अभी देश ने कारगिल विजय की 15वीं वर्षगांठ मनाया । युद्ध में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया लेकिन उस दौरान हमारी कई खामियां भी सामने आई। सवाल यह है कि हमने कारगिल युद्ध से सबक लिया कि नहीं ? क्या आज हमारी सेनाएं और खुफिया तंत्र देश की सरहदों को महफूज रखने में सफल हैं? या फिर सुरक्षा और सामरिक नीतियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है? जानते हैं विशेषज्ञों के नजरिए से...
मारूफ रजा रक्षा विशेषज्ञ
कारगिल के 15 साल बाद सीमा पर हमारी क्षमताओं में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। जिन ज्यादातर हथियार-उपकरणों की मांग पहले थी वो अभी भी जारी है। अभी हमारी सरकार का जोर "फोर्स मल्टीप्लायर" हथियारों पर रहता है, जो हाथी के दांत की तरह खाने के और, दिखाने के और रहते हैं। आज भी हमारी सीमाएं बहुत सुरक्षित नहीं हो गई हैं। आज भी आतंकवादी हमलों के बाद कारगिल जैसा हमला होने की ही आशंका है। अभी भी नियंत्रण रेखा पर तनाव बना हुआ है। बार-बार पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर का उल्लंघन होता है। हमारे सैनिक मारे जाते हैं।
समझौते के नाम पर धोखा
पाकिस्तान का सियाचिन और कश्मीर को हासिल करने का ख्वाब पुराना है। इसके लिए जब-तब वह नाकाम कोशिश करता रहा है। भारत-पाकिस्तान की सेनाओं के बीच जब एलओसी पर शांति बनाए रखने के लिए समझौता हुआ था तो उसमें यह भरोसा शामिल था कि सियाचिन क्षेत्र में सर्दी में बहुत कड़क बर्फ गिरती है तो दोनों मुल्कों की सेना की टोलियां बर्फीले पहाड़ों से नीचे आ जाएंगी ताकि सर्दी में उनका जीवन आसान हो जाए। बर्फ गिरना बंद होने के बाद दोनों देश फिर मोर्चा सम्भाल लेंगे। पर पाकिस्तान ने 1999 में सियाचिन पर भारत से धोखा किया।
दिक्कत यह है कि सियाचिन के ऊपर कोई सीमा रेखा दोनों देशों ने नहीं खींची है। नक्शे पर एक रेखा खींची हुई है, उसे ही जमीन पर एडजस्ट माना जाता है। कारगिल के पास कई जगह हंै, जहां दोनों मुल्कों के बीच बाउंड्री लाइन नहीं है। लेकिन कारगिल के पहाड़ों की चोटियों को ही दोनों देश नियंत्रण रेखा मानते रहे हैं। पर पाकिस्तान उस नियंत्रण रेखा को ही चुनौती देता आया है। कारगिल होने के बाद भी नवाज शरीफ को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने यह कहते हुए झटका दिया था कि पाकिस्तान नियंत्रण रेखा का सम्मान करे। कारगिल के बाद विश्व में बड़े-बड़े देशों ने पाकिस्तान को कहा कि वह नियंत्रण रेखा का सम्मान करे।
हमारी भी नाकामी
हालांकि भारत की सरकार, खासतौर पर पिछले दस साल में यूपीए सरकार यकीनन नियंत्रण रेखा को मानने के दबाव का फायदा नहीं उठा पाई। पाकिस्तान द्वारा 99 में हम पर हमला करने में अटल बिहारी वाजपेयी जी की भी पाकिस्तान के प्रति नीतिगत विफलता रही थी और अभी तक हम उससे सख्ती से नहीं निपट पाए हैं। जब तक पाकिस्तान के साथ अपने दम पर सख्ती से नहीं निपटेंगे, वह हमें ठेंगा दिखाता रहेगा। कारगिल के बाद भी भारत के राजनीतिक विचारों और डिप्लोमेटिक स्तर पर विफलता बनी हुई है। 15 साल बाद भी हमने पाकिस्तान के साथ पॉलिसी फ्रेमवर्क नहीं अपनाया ताकि कारगिल नियंत्रण रेखा को चुनौती देने से पाकिस्तान बाज आ सके। जब बड़े-बड़े देशों ने कह दिया कि पाकिस्तान को नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए तो क्यों नहीं हमारी सरकारों ने उस पर इसे बॉर्डर बनाने का दबाव डाला। उस नियंत्रण रेखा को बॉर्डर बनाने से कश्मीर पर हमारी चिंता कम हो जाएगी। पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि कश्मीर का मुद्दा खत्म हो जाए। वरना उसके पास भारत के खिलाफ कोई मुद्दा ही नहीं रहेगा।
फौज-बाबूओं में तालमेल नहीं
सेना के स्तर पर बात करें तो हथियार हमने पहले के मुकाबले काफी खरीदे हैं। कारगिल के बाद रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट का असर जमीन पर दिखाई भी दिया। कारगिल में जब हमारी सेना लड़ रही थी तो बहुत बुरा हाल था। सियाचिन पर तो काफी पैसा खर्च कर दिया था। लेकिन कारगिल के पहाड़ों में हमारे फौजियों के पास न तो उपयुक्त जूते थे और न ही गर्म कपड़े थे। रिव्यू कमेटी में सिस्टम को सुधारने की कर्ई और बातें भी इंगित की गई थीं। खासतौर पर साउथ ब्लॉक के नेशनल सिक्योरिटी मॉडल कोे रेखांकित किया था। नौकरशाही की क्या भूमिका रहे और फौज व उनके बीच तालमेल कैसे हो, उस बारे में लिखा गया था। लेकिन इस मामले में स्थिति वहीं की वहीं है। साउथ ब्लॉक में बैठी "बाबू" बिरादरी नहीं चाहती कि ऎसी स्थिति बन जाए, जहां उनका महत्व ही खत्म हो जाए। राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीतिक जमात तो गुमराह ही रही है, उन्हें ब्यूरोक्रेट ही चलाते रहे हैं। आज भी रक्षा मंत्रालय में जिम्मेदारी सम्भालने वाले नौकरशाहों का रक्षा के बारे में कोई स्पेशलाइजेशन नहीं होता है। कारगिल के बाद भी नौकरशाही और फौज के बीच स्थिति बदली नहीं है।
मारूफ रजा रक्षा विशेषज्ञ
कारगिल के 15 साल बाद सीमा पर हमारी क्षमताओं में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। जिन ज्यादातर हथियार-उपकरणों की मांग पहले थी वो अभी भी जारी है। अभी हमारी सरकार का जोर "फोर्स मल्टीप्लायर" हथियारों पर रहता है, जो हाथी के दांत की तरह खाने के और, दिखाने के और रहते हैं। आज भी हमारी सीमाएं बहुत सुरक्षित नहीं हो गई हैं। आज भी आतंकवादी हमलों के बाद कारगिल जैसा हमला होने की ही आशंका है। अभी भी नियंत्रण रेखा पर तनाव बना हुआ है। बार-बार पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर का उल्लंघन होता है। हमारे सैनिक मारे जाते हैं।
समझौते के नाम पर धोखा
पाकिस्तान का सियाचिन और कश्मीर को हासिल करने का ख्वाब पुराना है। इसके लिए जब-तब वह नाकाम कोशिश करता रहा है। भारत-पाकिस्तान की सेनाओं के बीच जब एलओसी पर शांति बनाए रखने के लिए समझौता हुआ था तो उसमें यह भरोसा शामिल था कि सियाचिन क्षेत्र में सर्दी में बहुत कड़क बर्फ गिरती है तो दोनों मुल्कों की सेना की टोलियां बर्फीले पहाड़ों से नीचे आ जाएंगी ताकि सर्दी में उनका जीवन आसान हो जाए। बर्फ गिरना बंद होने के बाद दोनों देश फिर मोर्चा सम्भाल लेंगे। पर पाकिस्तान ने 1999 में सियाचिन पर भारत से धोखा किया।
दिक्कत यह है कि सियाचिन के ऊपर कोई सीमा रेखा दोनों देशों ने नहीं खींची है। नक्शे पर एक रेखा खींची हुई है, उसे ही जमीन पर एडजस्ट माना जाता है। कारगिल के पास कई जगह हंै, जहां दोनों मुल्कों के बीच बाउंड्री लाइन नहीं है। लेकिन कारगिल के पहाड़ों की चोटियों को ही दोनों देश नियंत्रण रेखा मानते रहे हैं। पर पाकिस्तान उस नियंत्रण रेखा को ही चुनौती देता आया है। कारगिल होने के बाद भी नवाज शरीफ को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने यह कहते हुए झटका दिया था कि पाकिस्तान नियंत्रण रेखा का सम्मान करे। कारगिल के बाद विश्व में बड़े-बड़े देशों ने पाकिस्तान को कहा कि वह नियंत्रण रेखा का सम्मान करे।
हमारी भी नाकामी
हालांकि भारत की सरकार, खासतौर पर पिछले दस साल में यूपीए सरकार यकीनन नियंत्रण रेखा को मानने के दबाव का फायदा नहीं उठा पाई। पाकिस्तान द्वारा 99 में हम पर हमला करने में अटल बिहारी वाजपेयी जी की भी पाकिस्तान के प्रति नीतिगत विफलता रही थी और अभी तक हम उससे सख्ती से नहीं निपट पाए हैं। जब तक पाकिस्तान के साथ अपने दम पर सख्ती से नहीं निपटेंगे, वह हमें ठेंगा दिखाता रहेगा। कारगिल के बाद भी भारत के राजनीतिक विचारों और डिप्लोमेटिक स्तर पर विफलता बनी हुई है। 15 साल बाद भी हमने पाकिस्तान के साथ पॉलिसी फ्रेमवर्क नहीं अपनाया ताकि कारगिल नियंत्रण रेखा को चुनौती देने से पाकिस्तान बाज आ सके। जब बड़े-बड़े देशों ने कह दिया कि पाकिस्तान को नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए तो क्यों नहीं हमारी सरकारों ने उस पर इसे बॉर्डर बनाने का दबाव डाला। उस नियंत्रण रेखा को बॉर्डर बनाने से कश्मीर पर हमारी चिंता कम हो जाएगी। पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि कश्मीर का मुद्दा खत्म हो जाए। वरना उसके पास भारत के खिलाफ कोई मुद्दा ही नहीं रहेगा।
फौज-बाबूओं में तालमेल नहीं
सेना के स्तर पर बात करें तो हथियार हमने पहले के मुकाबले काफी खरीदे हैं। कारगिल के बाद रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट का असर जमीन पर दिखाई भी दिया। कारगिल में जब हमारी सेना लड़ रही थी तो बहुत बुरा हाल था। सियाचिन पर तो काफी पैसा खर्च कर दिया था। लेकिन कारगिल के पहाड़ों में हमारे फौजियों के पास न तो उपयुक्त जूते थे और न ही गर्म कपड़े थे। रिव्यू कमेटी में सिस्टम को सुधारने की कर्ई और बातें भी इंगित की गई थीं। खासतौर पर साउथ ब्लॉक के नेशनल सिक्योरिटी मॉडल कोे रेखांकित किया था। नौकरशाही की क्या भूमिका रहे और फौज व उनके बीच तालमेल कैसे हो, उस बारे में लिखा गया था। लेकिन इस मामले में स्थिति वहीं की वहीं है। साउथ ब्लॉक में बैठी "बाबू" बिरादरी नहीं चाहती कि ऎसी स्थिति बन जाए, जहां उनका महत्व ही खत्म हो जाए। राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीतिक जमात तो गुमराह ही रही है, उन्हें ब्यूरोक्रेट ही चलाते रहे हैं। आज भी रक्षा मंत्रालय में जिम्मेदारी सम्भालने वाले नौकरशाहों का रक्षा के बारे में कोई स्पेशलाइजेशन नहीं होता है। कारगिल के बाद भी नौकरशाही और फौज के बीच स्थिति बदली नहीं है।
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