बुधवार, 14 दिसंबर 2011

क्या वेदों में बहुदेवता वाद और मांसाहार हैं ?

  महर्षि दयानंद की वेद भाष्य को देन भाग १

डॉ विवेक आर्य

क्या वेदों में बहुदेव्तावाद और मांसाहार हैं ?  

आधुनिक युग में महर्षि दयानंद का नाम समाज सुधारको के साथ साथ वेदों के भाष्यकार के रूप में भी जाना जाता हैं. महर्षि दयानंद ने यजुर्वेद का संपूर्ण एवं ऋग्वेद का सप्त मंडल तक भाष्य किया था जिसे वे अकाल मृत्यु के कारण पूर्ण नहीं कर पाए थे. कुछ जिज्ञासुओं का कहना हैं की जब पहले से ही सायण,महीधर आदि के भाष्य उपलब्ध थे तो महर्षि दयानंद को नवीन भाष्य की क्या आवश्यकता पड़ी अथवा यह भी कह सकते हैं की महर्षि दयानंद के वेद भाष्य में ऐसा क्या नवीन था.

महर्षि दयानंद के भाष्य से पहले वेदों के विषय में जनमानस की धारणाओं कुछ इस प्रकार थी-

१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.

२. वेदों में मांसाहार एवं हवन में पशु बलि जैसे अश्वमेध में अश्व की, अजमेध में अज की , नरमेध में नर बलि का विधान हैं जिससे वेद मात्र बोझिल कर्मकांड की पुस्तक प्रतीत होती हैं

महर्षि दयानंद के वेद भाष्य का प्रयोजन भी यही था की चारो और आर्यव्रत में फैले अंधकार का मुख्य कारण वेदों के सही अर्थ का प्रकाश नहीं होना हैं इसलिए उन्होंने वेद का नवीन भाष्य करने का निश्चय किया. सायण ,महीधर आदि के भ्रामक भाष्यों को पढ़ कर विदेशी भाष्यकारों जैसे मोक्षमूलर, ग्रिफ्फिथ, विल्सन आदि भी वेदों का सही अर्थ न जान सके और पूरा विश्व वेदों के ज्ञान के प्रकाश से वंचित रह गया. महर्षि दयानंद ने वेदों का नवीन भाष्य कर पूरे विश्व में क्रांति का किस प्रकार प्रचार किया पूरे लेख को पड़ कर हम जान जायेंगे.

१. वेदों में अनेक ईश्वरों की उपासना का विधान हैं क्योंकि वेदों में अग्नि, इन्द्र, रूद्र,पितर, अश्विनौ, अदिति , मरुत आदि अनेको देवों का वर्णन हैं.

वेदों में अग्नि, वायु, इन्द्र, अश्विनो, मित्र, वरुण, अर्यमा, रूद्र, सविता, अदिति, सरस्वती, पृथ्वी आदि देवताओ का वर्णन आता हैं. उवट, सायण, महीधर आदि भाष्यकारों ने इन्हें अलग स्वतन्त्र देव स्वीकार किया हैं जिससे वेदों में बहुदेवतावाद प्रतीत होता हैं . यज्ञों में आवाहन करने पर ये देवता प्रसन्न होकर यजमान को पुत्र, पोत्र, धन आदि प्रदान करते हैं. महर्षि दयानंद ने कहाँ की वेदों के विभिन्न देवता एक ही परमेश्वर के गुण- कर्म बोधक विभिन्न नाम हैं जैसे अग्नि के अग्रणी , विज्ञानस्वरुप, स्वयं प्रकाशमान, प्रकाशक परमेश्वर, विद्वान अध्यापक, उपदेशक, नायक राजा, वीर सेनापति अर्थ हैं, इन्द्र के ऐश्वर्याशाली परमेश्वर, शत्रु विदारक राजा, सेनापति, गुरु, बिजुली आदि अर्थ हैं. रूद्र का शत्रु संहारक सेनापति, ब्रहमचारी, जीवात्मा, वैद्य, वायु , प्राण आदि अर्थ हैं.अदिति के माता, जगदम्बा, राज रानी, पृथ्वी, अविनाशी आत्मा, विद्या, क्रिया, गौ आदि अर्थ हैं. महर्षि दयानंद ने जो अर्थ देव शब्दों के किये हैं वे वेदों से , निरुक्त से और ब्राह्मण आदि ग्रंथो से प्रमाणित हो जाते हैं.

वेदों में एक ईश्वर होने के प्रमाण-

१. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओ का ईश्वर हैं- ऋग्वेद १.७.९

२. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता हैं- ऋग्वेद १.८४.६

३. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य हैं- ऋग्वेद ६.२२.१

४. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं , तू अकेला समस्त जगत का राजा हैं – ऋग्वेद ६.३६.४

५. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा हैं – ऋग्वेद ६.४५.१६

६. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका इश्वर बना हुआ हैं- ऋग्वेद ८.६.४१

७. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया हैं- ऋग्वेद १०. ८१.३

८. हे दुस्तो को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं- ऋग्वेद ४.३०.१

९. वह ईश्वर अचल हैं,एक हैं, मन से भी अधिक वेगवान हैं. यजुर्वेद ४०.४

१०. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे,जो जगत का स्वामी हैं, एक ही हैं, नमस्कार करने योग्य हैं, बहुत सुख देने वाला हैं. अथर्वेद २.२.२.

११. आओ , सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी हैं, एक हैं, व्यापक हैं और हम मनुष्यों का अतिथि हैं. अथर्वेद ६.२१.१

१२. वह परमेश्वर एक हैं, एक हैं , एक ही हैं. उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं हैं, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं हैं, आठवां, नौवां, दसवां नहीं हैं. वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा हैं. अथर्वेद १६.४.१६-२०

इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रो से यह सिद्ध होता हैं की परमेश्वर एक हैं. अब एक समस्या उत्पन्न होती हैं. एक और तो वेदों में मित्र, वरुण, अग्नि , इन्द्र आदि नाना देवों की सत्ता का वर्णन हैं दूसरी और वेदों में एक ही ईश्वर का वर्णन हैं तो इस परस्पर विरोधी बातो का समन्वय कैसे करे. एक उदाहरण लेते हैं देश के राजा का नाम प्रधानमंत्री होता हैं, प्रान्त के राजा का नाम मुख्यमंत्री होता हैं. जिले के राजा का नाम कमिश्नर होता हैं, पंचायत के राजा का नाम सरपंच होता हैं. अगर कोई यह कहे की भारत का एक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं और कोई यह कहे भारत में अनेक राजा हैं तो वह भी ठीक हैं. यहीं बात वेदों के विषय में भी हैं. सबसे बड़ा देवता एक परम ब्रह्मा ईश्वर हैं बाकि सब देवता उसके नीचे काम करने वाले हैं. परमेश्वर और बाकि देवों में किस प्रकार का सम्बन्ध हैं यह इस मंत्र से सिद्ध होता हैं. जैसे वृक्ष के तने के आश्रित सब शाखाएं होती हैं, वैसे ही उस परम देव के आश्रय में अन्य सब देव रहते हैं.(अथर्वेद १०.७.३८)

वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी हैं जैसे-

१. परमेश्वर एक ही हैं ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं , उसे इन्द्र कहते हैं, मित्र कहते हैं, वरुण कहते हैं, अग्नि कहते हैं, और वही दिव्या सुपर्ण और गरुत्मान भी हैं, उसे ही वे यम और मातरिश्वा भी कहते हैं.(ऋग्वेद १.१६४.४६)

२. एक होते हुए भी उस सुपर्ण परमेश्वर को ज्ञानी कविजन बहुत नामो से कल्पित कर लेते हैं (ऋग्वेद १०.११४.५)

३. यहीं भाव ऋग्वेद ३.२६.७,ऋग्वेद २.१.३-७,ऋग्वेद १०.८२.३, यजुर्वेद ३२.१, अथर्वेद १३.४ में भी कहाँ गया हैं.

जिस प्रकार बाईबिल में ईश्वर को god, almighty,lord आदि अनेको नाम से पुकारा गया हैं उसी प्रकार वेदों में ईश्वर को भी विभिन्न नाम से पुकारा गया हैं. इस प्रकार यह सिद्ध होता हैं की वेदों में एक ईश्वर का वर्णन हैं इसलिए जो लोग अंध विश्वास में आकर विभिन्न देवी देवताओ की उपासना में लगे हुए हैं वे वेदों में वर्णित एक ईश्वर के यथार्थ को समझे.


वेदों में मांसाहार एवं हवन में पशु बलि जैसे अश्वमेध में अश्व की, अजमेध में अज की , नरमेध में नर बलि का विधान हैं जिससे वेद मात्र बोझिल कर्मकांड की पुस्तक प्रतीत होती हैं
स्वामी दयानंद जी का वेदभाष्य यूँ तो कई पहलुओं में क्रांतिकारी हैं पर इसमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली विचार मांस भक्षण ,पशुबलि, कर्मकांड आदि को लेकर जो अन्धविश्वास हमारे देश में फैला था उसका निवारण कर स्वामी जी ने साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्दा भाव उत्पन्न कर दिया. सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देख कर मोक्ष मुलर, विल्सन , ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियो को क़त्ल करवा कर मनुष्य जाति को पापी बना दिया. मध्य काल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था. आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांस भक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे. निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं भोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी. इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता.
सर्वप्रथम तो स्वामी दयानंद ने चार वेद संहिताओ को परम प्रमाण माना. उन्होंने कहाँ की दर्शन,उपनिषद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण आदि तभी मान्य हैं जब वे वेदानुकुल हैं. स्वामी दयानंद ने आवाहन किया की चारों वेदों में कहीं भी मांस भक्षण का विधान नहीं हैं, न देवताओं को मांस खिलाने का, न मनुष्यों को खिलाने का विधान हैं.
वेदों में गाय के नाम
यजुर्वेद ८.४३ में गाय को इडा (स्तुति की पात्र) , रनता (रमयित्री), हव्या (उसके दूध की हवन में आहुति दिए जाने से ), काम्या (चाहने योग्य होने से) , चंद्रा (अह्ह्यादायानि होने से ) , ज्योति (मन आदि को ज्योति प्रदान करने से ), अदिति (अखंडनिय होने से) , सरस्वती (दुग्ध्वती होने से ) , मही (महिमा शालिनी होने से), विश्रुती (विविध रूपों में श्रुत होने से) और अघन्या (न मारी जाने योग्य) कहा गया हैं.
इन नामों से यह स्पष्ट सिद्ध होता हैं की वेदों में गाय को सम्मान की दृष्टि से देखा गया हैं क्यूंकि वो कल्याणकारी हैं.!वेद किसी एक व्यक्ति या संस्था द्वारा प्रणीत कृतियाँ नहीं हैं और न ही ये लेख बद्द किये गये थे। ये श्रुतियों द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुँचते थे और बीच-2 मै तमाम माँसभक्षी ऋषि मुनि भी हुये होंगें जिन्होंने ऋग्वेद मे गौमांस भक्षण से सम्बन्धित ऋचाओं को डाला रहा होगा। अन्यथा अचानक हिन्दू सनातन धर्म मे गाय पूज्यनीय कैसे हो जाती???? जो भी स्थिति रही हो पर आज का सत्य यही है कि भारत सहित अन्य देशों मे कोई भी हिन्दू धर्मी  माँस भक्षण को धार्मिक अनुस्ठानों से नहीं जोड़ते।
गाय पूज्य हैं
अथर्ववेद १२.४.६-८ में लिखा हैं जो गाय के कान भी खरोंचता हैं, वह देवों की दृष्टी में अपराधी सिद्ध होता हैं. जो दाग कर निशान डालना चाहता हैं, उसका धन क्षीण हो जाता हैं. यदि किसी भोग के लिए इसके बाल काटता हैं, तो उसके किशोर मर जाते हैं.
अथर्ववेद १३.१.५६ में कहाँ हैं जो गाय को पैर से ठोकर मरता हैं उसका मैं मूलोछेद कर देता हूँ.
गाय, बैल आदि सब अवध्य हैं
ऋगवेद ८.१०१.१५ – मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.
ऋगवेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.
अथर्ववेद १०.१.२९ – तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.
अथर्ववेद १२.४.३८ -जो (वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.
अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं
ऋगवेद ६.२८.४ – गोए वधालय में न जाये
अथर्ववेद ८.३.२४ – जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो
यजुर्वेद १३.४३ – गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं
अथर्ववेद ७.५.५ – वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं
यजुर्वेद ३०.१८- गोहत्यारे को प्राण दंड दो
वेदों से गो रक्षा के प्रमाण दर्शा कर स्वामी दयानन्द जी ने महीधर के यजुर्वेद भाष्य में दर्शाए गए अश्लील, मांसाहार के समर्थक, भोझिल कर्म कांड का खंडन कर उसका सही अर्थ दर्शा कर न केवल वेदों को अपमान से बचा लिया अपितु उनकी रक्षा कर मानव जाती पर भारी उपकार भी किया.
उदहारण के लिए

महीधर अपने भाष्य में यजुर्वेद २३/१९ का अर्थ इस प्रकार करते हैं- सब ऋत्विजों के सामने यजमान की स्त्री घोरे के पास सोवे, और सोती हुई घोरे से कहे की, हे अश्व ! जिससे गर्भ धारण होता हैं, ऐसा जो तेरा वीर्य हैं उसको मैं खैंच के अपनी योनी में डालूं , तथा तू उस वीर्य को मुझमें स्थापन करने वाला हैं.

ऐसे अश्लील एवं व्यर्थ अर्थ को नक्कारते हुए स्वामी दयानंद इस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार करते हैं जो परमात्मा गणनीय पदार्थो का पालन करने हारा हैं उसको हम लोग पूज्य बुद्धि से ग्रहण करते हैं जो की हमारे मित्र और मोक्ष सुख आदि का प्रियपति तथा हमको आनंद में रख कर सदा पालन करने वाला हैं, उसको हम लोग अपना उपास्य देव जन के ग्रहण करते हैं. जो की विद्या और सुख आदि का निधि अर्थात हमारे कोशो का पति हैं, उसी सर्वशक्तिमान परमेश्वर को हम अपना राजा और स्वामी मानते हैं. तथा जो की व्यापक होके सब जगत में और सब जगत उसमें बस रहा हैं, इस कारण से उसको वसु कहते हैं. हे वसु परमेश्वर! जो आप अपने सामर्थ्य से जगत के अनादिकरण में गर्भ धारण करते हैं, अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों को आप ही रचते हैं.

महीधार अपने भाष्य में यजुर्वेद २३/२० का अर्थ इस प्रकार करते हैं- यजमान की स्त्री घोरे के लिंग को पकड़ कर आप ही अपनी योनी में डाल देवे.

ऐसे अश्लील एवं व्यर्थ अर्थ को नक्कारते हुए स्वामी दयानंद इस मंत्र का सही अर्थ इस प्रकार करते हैं राजा और प्रजा हम दोनों मिल के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के प्रचार करने में सदा प्रवित रहे. जिससे हम दोनों परस्पर तथा सब प्राणियो को सब सुख से परिपूर्ण कर देवें. जिस राज्य में मनुष्य लोग अच्छी प्रकार ईश्वर को जानते हैं, वही देश सुख युक्त होता हैं. इससे राजा और प्रजा परस्पर सुख के लिए सद्गुणों के उपदेशक पुरुष की सदा सेवा करे, और विद्या तथा बल को सदा बदावे.

यजुर्वेद के २३ वें अध्याय का इसी प्रकार महीधर ने अत्यंत अश्लील अर्थ किया हैं जिसका सही अर्थ भाष्यकार-शंका-समाधान-आदि-विषय नामक पाठ में स्वामी दयानंद द्वारा रचित ऋगवेदादि भाष्य भूमिका में पड़ा जा सकता हैं.

पाठक स्वामी दयानंद द्वारा किये गए वेदों के क्रन्तिकारी भाष्य के महत्व को समझ गए होंगे.

क्या प्रकृति ईश्वर ही है... ?

क्या मैं भंगी हूँ l

 भारत में प्रत्येक जाति दूसरी जाति के प्रति अछूत सा व्यवहार करती है. सम्भवत: ऐसे गुणों से सुसज्जित अम्बेडकरवादी कुछ अगड़ी अछूत जातियों ने भी भंगी को उसी सामंतवादी नजरिये से देखा. जहां वे एक ओर सवर्णों पर समानता का दबाव बना रहे थे वहीं दूसरी ओर वे भंगियों से वही रूखा व्यवहार करने में कोई गूरेज नही कर रहे थे. इसका परिणाम यह हुआ भंगी अछूतों में अछूत हो गये. कई भंगी समुदाय के बुद्धिजीवी दलित आंदोलन में शामिल हुए किन्तु अन्य अगड़े अछूत जातियों के जातिगत प्रश्न पर उन्हें भी बगले झांकने के लिए मजबूर होना पड़ता, इस तरह वे भी ज्यादा समय तक आंदोलन की मुख्यधारा में नहीं ठहर पाए. आम कामगारों की बात क्या करें मैं इन्ही सभी बातो से दुखी हो कर कहता हु की मैं ही नहीं सभी भंगी है चौंकिए मत; भंगी के दो अर्थ होते हैं -
(१) शाब्दिक अर्थ है भंग करने वाला |
सब से बड़ा बंधन अज्ञान का है |
अज्ञान और अंधकार एक ही है |
अज्ञान रूपी अंधकार का भंजक गुरु ही सच्चा भंगी है |
गुरु अज्ञान रूपी गंदगी की सफाई कर के विचारों को स्वच्छ करता है |
भारतवर्ष में महान भंगी (गुरु) पैदा हुए हैं जिन्होंने लोगों के अज्ञान को समाप्त करने का अथक प्रयास किया परन्तु लोग इतने गंदगी-पसंद हैं कि अपनी मानसिक गंदगी को साफ होने ही नहीं देते |

(२) भंगी का आरोपित अर्थ है - सफाई करने वाला l मैं दोनों प्रकार का भंगी हूँ l यद्यपि मैं  उच्च राजपूत कुल में जन्म लिया है - चालुक्य राजपूत , भरद्वाज गोत्र - तदापि, मैंने अनुभव किया कि मेरे जन्मदाता माता पिता ऐवम पितामह भंगी थे, नाना श्री भी भंगी थे l भंगी का आरोपित अर्थ है गंदगी की सफाई करने वाला; तो मेरी माता भंगी थीं और भंगी हैं l वे हीं मेरी गंदगी - मल मूत्र को साफ करती थीं और हम सब को शरीर, मन, घर को साफ रखने की शिक्षा दी l इस प्रकार से मैं भंगी से उत्पन्न हुआ, भंगी से प्रथम शिक्षा प्राप्त की l मेरी जननी ऐवम प्रथम गुरु भंगी है l मेरे पिता भी भंगी थे l वे कहते थे - लीकहि लीक तीनो चले - कायर, कुटिल, कपूत, लीक छोड़ तीनो चले - शायर, सिंह, सपूत l मेरे पिता, ने सदैव रुढ़िवादी मान्यताओं को भंग किया, अंधविश्वासों को भंग किया - अतः वे भंगी थे l

मेरे पितामह से मैंने अपने किशोरावस्था में जाति वर्ण विषयक एक जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र क्या होते हैं ? कैसे होते हैं ? अर्थात कैसे बनते अथवा बनाये जाते हैं ? ऐवम कौन बनता है ? अर्थात इस वर्ण व्यवस्था का निर्धारण कौन करता है ? उन्होंने विस्तृत उत्तर दे कर मेरी जिज्ञासा का समाधान किया वह पूर्ण रूप में यहाँ उधृत करना संभव नहीं है - तदापि सूक्ष्म रूप में - सारांश में - निष्कर्ष यह है कि भारत के महान मनीषियों ने मनुष्य जाति के दैनिक कार्य कलापों का गूढ़ अध्ययन कर उन्हें चार प्रकार की विशेषताओं में निष्णात पाया l यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति - स्त्री अथवा पुरुष - अपने दैनिक कार्य कलापों- गतिविधियों के अनुसार शूद्र अर्थात शारीरिक सफाई का कार्य, ज्ञानार्जन अर्थात ब्राह्मण का कार्य, जीविकोपार्जन अर्थात वैश्य का कार्य ऐवम स्वतः की, परिवार की, समाज की, देश की, प्रकृति प्रदत्त सम्पदा की रक्षा करता है अर्थात क्षत्रिय का कार्य करता है l

भारत के महान मनीषियों ने कभी भी इन चार विशेषताओं का विभाजन कर के मनुष्य को चार वर्णों में विभाजित करने का नीच कर्म नहीं किया क्योंकि ये चारों विशेषताएं प्रत्येक मनुष्य में स्वाभाविक ऐवम आवश्यक रूप में विद्यमान रहती ही हैं l

प्रत्येक सामान्य मनुष्य के शरीर में प्रकृति प्रदत्त विशेषताओं की अभिव्यक्ति मात्र के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र परिभाषित किया गया है - न कि मनुष्य जाति को उच्च - निम्न वर्गीकृत कर के - आपस में विद्वेष पैदा कर के - आपस में युद्ध करा कर दुखार्जन ऐवम अंततः नष्ट होने के लिए l

कोई भी व्यक्ति केवल ब्राह्मण, अथवा केवल क्षत्रिय, अथवा केवल वैश्य, अथवा केवल शूद्र कैसे हो सकता है ? यह विचार मात्र अप्राकृतिक है - असंभव है l

तथाकथित श्रेष्ठंतम ब्राह्मण भी जब तक सर्वप्रथम शूद्र कर्म अर्थात मल मूत्र त्याग ऐवम तदपश्चात मलद्वार को अपने करकमलों से धो कर हस्त प्रक्छालन, दन्त प्रक्छालन, स्नानादि कर्म अर्थात इन समस्त शूद्र कर्मों से निवृत नहीं हो जाता तब तक वह किसी भी प्रकार का ब्राह्मण कर्म नहीं कर सकता l

यही बात व्यवहारिक रूप से सभी पर लागू होती है l

यदि कोई अज्ञानवश ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को प्राकृतिक शारीरिक अवस्था न मान कर मनुष्य जाति का विभाजन करने के लिए उन्हें वर्गीकृत करने का दुष्कर्म करता है तो फिर उस अज्ञानी को चाहिए कि वो केवल अपने वर्ण का ही कार्य करे - दूसरे किसी भी वर्ण का कार्य कदापि न करे l

जरा गंभीरतापूर्वक विचार करें - तथाकथित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लेशमात्र भी शूद्र कर्म न करे - मल मूत्र विसर्जन न करें - न ही शरीर की किसी भी प्रकार की सफाई करें - मल मूत्र निकल जाये - जो अवश्यम्भावी रूप से निकलेगा चाहे जितना रोकने का प्रयत्न करो - तो फिर मल को ऐसे ही अपने शरीर पर लगा रहने दो - आखिर तथाकथित श्रेष्ठ वर्ण का मल है - सहेज कर रखे रखो ना l

उसी प्रकार यदि क्षत्रिय का कार्य रक्षा करना है तो वे फिर केवल रक्षा कार्य ही करें - पठन-पाठन , विद्यार्जन, कोई भी मानसिक कार्य न करें, किसी भी प्रकार का लेन देन अर्थात व्यापार न करें और न ही किसी भी प्रकार की सफाई करें |

वैश्य भी पठन-पाठन , विद्यार्जन, कोई भी मानसिक कार्य न करें, न ही अपनी या आपने परिवार की रक्षा करें और न ही किसी भी प्रकार की सफाई करें |

भारतवर्ष के पतन ऐवम निरंतर विपत्तिग्रस्त रहने का एक मात्र कारण वर्ण व्यवस्था को बिलकुल न के बराबर समझ पाना था एवं दुर्भाग्यवश आज भी वही स्थिति बनी हुई है |

मैंने कई बार कई उच्च जातियों ब्राह्मण ,राजपूतो ,बनियों की  डिस्पेंसरी में एक भंगी के पैरों के घाव की धुलाई और फिर दवा लगा कर बैंडेज बाँधते हुए और फिर खाने की दवा देकर  पैसे लेते हुए उसे घाव की ड्रेसिंग के लिए २ दिनों बाद दुबारा बुलाते हुए देखा था | मैंने जिज्ञासा प्रकट की - पूछ लिया कि हम लोग तो उच्च जाती के  हैं और आप उस भंगी के पैर का घाव बड़ी सावधानी से साफ कर रहे थे | डाक्टर साब  ने मेरी जिज्ञासा का समाधान किया कि हम डाक्टर हैं औरडाक्टर का धर्म है मानव मात्र की चिकित्सा द्वारा सेवा - बिना किसी भी प्रकार के भेदभाव के ऐवम बिना किसी भी प्रकार के द्रव्य (धन) प्राप्ति की आशा के (हलाकि देखा जाए तो द्रब्य के बिना कुछ नहीं होता है) परन्तु डाक्टर साब फिर यह भी बताया कि  चिकित्सा प्राप्त करने वाले के क्या कर्तव्य हैं |

 उपरोक्त दोनों प्रकरण मेरे जाति ऐवम वर्ण व्यवस्था विषयक विचारों को एक नई दिशा देने में समर्थ हुए |

मैं एक शुद्र (लुहार, Steel manufacturer) के यहाँ नौकरी करता था (मैं गेअर बनाने के कारखाने में इंजीनियर था ) अर्थात मैं शुद्र का सेवक हुआ | विपणन व्यवस्थापक हूँ - शत प्रतिशत दिमाग का काम है - अतः ब्राह्मण हुआ | इस तरह जो लोग किसी भी प्रकार का मानसिक कार्य करते हैं वे सभी कर्म से ब्राह्मण हैं |

समाज को एक शरीर समझ लिया जाय तो किसी भी भाग को कम महत्त्व वाला नहीं कह सकते |

शरीर गतिशील तभी रह सकता है जब उसके कमर के नीचे का हिस्सा (तथाकथित शूद्र) सुदृढ़ हो |

सिर (ब्राह्मण) + क्षत्रिय (भुजाएं) + वैश्य (उदर) सब बहुत सुदृढ़ हों परन्तु कमर के नीचे का हिस्सा (तथाकथित शूद्र) काम नहीं करता हो अथवा एकदम कमजोर हो वह शरीर बस एक जगह पड़ा रहेगा | ऐसे शरीर पर तो कोई भी कुत्ता आ के मूत जाये तो सिर (ब्राह्मण) + क्षत्रिय (भुजाएं) + वैश्य (उदर) सब उसे कोसने एवं लाचार हो कर सहन करने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकते हैं | पिछले २००० वर्षों से यदि यह नहीं हो रहा है तो ओर क्या हो रहा है ?

इसके विपरीत - यदि कमर के नीचे का हिस्सा (तथाकथित शूद्र) सुदृढ़ होता तो भुजाओं को तलवार छोड़ लाठी भी नहीं उठानी पड़ती क्योंकि आस पड़ोस के एक भी कुत्ते को एक बार जोरदार लात की पड़ती तो बाकी के कुत्ते दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते |

आज भी भारत के शरीर के कमर के नीचे के भाग को सुदृढ़ करने की बहुत आवश्यकता है | और वैसे देखा जाय तो सिंहासन पर न तो सिर बैठता है - न भुजाएं - न उदर - सिंहासन पर तो कमर के नीचे का हिस्सा ही बैठता है |

इन सब बातो के बिस्लेषण के बाद मैं कह सकता हु की हम सभी सूद्र है ............जय जय श्री राम ....

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ये सब ताङन के अधिकारी

तुलसीदास ने कहा है कि " ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ये सब ताङन के अधिकारी " इसमें ढोल की डोरियों से उसके पुरे कसे रहे तो बेहतर आवाज निकलेगी..इसमें किसी को कोईआपत्ति नहीं होगी . गंवार याने दुष्ट या मूरख भी यदि डांट डपट या दन्ड से भयभीत रहे तो सही चलेगा..इसका भी सभी एक स्वर में समर्थन करते हैं . शूद्र का अर्थ जैसा कि लोग लगाते है हमेशा ही निम्न जातियां नहीं है इसका असली अर्थ बहुत हटकर है फ़िर भी सामान्यतः छूत कर्मों के दुष्प्रभाव से बचने की सलाह है..अगर शूद्र का हम एक कामन रिजल्ट निकालें तो वो नीचता होगा..कर्म और स्वभाव की नीचता..इससे दूर रहना भी अच्छा ही है !.शूद्र और स्त्री को एक साँस में ढोल आदि के साथ रखने और ताडन का पात्र बताने वाली चौपाई की अनेक प्रकार से व्याख्याएं हो चुकी हैं। '
पशु..पशु को भी नियंत्रण में रखना चाहिये इससे भी कोई असहमत न होगा..नारी ? जब भी सतसंग या किसी प्रकार की चर्चा में तुलसी का ये दोहा चर्चा का विषय होता है तुलसी अच्छी खासी आलोचना का शिकार होते हैं..तुलसी ने इस दोहे में शूद्र और नारी का जिक्र करके मानों आफ़त मोल ले ली हो..जबकि मैं कहता हूँ कि आप धर्म शास्त्रों की a b c d भी अगर ठीक से जानते होते तो तुलसी की ये बात आपको एकदम सटीक लगती सबसे पहले तो जब इस तरह की चर्चा अपने चरम पर होती है..और विरोध की आग विकरालता धारण कर लेती है..लोग सोचते हैं कि तुलसी सठिया गये थे जो शूद्र और नारी का जिक्र किया . मैं कहता हूँ जिस रामायण को आप इतनी श्रद्धा और आदर देते हैं । आपके घरों में उसके अखन्ड पाठ का आयोजन होता है और निर्विवाद तुलसी को सामाजिक सम्मान और संत की उपाधि प्राप्त है । तो वो यूँ ही तो हरगिज नहीं है । इसलिये अगर तुलसीदास ने नारी को नियंत्रण मे रखने की बात कही है तो उसके निहितार्थ साधारण तो हरगिज नहीं होंगे ।
अब यदि एक नारी के तौर पर आपसे नियंत्रण या ताङना की बात कही जाय तो निसंदेह यह बात कङवी और अप्रिय लगती है परन्तु जब आपकी खुद की लङकी जवानी की दहलीज पर कदम रखती है तो फ़िर ढेरों ऊँच नीच विचार आपके दिमाग में स्वयँ आने लगते है और आप तरह तरह की हिदायतों से उसे लैस रखने की कोशिश करती है । आप उन नारियों के परिणाम देखे जिन्होने उन्मुक्त यौन जीवन या नारी के लज्जा सहनशीलता स्नेह शर्मीलापन से इतर मुँहफ़ट फ़ूहङ बेशर्म स्टायल जीवन जीने की कोशिश की आज समाज में उनकी क्या स्थिति है...ये तो ऐसी ही है...वो बङी वैसी है ..जैसे कमेंट मैंने औरतों से औरतों के लिये सुने है और सब गाँव की भौजाई..जैसी इमेज उनकी स्वतः ही बन गयी । मैं नारी की शिक्षा का विरोध हरगिज नहीं करता
प्राचीनकाल में गार्गी मैत्रेयी अनसूया आदि अनेको विदुषी नारियाँ हुयी हैं । मैं नारी के अंगप्रदर्शन से भी असहमत नहीं हूँ पर जैसा कि किसी कवि ने कहा है..कि अधखुले कुच ( उरोज ) कटि प्रदर्शन
विभिन्न श्रंगार नारी के सौन्दर्य को कई गुना बङा देते है पर इसकी मर्यादा पार होते ही बे फ़ूहङता की श्रेणी में आ जाते है । आज जो भी प्रदर्शन हो रहा है वो अधिकतर फ़ूहङ श्रेणी का अधिक है । नारी मुक्ति के नाम पर बेशर्मी और उन्मुक्त यौन जीवन की चाह अधिक नजर आती है और इसका अन्त गहरे अन्धकारमय गढ्ढे में जाकर खत्म होता है । जिससे निकलने का फ़िर कोई रास्ता नहीं बचता और आपका परलोक तो निश्चय बिगङता ही है इसलिये नारी के लिये क्या बेहतर है ये नारी स्वयँ ही तय कर सकती है और खुशी की बात है कि आज की नारियाँ धीरे धीरे ही सही इस मामले में बेहद जागरूक होती जा रही है । देखिये तुलसी क्या कह रहे है..गौर से पढें...।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।।बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अधं बधिर क्रोधी अति दीना।।ऐसेहु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। काय बचन मन पति पद प्रेमा।।जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं। बेद पुरान संत सब कहहिं।।उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहु आन पुरुष जग नाहीं।।मध्यम परपति देखइ कैसे। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।।धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।।बिनु अवसर भय ते रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई।।पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई।।छन सुख लागि जनम सत कोटि। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी।।बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई।।पति प्रतिकुल जनम जहं जाई। बिधवा होई पाई तरुनाई।।
केहि बिधि अस्तुति करों तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महं मैं मतिमंद अघारी।।कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउं एक भगति कर नाता।।

!!भारतीय राजनीति में सुरा सुंदरी का प्रभाव !!

लोक कथाओं एवं वैदिक ग्रंथों के अनुसार प्राचीन युग में विषकन्या का प्रयोग राजा अपने शत्रु का छलपूर्वक अंत करने के लिए किया करते थे। इसकी प्रक्रिया में किसी रूपवती बालिका को बचपन से ही विष की अल्प मात्रा देकर पाला जाता था और विषैले वृक्ष तथा विषैले प्राणियों के संपर्क से उसको अभ्यस्त किया जाता था। इसके अतिरिक्त उसको संगीत और नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी, एवं सब प्रकार की छल विधियाँ सिखाई जाती थीं। अवसर आने पर इस विषकन्या को युक्ति और छल के साथ शत्रु के पास भेज दिया जाता था। इसका श्वास तो विषमय होता ही था, परंतु यह मुख में भी विष रखती थी, जिससे संभोग करनेवाला पुरुष रोगी होकर मर जाता था।और आज की भारतीय राजनीत में बिष कन्या का प्रयोग हो रहा है बस प्रयोग का तौर-तरीका बदल गया है ,,आज के नेता खुद ही बिष कन्याओं के पास जा रहे है उनके रूप के मोह पाश में फस कर ,और यह बिष कन्याये सुरा, सुन्दरी के साथ सत्ता में अच्छे-अच्छों को पथ भ्रष्ट कर देती हैं। यूं तो सुरा और सुन्दरी का चोली दामन का ही संबंध रहा है। इतिहास गवाह है कि अधिकांश घटने वाली घटनाओं के मूल में ये ही रही है। रेगिस्तान में यूं तो रेत के बवंडर उठा ही करते है लेकिन, राजनीति के क्षेत्र में सेक्स स्केण्डल के बवंडर ने महीपाल सिंह मदेरणा और रामलाल जाट को अपनी चपेट में ले लिया है, जिससे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की राजनीतिक स्थिति की बुरी तरह किरकिरी अपने हाई कमान की नजरों में हुई है।
भवरी देवी का मामला चूंकि उनके गृह क्षेत्र के अस्पताल का होने से भी और भी गंभीर हो गया है। यूँ तो भवरी-महीपाल सेक्स की आंधी पहले से ही चलती रही। लेकिन इसका असर सितम्बर माह में भवरी के अचानकलापता होने के कारण उसके पति अमरचंद विलाड़ा द्वारा पुलिस को थाने में रिपोर्ट दर्ज कराते समय भवरी के अपहरण एवं हत्या की आशंका को ले महिपाल मदेरणा जो गहलोत सरकार में जल संसाधन मंत्री रहे पर लगायाएवं थाने मैं एफ.आई.आर.दर्ज कराई। जिसके परिणाम स्वरूप मदेरणा को अपनी कुर्सी की बली देनी पड़ी। हालांकिअपहरण काण्ड का मुख्य आरोपी शहाबुद्दीन है।पुलिस द्वारा प्रारंभिक जांच में मदेरणा भवरी से अपने संबंधों कोनकारते ही नजर आये जैसा कि हर एक के साथ होता भी है। लेकिन, पुलिस ने मदेरणा को भंवरी देवी के साथबिताए अंतरंग क्षणों की सी.डी. दिखाई तो अब उनके पास बहाने बनाने के सारे रास्ते ही बंद हो गए। यं तोनेताओं पर इस तरह के आरोप आए दिन देखने को मिलते ही रहते है।
वैसे भी सियासत में अवैध सेक्स संबंधों कोले पहले ही कई दिग्गज नेता अवैध सेक्स में डूब सियासत के समुंदर के तट पर बदनामी के थपेडों से लड़ अधमरेसे पड़े हुए हैं। ऐसे ढ़ेरों उदाहरण है मसलन उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. नारायणदत्त तिवारी जिनका भी एकमहिला से अवैध संबंधों के चलते उत्पन्न पुत्र का मामला कोर्ट में विचाराधीन है। उत्तर प्रदेश के ही एक मंत्रीअमरमणी त्रिपाठी का कवियत्री मधुमिता शुक्ला के बीच अवैध संबंधों के चलते उसकी हत्या कर दी गई थी।इसी तरह उत्तराखण्ड के पूर्व राजस्व मंत्री हरकसिंह रावत का बिन ब्याही माँ से संबंध के कारण अपने पद से न केवलहाथ धोना पड़ा बल्कि सी.बी.आई. ने उनके खिलाफ बलात्कार का भी प्रकरण दर्ज किया। नेना साहनी और सुशीलका अवैध संबंध तंदूर हत्याकाण्ड से चर्चित रहा। ऐसे ढे़रों और भी उदाहरण है ये तो मात्र बानगी है।
अब तो भारतीय जनता भी ये सब कुछ देखने एवं सुनने की आदी हो चुकी है। यहां तक तो सब ठीक हैकुछ नया नहीं है लेकिन, जब मदेरणा की धर्म पत्नि लीला मदेरणा जो खुद राजनीति में सक्रिय है ओर अपेक्सबैंक की चेयरपर्सन भी है। भारतीय सभ्यता में पली बढी है जिसमें पति परमेश्वर होता है और उसका साथ देनाउसका सबसे बडा धर्म भी होता है, के अनुरूप उन्होंने मीडिया को कहा कि ‘‘मेरे पति का लम्बा राजनीतिक केरियरहै जरूर उनका कोई राजनीतिक दुश्मन होगा?
मेरा पति निर्दोष है जांच में दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा।यहां तक तो उन्होंने पति धर्म के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को भी बचाया है और निभाया भी है लेकिन उनकावह बयान जिसमें उन्होंने कहा था कि में केव‘‘इस पुरूष प्रधान समाज में राजा-महाराजाओं के समय से ही यह सब कुछहोता आया है कोई पुरूष-महिला की सहमति से मिलता है तो इसमें गलत क्या है।’’ मीडियाकर्मी को भी आड़े हाथले कहा भंवरी को देवी नहीं कहा जा सकता क्या हिन्दुस्तान से  भंवरी ही गायब हुई है? जो मीडिया इस मुद्देको इतना तूल दे रहा है और भी कई औरते गायब हुई है?
हो सकता है लीला मदेरणा द्वारा दिया गया ये शर्मनाकबयान उनका निजी हो लेकिन उन्हंेयह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति में निजिता केवल घर के अंदर तक ही होती है। घर की दहलीज के बाहर तो सबसार्वजनिक है। इस लिहाज से और पूरी नारी समाज के हिसाब से इनके इस बयान की जितनी निंदा की जाए उतनाकम ही होगी। इनके इस निर्लज्ज बयान से पूरा नारी समाज अपने को अपमानित महसूस कर रहा है। दूसरा इसपुरूष प्रधान समाज में नारी ही नारी के शोषण की वकालत कर रही है।
यह मुद्दा पूरे देश में बुद्धिजीवियों के बीच मेंएक बहस का मुद्दा होना चाहिए? चूंकि कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी स्वयं एक महिला है, को इस प्रकरण मेंव्यक्तिगत रूचि ले नारी सम्मान की रक्षा के लिए दुर्गा का रूप धर आगे आ आताताईयों एवं व्यवचारियों को दण्डदेना ही चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की पुर्नरावृत्ति न हो। मैं चाहुगा कि लीला मदेरणा को भी अपने पुरूष-नारी संबंधों को ले दिये गये बयानों को ले पूरे नारी समाज से भी खेद व्यक्त करना चाहिए आखिर नारी अस्मिता का जो सवाल है।