आर्थिक रूप से मोटे तौर पर दो तरह के लोग हमें दिखते हैं। एक धनी और दूसरे निर्धन। देशों के मामले में भी कमोबेश यही बात लागू होती है। इसी आधार पर उनका विकसित और विकासशील में बंटवारा किया गया है। पर क्या सचमुच व्यक्ति, समाज अथवा विभिन्न देशों की समृद्धि का सही मूल्यांकन हम इस तरह कर पाते हैं? क्या समृद्धि के आकलन का आधार सिर्फ पूंजी, उद्योग-धंधे, आमदनी या उपभोग के स्तर को माना जा सकता है? इसे समृद्धि का वास्तविक आकलन नहीं कहा जा सकता। किसी भी व्यक्ति या देश की समृद्धि के सही मूल्यांकन के लिए दूसरे महत्वपूर्ण तत्वों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसीलिए हमारे धर्म शास्त्र पैसे को इतनी अहमियत नहीं देते, जितनी कि आज के युग में दी जाने लगी है।
कुछ लोगों के पास धन-दौलत अथवा सुविधाओं की कमी नहीं होती, लेकिन वे फिर भी असंतुष्ट होते हैं। जीवन में आगे बढ़ना और ज्यादा से ज्यादा समृद्ध होना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन अपनी स्थिति से हमेशा असंतुष्ट ही रहना है, तो समृद्धि का क्या फायदा? ऐसे व्यक्ति को निर्धन की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। संतुष्टि के मामले में तो अवश्य ही निर्धन है वह। संतुष्टि को हमारे यहां परम धन माना गया है। ऐसे व्यक्ति के उलट, धन से रहित होने पर भी जो व्यक्ति संतुष्ट रहता है, वह किसी धनवान से कम नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि हम जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करना छोड़ दें। हम आगे बढ़ने का लगातार प्रयास करते रहें, लेकिन वर्तमान में जो कुछ भी हमारे पास है, उससे संतुष्ट रहना सीखें। हमारे अंदर असंतुष्टि का खालीपन नहीं हो।
समृद्धि का आधार पैसा अथवा पैसों से हासिल की गई वस्तु अथवा सेवा नहीं बन सकती। एक कप चाय की कीमत दो रुपये से लेकर दो सौ रुपये तक हो सकती है, लेकिन एक कप चाय से हमें जो ऊर्जा मिलेगी, वह दिए गए पैसों से नहीं नापी जा सकती। अगर कोई व्यक्ति अपनी चाय पर दो सौ रुपये खर्च नहीं कर सकता, तो क्या इसी कारण वह निर्धन की श्रेणी में आ जाएगा? इसी प्रकार अगर कम कीमत के खाद्य पदार्थों से हमें पूरा पोषण मिल जाता है, तो क्या हम उन लोगों के मुकाबले अभावग्रस्त कहलाएंगे जो महंगी वस्तुएं इस्तेमाल करते हैं? कदापि नहीं।
जो लोग बहुत अधिक सुख-सुविधाओं के आदी हो जाते हैं और अपना कोई काम खुद नहीं कर सकते, वे उसके मुकाबले में गरीब ही माने जाएंगे, जो मेहनती है और इसलिए सेहतमंद भी। अच्छा स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है, जिसे सिर्फ पैसों से नहीं खरीदा जा सकता।
धन जीवन में जरूरी है, लेकिन हमें और भी बहुत कुछ चाहिए। इनमें सबसे पहले आता है हमारा भौतिक शरीर। एक व्यक्ति भीख मांग कर अपना गुजारा करता था। पास से गुजरने वाले एक व्यक्ति ने उससे कहा कि तुम धनवान होते हुए भी क्यों भीख मांगते हो? 'नहीं, मैं तो बहुत गरीब हूं' भिखारी ने कहा। उस व्यक्ति ने भिखारी से कहा, तुम ऐसा करो कि अपनी दोनों आंखें मुझे दे दो। उसके बदले में मैं तुम्हें लाखों रुपये दे दूंगा। भिखारी ने कहा, ये कैसे हो सकता है कि तुम्हें पैसों के बदले अपनी आंखें दे दूं। इस पर उस आदमी ने कहा, तो फिर और दूसरा कोई अंग ही मुझे दे दो, जिसके बदले मैं तुम्हें मुंह मांगी कीमत दे दूंगा। लेकिन भिखारी कैसे मान लेता? उस सज्जन ने कहा, जब तुम्हारे शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने कीमती हैं, तो फिर तुम गरीब कैसे हुए? वास्तव में हमारा शरीर सबसे कीमती वस्तु है। और उस पर अगर यह देह रोगों से मुक्त है, तो इस समृद्धि का क्या मोल लगाया जा सकता है?
हमारी मानसिक अवस्था भी हमारी समृद्धि अथवा अभाव की स्थिति के मूल्यांकन के लिए महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति तनाव से मुक्त जीवन जी रहा है, वह उस व्यक्ति के मुकाबले अधिक समृद्ध है, जो बहुत दौलतमंद तो है, लेकिन जिसका जीवन अनेक तनावों से भरा है। चिंता, काम का बोझ, कुंठा, क्रोध, चिड़चिड़ापन, असहनशीलता, लोभ, उतावलापन और घृणा ऐसे मनोभाव हैं, जो कैसी भी समृद्धि को दरिदता में बदल डालते हैं।
कुछ लोगों के पास धन-दौलत अथवा सुविधाओं की कमी नहीं होती, लेकिन वे फिर भी असंतुष्ट होते हैं। जीवन में आगे बढ़ना और ज्यादा से ज्यादा समृद्ध होना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन अपनी स्थिति से हमेशा असंतुष्ट ही रहना है, तो समृद्धि का क्या फायदा? ऐसे व्यक्ति को निर्धन की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। संतुष्टि के मामले में तो अवश्य ही निर्धन है वह। संतुष्टि को हमारे यहां परम धन माना गया है। ऐसे व्यक्ति के उलट, धन से रहित होने पर भी जो व्यक्ति संतुष्ट रहता है, वह किसी धनवान से कम नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि हम जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करना छोड़ दें। हम आगे बढ़ने का लगातार प्रयास करते रहें, लेकिन वर्तमान में जो कुछ भी हमारे पास है, उससे संतुष्ट रहना सीखें। हमारे अंदर असंतुष्टि का खालीपन नहीं हो।
समृद्धि का आधार पैसा अथवा पैसों से हासिल की गई वस्तु अथवा सेवा नहीं बन सकती। एक कप चाय की कीमत दो रुपये से लेकर दो सौ रुपये तक हो सकती है, लेकिन एक कप चाय से हमें जो ऊर्जा मिलेगी, वह दिए गए पैसों से नहीं नापी जा सकती। अगर कोई व्यक्ति अपनी चाय पर दो सौ रुपये खर्च नहीं कर सकता, तो क्या इसी कारण वह निर्धन की श्रेणी में आ जाएगा? इसी प्रकार अगर कम कीमत के खाद्य पदार्थों से हमें पूरा पोषण मिल जाता है, तो क्या हम उन लोगों के मुकाबले अभावग्रस्त कहलाएंगे जो महंगी वस्तुएं इस्तेमाल करते हैं? कदापि नहीं।
जो लोग बहुत अधिक सुख-सुविधाओं के आदी हो जाते हैं और अपना कोई काम खुद नहीं कर सकते, वे उसके मुकाबले में गरीब ही माने जाएंगे, जो मेहनती है और इसलिए सेहतमंद भी। अच्छा स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है, जिसे सिर्फ पैसों से नहीं खरीदा जा सकता।
धन जीवन में जरूरी है, लेकिन हमें और भी बहुत कुछ चाहिए। इनमें सबसे पहले आता है हमारा भौतिक शरीर। एक व्यक्ति भीख मांग कर अपना गुजारा करता था। पास से गुजरने वाले एक व्यक्ति ने उससे कहा कि तुम धनवान होते हुए भी क्यों भीख मांगते हो? 'नहीं, मैं तो बहुत गरीब हूं' भिखारी ने कहा। उस व्यक्ति ने भिखारी से कहा, तुम ऐसा करो कि अपनी दोनों आंखें मुझे दे दो। उसके बदले में मैं तुम्हें लाखों रुपये दे दूंगा। भिखारी ने कहा, ये कैसे हो सकता है कि तुम्हें पैसों के बदले अपनी आंखें दे दूं। इस पर उस आदमी ने कहा, तो फिर और दूसरा कोई अंग ही मुझे दे दो, जिसके बदले मैं तुम्हें मुंह मांगी कीमत दे दूंगा। लेकिन भिखारी कैसे मान लेता? उस सज्जन ने कहा, जब तुम्हारे शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने कीमती हैं, तो फिर तुम गरीब कैसे हुए? वास्तव में हमारा शरीर सबसे कीमती वस्तु है। और उस पर अगर यह देह रोगों से मुक्त है, तो इस समृद्धि का क्या मोल लगाया जा सकता है?
हमारी मानसिक अवस्था भी हमारी समृद्धि अथवा अभाव की स्थिति के मूल्यांकन के लिए महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति तनाव से मुक्त जीवन जी रहा है, वह उस व्यक्ति के मुकाबले अधिक समृद्ध है, जो बहुत दौलतमंद तो है, लेकिन जिसका जीवन अनेक तनावों से भरा है। चिंता, काम का बोझ, कुंठा, क्रोध, चिड़चिड़ापन, असहनशीलता, लोभ, उतावलापन और घृणा ऐसे मनोभाव हैं, जो कैसी भी समृद्धि को दरिदता में बदल डालते हैं।