भारत में प्रत्येक जाति दूसरी जाति के प्रति अछूत सा व्यवहार करती है. सम्भवत: ऐसे गुणों से सुसज्जित अम्बेडकरवादी कुछ अगड़ी अछूत जातियों ने भी भंगी को उसी सामंतवादी नजरिये से देखा. जहां वे एक ओर सवर्णों पर समानता का दबाव बना रहे थे वहीं दूसरी ओर वे भंगियों से वही रूखा व्यवहार करने में कोई गूरेज नही कर रहे थे. इसका परिणाम यह हुआ भंगी अछूतों में अछूत हो गये. कई भंगी समुदाय के बुद्धिजीवी दलित आंदोलन में शामिल हुए किन्तु अन्य अगड़े अछूत जातियों के जातिगत प्रश्न पर उन्हें भी बगले झांकने के लिए मजबूर होना पड़ता, इस तरह वे भी ज्यादा समय तक आंदोलन की मुख्यधारा में नहीं ठहर पाए. आम कामगारों की बात क्या करें मैं इन्ही सभी बातो से दुखी हो कर कहता हु की मैं ही नहीं सभी भंगी है चौंकिए मत; भंगी के दो अर्थ होते हैं -
(१) शाब्दिक अर्थ है भंग करने वाला |
सब से बड़ा बंधन अज्ञान का है |
अज्ञान और अंधकार एक ही है |
अज्ञान रूपी अंधकार का भंजक गुरु ही सच्चा भंगी है |
गुरु अज्ञान रूपी गंदगी की सफाई कर के विचारों को स्वच्छ करता है |
भारतवर्ष में महान भंगी (गुरु) पैदा हुए हैं जिन्होंने लोगों के अज्ञान को समाप्त करने का अथक प्रयास किया परन्तु लोग इतने गंदगी-पसंद हैं कि अपनी मानसिक गंदगी को साफ होने ही नहीं देते |
(२) भंगी का आरोपित अर्थ है - सफाई करने वाला l मैं दोनों प्रकार का भंगी हूँ l यद्यपि मैं उच्च राजपूत कुल में जन्म लिया है - चालुक्य राजपूत , भरद्वाज गोत्र - तदापि, मैंने अनुभव किया कि मेरे जन्मदाता माता पिता ऐवम पितामह भंगी थे, नाना श्री भी भंगी थे l भंगी का आरोपित अर्थ है गंदगी की सफाई करने वाला; तो मेरी माता भंगी थीं और भंगी हैं l वे हीं मेरी गंदगी - मल मूत्र को साफ करती थीं और हम सब को शरीर, मन, घर को साफ रखने की शिक्षा दी l इस प्रकार से मैं भंगी से उत्पन्न हुआ, भंगी से प्रथम शिक्षा प्राप्त की l मेरी जननी ऐवम प्रथम गुरु भंगी है l मेरे पिता भी भंगी थे l वे कहते थे - लीकहि लीक तीनो चले - कायर, कुटिल, कपूत, लीक छोड़ तीनो चले - शायर, सिंह, सपूत l मेरे पिता, ने सदैव रुढ़िवादी मान्यताओं को भंग किया, अंधविश्वासों को भंग किया - अतः वे भंगी थे l
मेरे पितामह से मैंने अपने किशोरावस्था में जाति वर्ण विषयक एक जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र क्या होते हैं ? कैसे होते हैं ? अर्थात कैसे बनते अथवा बनाये जाते हैं ? ऐवम कौन बनता है ? अर्थात इस वर्ण व्यवस्था का निर्धारण कौन करता है ? उन्होंने विस्तृत उत्तर दे कर मेरी जिज्ञासा का समाधान किया वह पूर्ण रूप में यहाँ उधृत करना संभव नहीं है - तदापि सूक्ष्म रूप में - सारांश में - निष्कर्ष यह है कि भारत के महान मनीषियों ने मनुष्य जाति के दैनिक कार्य कलापों का गूढ़ अध्ययन कर उन्हें चार प्रकार की विशेषताओं में निष्णात पाया l यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति - स्त्री अथवा पुरुष - अपने दैनिक कार्य कलापों- गतिविधियों के अनुसार शूद्र अर्थात शारीरिक सफाई का कार्य, ज्ञानार्जन अर्थात ब्राह्मण का कार्य, जीविकोपार्जन अर्थात वैश्य का कार्य ऐवम स्वतः की, परिवार की, समाज की, देश की, प्रकृति प्रदत्त सम्पदा की रक्षा करता है अर्थात क्षत्रिय का कार्य करता है l
भारत के महान मनीषियों ने कभी भी इन चार विशेषताओं का विभाजन कर के मनुष्य को चार वर्णों में विभाजित करने का नीच कर्म नहीं किया क्योंकि ये चारों विशेषताएं प्रत्येक मनुष्य में स्वाभाविक ऐवम आवश्यक रूप में विद्यमान रहती ही हैं l
प्रत्येक सामान्य मनुष्य के शरीर में प्रकृति प्रदत्त विशेषताओं की अभिव्यक्ति मात्र के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र परिभाषित किया गया है - न कि मनुष्य जाति को उच्च - निम्न वर्गीकृत कर के - आपस में विद्वेष पैदा कर के - आपस में युद्ध करा कर दुखार्जन ऐवम अंततः नष्ट होने के लिए l
कोई भी व्यक्ति केवल ब्राह्मण, अथवा केवल क्षत्रिय, अथवा केवल वैश्य, अथवा केवल शूद्र कैसे हो सकता है ? यह विचार मात्र अप्राकृतिक है - असंभव है l
तथाकथित श्रेष्ठंतम ब्राह्मण भी जब तक सर्वप्रथम शूद्र कर्म अर्थात मल मूत्र त्याग ऐवम तदपश्चात मलद्वार को अपने करकमलों से धो कर हस्त प्रक्छालन, दन्त प्रक्छालन, स्नानादि कर्म अर्थात इन समस्त शूद्र कर्मों से निवृत नहीं हो जाता तब तक वह किसी भी प्रकार का ब्राह्मण कर्म नहीं कर सकता l
यही बात व्यवहारिक रूप से सभी पर लागू होती है l
यदि कोई अज्ञानवश ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को प्राकृतिक शारीरिक अवस्था न मान कर मनुष्य जाति का विभाजन करने के लिए उन्हें वर्गीकृत करने का दुष्कर्म करता है तो फिर उस अज्ञानी को चाहिए कि वो केवल अपने वर्ण का ही कार्य करे - दूसरे किसी भी वर्ण का कार्य कदापि न करे l
जरा गंभीरतापूर्वक विचार करें - तथाकथित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लेशमात्र भी शूद्र कर्म न करे - मल मूत्र विसर्जन न करें - न ही शरीर की किसी भी प्रकार की सफाई करें - मल मूत्र निकल जाये - जो अवश्यम्भावी रूप से निकलेगा चाहे जितना रोकने का प्रयत्न करो - तो फिर मल को ऐसे ही अपने शरीर पर लगा रहने दो - आखिर तथाकथित श्रेष्ठ वर्ण का मल है - सहेज कर रखे रखो ना l
उसी प्रकार यदि क्षत्रिय का कार्य रक्षा करना है तो वे फिर केवल रक्षा कार्य ही करें - पठन-पाठन , विद्यार्जन, कोई भी मानसिक कार्य न करें, किसी भी प्रकार का लेन देन अर्थात व्यापार न करें और न ही किसी भी प्रकार की सफाई करें |
वैश्य भी पठन-पाठन , विद्यार्जन, कोई भी मानसिक कार्य न करें, न ही अपनी या आपने परिवार की रक्षा करें और न ही किसी भी प्रकार की सफाई करें |
भारतवर्ष के पतन ऐवम निरंतर विपत्तिग्रस्त रहने का एक मात्र कारण वर्ण व्यवस्था को बिलकुल न के बराबर समझ पाना था एवं दुर्भाग्यवश आज भी वही स्थिति बनी हुई है |
मैंने कई बार कई उच्च जातियों ब्राह्मण ,राजपूतो ,बनियों की डिस्पेंसरी में एक भंगी के पैरों के घाव की धुलाई और फिर दवा लगा कर बैंडेज बाँधते हुए और फिर खाने की दवा देकर पैसे लेते हुए उसे घाव की ड्रेसिंग के लिए २ दिनों बाद दुबारा बुलाते हुए देखा था | मैंने जिज्ञासा प्रकट की - पूछ लिया कि हम लोग तो उच्च जाती के हैं और आप उस भंगी के पैर का घाव बड़ी सावधानी से साफ कर रहे थे | डाक्टर साब ने मेरी जिज्ञासा का समाधान किया कि हम डाक्टर हैं औरडाक्टर का धर्म है मानव मात्र की चिकित्सा द्वारा सेवा - बिना किसी भी प्रकार के भेदभाव के ऐवम बिना किसी भी प्रकार के द्रव्य (धन) प्राप्ति की आशा के (हलाकि देखा जाए तो द्रब्य के बिना कुछ नहीं होता है) परन्तु डाक्टर साब फिर यह भी बताया कि चिकित्सा प्राप्त करने वाले के क्या कर्तव्य हैं |
उपरोक्त दोनों प्रकरण मेरे जाति ऐवम वर्ण व्यवस्था विषयक विचारों को एक नई दिशा देने में समर्थ हुए |
मैं एक शुद्र (लुहार, Steel manufacturer) के यहाँ नौकरी करता था (मैं गेअर बनाने के कारखाने में इंजीनियर था ) अर्थात मैं शुद्र का सेवक हुआ | विपणन व्यवस्थापक हूँ - शत प्रतिशत दिमाग का काम है - अतः ब्राह्मण हुआ | इस तरह जो लोग किसी भी प्रकार का मानसिक कार्य करते हैं वे सभी कर्म से ब्राह्मण हैं |
समाज को एक शरीर समझ लिया जाय तो किसी भी भाग को कम महत्त्व वाला नहीं कह सकते |
शरीर गतिशील तभी रह सकता है जब उसके कमर के नीचे का हिस्सा (तथाकथित शूद्र) सुदृढ़ हो |
सिर (ब्राह्मण) + क्षत्रिय (भुजाएं) + वैश्य (उदर) सब बहुत सुदृढ़ हों परन्तु कमर के नीचे का हिस्सा (तथाकथित शूद्र) काम नहीं करता हो अथवा एकदम कमजोर हो वह शरीर बस एक जगह पड़ा रहेगा | ऐसे शरीर पर तो कोई भी कुत्ता आ के मूत जाये तो सिर (ब्राह्मण) + क्षत्रिय (भुजाएं) + वैश्य (उदर) सब उसे कोसने एवं लाचार हो कर सहन करने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकते हैं | पिछले २००० वर्षों से यदि यह नहीं हो रहा है तो ओर क्या हो रहा है ?
इसके विपरीत - यदि कमर के नीचे का हिस्सा (तथाकथित शूद्र) सुदृढ़ होता तो भुजाओं को तलवार छोड़ लाठी भी नहीं उठानी पड़ती क्योंकि आस पड़ोस के एक भी कुत्ते को एक बार जोरदार लात की पड़ती तो बाकी के कुत्ते दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते |
आज भी भारत के शरीर के कमर के नीचे के भाग को सुदृढ़ करने की बहुत आवश्यकता है | और वैसे देखा जाय तो सिंहासन पर न तो सिर बैठता है - न भुजाएं - न उदर - सिंहासन पर तो कमर के नीचे का हिस्सा ही बैठता है |
इन सब बातो के बिस्लेषण के बाद मैं कह सकता हु की हम सभी सूद्र है ............जय जय श्री राम ....