर्ण-व्यवस्था ने शोषणात्मक और क्रूर रूप ले लिया हो। किंतु सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक नज़र डालने पर और उसके सामाजिक ढांचे के तर्तिक मूल्यांकन से हमे यह व्यवस्था सर्व कल्याण -सर्व-उत्थान की अधिक प्रतीत होती हैं। हमारी जीवन-शैली, धार्मिक संस्कृति, वैचारिक प्रबुद्धता, सामाजिक दर्शन और वर्षो के निरंतर चले आ रहे रीति-रिवाजों का ताना-बाना हमारी वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द ही बुना हैं और इनमे से कोई भी लेस मात्र भी मानवीय भेदभाव अथवा शोषण की अनुमति नहीं देता है । श्रीमद् भागवत में कहा हैं 'आद्योऽवतार: पुरूष: परस्य' अर्थात् यह संसार भगवान का पहला अवतार हैं । इस सम्पूर्ण जगत -मित्र या शत्रु , जड़ या चेतन, सभी को अपने प्रभु का अंश मानने वाला समुदाय "वसुधैव कुटुंबकम्" और "सर्वेभवन्तु सुखिनः" की भावना के अलावा मानव जाति के लिए कोई और भावः रख ही नहीं सकता। 

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वर्ण और जाति में भेद

भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में वर्ण व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्ण का शब्दिक अर्थ है - वरण करना, रंग, एवं वृत्ति के अनुरूप। वरण का अर्थ है - चुनना अथवा व्यवसाय का निर्धारण। इस अर्थ के अनुसार विद्वान वर्णको  व्यक्तियों का समूह मानते हैं। ऋग्वेद में आर्य तथा दस्यु में अन्तर स्पष्ट करने के लिए वर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। जो विद्वान वर्ण का अर्थ वृत्ति मानते हैं, उनके अनुसार जिन व्यक्तियों का स्वभाव समान होता है उनसे ही एक वर्णका निर्माण हुआ। किन्तु इन सब धारणाओं से वर्ण के वर्ण व्यवस्था वाले अर्थ का स्पष्टीकरण नहीं होता।
 ‘गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है कि मैंने गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णो का निर्माण किया है। पुराणों में भी अनेक स्थानों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को क्रमशः शुक्ल, रक्त, पीत और कृष्ण कहा है। वर्ण शब्द का अर्थ इस प्रकार विवादस्पद है। किन्तु यह निश्चित है कि प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में था जिसका अन्तर्निहित उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था।                      
वर्ण की उत्पत्ति
हमारे धर्म ग्रन्थों ने वर्ण की उत्पत्ति की विस्तार से व्याख्या की है।
प्राचीन आदर्श वर्ण व्यवस्था यद्यपि आज पूर्णतया विकृत हो चुकी है और आज इसका समाज में कोई अस्तित्व नहीं है। वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में निम्नलिखित श्लोक मिलता है -
ब्राह्मणों स्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरु  तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।1
अर्थात् ईश्वर ने स्वयं चार वर्णों की सृष्टि की। इन वर्णों का जन्म उसके शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ, मुख से ब्राह्मण की, बाहु से क्षत्रिय की, ऊरु से वैश्य की और पैंरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। मुख शरीरांगों में सर्वोच्च है तथा उसका काम बोलना मनन, चिन्तन है, तद्हेतु ब्राह्मण वर्ण का कार्य भी पठन-पाठन, कथा-वाचन व प्रवचन नियत किया गया। बाहु भौतिक बल की प्रतीक है। इनके द्वारा ही रक्षण, भरण-पोषण, आदि कार्य होता है। अतएव क्षत्रिय का प्रथम धर्म प्रजा रक्षण माना गया है। आक्रमण, आप्ति आदि से रकषा करना उसका कर्तव्य है। इन्द्रिय संयम, यज्ञानुष्ठान, सत्य भाषण, न्याय का रक्षण, सेवकों का भरण-पोषण, अपराधी को दण्ड देना, धार्मिक कार्यों का सम्पादन आदि कर्म क्षत्रिय का धर्म माने गए। इसी हेतु वे समाज रक्षक बने और उन्हें प्रजा पालन का काम सौंपा गया। ऊरु उत्पादन की द्योतक है। तद्हेतु वाणिज्य व्यापार द्वारा उत्पादन वैश्यों का प्रमुख कर्तव्य माना गया। व्यापार, ब्याज लेना, पशुपालन, खेती, ये सब वैश्यों के सनातन धर्म माने गए। पैर का स्थान सबसे नीचे है और वह सेवा का प्रतीक है। इसलिए ही शूद्रों का समाज में निम्न स्थान माना गया और द्विजों की सेवा-पूजा उनका कर्तव्य। महाभारत में भी शूद्र का परम कर्तव्य तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया। इसी प्रकार मनुने मनुस्मृति में लिखा है कि शूद्रों का कार्य तीनों वर्णों के लोगों की बिना किसी ईर्ष्या भाव से सेवा करना है। स्पष्ट है कि चारों वर्णों में ब्राह्मण और क्षत्रिय को लगभग समान महत्व दिया गया, ब्राह्मण को ज्ञानी, क्षत्रिय को शूरवीर, वैश्यों को धन का स्वामी, व शूद्रों को सर्वसेवक कहा गया। चिन्तक श्री अरविन्दके अनुसार समाज  में मनन, चिन्तन, पठन-पाठन में संलग्न ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान माना गया, तदनन्तर प्रजा रक्षण व राज्य की देख भाल करने वाले क्षत्रियों का द्वितीय तथा सबसे अन्तिम किन्तु आदृत स्थान वाणिज्य व्यापार करने वाले वैश्यों को माना गया।2
महाभारत में भी विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार किया गया है कि उस पुरुष को हमारा प्रणाम है जो ब्राह्मणों को मुख में, क्षत्रियों को बाहुओं में, वैश्यों को ऊरु में, तथा शूद्रों को पैरों में धारण किये है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री के भिन्न-भिन्न मंत्र भिन्न-भिन्न वर्णों के लिए बताए गए तथा ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों के लिए बलि की अलग-अलग पद्धतियों का विधान बताया गया है। बसन्त ऋतु में ब्राह्मणों, ग्रीष्म में क्षत्रियों और शरद ऋतु में वैश्यों के लिए यज्ञ जैसा पावन कर्म निषिद्ध बताया गया है।
 “बृहदारण्यकोपनिषद में मानव जाति के चारों वर्णों की उत्पत्ति का आधार ब्रह्मा द्वारा रचित देवताओं के चार वर्ण बताए गए हैं। इन्द्र, वरुण, सोम, यम आदि क्षत्रिय देवताओं, रुद्र, वसु, आदित्य, मरुत आदि वैश्य देवताओं, पुशान आदि शूद्र वर्ण के देवताओं की सृष्टि ईश्वर द्वारा की गई और इन सबसे पूर्व ब्राह्मणों की सृष्टि हो ही चुकी थी। इस वर्ण व्यवस्था के आधार पर ही मानव जाति में भी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की सृष्टि की गई।
 ‘भृगु संहिता में भी चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण था, उसके बाद कर्मों और गुणों के अनुसार ब्राह्मण ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वाले बने तथा इन वर्णों के रंग भी क्रमशः श्वेत, रक्तिम, पीत और कृष्ण थे। बाद कें तीनों वर्ण ब्राह्मण वर्ण से ही विकसित हुए। यह विकास अति रोचक है जो ब्राह्मण कठोर, शक्तिशाली, क्रोधी स्वभाव के थे, वे रजोगुण की प्रधानता के कारण क्षत्रिय बन गए। जिनमें तमोगुण की प्रधानता हुई, वे शूद्र बने। जिनमें पीत गुण अर्थात् तमो मिश्रित रजो गुण की प्रधानता रही, वे वैश्य कहलाये तथा जो अपने धर्म पर दृढ़ रहे तथा सतोगुण की जिनमें प्रधानता रही वे ब्राह्मण ही रहे। इस प्रकार ब्राह्मणों से चार वर्णो का गुण और कर्म के आधार पर विकास हुआ।
गीता में श्रीकृष्ण ने भी चारों वर्णो का विभाजन गुण और कर्मो के आधार पर ही बताया है। याज्ञवक्य, बौधायन, वशिष्ठ आदि ने भी चार वर्णो को स्वीकार किया है।
वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म अथवा कर्म’ - यह एक बड़ा ही विवादस्पद विषय है। इस विषय में विद्वानों के तीन वर्ग हैं - पहला वर्ग वह जो वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म मानता है। दूसरा वर्ग वह जो कर्मको ही वर्ण विभाजन का आधार बताता है तथा तीसरा वर्ग वह जो समन्वयवादी सिद्धान्त का प्रतिपादक है अर्थात् जो जन्म और कर्म दोनों को वर्ण व्यवस्था का आधार मानता है।
 ‘वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म है’ -  ‘वी.के.चटोपाध्यायने वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म बताया है। इसके लिए उन्होंने कुछ प्रमुख व्यक्तियों के उदाहरण दिए हैं -यथा-युधिष्ठिर ब्राह्मणोचित गुणों से युक्त थे, लेकिन जन्म से क्योंकि वे क्षत्रिय वर्ण के थे, अतएव क्षत्रिय ही कहलाए। इसी प्रकार द्रोणाचार्य रणनीति के कुशल ज्ञाता थे तथा युद्ध करना उनका कर्म था, लेकिन जन्म के वर्ण के आधार पर वे ब्राह्मण ही माने गये। निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं, पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हों उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म है’ - हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य का वर्ण निर्धारण कर्म और गुणों के आधार पर ही होता है जैसा किमनुने मनुस्मृति में बताया है
शूद्रो बा्रह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जात्मेवन्तु  विद्याद्  वैश्यात्तथैव च।।3
अर्थात् शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय के समान गुण, कर्म स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो, उसके गुण व कर्म शूद्र के समान हो, तो वह शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण व शूद्र के समान होने पर, ब्राह्मण व शूद्र हो जाता है। ऋग्वेद में भी वर्ण विभाजन का आधार कर्म ही है। निःसन्देह गुणों और कर्मो का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वह सहज ही वर्ण परिवर्तन कर देता है; यथा विश्वामित्र जन्मना क्षत्रिय थे, लेकिन उनके कर्मो और गुणों ने उन्हें ब्राह्मण की पदवी दी। राजा युधिष्ठिर ने नहुष से ब्राह्मण के गुण - यथा, दान, क्षमा, दया, शील चरित्र आदि बताए। उनके अनुसार यदि कोई शूद्र वर्ण का व्यक्ति इन उत्कृष्ट गुणों से युक्त  हो तो वह ब्राह्मण माना जाएगा। भागवत पुराणभी गुणों को ही वर्ण निर्धारण का प्रमुख आधार घोषित करता है। प्रख्यात दार्शनिक राधा कृष्णनभी गुण और कर्म के आधार पर वर्ण विभाजन मानते हैं। वर्ण व्यवस्था को वे कर्म प्रधान व्यवस्था कहते हैं। डा.धुरियेके अनुसार वर्ण, मानव रंग से संबंधित है। प्राचीनकाल में मानव समाज में आर्य तथा दस्युदो वर्ण थे। द्रविड़ों को पराजित करने वाले आर्य शनैः शनैः स्वयं की द्विज कहने लगे। बाद में आर्यो तथा द्विजों की वृद्धि होने पर उनके कर्म भी विविध प्रकार के हो गए। तभी उनके विविध कर्मो के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार वर्णो की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार आपस्तम्ब सूत्रों में भी यही बात कही गई है कि वर्ण जन्मनान होकर वास्तव में कर्मणा हता है -
धर्मचर्ययाजधन्योवर्णः पूर्वपूर्ववर्णमापद्यतेजातिपरिवृत्तौ।
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जधन्यं जधन्यं वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।।4
अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है - जिस-जिस के वह  योग्य होता है । वैसे ही अधर्म आचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है।
      वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में गाँधी जी के विचार उल्लेखनीय है -
 मेरी सम्मति में वर्णाश्रम मानवीय स्वभाव में अन्तर्ग्रथित है। हिन्दू धर्म  ने केवल इसे एक वैज्ञानिक रूप दे दिया है। ये चार वर्ण तो मनुष्य के पेशों की परिभाषा करते हैं। वे सामाजिक  पारस्परिक  सम्बन्धों को निर्बाधित या नियमित नहीं करते।5
निःसन्देह व्यक्ति के गुण उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं। पूर्व जन्म में जो कर्म किए गए हैं, उन्हीं के अनुसार उसके गुणों का निश्चय होता है। वे गुण उसके वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर वह उच्च से निम्न व निम्न से उच्च वर्ण को प्राप्त हो जाता है। जैसे बाल्मीकि जाति के शूद्र थे, किन्तु अपने आचार- व्यवहार तथा गुणों के बल से ब्राह्मण कहलाए।
समन्वयवादी दृष्टिकोण’ -  वर्ण व्यवस्था का सर्वोत्कृष्ट दृष्टिकोण है समन्वयवादी दृष्टिकोण। इसके अनुसार वर्ण व्यवस्था का व्यवहारिक आधार जन्म और कर्म दोनों हैं। क्योंकि वर्ण निर्धारण में केवल जन्म या केवल कर्म को ही आधार मान लेना न्याय संगत नहीं। व्यक्ति पहले तो जन्म के अनुसार ही ब्राह्मण या वैश्य आदि कहलाता है। लेकिन बाद में उसके कर्मों और गुणों को देखकर उसका वर्ण परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। अतएव जन्म और कर्म दोनों के आधार पर वर्ण निर्धारण करना अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक है।
जाति का अर्थ और परिभाषा- --- जहाँ वर्ण का संबंध जन्म के साथ-साथ कर्म और गुणों से होता है, वहाँ जाति का संबंध केवल जन्म से ही होता है। वर्ण व्यवस्था यदि एक आदर्श विचार है, तो जाति व्यवस्था एक संकीर्ण एवं निकृष्ट विचार है। वर्ण व्यवस्था यदि एक बृहत नैतिक व्यवस्था है जो समाज को सन्तुलित और संगठित करती है, तो वहाँ जाति व्यवस्था समाज को टुकड़ों में बाँट देने वाली व्यवस्था है, जिसमें जन्म से ही व्यक्ति ऊँचा या नीचा मान लिया जाता है। अतएव वर्ण व्यवस्था संगठन को जन्म देने वाली है तथा जाति व्यवस्था विघटन  को। जाति की विभिन्न विद्वानों के अनुसार विभिन्न परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं -
सरसिजलेके अनुसार - जाति उन परिवारों अथवा परिवार समूहों का एक संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए हुए है, जो किसी काल्पनिक पूर्वज, मनुष्य या देवता से एक सामान्य वंश परम्परा या उत्पति का दावा करते हैं, जो एक ही परम्परागत व्यवसाय अपनाये जाने पर बल देते हैं और एक सजातीय समुदाय के रूप में मान्य होते हैं तथा जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने योग्य हैं।6
ब्लण्टके अनुसार - जाति एक अन्तर्विवाही समूह या अन्तर्विवाही समूहों का संकलन है, जो एक सामान्य नाम धारण किए होता है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत होती है। वह सामाजिक सहवास के क्षेत्र में अपने सदस्यों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाता है। उसके सदस्य एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय करते हैं अथवा किसी सामान्य आधार पर अपनी उत्पत्ति का दावा करता हैं और इस प्रकार एक समरूप समुदाय के रूप में मान्य समझा जाता हैं।7
हट्टनके अनुसार - जाति वह व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज अनेक आत्मकेन्द्रित तथा एक दूसरे से पृथक-पृथक इकाईयों में विभाजित होता है। इन इकाईयों के आपसी संबंध ऊँच-नीच के आधार पर सांस्कृतिक रूप से निश्चित होते हैं।8
स्मिथके अनुसार - जाति परिवारों के उस समूह को कहते हैं, जो विवाह, खान-पान सम्बन्धी कुछ संस्कारों की पवित्रता का पालन करने के लिए बनाए गए नियमों से बँधा हो।9
ये सभी परिभाषाएँ  अनेक दृष्टियों से अपूर्ण हैं। किसी में जाति को एक समुदाय बताया गया है, जो बिल्कुल त्रुटिपूर्ण है; तो किसी परिभाषा में जाति और गोत्र को एक ही मान लिया गया है। जाति के सांस्कृतिक पक्षों की ओर भी कोई संकेत नहीं दिया गया है। वैसे उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में हट्टनकी परिभाषा सर्वाधिक उचित प्रतीत होती है। वस्तुतः समस्त तत्वों को समेटते हुए जाति की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है - जाति एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। जिसके कारण व्यक्तियों पर खान-पान और सामाजिक सहवास संबंधी कुछ प्रतिबन्ध लगे होते हैं; जिनका पालन आवश्यक होता है तथा उन प्रतिबन्धों व नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति जाति से अलग भी माना जा सकता है। जाति प्रथा में छुआछूत के आधार पर उच्च तथा निम्न जातियों को सामाजिक और धार्मिक विशेषाधिकार दिए जाते हैं तथा विवाह संस्था को नियमित बनाने के लिए विवाह संबंधी नियम और निषेध भी सभी व्यक्तियों द्वारा मान्य होते हैं।
इस प्रकार जाति प्रथा की निम्नलिखित विशेषताएँ  लक्षित होती हैं। - प्रथम, स्थिति, पद, कार्य के आधार पर जाति समाज का खण्डात्मक विभाजन कर देती है। प्रत्येक जातिगत खण्ड अपनी जाति के नियमों व रीतिरिवाजों का पालन करने के लिए बाध्य होता है। द्वितीय, यह एक ऐसी संकीर्ण व्यवस्था है, जो व्यक्तियों के, समाज में ऊँचे-नीचे स्तरों की सृष्टि कर उनमें भेदभाव को जन्म देती है। यथा समाज में इसी जातिगत भावना के कारण ब्राह्मण को सर्वोच्च माना जाता है तथा शूद्र को सबसे निम्न व तिरस्कृत जाति वाला समझा जाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य इस प्रकार का भेदभाव उनमें प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है। तृतीय, जातियाँ अपने-अपने खण्डों पर कुछ विशेष नियमों, बन्धनों को आरोपित करती हैं, जो खान-पान, रहन-सहन से सम्बन्धित होते हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में तो इस प्रकार के नियम बन्धन सबसे अधिक जटिल हैं। सामाजिक सहवास संबंधी नियमों के आधार पर निम्न जाति वालों के लिए उच्च जाति वालों का संसर्ग निषिद्ध होता है। चतुर्थ, छुआछूत के कारण तथा समाज के उच्च-निम्न, खण्डात्मक विभाजन के कारण ब्राह्मण जाति क्योंकि सबसे पवित्र और पूजनीय है, अतएव उसे समस्त सार्वजनिक स्थलों में जाने का अधिकार है। लेकिन शूद्र क्योंकि अपवित्र निम्न जाति है, अतएव वह प्रत्येक सामाजिक स्थलों में प्रवेश पाने की अधिकारी नहीं है। पंचम, जाति प्रथा के अनुसार प्रत्येक जाति का जातिगत व्यवसाय होता है,जिसे अपनाए रखना नैतिक और धार्मिक रूप से अनिवार्य माना जाता है। वही व्यवसाय जीविकोपार्जन का आधार होता है। षण्ठ, जाति व्यवस्था ने विवाह जैसे भावनात्मक और पवित्र संबंध को भी नियमों में बाँधने से नहीं छोड़ा। जाति प्रथा के अनुसार व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह कर सकता है। जाति से बाहर किए गए विवाह अस्थिर और शीघ्र ही समाप्त होते देखे गए हैं। इसलिए विवाह सम्बन्ध की नियमितता व स्थिरता के लिए जाति प्रथा के अनुसार जाति से बाहर विवाह निषिद्ध होता है।
लेकिन आधुनिक काल में जाति और वर्ण सम्बन्धी मान्यताओं में बहुत अधिक परिवर्तन आ रहा है। रुढवादिता और संकीर्णता शनैः शनैः दूर हो रही है। जातिगत बन्धन और नियमों का अतिक्रमण सामान्य रूपेण लक्षित होता है। जाति प्रथा शिथिल होती जा रही है तथा भारतीय सामाजिक जीवन में प्रगतिसूचक परिर्वतन आते जा रहे हैं...............