रविवार, 27 जुलाई 2014

भारत ने कारगिल युद्ध क्या सबक लिया ? Part 2


इंटलीजेंस "इंटेलीजेंट" नहीं
कारगिल युद्ध की भनक न लगने में बड़ी खामी हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी मानी जाती है। उसके बाद बहुत सारे इंटेलीजेंस एकत्र करने के समूह बना तो दिए हैं लेकिन आज भी आपसी समन्वय का भारी अभाव देखने को मिलता है। आईबी खुद को सबसे ज्यादा "सुपीरियर" समझती है तो रॉ में यह ग्रंथि (कॉम्प्लेक्स) है कि सिर्फ वही सबसे बढिया जासूसी करती है। 26/11 के आतंकी हमले के बाद एनआईए अस्तित्व में आ गया लेकिन आतंकी घटनाएं रोकने में हम अभी भी कमजोर हैं। एक खामी सुधारने के लिए हमने चार-पांच संगठन तो बना दिए लेकिन ये पूछा जाना चाहिए कि कारगिल और आज के बीच में इंटेलीजेंस ने कितना बड़ा मुकाम हासिल कर लिया है? कारगिल में हमारी एजेंसियां सोती रहीं। उसके बाद 26/11 का हमला हुआ। वो भी पाकिस्तान की तरफ से हुआ। उसकी भी भनक नहीं लगी।

कब गंभीर होंगे हम?
रक्षा पर हमारी गंभीरता इसी से पता लग जाती है कि जो सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड बनाया गया था, उसके पदाधिकारी मिलते ही नहीं है। खाली बडे-बड़े ऎलान कर देने से स्थितियां नहीं बदलेंगी। हम सुरक्षा के लिए अभी भी दिखावटी चीजों पर ज्यादा पैसा बहाते हैं। लेकिन जहां पर सेना को तैयार करना है, जो जरूरी हथियार उसे देने हैं ताकि हमारी सीमाएं सुरक्षित रहें, वह कार्य तेजी से नहीं हो पाता है। पाकिस्तान के साथ-साथ चीनी बॉर्डर पर भी हमने बड़ी तरक्की नहीं की है। सिर्फ विदेश मंत्रालय में बैठे बाबू और नेता ही सोचते हैं कि हमने बड़ी तरक्की कर ली है। अगर पिछले 15 साल में आमने-सामने गोली नहीं चली है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सीमा पर अमन है। चीन चाहे जब हमारी सीमा में घुस आता है। नक्शे बदल देता है। चाहे जो ऎलान कर देता है। लेकिन हम कुछ नहीं कर पाते। बॉर्डर मैनेजमेंट को लेकर हमारी फौज, रक्षा मंत्रालय में नेता और बाबूओं के बीच आपसी तालमेल नहीं है।

इजरायल से सीखें
इजरायल हमारे आसपास ही आजाद हुआ था लेकिन आज वह दुनिया का बड़ा हथियार निर्यातक देश है। उसने ऎसे हथियार-उपकरण बनाए हैं जो अमरीका और यूरोप से भी आगे हैं। भारत के मुकाबले वह काफी छोटा देश है। लेकिन उसके जैसे मिसाइल, टैंक अमरीका ने भी नहीं बनाए। लेकिन हम हथियार आयात पर ही टिके हैं। 70 फीसद आयात करते हैं। हमारी डिफेंस इंडस्ट्री की स्वदेशी हथियार निर्माण में कोई दिलचस्पी नहीं है। ज्यादा से ज्यादा बाहर से सामान खरीदकर यहां एसेम्बल कर दिया जाता है। लेकिन बुनियादी समस्या यह है कि हमने हथियार निर्माण में कोई इनोवेशन नहीं किया है। हथियार खरीद की प्रक्रिया भी बहुत ढीली है।

सरकारी कम्पनियों ने कभी निजी कम्पनियों को आने नहीं दिया। सेनाध्यक्ष नए हथियार पर जोर देते रहे और ए के एंटनी जैसे रक्षा मंत्री अपने दामन पर दाग लगने की आशंका के चलते खरीद ही नहीं होने देते थे। अब जाकर 49 फीसदी एफडीआई किया गया है। इससे थोड़ी उम्मीद की जा सकती है। जब बाहरी देशों ने अपनी मिसाइल बेचने पर प्रतिंबध लगाया तो हमने अपने दम पर ऎसी मिसाइलें बना दीं कि आज हम वल्र्ड लीडर हैं, वैसे ही बाकी हथियारों में बन सकते हैं। लेकिन ऎसा दबाव न होने की वजह से हम आयात पर ही टिके रहना चाहते हैं।

कारगिल में धोखा
वष्ाü 1999 के मई महीने में पाकिस्तानी सेना ने अफगानी लड़ाकुओं और अनियमित सेनाओं को लेकर करगिल और द्रास क्षेत्र में भारतीय सेनाओं द्वारा छोड़ी गई चौकियों पर कब्जा कर लिया। दो महीने से ज्यादा चले इस युद्ध में भारतीय सेना ने 26 जुलाई 1999 को कारगिल में फतह पा ली। इस युद्ध में लगभग 527 से अधिक भारतीय जवान शहीद हुए वहीं 1300 से ज्यादा घायल हो गए। पाकिस्तान की तरफ से आधिकारिक तौर पर 453 सैनिकों के मरने और 665 से अधिक सैनिकों के घायल होने की पुष्टि की गई।

बाज नहीं आया पाकिस्तान
देश के रक्षा मंत्री अरूण जेटली ने सदन को बताया कि चालू वर्ष में पाकिस्तान ने 54 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया। 26 मई को नई सरकार के सत्ता में आने के बाद से 19 बार से ज्यादा घुसपैठ की कोशिशें हो चुकी हैं। 22 जुलाई को पाकिस्तान की तरफ से अखनूर सेक्टर में फायरिंग की गई जिसमें एक जवान शहीद एवं दो घायल हो गए। जुलाई महीने के पहले पखवाड़े में दर्जनों बार पाकिस्तानी सेना ने भारतीय क्षेत्र में फायरिंग की। 8 जनवरी, 2013 को पाकिस्तानी सैनिक दो भारतीय सैनिकों का सिर काट ले गए।

उजागर हुई खामियां
कारगिल युद्ध ने भारत के खुफिया एजेंसियों पर सवाल खड़े किए।
पाकिस्तानी घुसपैठ का सही आंकलन लगाने में देरी हुई, राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा निर्णय लेने में देरी।
भारतीय रक्षा बलों में आपसी तालमेल का अभाव खुलकर सामने आया।

31 भारतीय जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी है पिछले चार साल के दौरान पाकिस्तानी गोलीबारी में।

फाइटिंग फोर्स बनें, सरकारी नौकर नहीं

एस. कृष्णास्वामी पूर्व वायुसेना प्रमुख
कारगिल के बाद हम काफी मजबूत हुए हैं। हमने हथियार तंत्र में बदलाव किया है। आपसी समन्वय अच्छा हो गया है। लेकिन अब कम्युुनिकेशन, डिसिजन मेकिंग तेज हो गया है। इंटेलीजेंस, रिस्क भांपने की क्षमता और हथियार ज्यादा सटीक हैं। कारगिल में इंटेलीजेंस नाकामी के लिए काफी आलोचना हुई थी लेकिन अभी हालात बदल चुके हैं। सेना की ताकत भी बेहतर हुई है। लेकिन हमें ज्यादा सतर्क रहना होगा। पाकिस्तान आतंकवाद पर भरोसा करता है, वो हमारे खिलाफ कोई मौका नहीं छोड़ना चाहेगा।

1947 से लेकर अभी तक पाकिस्तान लगातार चौंकाने वाली पहल करता रहा है। हर बार वो हारा है। इसलिए वह फिर हमला कर सकता है, भले ही वह कारगिल जैसा नहीं हो। जैसे 26/11 का सरप्राइज हमला किया। अक्सर सेनाओं द्वारा हथियारों की कमी, आधुनिकीकरण न हो पाने और निर्णय लेने में सुस्ती की बात की जाती है लेकिन हमें इन कमियों की वजह से तैयारी में कसर नहीं छोड़नी चाहिए। हमें मानकर चलना चाहिए कि जो साजो-सामान हमारे पास है, उससे हम कैसे हैंडल करेंगे। हमारे मैथड्ज धीमे हैं लेकिन एकदम से जो चाहें वो नहीं खरीद सकते हैं।

सरकार को सेना से सवाल पूछने का हक है और उसे जरूरत स्पष्ट करनी चाहिए। आखिरकार यह सब सामान करदाताओं के धन से ही खरीदा जाता है। हालांकि दुनिया में कभी भी किसी मिलिट्री के पास पर्याप्त हथियार और सामान नहीं होंगे। हमेशा कुछ न कुछ जरूरत बनी रहती है। सेना के पास आवश्यक आधुनिक हथियार और उपकरण रहने चाहिए लेकिन उन्हें चलाने का प्रशिक्षण और उनसे लड़ने की तैयारी भी रखनी चाहिए। रणनीतिक स्तर पर पूरी तैयारी पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसी को देखते हुए रखनी चाहिए। सेना के पास यह रणनीति होनी चाहिए कि फिलहाल युद्ध जैसी स्थिति बन गई तो कैसे सामना किया जाएगा। सवाल फिर मिलिट्री से पूछा जाएगा।

सिर्फ जहाज, हथियार-उपकरण न होने का बहाना नहीं चलता है। जो कुछ अभी है, उसे सम्भालना भी तो जरूरी है। सेना को सुनिश्चित करना चाहिए कि अभी जो बंदूकें, जहाज और हथियार हैं वे ऑपरेशनल हैं कि नहीं। उनके स्पेयर पार्ट ठीक है कि नहीं, पर्याप्त बारूद है कि नहीं। नए हथियार लाने से पहले रक्षा मंत्री को पूछने का अधिकार है कि जो साजो-सामान अभी सेना के पास है, उसके साथ लड़ने की तैयारी है? हथियारों को चलाने, सैनिकों का जहाजों को उड़ाने का प्रशिक्षण पूरा है? क्योंकि एक फाइटर पायलट को प्रशिक्षण के लिए ही 3-4 साल लग जाते हेैं, ऎसे में कैसे जाना जाए कि वह सक्षम चालक है? हालांकि हरेक मिलिट्री में इंस्पेक्टर जनरल होता है, उसे इस बारे में जानकारी रहती है। लेकिन यह सरकार पर निर्भर होता है कि जिन नए हथियार और उपकरणों की मांग हो रही है, उसके मुकाबले मौजूदा हथियारों का स्टेटस क्या है। अगर वे ही ठीक नहीं है तो उन्हें ठीक करना चाहिए। सैनिकों से पूछा जाए कि वे हथियारों के संचालन में कितने दक्ष हैं? लड़ाई से पहले हमारी सेनाओं की क्षमताएं कैसी है, यह जांचना चाहिए। सीमा पर घुसपैठ से निपटने में नाकामी को दूर करना चाहिए।

सेनाओं की क्षमताओं की जांच होती रहनी चाहिए। जब उन्हें इतना पैसा, हथियार और सुविधाएं चाहिए तो उनकी तैयारियों का जायजा लेते रहना चाहिए। लड़ाई के बारे में सरकार उनके आइडिया लेते रहे। पहले उनके लिए जरूरी हथियार, मशीन, बारूद, जवान और लॉजिस्टिक्स का इंतजाम करे। सेनाओं के मनोबल पर नजर रहनी चाहिए। सेनाओं को भी सिर्फ अपने लिए मांगने वाला रवैया छोड़ना चाहिए। मुझे दुख होता है जब सेनाओं में स्किल्स की बजाय अपनी रैंक, पेंशन, सुविधाओं-भत्तों की आवाज ज्यादा सुनाई देती है। सेवा भाव की बजाय सिर्फ सरकारी नौकरी की सुविधाओं पर फोकस नहीं रहना चाहिए।
सिर्फ सैनिकों की भर्ती करने से ही सेना मजबूत नहीं हो जाएगी। उनकी उच्च स्तरीय टे्रनिंग पर भी फोकस रहना चाहिए। विक्रमादित्य को खड़ा कर तालियां बजाने से काम नहीं चलेगा। असली काम उसका संचालन है, जो कि इतना आसान नहीं है।

उसके लिए भारी प्रयास और वक्त चाहिए, पूरी टे्रनिंग चाहिए। नए-नए जहाज, हथियार खरीद लेना अलग बात है और उनका फाइटिंग स्टेटस ध्यान में रखना एकदम अलग। सरकार कोे क्रॉस चैकिंग के तरीके अपनाने चाहिए। सेनाओं द्वारा भी कमजोर सिस्टम के लिए सिर्फ ब्यूरोक्रेट पर आरोप लगाने से काम नहीं चलेगा। सब कुछ खराब नहीं है। अहम बात आपके कार्य करने का तरीका है। ब्रिटेन, अमरीका जैसे मुल्कों में भी ब्यूरोक्रेट हैं। वहां भी संसद की रक्षा में भूमिका है। हालांकि वहां ब्यूरोक्रेट्स के साथ मिलिट्री का तालमेल अच्छा है, जो हमारे यहां नहीं है। इसमें सुधार करने की जरूरत है। सेना को भी एक फाइटिंग फोर्स बने रहने की जरूरत है, वह कोई सरकारी नौकरी नहीं है। भले ही जवान कम हों, लेकिन वे फोकस्ड हों और स्किल्ड हों।


भारत ने कारगिल युद्ध क्या सबक लिया ? Part 1

अभी  देश ने  कारगिल विजय की 15वीं वर्षगांठ मनाया । युद्ध में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया लेकिन उस दौरान हमारी कई खामियां भी सामने आई। सवाल यह है कि हमने कारगिल युद्ध से सबक लिया कि नहीं ? क्या आज हमारी सेनाएं और खुफिया तंत्र देश की सरहदों को महफूज रखने में सफल हैं? या फिर सुरक्षा और सामरिक नीतियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है? जानते हैं विशेषज्ञों के नजरिए से...


मारूफ रजा रक्षा विशेषज्ञ

कारगिल के 15 साल बाद सीमा पर हमारी क्षमताओं में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। जिन ज्यादातर हथियार-उपकरणों की मांग पहले थी वो अभी भी जारी है। अभी हमारी सरकार का जोर "फोर्स मल्टीप्लायर" हथियारों पर रहता है, जो हाथी के दांत की तरह खाने के और, दिखाने के और रहते हैं। आज भी हमारी सीमाएं बहुत सुरक्षित नहीं हो गई हैं। आज भी आतंकवादी हमलों के बाद कारगिल जैसा हमला होने की ही आशंका है। अभी भी नियंत्रण रेखा पर तनाव बना हुआ है। बार-बार पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर का उल्लंघन होता है। हमारे सैनिक मारे जाते हैं।

समझौते के नाम पर धोखा
पाकिस्तान का सियाचिन और कश्मीर को हासिल करने का ख्वाब पुराना है। इसके लिए जब-तब वह नाकाम कोशिश करता रहा है। भारत-पाकिस्तान की सेनाओं के बीच जब एलओसी पर शांति बनाए रखने के लिए समझौता हुआ था तो उसमें यह भरोसा शामिल था कि सियाचिन क्षेत्र में सर्दी में बहुत कड़क बर्फ गिरती है तो दोनों मुल्कों की सेना की टोलियां बर्फीले पहाड़ों से नीचे आ जाएंगी ताकि सर्दी में उनका जीवन आसान हो जाए। बर्फ गिरना बंद होने के बाद दोनों देश फिर मोर्चा सम्भाल लेंगे। पर पाकिस्तान ने 1999 में सियाचिन पर भारत से धोखा किया।

दिक्कत यह है कि सियाचिन के ऊपर कोई सीमा रेखा दोनों देशों ने नहीं खींची है। नक्शे पर एक रेखा खींची हुई है, उसे ही जमीन पर एडजस्ट माना जाता है। कारगिल के पास कई जगह हंै, जहां दोनों मुल्कों के बीच बाउंड्री लाइन नहीं है। लेकिन कारगिल के पहाड़ों की चोटियों को ही दोनों देश नियंत्रण रेखा मानते रहे हैं। पर पाकिस्तान उस नियंत्रण रेखा को ही चुनौती देता आया है। कारगिल होने के बाद भी नवाज शरीफ को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने यह कहते हुए झटका दिया था कि पाकिस्तान नियंत्रण रेखा का सम्मान करे। कारगिल के बाद विश्व में बड़े-बड़े देशों ने पाकिस्तान को कहा कि वह नियंत्रण रेखा का सम्मान करे।

हमारी भी नाकामी
हालांकि भारत की सरकार, खासतौर पर पिछले दस साल में यूपीए सरकार यकीनन नियंत्रण रेखा को मानने के दबाव का फायदा नहीं उठा पाई। पाकिस्तान द्वारा 99 में हम पर हमला करने में अटल बिहारी वाजपेयी जी की भी पाकिस्तान के प्रति नीतिगत विफलता रही थी और अभी तक हम उससे सख्ती से नहीं निपट पाए हैं। जब तक पाकिस्तान के साथ अपने दम पर सख्ती से नहीं निपटेंगे, वह हमें ठेंगा दिखाता रहेगा। कारगिल के बाद भी भारत के राजनीतिक विचारों और डिप्लोमेटिक स्तर पर विफलता बनी हुई है। 15 साल बाद भी हमने पाकिस्तान के साथ पॉलिसी फ्रेमवर्क नहीं अपनाया ताकि कारगिल नियंत्रण रेखा को चुनौती देने से पाकिस्तान बाज आ सके। जब बड़े-बड़े देशों ने कह दिया कि पाकिस्तान को नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए तो क्यों नहीं हमारी सरकारों ने उस पर इसे बॉर्डर बनाने का दबाव डाला। उस नियंत्रण रेखा को बॉर्डर बनाने से कश्मीर पर हमारी चिंता कम हो जाएगी। पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि कश्मीर का मुद्दा खत्म हो जाए। वरना उसके पास भारत के खिलाफ कोई मुद्दा ही नहीं रहेगा।

फौज-बाबूओं में तालमेल नहीं
सेना के स्तर पर बात करें तो हथियार हमने पहले के मुकाबले काफी खरीदे हैं। कारगिल के बाद रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट का असर जमीन पर दिखाई भी दिया। कारगिल में जब हमारी सेना लड़ रही थी तो बहुत बुरा हाल था। सियाचिन पर तो काफी पैसा खर्च कर दिया था। लेकिन कारगिल के पहाड़ों में हमारे फौजियों के पास न तो उपयुक्त जूते थे और न ही गर्म कपड़े थे। रिव्यू कमेटी में सिस्टम को सुधारने की कर्ई और बातें भी इंगित की गई थीं। खासतौर पर साउथ ब्लॉक के नेशनल सिक्योरिटी मॉडल कोे रेखांकित किया था। नौकरशाही की क्या भूमिका रहे और फौज व उनके बीच तालमेल कैसे हो, उस बारे में लिखा गया था। लेकिन इस मामले में स्थिति वहीं की वहीं है। साउथ ब्लॉक में बैठी "बाबू" बिरादरी नहीं चाहती कि ऎसी स्थिति बन जाए, जहां उनका महत्व ही खत्म हो जाए। राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीतिक जमात तो गुमराह ही रही है, उन्हें ब्यूरोक्रेट ही चलाते रहे हैं। आज भी रक्षा मंत्रालय में जिम्मेदारी सम्भालने वाले नौकरशाहों का रक्षा के बारे में कोई स्पेशलाइजेशन नहीं होता है। कारगिल के बाद भी नौकरशाही और फौज के बीच स्थिति बदली नहीं है।