मंगलवार, 27 सितंबर 2016

मांसाहार क्यूँ जायज़ है ?

अक्सर कुछ लोगों के मन में यह आता ही होगा कि जानवरों की हत्या एक क्रूर और निर्दयतापूर्ण कार्य है तो क्यूँ लोग मांस खाते हैं? जहाँ तक मेरा सवाल है मैं एक मांसाहारी हूँ. मुझसे मेरे परिवार के लोग और जानने वाले (जो शाकाहारी हैं) अक्सर कहते हैं कि आप माँस खाते हो और बेज़ुबान जानवरों पर अत्याचार करके जानवरों के अधिकारों का हनन करते हो.

शाकाहार ने अब संसार भर में एक आन्दोलन का रूप ले लिया है, बहुत से लोग तो इसको जानवरों के अधिकार से जोड़ते हैं. निसंदेह दुनिया में माँसाहारों की एक बड़ी संख्या है और अन्य लोग मांसाहार को जानवरों के अधिकार (जानवराधिकार) का हनन मानते हैं.

मेरा मानना है कि इंसानियत का यह तकाज़ा है कि इन्सान सभी जीव और प्राणी से दया का भावः रखे| साथ ही मेरा मानना यह भी है कि ईश्वर ने पृथ्वी, पेड़-पौधे और छोटे बड़े हर प्रकार के जीव-जंतुओं को हमारे लाभ के लिए पैदा किया गया है. अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम ईश्वर की दी हुई अमानत और नेमत के रूप में मौजूद प्रत्येक स्रोत को किस प्रकार उचित रूप से इस्तेमाल करते है.

आइये इस पहलू पर और इसके तथ्यों पर और जानकारी हासिल की जाये...

1- माँस पौष्टिक आहार है और प्रोटीन से भरपूर है
माँस उत्तम प्रोटीन का अच्छा स्रोत है. इसमें आठों अमीनों असिड पाए जाते हैं जो शरीर के भीतर नहीं बनते और जिसकी पूर्ति खाने से पूरी हो सकती है. गोश्त यानि माँस में लोहा, विटामिन बी वन और नियासिन भी पाए जाते हैं (पढ़े- कक्षा दस और बारह की पुस्तकें)



2- इन्सान के दांतों में दो प्रकार की क्षमता है
अगर आप घांस-फूस खाने वाले जानवर जैसे बकरी, भेड़ और गाय वगैरह के तो आप उन सभी में समानता पाएंगे. इन सभी जानवरों के चपटे दंत होते हैं यानि जो केवल घांस-फूस खाने के लिए उपयुक्त होते हैं. यदि आप मांसाहारी जानवरों जैसे शेर, चीता और बाघ आदि के दंत देखें तो उनमें नुकीले दंत भी पाएंगे जो कि माँस खाने में मदद करते हैं. यदि आप अपने अर्थात इन्सान के दांतों का अध्ययन करें तो आप पाएंगे हमारे दांत नुकीले और चपटे दोनों प्रकार के हैं. इस प्रकार वे शाक और माँस दोनों खाने में सक्षम हैं.

यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर मनुष्य को केवल सब्जियां ही खिलाना चाहता तो उसे नुकीले दांत क्यूँ देता. यह इस बात का सबूत है कि उसने हमें माँस और सब्जी दोनों खाने की इजाज़त दी है.

3- इन्सान माँस और सब्जियां दोनों पचा सकता है
शाकाहारी जानवरों के पाचनतंत्र केवल केवल सब्जियां ही पचा सकते है और मांसाहारी जानवरों के पाचनतंत्र केवल माँस पचाने में सक्षम है लेकिन इन्सान का पाचन तंत्र दोनों को पचा सकता है.

यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर हमको केवल सब्जियां ही खिलाना चाहता तो उसे हमें ऐसा पाचनतंत्र क्यूँ देता जो माँस और सब्जी दोनों पचा सकता है.

4- एक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी हो सकता है
एक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी होने के बावजूद एक अच्छा मुसलमान हो सकता है. मांसाहारी होना एक मुसलमान के लिए ज़रूरी नहीं.

5- कुरआन मुसलमानों को मांसाहार की अनुमति देता है
पवित्र कुरआन मुसलमानों को मांसाहार की इजाज़त देता है. कुरआन की आयतें इस बात की सबूत है-

"ऐ ईमान वालों, प्रत्येक कर्तव्य का निर्वाह करो| तुम्हारे लिए चौपाये जानवर जायज़ है, केवल उनको छोड़कर जिनका उल्लेख किया गया है" (कुरआन 5:1)

"रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया जिसमें तुम्हारे लिए गर्मी का सामान (वस्त्र) भी और अन्य कितने लाभ. उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो" (कुरआन 16:5)

"और मवेशियों में भी तुम्हारे लिए ज्ञानवर्धक उदहारण हैं. उनके शरीर के अन्दर हम तुम्हारे पीने के लिए दूध पैदा करते हैं और इसके अलावा उनमें तुम्हारे लिए अनेक लाभ हैं, और जिनका माँस तुम प्रयोग करते हो" (कुरआन 23:21)

6- हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ मांसाहार की अनुमति देतें है !
बहुत से हिन्दू शुद्ध शाकाहारी हैं. उनका विचार है कि माँस सेवन धर्म विरुद्ध है. लेकिन सच ये है कि हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ मांसाहार की इजाज़त देतें है. ग्रन्थों में उनका ज़िक्र है जो माँस खाते थे.

A) हिन्दू क़ानून पुस्तक मनु स्मृति के अध्याय 5 सूत्र 30 में वर्णन है कि-
"वे जो उनका माँस खाते है जो खाने योग्य हैं, अगरचे वो कोई अपराध नहीं करते. अगरचे वे ऐसा रोज़ करते हो क्यूंकि स्वयं ईश्वर ने कुछ को खाने और कुछ को खाए जाने के लिए पैदा किया है"

(B) मनुस्मृति में आगे अध्याय 5 सूत्र 31 में आता है-
"माँस खाना बलिदान के लिए उचित है, इसे दैवी प्रथा के अनुसार देवताओं का नियम कहा जाता है"

(C) आगे अध्याय 5 सूत्र 39 और 40 में कहा गया है कि -
"स्वयं ईश्वर ने बलि के जानवरों को बलि के लिए पैदा किया, अतः बलि के उद्देश्य से की गई हत्या, हत्या नहीं"

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 88 में धर्मराज युधिष्ठर और पितामह के मध्य वार्तालाप का उल्लेख किया गया है कि कौन से भोजन पूर्वजों को शांति पहुँचाने हेतु उनके श्राद्ध के समय दान करने चाहिए? प्रसंग इस प्रकार है -

"युधिष्ठिर ने कहा, "हे महाबली!मुझे बताईये कि कौन सी वस्तु जिसको यदि मृत पूर्वजों को भेट की जाये तो उनको शांति मिले? कौन सा हव्य सदैव रहेगा ? और वह क्या जिसको यदि सदैव पेश किया जाये तो अनंत हो जाये?"

भीष्म ने कहा, "बात सुनो, हे युधिष्ठिर कि वे कौन सी हवी है जो श्राद्ध रीति के मध्य भेंट करना उचित है और कौन से फल है जो प्रत्येक से जुडें हैं| और श्राद्ध के समय शीशम, बीज, चावल, बाजरा, माश, पानी, जड़ और फल भेंट किया जाये तो पूर्वजो को एक माह तक शांति मिलती है. यदि मछली भेंट की जाये तो यह उन्हें दो माह तक राहत देती है. भेंड का माँस तीन माह तक उन्हें शांति देता है| खरगोश का माँस चार माह तक, बकरी का माँस पांच माह और सूअर का माँस छह माह तक, पक्षियों का माँस सात माह तक, पृष्ठा नामक हिरन से वे आठ माह तक, रुरु नामक हिरन के माँस से वे नौ माह तक शांति में रहते हैं. "GAWAYA" के माँस से दस माह तक, भैस के माँस से ग्यारह माह तक और गौ माँस से पूरे एक वर्ष तक. प्यास यदि उन्हें घी में मिला कर दान किया जाये यह पूर्वजों के लिए गौ माँस की तरह होता है| बधरिनासा (एक बड़ा बैल) के माँस से बारह वर्ष तक और गैंडे का माँस यदि चंद्रमा के अनुसार उनको मृत्यु वर्ष पर भेंट किया जाये तो यह उन्हें सदैव सुख शांति में रखता है. क्लासका नाम की जड़ी-बूटी, कंचना पुष्प की पत्तियां और लाल बकरी का माँस भेंट किया जाये तो वह भी अनंत सुखदायी होता है. अतः यह स्वाभाविक है कि यदि तुम अपने पूर्वजों को अनंत काल तक सुख-शांति देना चाहते हो तो तुम्हें लाल बकरी का माँस भेंट करना चाहिए"
7- हिन्दू मत अन्य धर्मों से प्रभावित
हालाँकि हिन्दू धर्म ग्रन्थ अपने मानने वालों को मांसाहार की अनुमति देते हैं, फिर भी बहुत से हिन्दुओं ने शाकाहारी व्यवस्था अपना ली, क्यूंकि वे जैन जैसे धर्मों से प्रभावित हो गए थे.

8- पेड़ पौधों में भी जीवन
कुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार अपना लिया क्यूंकि वे पूर्णरूप से जीव-हत्या से विरुद्ध है. अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता. आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है. अतः जीव हत्या के सम्बन्ध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता.

9- पौधों को भी पीड़ा होती है
वे आगे तर्क देते हैं कि पौधों को पीड़ा महसूस नहीं होती, अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है. आज विज्ञानं कहता है कि पौधे भी पीड़ा महसूस करते हैं लेकिन उनकी चीख इंसानों के द्वारा नहीं सुनी जा सकती. इसका कारण यह है कि मनुष्य में आवाज़ सुनने की अक्षमता जो श्रुत सीमा में नहीं आते अर्थात 20 हर्ट्ज़ से 20,000 हर्ट्ज़ तक इस सीमा के नीचे या ऊपर पड़ने वाली किसी भी वस्तु की आवाज़ मनुष्य नहीं सुन सकता है| एक कुत्ते में 40,000 हर्ट्ज़ तक सुनने की क्षमता है. इसी प्रकार खामोश कुत्ते की ध्वनि की लहर संख्या 20,000 से अधिक और 40,000 हर्ट्ज़ से कम होती है. इन ध्वनियों को केवल कुत्ते ही सुन सकते हैं, मनुष्य नहीं. एक कुत्ता अपने मालिक की सीटी पहचानता है और उसके पास पहुँच जाता है| अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का अविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है. जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को तुंरत ज्ञान हो जाता था. वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते है कि पौधे भी पीड़ा, दुःख-सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं.

10- दो इन्द्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहीं !!!
एक बार एक शाकाहारी ने तर्क दिया कि पौधों में दो अथवा तीन इन्द्रियाँ होती है जबकि जानवरों में पॉँच होती हैं| अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुक़ाबले छोटा अपराध है.

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

बैसवारा (बैस राजपूत) का इतिहास


किसी क्षेत्र विशेष का महत्व उसकी भौगोलिक स्थिति सांस्कृतिक विरासत सामाजिक एवं ऐतिहासिक स्थिति की वजह से और भी अधिक बढ़ जाता है| इन्हीं विशेषताओं से समृद्ध उत्तरप्रदेश के अंतर्गत अवध क्षेत्र में अधिकतर अवधी भाषा बोली जाती है| यहां की बैसवारा रियासत उन्नाव, रायबरेली एवं फतेहपुर के एक बड़े भूभाग पर फैली हुई है| बैसवारा रियासत का डौडिया खेडा किला गत वर्ष सोने की खुदाई को लेकर चर्चित रहा| रियासत उन्नाव गजेटियर १९२३-पृष्ठ १५४ में बक्सर का उल्लेख करते हुए लिखा है- गंगा उत्तरायणी बह कर यहां शिव को अर्घ्य प्रदान करती है, जिससे यह बहुत महत्वपूर्ण स्थान है| यहां पर चिरजीवी दाल्भ मुनि के सुपुत्र बक ॠषि का आश्रम था, उसके पास स्थापित बकेश्‍वर महादेव मंदिर आज भी मौजूद है| बक्सर का वैदिक कालीन नाम बकाश्रम था| 
महाभारत के युद्ध के समय बलरामजी बक्सर के बकाश्रम में ॠषि से आशीर्वाद लेने आया करते थे| यही वह तपस्थली है जहां मेघातिथि ॠषि ने चंडिका देवी की गहन पूजा अर्चना करके राजा सुरथ एवं समधि वैश्य को तप विधि का ज्ञान कराया था| दुर्गा सप्तशती के अध्याय १३, श्‍लोक १३-१५ में इसी कथा का वर्णन है| देवी मां ने इसी स्थान पर चंड-मुंड एवं शुंभ-निशुंभ आदि राक्षसों का वध किया था| दुर्गा सप्तशती मार्कण्डेय पुराण का ही एक अंश है| मार्कण्डेय ॠषि मृकण्ड मुनि के पुत्र भृगुवंशी ब्राह्मण थे| यहीं वे स्थल हैं जहां राजा सुरथ एवं समधि वैश्य ने तप करके चंडिका देवी को प्रसन्न किया था| समधि वैश्य ने मोक्ष की कामना की किंतु राजा सुरथ ने खोया हुआ राजपाट मांगते हुए अगले जन्म में प्रतापी राजा होने का वरदान प्राप्त किया| उन्हें राज्य वापस मिल गया और वे अगले जन्म में सावर्णिक मनु के रूप में पैदा होकर विश्‍वव्यापी सम्राट बने| उन्होंने विधि-विधान के लिए मनु स्मृति लिख कर राज्य का सूत्र संचालन किया| बक्सर गंगा तट पर मेघातिथि मुनि, राजा सुरथ तथा समधि वैश्य के टीले आज भी स्थित एवं प्रसिद्ध हैं|
उन्नाव गजेटियर १९२३ - पृष्ठ - १५४ पर बक्सर का विस्तृत उल्लेख करके महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए लिखा गया है कि बैसवारे के बक्सर-उन्नाव में चंडिका देवी का बहुत विशाल मंदिर है| जहां हर वर्ष नवरात्रि और हिंदू त्योहारों में एक विशाल मेला लगता है| रायबरेली गजेटियर १८९३ में लिखा है कि यह वही स्थान है जिसमें सन १८५७ में अंग्रेजी विद्रोह के समय राजा रावराम बक्स ने लगभग एक दर्जन अंग्रेजों को शिव मंदिर में सेना से जलवा कर मार दिया था|
बक्सर का विवरण बाल्मिकि रामायण में भी मिलता है| यह महर्षि विश्‍वामित्र की तपस्थली थी| वे कान्यकुब्ज प्रदेश के राजा गाधि के पुत्र तथा प्रसिद्ध गायत्री मंत्र के रचयिता थे| पिता के निधन के बाद वे राजा बने| गुरु वशिष्ठ जी से संघर्ष के बाद विश्‍वामित्र का मन पूजा-पाठ में नहीं लगा| वे यहीं बक्सर में आकर गंगा के किनारे तपस्या करने लगे| उन्होंने कई प्रकार की वनस्पतियों की सृष्टि की थी| यहीं पर वे राक्षसों के हवन-पूजन के विघ्न दूर करने के लिए अयोध्या से राम-लक्ष्मण को लेकर आए थे, जिन्होंने राक्षसों का वध करके ॠषि-मुनियों के विघ्नों को दूर किया था| वाल्मीकि रामायण में इस प्रदेश को कारूप्रद प्रदेश बताया गया है जो अयोध्या से पश्‍चिम-दक्षिण के कोने पर स्थित है| तत्कालीन दाण्यक-उपनिषद में अश्‍वशिर विद्या का यहीं बड़ा केंद्र था| महाराजा हाग्रीव की राजधानी भी यहीं थी| गर्ग ॠषि ने यहीं आकर गंगा तट पर गेगासों नगर (गर्गस्त्रोत धाम) बसाया जो आज भी लालगंज-बैसवारा-फतेहपुर रोड पर गंगा के किनारे स्थित है|
अभय सिंह बैस और निर्भय सिंह बैस ने बक्सर के गंगा मेले में गंगा स्नान करने आई अर्गल नरेश की राजकुमारी रत्ना एवं राजमाता को अवध नवाब के सेनापति से युद्ध करके बचाया था| वह जबरदस्ती अपहरण करके रत्ना को नवाब के हरम की शोभा बनाना चाहता था| उनकी वीरता से प्रसन्न होकर राजा ने अपनी पुत्री रत्ना का विवाह अभय सिंह के साथ कर दिया था और दहेज में बैसवारे का किला दे दिया| उन दिनों किले में हर जाति के लोगों का कब्जा था| वे राजा को लगान भी नहीं देते थे| होली की रात दोनों भाइयों ने सेना लेकर किले पर हमला कर दिया| उस भीषण युद्ध में उनकी विजय तो हुई किंतु युद्ध में निर्भय सिंह शहीद हो गए| अभय सिंह किले में रह कर राज्य संचालन करने लगे|
उन दिनों कन्नौज के राजा जयचंद का राज्य डलमऊ तक फैला हुआ था| इसलिए यहां के ब्राह्मणों को कनवजिया बाह्मण भी कहा जाता है| डलमऊ में गंगा तट पर आल्हा-ऊदल की बैठक तथा राजा जयचंद के किले के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं| गंगा के किनारे इसी किले के पास स्थित अवधूत आश्रम में बैठ कर महाकवि निरालाजी पत्नी मनोहरा के वियोग में आंसू बहाकर कविताएं लिखा करते थे| राजा जयचंद के पतन के बाद तेरहवीं शताब्दी में राजा डलदेव डलमऊ रियासत के राजा बने जो जौनपुर के शासक मुहम्मद तुगलक के सेनापति शाह सर्की द्वारा युद्ध करते हुए शहीद हो गए थे| उसके बाद डलदेव के पुत्र चंदा-बंदा ने बाल्यावस्था में ही शर्की से युद्ध करके उसे मार डाला, उसकी कब्र आज भी डलमऊ में गंगा पुल के किनारे देखी जा सकती है| 
गौतम बुद्ध के काल में इस क्षेत्र को हामुख या अयोमुख कहा जाता था| यहीं द्रोणिक्षेत्र नगर का द्रौणिमुख बंदरगाह था, जो गंगाजी के जलमार्ग से नाव द्वारा व्यापारिक सुविधा के लिए बनवाया गया था| द्रौणि का अर्थ (तट) किनारा होता है| यही गांव आज डौडिया खेडा के नाम से जाना जाता है| सन २०१३ में सोने के लिए पुरातत्व विभाग द्वारा इसी बैसवारा रियासत के (डौडिया खेडा) किले की आंशिक खुदाई की गई थी जो बाद में राजनीति का शिकार होकर बंद कर दी गई| 
एलेक्जेंडर-कनिंघम् और चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा कुछ अन्य देशी-विदेशी विद्वानों ने ‘अयोमुख’ नगर को ही डौडिया खेडा बताया है| हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने कादंबरी और हर्षचरित्र में चंडिका देवी के मंदिर का उल्लेख किया है जो डौडिया खेडा रियासत के किले से एक मील की दूरी पर स्थित है|
चौदहवीं शताब्दी में बैसवारे के राजा जाजन देव के पिता श्री घाटम देव थे, जिन्होंने कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील को बसाया| बाद में वह बड़ा नगर बन गया| तुगलकी बादशाहों के आक्रमण से राज्य की स्थिति बहुत बिगड़ गई थी| राजा घाटमदेवजी माता चण्डिका देवी की शरण में गए| चंडिका मां के तत्कालीन पुजारी ने मंदिर के जीर्णोद्धार की सलाह दी| देवी मंदिर का जीर्णोद्धार होते ही उनका खजाना कई गुना बढ़ गया तथा वे महान शासकों में प्रसिद्ध हो गए| उन्होंने अपनी पुत्री की शादी रीवां भद्र नरेश के साथ की थी|
पंद्रहवीं शताब्दी में राजा त्रिलोकचंद्र सिंह का जन्म होते ही उनके पिता सातनदेव की अचानक मृत्यु हो गई तथा उनकी बाल्यावस्था बड़े संकट-विपन्नता में बीती| उनके गुरु लक्ष्मणदेव ने कुलदेवी चंण्डिका का हवन-पूजन करवाया| देवी मां के वरदान से त्रिलोकचंद्र सिंह ने थोड़ी सी सेना से ही समस्त खोया हुआ राज्य फिर से जीत लिया तथा बैसवारा क्षेत्र का निर्माण तथा बहुत प्रसार किया| लोगों का कहना है कि उनके समान शूरवीर तथा प्रतापी राजा बैसवारे में कोई दूसरा नहीं पैदा हुआ| वे युद्ध में कभी नहीं हारे|
मां चंण्डिका देवी के परम भक्त कविवर्य आचार्य सुखदेवजी मिश्र थे| वे पहले असोथर के राजा भगवंतराय खीची के यहां रहते थे, वे वहां से डौडिया खेडा (बैसवारा) चले आए| उन्होंने १६७९ में पुस्तक रसार्णव, वृत्ति विचार पिंगल एवं मर्दन विरुदावली लिखी थी| उन दिनों बैसवारे में राजा मर्दन सिंह का राज्य था| उन्होंने सुखदेव मिश्र को चंडिका देवी के पूजन हेतु एक आश्रम की जगह दे रखी थी| एक दिन मिश्रजी अमेठी गए थे, उसी समय मौरावां के विख्यात कवि निशाकर बक्सर (डोडिया खेडा) आए| राजा ने सुखदेव जी का निवास उन्हें रहने के लिए दे दिया| पं. सुखदेव मिश्र लौट कर आए तो अपने निवास पर दूसरे को ठहरा हुआ देख कर बहुत क्रोधित हुए| उन्होंने गुस्से में राजा को श्राप दे दिया कि ‘अब बैसवारा में हम नहीं सिर्फ निशाचर ही निवास करेंगे|’ उनके जाने के दो वर्ष बाद राज्य में भीषण समस्याएं आने लगीं|

वे गुस्से में बक्सर छोड़ कर मुरारमऊ चले गए| तत्कालीन राजा अमर सिंह ने सुखदेवजी की मर्जी से गंगा के किनारे एक बड़ा भूखंड दान स्वरूप दे दिया| सुखदेव मिश्र ने उसी जगह ग्राम दौलतपुर बसाया, जहां हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म हुआ| जिन्होंने अंग्रेजी शासन काल में हिंदी भाषा-साहित्य का परिष्करण करके हिंदी भाषा-साहित्य का युग प्रवर्तन किया| बैसवारे के अंतिम राजा रावराम बक्स एवं राणा बेनीमाधव सिंह थे, जिन्होंने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया पर परास्त हो गए|
अंग्रेजों ने शंकरपुर एवं डौडिया खेडा बैसवारा रियासत के दोनों किले ध्वस्त कर दिए| अपने कुछ गद्दार सैनिकों के कारण १८५७ के भीषण संग्राम में राणा बेनी माधव तथा बैसवारे के राजा रावराम बक्स दोनों ही बुरी तरह परास्त हुए| राणा जी नेपाल की ओर चले गए जिनका आज तक पता नहीं चला, किंतु रावराम बक्स को अंग्रेजों ने अंग्रेजी शासन से गद्दारी करने का अभियोग लगाकर पुराने बक्सर के बरगद के पेड़ में खुले आम फांसी की सजा दी| आजादी के बाद वह उसी स्थान पर रावराम का स्मारक बनाया गया है|
बैसवारे के कवि-साहित्यकारों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, डॉ. रामविलास शर्मा, मलिक मुहम्मद जायसी, भगवती चरण वर्मा, डॉ. जगदंबा प्रसाद दीक्षित, पं. प्रतापनारायण मिश्र, डॉ. राममनोहर त्रिपाठी, रमेशचंद्र, काका बैसवारी एवं डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी आदि ने हिंदी को गौरवांकित किया|
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